संपादकीय : आइये उम्मीदों से भरा इस नया साल में हम अतीत से सबक लेकर भविष्य को बेहतर बनाने का संकल्प लें.

विनोद आनंद 

वर्ष 2024 के अवसान और 2025 के आगमन पर हम अह्लादित हैं! इस नई आशाओं के साथ हमने नए वर्ष में प्रवेश किया है.

आशा है यह वर्ष हमारे जीवन में खुशियाँ लाये....और भारत के विकास दुनिया में शांति और समस्त मानव जाति के कल्याण के लिए लोग आगे आये.

 गुजरे साल में टकराव, हिंसा और हादसों का सिलसिला चलता रहा,कई बदलाव भी हुए. हमने कई महत्वपूर्ण लोगों को खोया भी. अभी-अभी हमने आदरणीय पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को खोया है यें सिर्फ भारत हीं नहीं बल्कि दुनिया भर के लोगों के लिए एक ऐसे उदाहरण थे जिनकी विनम्रता, सादगी,सुचिता और प्रखर बुद्धि ने वैश्विक स्तर पर लोगों को प्रभावित किया. इतिहास इन्हें कभी नहीं भूलेगा.

वे विश्व के महान अर्थशास्त्री में से एक थे. भारत को आर्थिक संकट से निकाल कर विकास के बुनियाद की नींव रखी थी. भारत के वित्त मंत्री और फिर 10 वर्षों तक प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने जो किया उस से भारत आर्थिक मंच पर उभर कर सामने आया. वैश्विक मंदी की मार से भी भारत बच गया और हमारी अर्थनीति भी मज़बूत हुई. 

पर दुर्भाग्य रहा कि भारत में गिरते राजनितिक प्रतिस्पर्धा और सत्ता तक पहुँचने की होड़ ने उनके कार्यों, उनके व्यक्तित्व, सद्गुणों पर अभिमान करने के बजाय उन्हें टारगेट किया. लेकिन किसी की महानता, उनके सद्गुण और उसका कार्य कभी भी किसी आलोचना से प्रभावित नहीं होता. आने वाले समय में उसका मूल्यांकन होता है.जो आज हो रहा है. दुनियां के साथ साथ उनके आलोचक भी इसे बखूबी समझ रहे हैं.

इसीलिए हमें यह समझना चाहिए कि राजनीतिक प्रतिस्पर्द्धा की कोई सीमा नहीं होती, मगर उससे देश का विकास और आमजन की बेहतरी प्रभावित न हो, यह सुनिश्चित करना हम सबका कर्तव्य है.

आज राजनितिक मर्यादा गिरा है. राजनेता अपने उद्देश्यों से भटक गए हैं. भारत की जनता उन्हें इस उम्मीद से संसद भेजा कि हमारी बेहतरी के लिए वे हमारे शासन व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करें और हमारे बेहतरी के लिए विकास और समावेशी समाज के लिए सफल प्रबंधन करें. 

लेकिन यह उम्मीद साकार होता नहीं दिख रहा है. संवैधानिक पद पर बैठे लोगों कि भाषा,अपने विरोधी के प्रति उनके आचरण, भारत के संवैधानिक संस्थाओं का दुरूपयोग, एक दूसरे के प्रति बदले की भावना ने भारतीय लोकतंत्र की मर्यादा को तार-तार कर दिया है.यह हमारे संस्कृति और परम्परा के विपरीत है. जिस पर राजनेताओं को गंभीरता से विचार करना जरुरी है, 

संसद को अपने राजनीतिक अखाड़ा नहीं बनाना चाहिए, बल्कि जनता ने जिस जिम्मेवारी के साथ आप को वहां तक पहुँचाया है उसका निर्वहन ईमानदारी से करना चाहिए, आशा है इस आनेवाले वर्ष में इस बात को ध्यान रखा जायेगा.

आशा है कि हमने नए वर्ष में शांति और समाधान की सशक्त हुई संभावनाओं के साथ कदम रखा है.आज वैश्विक दौर में हम आगे बढ़ रहे हैं कथित तौर पर हम विश्व के बड़े आर्थिक शक्ति बनने के दिशा में अग्रसर हैं. अभी हम विश्व के पांचवे आर्थिक शक्ति हैं, आने वाले दिनों में तीसरे पयदान पर पहुंचने वाले हैं लेकिन इसके वाबजूद आज भी 80 करोड़ से भी ज्यादा लोगों मुफ्त राशन पर रहना पड़ता है.

आज भी भारत के ग्रामीण इलाकों में रहने वाली कुल आबादी में से 25.7% लोग गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हैं, जबकि शहरी इलाकों में स्थिति थोड़ी बेहतर है, जहाँ 13.7% आबादी गरीबी रेखा से नीचे रह रही है.

संयुक्तराष्ट्र द्वारा जारी “वैश्विक बहुआयामी गरीबी सूचकांक 2024” में कहा गया है कि भारत में सबसे अधिक गरीब रहते हैं। 

रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में 110 करोड़ लोग बहुआयामी गरीबी में जीवन काट रहे हैं, जिनमें से 23.4 करोड़ भारतीय हैं। मतलब कि बहुआयामी गरीबी से जूझ रही 21 फीसदी आबादी भारत में है।

सितंबर, 2023 के अंत में विदेशी कर्ज 637.1 अरब डॉलर था. वित्‍त मंत्रालय ने 'भारत की तिमाही विदेशी ऋण' शीर्षक से जारी रिपोर्ट में कहा है कि सितंबर, 2024 में देश का विदेशी कर्ज 711.8 अरब डॉलर था, जो जून, 2024 के मुकाबले 29.6 अरब डॉलर (करीब 2.52 लाख करोड़ रुपये) अधिक है.हमें इस असंतुलन को व्यवस्थित करना होगा. तभी हम मज़बूत भारत और आत्मनिर्भर भारत की कल्पना कर सकते हैं.

आज हम इस तरह कई चुनौतियों से गुजर रहे हैं, लेकिन इसके वाबजूद सत्ता के शीर्ष पर बैठे लोगों को अपनी व्यक्तिगत महत्वकांक्षाएं और पक्ष विपक्ष को नींचा दिखाने, बदले की भावना से कार्य करने में दिन बीत रहा है. उम्मीद है इस आने वाले वर्षों में राजनेता इस मायाजाल से बाहर निकले और देश की विकास,जनता के बेहतरी,और अपने गरिमा की रक्षा के दिशा में सही चिंतन कर सके.

आज हमें समय के महत्व को समझना होगा और अपने दायित्व को ईमानदारी से निभाना होगा. अतीत में किसने क्या किया उसकी आलोचना के बजाय आप क्या कर रहे हैं अपनी शक्ति को उस पर केंद्रित कीजिये क्योंकि इतिहास उसे हीं याद रखेगा, आपने जो किया या आपके पूर्व में जो कोई कुछ किया उसकी विवेचना आपको करने में समय वर्बाद नहीं करना चाहिए.इसको आनेवाले पीढ़ी के लिए छोड़ दीजिए, इसका मूल्यांकन वही करेगा.

आपको इस लिए लोगों ने मौका दिया है कि आप कुछ पहले से बेहतर कीजिये उम्मीद है हमारे राजनेता इस बात का संकल्प लेंगें और बेहतर करने के दिशा में अग्रसर होंगे.

अंत में देश की सभी सियासी पार्टियां, सामाजिक-सांस्कृतिक संगठन एवं आमजन यह संकल्प लें कि इस साल को सद्भाव एवं सहमति का दौर बनाने के दिशा में काम करेंगे और अतीत से सबक लेकर भविष्य को वेहतर बनाएंगे.

विश्लेषण : हेमंत सोरेन की नई सरकार के सामने क्या है चुनौतियाँ और उससे निपटने के लिए कैसी हो रणनीति

 आलेख :- विनोद आनंद 

झारखंड में हेमंत सोरेन के नेतृत्व में लगातार एक तिहाई बहुमत से दूसरी बार गठबंधन की सरकार का गठन होना एक महत्वपूर्ण राजनीतिक घटना है. 2023 के विधानसभा चुनावों में मिली भारी जीत ने उनके नेतृत्व में जनता की उम्मीदों को और भी बढ़ा दिया है। हालांकि, नई सरकार के समक्ष कई चुनौतियाँ खड़ी हैं, जिनसे निपटने के लिए एक ठोस दृष्टिकोण की आवश्यकता है.

इस आलेख में हम उन चुनौतियों का विश्लेषण करेंगे और यह भी जानेंगे कि सरकार इनसे कैसे निपट सकती है.

वित्तीय प्रबंधन की चुनौती

हेमंत सरकार के लिए सबसे पहली और बड़ी चुनौती है वित्तीय प्रबंधन का मुद्दा. झारखंड की वितीय स्थिति सुधारना अनिवार्य है, क्योंकि पिछले योजनाओं के कारण सरकार पर वित्तीय बोझ बढ़ गया है.इसके लिए निम्नलिखित कदम उठाए जा सकते हैं.

राजस्व संग्रह बढ़ाना:

 

सरकार को राजस्व संग्रह में वृद्धि के लिए नई नीतियों की रूपरेखा बनानी होगी। यह प्रक्रियाएं कर संग्रहण में सुधार, टैक्स आधार को व्यापक बनाना होगा.इसके लिए अवैध खनन रोक लगानी होगी और उसे बैध तरीका से लीज देकर एक बड़ी राजस्व की व्यवस्था की जा सकती है. यहां बालू, पत्थर कई ऐसे खनिज है जिसे प्रकृति ने गिफ्ट के तौर पर झारखण्ड को दिया है, जिसके प्रबंधन से हम बेहतर राजस्व की विकास की जा सकती है और राज्य के राजस्व में बृद्धि किया जा सकता है.इसके लिए डिजिटल प्लेटफार्मों का उपयोग कर टैक्स प्रणाली को सरल और पारदर्शी बना कर एक प्रभावी कदम उठाया जा सकता है.

खर्चों का पुनरावलोकन:

सरकार को सार्वजनिक खर्चों का पुनरावलोकन करना होगा. सरकारी योजनाओं के कार्यान्वयन में पारदर्शिता और जवाबदेही सुनिश्चित करने के लिए अति आवश्यक है कि अनावश्यक खर्चों को कम किया जाए. इससे वित्तीय प्रबंधन को बेहतर बनाने में मदद मिल सकती है.

साझेदारी और निवेश

 

सरकार को निजी क्षेत्र के साथ साझेदारी बढ़ाना होगा. निवेश को आकर्षित कर विकास की गति को तेज करना आवश्यक है. संभावित निवेशकों के लिए ठोस नीति और संरचना तैयार करने की आवश्यकता है, जिससे रोजगार सृजन और आर्थिक विकास को बढ़ावा मिल सके.

 वादों को पूरा करने की चुनौती

विधानसभा चुनावों के दौरान हेमंत सरकार ने कई वायदे किये उसको पूरा करना सरकार के सामने सबसे बड़ी चुनौती है.इसके लिए सरकार को अतिरिक्त बोझ का भार बढेगा. जिससे अन्य योजनाओं के लिए बजट की कटौती करना होगा. जो सरकार के लिए बहुत बड़ी चुनौती है.इसके लिए राज्य के रिसोर्स से धन सग्रहण,और जनता पर टैक्स की ऐसी रणनीति की जरूरत होगी जो जनता को महसूस नहीं हो की उनपर अतिरिक्त बोझ डाला जा राहा है. इस दिशा में हेमंत सरकार को निम्नलिखित उपाय करने चाहिए:

परिपूर्ण कार्य योजना बनाना:

  

सरकार को सभी वादों के लिए एक कामकाजी योजना तैयार करनी चाहिए, जिससे यह सुनिश्चित किया जा सके कि वादे समय सीमा के भीतर पूरे हों. योजनाओं का मानिटरिंग और मूल्यांकन नियमित रूप से किया जाना चाहिए, ताकि सुधार की आवश्यकता पर त्वरित कार्रवाई की जा सके.

सामाजिक जागरूकता कार्यक्रम:

राज्य की जनता को सरकार की योजनाओं के लाभों को समझाना भी महत्वपूर्ण है. इसके लिए सामाजिक जागरूकता कार्यक्रम चलाए जाने चाहिए, जिससे ज्यादा से ज्यादा लोग योजनाओं से जुड़े और अपने अधिकारों को समझ सकें.

साफ-सुथरी प्रशासनिक प्रक्रियाएँ

कामकाजी प्रक्रियाओं को प्राथमिकता देते हुए इसे सरल और पारदर्शी बनाना होगा. इससे निगमों और व्यक्तियों के लिए मदद मिलती है और योजनाओं का लाभ प्रभावी तौर पर जनता तक पहुंचता है. इसके लिए प्रशासन को सख्त निर्देश देना होगा की जो भी लाभूक आप के पास जाए और जिसके लिए योजनायें तैयार हुई है वह उस तक सही से पहुँच सके.

पेसा और अन्य नीतियों का कार्यान्वयन

सरकार जनता के मांगो को पूरा करने और उनके भरोसे को और मज़बूत बनाने के लिए उनके लिए हर उस बुनियादी योजनाओं के प्रति गंभीर होना होगा जो उसके लिए जरुरी है. इसके लिए पेसा कानून और अन्य स्थानीय नीतियों का कार्यान्वयन हेमंत सोरेन सरकार के लिए एक महत्वपूर्ण चुनौती है। इससे निपटने के लिए निम्नलिखित उपाय आवश्यक हैं:

स्थानीय संवाद एवं कार्यशालाएं:

पेसा कानून के तहत स्थानीय परिषदों और समुदायों के सदस्यों के साथ संवाद बढ़ाना होगा। कार्यशालाओं का आयोजन कर लोगों को स्थानीय नीतियों के महत्व और उनके कार्यान्वयन के तरीकों से अवगत कराया जा सकता है।

नियमों के प्रति जन जागरूकता:

स्थानीय निवासियों के लिए नियमों और नीतियों के बारे में जानकारी प्रदान करना आवश्यक है। इससे उन्हें अपने अधिकारों का सही ज्ञान होगा और वे उन नीतियों को अमल में लाने में मदद कर सकेंगे।

लाभार्थियों के चयन की प्रक्रिया को स्वच्छ बनाना:

पेसा कानून के लाभार्थियों का चयन करते समय प्रक्रिया को पारदर्शी बनाना होगा। इससे स्थानीय लोगों का विश्वास जीतना संभव होगा, जो सरकार की नीतियों के वास्तविक कार्यान्वयन में मदद करेगा।

शिक्षा और कृषि उत्पादन की चुनौती

शिक्षा और कृषि उत्पादन के स्तर को बढ़ाना हेमंत सरकार के सामने एक महत्वपूर्ण कार्य है। इसके लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

शिक्षा में सुधार:

राज्य के विद्यालयों और महाविद्यालयों में सुधार लाना जरूरी है। शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रम आयोजित किए जा सकते हैं, जिससे शिक्षकों की गुणवत्ता में सुधार हो सके। साथ ही, समग्र शिक्षा प्रणाली की समीक्षा की जानी चाहिए ताकि छात्रों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मिल सके।

कृषि विकास के लिए संसाधन:

कृषि को बढ़ावा देने के लिए सरकार को मूल्यांकन करना होगा कि किसानों को कौन सा संसाधन चाहिए। सिंचाई, बीज, और खाद के सही वितरण सुनिश्चित करने के लिए सरकार को आधारभूत ढांचा मजबूत करना होगा। इसके साथ, नई कृषि तकनीकों के बारे में किसानों को जागरूक करना महत्वपूर्ण है।

कृषि का वित्तीय प्रबंधन:

कृषि ऋण के पैटर्न का पुनर्विचार करना आवश्यक हो सकता है। सरकार को सुनिश्चित करना होगा कि सभी किसानों को समय पर ऋण मिले ताकि वे बेहतर उत्पादन कर सकें।

गठबंधन में समन्वय की चुनौती

गठबंधन में समन्वय बनाना भी हेमंत सोरेन की सरकार के लिए एक चुनौती होगी। इसके लिए निम्नलिखित उपाय किए जा सकते हैं:

समर्पित संवाद प्लेटफॉर्म

  

गठबंधन के सभी दलों के नेताओं के बीच नियमित संवाद का एक प्लेटफॉर्म सुनिश्चित किया जाना चाहिए, ताकि मुद्दों पर खुलकर चर्चा हो सके। इससे सभी दलों के बीच सामंजस्य बना रह सकेगा।

सहयोगी दलों की जिम्मेदारी तय करना:

हर सहयोगी दल को अपनी जिम्मेदारियों का एहसास कराना चाहिए। इससे नेतृत्व में बेहतर तालमेल और एकता बनी रहेगी।

सामाजिक गतिविधियों में सहयोग:

गठबंधन के दलों को संयुक्त सामाजिक गतिविधियों में भाग लेना चाहिए। इससे स्थानीय स्तर पर एकता बढ़ेगी और सरकार के प्रति जनता का विश्वास मजबूत होगा।

 निष्कर्ष

हेमंत सोरेन की सरकार को इन चुनौतियों का सामना करने के लिए एक ठोस और सुनियोजित रणनीति पर काम करना होगा। आवश्यकतानुसार नीतियों में संशोधन और कार्यान्वयन की प्रक्रियाओं को सरल और पारदर्शी बनाना होगा। साथ ही, सरकार को जनता की आकांक्षाओं को पूरा करने के लिए हर संभव प्रयास करना चाहिए। यदि यह सरकार इन चुनौतियों का सामना सफलतापूर्वक करती है, तो यह न केवल झारखंड के विकास में सहायक साबित होगा बल्कि जनता का विश्वास भी जीतेगा। ऐसे में, झारखंड एक सफल और समृद्ध राज्य के रूप में सामने आ सकता है।

सम्पादकीय: झारखण्ड-असम विवाद और असम में बसे झारखंडी आदिवासियों की स्थिति को लेकर चल रही कोल्ड बार का क्या होगा हश्र...?

विनोद आनंद

 झारखण्ड और असम के बीच इन दिनों कोल्ड बार चल रहा है, यह देश की राजनीति के लिए एक जटिल स्थिति उत्पन्न हो सकती है. इसका हश्र क्या होगा यह तो आने वाला समय तय करेगा लेकिन इस कोल्डबार को दोनों राज्यों के सीएम को विवेक और राजनीति से ऊपर उठ कर रोकना होगा अन्यथा जटिल राजनितिक स्थिति उत्पन्न हो जायेगी.

बात कर रहे हैं हम असम में झारखण्ड से ले जाकर बसाये गए टी ट्राइब के आदिवासियों को लेकर. उनकी स्थिति, के आकलन के लिए हेमंत सरकार एक सर्वदलीय टीम भेज रही है जो उनकी सामाजिक और आर्थिक स्थिति का आकलन करेगी और उन्हें अपने घर वापसी के लिए आमंत्रित करेगी. हेमंत सरकार के इस कदम से राजनीतिक बवंडर उठने लगा है। ये आदिवासी 1840 में अंग्रेजों द्वारा चाय बागानों में काम करने के लिए असम ले जाए गए थे, और आज इनकी जनसंख्या लगभग 20 लाख है. असम के चुनावों में यह समुदाय एक महत्वपूर्ण वोट बैंक के रूप में उभरा है, लेकिन असम सरकार ने अब तक इन्हें आदिवासी का दर्जा नहीं दिया है.

हेमंत सरकार का यह कदम असम सरकार के लिए एक बड़ा खतरा बन सकता है. असम की अर्थव्यवस्था खास तौर पर चाय उत्पादन पर निर्भर करती है, और यदि ये आदिवासी वापस लौटते हैं तो इससे चाय बागानों में कार्यरत श्रमिकों की कमी उत्पन्न हो सकती है. यही नहीं, इससे असम की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था भी प्रभावित हो सकती है.क्योंकि असम की अर्थव्यवस्था में इन चाय बागान का 5000 करोड़ का योगदान है. इसके साथ हीं 3000 हज़ार करोड़ का विदेशी करेंसी भी इन चाय उत्पादन से आता है. इन बगानो में 7 लाख मज़दूर काम करते हैं जिसमे अधिकतर आदिवासी हैं जो झारखण्ड से जाकर वहां बसे हैं.अगर ये आदिवासी झारखण्ड सरकार द्वारा घर वापसी के प्रस्ताव से झारखण्ड वापस आने को तैयार हो गए तो इन चाय बगानों में काम करने वाले मज़दूरों की कमी होंगी साथ हीं इससे से दोनों राज्यों में टकराव भी बढेगा.

अब असम की सरकार को न केवल चाय उद्योग पर ध्यान देना होगा, बल्कि इस समुदाय के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन और पहचान को भी बचाना होगा.

माना जा रहा है कि हेमंत सरकार का आदिवासियों की 'घर वापसी' का प्रस्ताव केवल एक राजनीतिक चाल नहीं है, बल्कि झारखण्ड में अपने समुदाय को एकजुट करने का एक प्रयास भी है. इससे हेमंत सोरेन की लोकप्रियता में इजाफा होगा, और वे अपने समुदाय के साथ-साथ नए वोटर्स का समर्थन भी हासिल कर सकेंगे.

इस लड़ाई में किसकी होगी जीत किसकी होगी हार ?

इस सियासी संग्राम और दाव पेंच में जीत किसकी होगी, यह भविष्य के घटनाक्रम पर निर्भर करेगा. यदि झारखण्ड की सरकार अपनी योजना को प्रभावी तरीके से लागू करती है और आदिवासियों को उनकी संस्कृति और पहचान के साथ-साथ उचित अधिकार भी देती है, तो झारखण्ड को निश्चित रूप से फायदा होगा.वहीं, असम सरकार को भी इस मौजूदा स्थिति को संभालने के लिए किसी उचित समाधान की तलाश करनी होगी.

वैसे भाजपा के लिए, यह एक महत्वपूर्ण अवसर है कि वे झारखण्ड में अपनी स्थिति को मजबूत करने के लिए रणनीतियाँ बनाये भड़काऊ भाषणों से अभी दूर रहे,आदिवासियों के हितों की अनदेखी ना करे, इससे भाजपा की छवि को नुकसान हो सकता है, और इससे पार्टी के जनाधार में कमी आ सकती है.

इस बार के चुनाव से भाजपा समझ गयी है कि आदिवासी समुदाय का समर्थन हासिल करना उनके लिए एक चुनौती है, क्योंकि वे अब अपने अधिकारों को लेकर सावधान हो चुके हैं. यदि उनकी आवाज़ों को अनसुना किया गया, तो यह असम और झारखण्ड दोनों के लिए बड़ी परेशानी का कारण बन सकता है.

इस समय दोनों राज्यों के बीच यह विवाद एक नाजुक स्थिति में है. सचाई यह है कि राजनीतिक आकांक्षाएँ और सामाजिक सरोकार एक-दूसरे से टकरा रहे हैं. राजनीतिक दलों को चाहिए कि वे इस संकट को अवसर में बदलने के लिए विवेक से काम लें और आपसी संवाद को बढ़ावा दें. 

निष्कर्ष

कोल्ड बार का यह मुद्दा केवल आदिवासी समुदाय की स्थिति से ही नहीं, बल्कि असम और झारखण्ड की राजनीति में बदलाव का भी संकेत है. अगर हमें एक सजग सामाजिक परिवर्तन की दिशा में बढ़ना है, तो दोनों राज्यों की राजनीति को संतुलित और समझदारी से आगे बढ़ाना होगा. आदिवासियों के अधिकारों और पहचान को सुरक्षित करना, एक प्राथमिकता होनी चाहिए. 

सिर्फ वही क्षेत्र और वह राजनीतिक दल सफल होंगे जो अपने लोगों के साथ न्याय करेंगे, और उनके हितों का ध्यान रखेंगे. इस राजनीति में जीत-हार के बजाय, जनहित और सामाजिक समरसता की आवश्यकता है, ताकि इस क्षेत्र में स्थायी समाधान खोजा जा सके.

सम्पादकीय: आज खाद्य पदार्थों की गुणवत्ता, कैसर जनित उत्पादों का वाहिष्कार और सामाजिक जागृति के लिए सरकार और समाज को सजग होने की जरूरत

विनोद आनंद 

हाल ही में प्रसिद्ध क्रिकेटर और राजनेता नवजोत सिंह सिद्धू,ने कैंसर से जूझ रही अपनी पत्नी की स्वास्थ्य को लेकर एक बयान जारी किया था.उनकी पत्नी फोर्थ स्टेज कैंसर से जूझते हुए जिंदगी की लड़ाई लड़ रही थी.डॉक्टरों ने उन्हें इलाज और सर्जरी के बाद, कहा की इनके जीवन के 5%उम्मीद है, स्वाभाविक रूप से कोई भी व्यक्ति हताश हो जायेगा और ऐसे परिस्थिति में और भी इलाज की रास्ता ढूंढेगा. यही नवजोत सिंह सिद्धू ने किया, सोसल साईट और अन्य अध्ययन के आधार पर डाइट प्लान और हर्बल खाद्य द्वारा उनकी पत्नी को लाभ मिला और उनकी जाँच निगेटिव आयी, वे इतने खुश और उत्साहित हुए कि अपनी पत्नी कि स्वास्थ्य को लेकर वर्तमान स्थिति को मीडिया से शेयर किया. इसको लेकर कुछ चिकित्स्कों कि प्रतिक्रिया आयी कि इस तरह के इलाज़ के भरोसे कोई भी मरीज नहीं रहे बल्कि चिकित्साकीय सलाह और प्रॉपर इलाज़ जरूर कराएं.

मैं भी ऐसा हीं सलाह देना चाहूंगा कि कोई भी मरीज सिर्फ डाइट और हर्बल इलाज के भरोसे ना रहें, विशेषज्ञ चिकित्स्कों की देख रेख में इलाज जरूर कराएं. साथ हीं चिकित्सकों और आयुष मंत्रालय से यह भी कहना चाहूंगा कि अगर इलाज के साथ अगर डाइट और हर्बल से लाभ कि संभावना है तो इस दिशा में और रिसर्च हो और मरीज को जरूर इस के सहारे बिमारी से जल्द उबड़ने कि सलाह दें.

वैसे यह अत्यंत संवेदनशील विषय है स्वास्थ्य में सुधार के लिए घरेलू उपायों को प्राथमिकता देने वाले बयान ने एक नई बहस को जन्म दिया है.

अब यह ट्रेंडिंग खबर इसलिए बंन गयी है कि एक सिविल सोसाइटी संगठन ने सिद्दू द्वारा साझा की गयी यह जानकारी को भ्रामक बताते हुए इसे स्वास्थ्य के महत्वपूर्ण मुद्दों पर अनुचित प्रभाव डालने वाला बताया है. और सिविल सोसाइटी के संगठन की ओर से सिद्धू को 850 करोड़ रुपये का नोटिस भेजा गया.सिविल सोसाइटी के इस कारबाई पर मैं यह नहीं कहना चाहता हूँ कि यह नोटिस उचित है या अनुचित. लेकिन सिविल सोसाइटी का ध्यान इस ओर जरूर आकृष्ट करना चाहूंगा कि सिर्फ भ्रम फैलाने या सिद्धू जैसे महत्वपूर्ण लोगों के इस तरह के दावे से लोगों के अंदर गलतफहमी हो सकती है जैसे मुद्दा के साथ हीं आज बाजार में कैंसर फैलाने वाले उत्पाद, खाद पदार्थों में मिलावट से मानव जीवन का अस्तित्व खतरा में है इस पर भी क्यों नहीं कारबाई की जा रही है, इसके जिम्मेबार लोगों को क्यों नहीं नोटिश भेजी जा रही है, इन सब के बिरुद्ध कोई भी समाजिक संघठन क्यों नहीं आगे आ रही है. यह एक बड़ा सवाल आज खड़ा हो गया है.

आज हम जब समाज में व्याप्त स्वास्थ्य पर खतरों पर विचार करते हैं, तो बाज़ारों में कई ऐसे उत्पाद लोगों के जीवन के लिए खतरा बन गया है. जिस पर हर सामाजिक संगठन के साथ सरकारी तंत्र को गंभीर होने और इस दिशा में जागरूकता के साथ कठोर कारबाई की जरूरत है, लोगों के जीवन से खिलबाड़ करने वाले लोगों से आर्थिक जुर्माना के साथ कानूनी कारबाई जरुरी है.

समाज में नकली उत्पादों का संकट

वर्तमान समय में खाद्य उत्पादों और घरेलू चीजों की गुणवत्ता एक बड़ा मुद्दा बन चुकी है। नकली मसाले, प्लास्टिक चावल,आँटा में मिलावट, पैक्ड मसालों में कैंसर जनित केमिकल्स की मिलावट, चाइनीज चावल,लहसून, सब्जी को हरा रखने के लिए हरे रसायनिक पदार्थ और अन्य स्वस्थता पर प्रतिकूल प्रभाव डालने वाले उत्पादों का व्यापक रूप से बाजार में संचालन जो न सिर्फ कैंसर बल्कि किडनी और लिवर जैसी गंभीर बीमारियों को बढ़ावा दे रहा है.इसकी बहुत लम्बी लिस्ट है जो स्वास्थ्य के लिए प्रतिकूल है 

 हाल के अध्ययनों में यह बात सामने आई है कि हमारे आहार में मौजूद कई सामग्रियां, जैसे कि कैमिकल्स और हानिकारक तत्व, हमारे स्वास्थ्य पर भयानक प्रभाव डाल रहे हैं।

इन उत्पादों की बिक्री का तंत्र समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार और पारदर्शिता की कमी का भी प्रमाण है। जब हम जल्दी से लाभ कमाने की कोशिश करते हैं, तब हम अपने स्वास्थ्य की कीमत पर घाटे में जाते हैं।ऐसे समानो ओर प्रतिबंध लगाने के लिए कोई भी संगठन क्यों नहीं आगे आ रही है.

सिविल सोसाइटी की भूमिका

सिविल सोसाइटी का मुख्य कार्य सामाजिक स्वास्थ्य और कल्याण की रक्षा करना, लेकिन यह देखना बेहद अनिश्चित है कि क्यों ऐसी संस्थाएँ केवल एक विवादास्पद बयान पर प्रतिक्रिया देती हैं, जबकि वे उन हानिकारक उत्पादों के खिलाफ चुप्पी साधे रहती हैं जो व्यापक स्तर पर समाज को नुकसान पहुँचा रहे हैं. यहाँ पर प्रश्न उठता है कि क्या समाज के संगठन केवल निषेधात्मक बयानों पर ध्यान देते हैं, या वास्तविक स्वास्थ्य संकटों की ओर भी उनकी नज़र जाती है?

सिविल सोसाइटी को यह समझना चाहिए कि संतुलित आहार और स्वास्थ्य के अधिकार को बढ़ावा देने के लिए सामूहिक प्रयासों की आवश्यकता होती है. उन्हें उन कारको पर ध्यान केन्द्रित करना चाहिए जो दीर्घकालिक स्वास्थ्य संकट का कारण बन सकते हैं. 

हानिकारक उत्पादों की जांच

नकली खाने के उत्पादों की अनुपस्थिति में, सरकार को खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर कठोर कदम उठाने की आवश्यकता है. 

उपभोक्ताओं को यह जानने का अधिकार होना चाहिए कि जो वे खा रहे हैं, वह सुरक्षित है या नहीं. इसके लिए आवश्यक है कि खाद्य मानक प्राधिकरण को और अधिक सशक्त और सक्रिय बनाए जाए. 

सामाजिक संगठनों को खाद्य सुरक्षा के मुद्दे पर जागरूकता फैलाने, उपभोक्ता शिक्षा, और स्वास्थ्य के अधिकारों के प्रति भी जागरूक करना चाहिए. इसके साथ ही, उन्हें उत्पादकों के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने में भी सक्षम बनाना चाहिए, ताकि वे उस माल की गुणवत्ता और मानक का पालन कर सकें जो वे बाजार में लाते हैं.

समाज की जिम्मेदारी

एक स्वस्थ समाज का निर्माण केवल सरकारी प्रयासों पर निर्भर नहीं है, बल्कि यह समाज के हर सदस्य की जिम्मेदारी है. हमें अपनी वस्तुओं के बारे में जागरूक रहना चाहिए और केवल उन्हीं उत्पादों का चयन करना चाहिए जो प्रमाणित और सुरक्षित हैं.

उपभोक्ताओं के अधिकारों के बारे में जानकारी होना आवश्यक है, ताकि वे हानिकारक उत्पादों की पहचान कर सकें और उनके खिलाफ आवाज उठाने का साहस जुटा सकें.

निष्कर्ष

समाज में स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता लाना सबसे प्राथमिकता होनी चाहिए. हमें अच्छी गुणवत्ता वाले खाद्य पदार्थों के लिए संघर्ष करना चाहिए और उन संगठनों का समर्थन करना चाहिए जो इस दिशा में प्रयासरत हैं. जब तक हम अपनी दिनचर्या में असुरक्षित और नकली उत्पादों का उपयोग करते रहेंगे, तब तक हानिकारक बीमारियों का खतरा बना रहेगा.

स्वास्थ्य केवल सरकार की जिम्मेदारी नहीं है; यह समाज के हर सदस्य की जिम्मेदारी है. हमें अपनी आवाज उठानी होगी, अपने स्वास्थ्य के अधिकार की रक्षा करनी होगी और एक ऐसे वातावरण का निर्माण करना होगा जहाँ सभी के लिए सुरक्षित और स्वस्थ जीवन जीने की संभावना हो.

इस संदर्भ में, हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि किसी भी व्यक्ति की व्यक्तिगत और सामाजिक स्वास्थ्य के मुद्दों पर संवेदनशीलता हो और समाज मिलकर उन हानिकारक उत्पादों के खिलाफ खड़ा हो सके जो हमारे स्वास्थ्य के लिए खतरा हैं.

सम्पादकीय : झारखण्ड में नई सरकार गठन के बाद सीएम हेमंत सोरेन को विकास का एजेंडा तय करना है जरूरी...?


विनोद आनंद

झारखंड में हुई विधानसभा चुनाव में जनता ने हेमंत सोरेन और गठबंधन पर अपना पूरा भरोसा जताया और 81 सीटों में से 56 सीट पर इंडिया गठबंधन के विधायकों को चुनकर सरकार बनाने का दूसरी बार मौका दिया.अब चुनावी प्रक्रिया खत्म होने के बाद हेमंत सोरेन ने एक बार फिर से मुख्यमंत्री पद की कमान संभाली है। उनकी सरकार का गठन कई चुनौतियों और अवसरों के बीच हुआ है. हेमंत सोरेन की पहले कार्यकाल में लिए गए फैसले और उनके द्वारा किए गए विकास कार्यों की अच्छी खासी चर्चा रही है. इस बार उनके सामने कुछ नई रणनीतियों और विकास के एजेंडे तय करने की जरूरत है जिससे झारखंड की प्रगति को गति मिल सके.

सामाजिक न्याय और समावेशी विकास

हेमंत सोरेन की सरकार का प्राथमिक ध्येय सामाजिक न्याय और समावेशी विकास होना चाहिए. आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लोगों के उत्थान के लिए विशेष योजनाएं बनाई जानी चाहिए. उनकी सरकार आदिवासी अधिकारों की रक्षा, भूमि अधिकारों का संरक्षण और सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के कार्यान्वयन पर जोर दे और इसके लिए सरकार स्वयंसेवी संगठनों और स्थानीय समुदायों के साथ सहयोग कर रणनीति तय करे ताकि योजनाएं सही तरीके से लागू किया जा सकें.

शिक्षा और कौशल विकास की है जरुरत

किसी भी राज्य के विकास के लिए सबसे बुनियादी जरुरत होती है शिक्षा. जिसको कभी भी नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है. हेमंत सोरेन को यह सुनिश्चित करना होगा कि झारखंड में शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार हो. इसके लिए सरकार को प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के लिए विशेष योजनाएं बनानी होंगी साथ ही, तकनीकी शिक्षा और कौशल विकास पर भी ध्यान केंद्रित करना होगा. ताकि युवा रोजगार की प्रतिस्पर्धा में आगे बढ़ सके. इसके लिए दक्षता विकास कार्यक्रम चलाना जरुरी है. ताकि युवाओं को स्थानीय स्तर पर ही रोजगार मिल सके.

स्वास्थ्य सेवाओं का सुधार

राज्य की सबसे दूसरा बुनियादी जरुरत स्वास्थ्य सेवा है. यह आम लोगों के लिए महत्वपूर्ण जरूरत हैं. हेमंत सरकार स्वास्थ्य क्षेत्र में सुधार के लिए नई पहल की भी है लेकिन और इस दिशा में काम करने की जरुरत है ताकि लोगों को, विशेषकर ग्रामीण इलाकों में स्वास्थ्य सुविधाओं का विस्तार किया जा सके. जन औषधि केंद्र, प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र, और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों की संख्या बढ़ाई जाए. ग्रामीण स्वास्थ्य कर्मचारियों को प्रशिक्षित किया जाए., ताकि वे बेहतर से बेहतर सेवाएं लोगों को उपलब्ध हो सके.

कृषि और ग्रामीण विकास

झारखण्ड को प्रकृति ने बहुत कुछ दिया है खनिज सम्पदा, जंगल, जमीन और श्रम शक्ति, इन सभी का अगर सही प्रबंधन हो तो झारखण्ड देश का सबसे अग्रणी और विकसित राज्य बन सकती है. लेकिन दुर्भाग्य है कि अलग राज्य बने 24 वर्ष हो गए लेकिन इस दिशा ने ठोस नीति नहीं बन पायी.

अगर हम बात करें कृषि की तो झारखंड की अर्थव्यवस्था कायह एक महत्वपूर्ण हिस्सा है. हेमंत सोरेन की सरकार को कृषि को बढ़ावा देने के लिए नई तकनीक और शोध पर आधारित कार्यक्रम लानीं होंगी. जैविक खेती को बढ़ावा देना, कृषि उत्पादों का उचित मूल्य और किसानों की समस्या को हल करने के लिए उनकी सरकार को ठोस कदम उठानीं होंगी.इसके साथ ही, ग्रामीण विकास योजनाएं जैसे पीएम आवास योजना और मनरेगा को सुदृढ़ बनाने की जरूरत होंगी.

रोजगार और आर्थिक विकास

झारखंड में बेरोजगारी एक गंभीर मुद्दा है. हेमंत सोरेन की सरकार को रोजगार सृजन के लिए नई औद्योगिक नीतियों की घोषणा करनी चाहिए. छोटे और मध्यम दर्जे के उद्योगों के लिए प्रोत्साहन दिया जाना चाहिए.इसके अलावा, स्थानीय उत्पादों को बाजार में बढ़ावा देकर सरकार को सहयोग करने वाली नीति बनानी चाहिए.सरकार उद्यमिता विकास कार्यक्रमों को भी गति देगी, ताकि युवा अपनी व्यवसायिक योजनाएं लागू कर सकें.

पर्यावरण संरक्षण

पर्यावरण की रक्षा एक महत्वपूर्ण एजेंडा होगा. हेमंत सोरेन की सरकार पर्यावरण संरक्षण की दिशा में ठोस कदम उठाने की जरूरत है.वृक्षारोपण अभियान को बढ़ावा दिया जाना चाहिए और पारिस्थितिकी तंत्र के संरक्षण के लिए कानून बनाए जाए, विशेषकर जो आदिवासी समुदाय वन में रहते हैं, उनकी भागीदारी को सुनिश्चित करना जरुरी है.

डिजिटल इंडिया और तकनीकी विकास

हेमंत सोरेन की सरकार डिजिटल इंडिया मिशन पर जोर दे,शासन और प्रशासन में तकनीकी सुधार लाने के लिए ई-गवर्नेंस की दिशा में कार्य किया जाए. सरकार डेटा प्रबंधन और सूचना के आदान-प्रदान को सरल एवं सुलभ बनाने के लिए डिजिटल प्लेटफॉर्म का उपयोग करे. यह प्रक्रिया न केवल सूचनाओं के फैलाव में सहायक होगी, बल्कि भ्रष्टाचार को भी कम करने में मददगार साबित होगी.

कानून और व्यवस्था

राज्य में कानून-व्यवस्था बनाए रखना भी सरकार की प्राथमिकता होगी.शांति और सुरक्षा को सुनिश्चित करने के लिए पुलिस बल को सशक्त किया जाए और प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाए जाएंगे. साथ ही, सामाजिक सेवाओं और पुलिस के बीच बेहतर समन्वय स्थापित किया जाना चाहिए ताकि अपराधों पर नियंत्रण पाया जा सके.

सरकार की पारदर्शिता

हेमंत सोरेन की सरकार पारदर्शिता और जन सहभागिता पर जोर देना जरुरी है . लोगों को सरकारी योजनाओं की जानकारी और लाभ पहुंचाने के लिए एक उचित सूचना प्रणाली विकसित की जाए. इससे सरकारी तंत्र में भ्रष्टाचार को कम किया जा सकेगा और लोगों का विश्वास फिर से सरकारी संस्थाओं पर बनाया जा सकेगा.

निष्कर्ष

यह स्पष्ट है कि हेमंत सोरेन की नई सरकार के सामने विकास के साथ-साथ कई चुनौतियाँ हैं. समाज के हर वर्ग को ध्यान में रखते हुए योजनाएं लागू करना और समावेशी विकास की दिशा में प्रयास करना आवश्यक है. अगर हेमंत सोरेन अपने अनुभवों और ज्ञान का सही उपयोग करते हैं, तो झारखंड को विकास के नए आयामों में ले जाने में सफल हो सकते हैं. उनकी सरकार की योजनाएं और नीतियां न केवल राज्य के लिए, बल्कि आदिवासी और पिछड़े वर्ग के लिए भी एक नई दिशा तय कर सकती हैं.

 

विश्लेषण : कोल्हान में चम्पई के प्रभाव भी भाजपा के सीटों में नहीं करा पाए इज़ाफ़ा,जानिये क्यों...?


विनोद आनंद 

भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में चुनाव परिणामों का विश्लेषण हमेशा एक महत्वपूर्ण विषय होता है। हाल ही में चम्पाई सोरेन झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को छोड़ कर भाजपा में शामिल हुए. भाजपा को लगा कि यह हमारा यह राजनितिक कूटनीति की बहुत बड़ी उपलब्धि है. क्योंकि चम्पई को कोल्हान क्षेत्र में झामुमो का एक महत्वपूर्ण चेहरा माना जा रहा था.अब तक झरखंड मुक्ति मोर्चा के लिए उनका प्रदर्शन भी कोल्हान में बेहतर रहा. इसलिए उन्हें भाजपा ने बहुत तड़क-भड़क के साथ अपने पार्टी में शामिल किया और कोल्हान का महत्वपूर्ण चेहरा बताते हुए. कोल्हान में अपनी स्थिति मज़बूत करने का सपना देखने लगा.

लेकिन दाव उल्टा पड़ा.चम्पई कोल्हान में भाजपा की सीटों की संख्या नहीं बढ़ा पाए. अगर झारखण्ड मुक्ति मोर्चा में कोल्हान के टाइगर के रूप में चर्चित चम्पाई तो खुद किसी तरह जीत गए लेकिन उनके बेटा समेत कई सीट जिसपर उन्हें उम्मीद थी बुरी तरह हार गए.आखिर ऐसा क्यों हुआ इस मे हम कारणों और परिस्थितियों का विश्लेषण करेंगे.

स्थानीय मुद्दों की अनदेखी

यह तो तय है कि किसी भी क्षेत्र में किसी पार्टी क़ी उसकी एजेंडा और नीति का इफेक्ट जनता पर पड़ता है.झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के प्रति आदिवासियों और यहाँ क़ी स्थानीय लोगों में यह धारना बन गयी है कियह पार्टी स्थानीय मुद्दा को उठाती है, यहाँ के लोगों की हित की बात सोचती है.

लेकिन भाजपा ने स्थानीय मुद्दों पर ध्यान देने मेंहमेशा चूक की है। क्षेत्र के निवासियों की समस्याएं जैसे पानी, बिजली, रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं थी, जिन पर भाजपा ने चुनाव प्रचार में अपेक्षित ध्यान नहीं दिया। स्थानीय मुद्दों को नजरअंदाज करने के कारण लोगों का जुड़ाव भाजपा से कम हुआ। वही झारखण्ड मुक्ति मोर्चा लगातार इस मुद्दा को लेकर सजग रही, झामुमो के प्रतिनिधि हो या मुख्यमंत्री हमेशा स्थानीय लोगों के बीच उपलब्ध रहे. यह झामुमो के लिए हमेशा पॉजिटिव गया. चम्पई जब तक झामुमो थे तब तक कोल्हान की जनता उनके साथ रही लेकिन पाला बदलते हीं चम्पई का साथ छोड़ दिया. इसी लिए चम्पई को जिस उम्मीद से भाजपा ने अपने पार्टी में शामिल किया उस उम्मीद पर पानी फिर गया.

 विपक्ष की मजबूती

कोल्हान में भाजपा को विपक्ष की मजबूती से सामना करना पड़ा। विशेषकर झारखंड मुक्ति मोर्चा और कांग्रेस ने अपनी रणनीतियों को बेहतर तरीके से लागू किया। इन दलों ने स्थानीय स्तर पर जनता के बीच अपनी उपस्थिति बढ़ाई और भाजपा के खिलाफ एक सार्थक नैरेटिव बनाए रखा। जबकि भाजपा इस में विफल रहे. यहाँ बड़े बड़े भाजपा के नेता आये, रैली की सभा को सम्बोधित किया लेकिन इसके वावजूद वे झारखण्ड मुक्तिमोर्चा के नैरेटिव को बदल नहीं पाए. स्थानीय लोगों में हेमंत सोरेन का चेहरा सामने रहा जबकि भाजपा का मुख्यमंत्री के रूप में कोई स्पष्ट चेहरा भी नहीं रहा. यहाँ के लोगों में कहीं से यह नहीं थी कि अगर जीतेंगे तो चम्पई हीं यहाँ के सीएम होंगे. दूसरी बात यहाँ जनता के बीच भाजपा के नेता कभी नहीं रहे. जिसके कारण चम्पई के प्रभाव का कोई असर नहीं पड़ा.

चम्पई कि काट बनी यहाँ कल्पना

कोल्हान में चम्पई की नाराजगी और हेमंत सोरेन और झमुमो के प्रति उनकी प्रतिक्रिया भी यहाँ कि जनता के सहानुभूति नहीं बटोर सकी जबकि कोल्हान में अकेली कल्पना सोरेन चम्पाई और भाजपा पर भारी पड़ी.

कल्पना सोरेन ने जनता के बीच एक आम महिला बनकर आयी उनके साथ मिली,हर महिला के साथ आत्मीय रूप से जुड़ गयी. कल्पना कि सभाओं में महिलाओं कि भीड़ जुटती रही.

कल्पना की खासियत यह थी कि वे कहीं भी चम्पई के विरुद्ध कोई टिप्पणी नहीं की बल्कि उनके बारे में कहा कि वे बहुत अच्छे हैं,मुझे अपने बेटी और पुत्रबधु कि तरह हमेशा माना. कल्पना का यह अंदाज़ जनता को भा गया लोगों ने महसूस किया कि कल्पना सोरेन एक ऐसी उदार राजनेता हैं जो धोखा देने वाले और बगावत करने वाले उसके दलों के नेताओं के लिए भी अच्छा सोच रखती है. यह बहुत बड़ा कारण था कि चम्पई के समर्थक भी यह विश्लेषण करने के लिए बाध्य हो गए कि बेहतर कौन..? और बेहतर झामुमो हीं लगा उन्हें.

भाजपा की आंतरिक विवाद

कोल्हान में ना तो मोदी का जादू चला और ना चम्पई का क्योंकि बाहरी वोट तो जो झारखण्ड के साथ था वह तो रहा हीं भाजपा का भी वोट जो भाजपा के कैंडिडेट को हरा रहा था उसके साथ चला गया इसका मूल कारण था भाजपा के अंदर की अंदरूनी कलह. यहां बड़े नेताओं के परिवार के बीच टिकट भाजपा ने बाँटा, अर्जून मुंडा के साथ उनकी पत्नी को टिकट, चम्पई सोरेन के साथ उनके पुत्र को टिकट. जिसका भाजपाइयों ने विरोध करना शुरू कर दिया. पार्टी के अंदर उपजे असंतोष ने भाजपा के वोट बैंक को भी प्रभावित किया और इसका खामियाजा चुनाव परिणाम में देखने को मिला.

भाजपा के भीतर की यह आंतरिक कलह और नेतृत्व में अस्थिरता चुनाव परिणामों पर असर डाला। पार्टी के नेता और कार्यकर्ताओं के बीच आपसी मतभेद जनता के बीच गलत संदेश भेजा। जब पार्टी के भीतर ही उत्साह और एकता की कमी हो, तो इसका प्रभाव चुनावी परिणामों पर अवश्य पड़ता है।

भाजपा नेताओं के जनसंपर्क की कमी

भाजपा ने चुनाव प्रचार में जनसंपर्क को मजबूत करने में गड़बड़ी की। पार्टी के उम्मीदवारों और कार्यकर्ताओं ने स्थानीय जनसंवाद को नजरअंदाज किया। जगह-जगह पर जाकर लोगों से मिलने, उनकी समस्याओं को समझने और उनके साथ संवाद करने की आवश्यकता थी, जो कि भाजपा ने पूरी नहीं की। जिसका भी असर पड़ा वैसे राष्ट्रीय स्तर के नेताओं ने सभाएँ जरूर की, रैली भी की लेकिन स्थानीय नेताओं का जुड़ाव जनता से नहीं रहा. यह बहुत बड़ी कमी थी जिसका सीधा असर मतदान पर पड़ा.

गठबंधन दलों का प्रभाव

अनेक क्षेत्रीय दलों ने भी इस चुनाव में प्रभाव डाला। विशेषकर आदिवासी समुदाय के मुद्दों पर अन्य दलों ने बेहतर तरह से जनता को अपने पक्ष में खड़ा किया। भाजपा ने इस जनसंख्या समूह की अपेक्षाओं का सही दिशा में समर्पण नहीं किया, जिसके परिणामस्वरूप उन्हें इसका खामियाजा भुगतना पड़ा।

पार्टी की नीतियों पर सवाल

भाजपा की नीतियों और उनके कार्यान्वयन पर भी सवाल उठे। लोग भाजपा की आर्थिक नीतियों, जिससे छोटे व्यवसाय और कृषि पर बुरा असर पड़ा, को लेकर असंतुष्ट रहे। भाजपा के विकास के वादे जमीन पर सफल नहीं हुए, जिसके परिणामस्वरूप मतदाता ने चुनाव में अपने विचार बदले। 

संवेदनशीलता का अभाव

चम्पई कोल्हान की राजनीति में संवेदनशील मुद्दों को समझने और उनके प्रति सहानुभूति दिखाने की आवश्यकता थी। भाजपा द्वारा किए गए कई निर्णयों ने स्थानीय लोगों के बीच असहमति उत्पन्न की, जैसे भूमि अधिग्रहण, विकास परियोजनाओं का कार्यान्वयन आदि। 

सोशल मीडिया व डिजिटल प्रचार की भूमिका

आज के युग में सोशल मीडिया का प्रभाव अत्यधिक बढ़ गया है। भाजपा ने डिजिटल प्रचार में सफलता हासिल की, लेकिन स्थानीय स्तर पर काम करने वाले कार्यकर्ताओं की कमी के चलते सोशल मीडिया पर साझा की गई सूचनाएं जन सामान्य तक प्रभावी ढंग से नहीं पहुंच पाईं। 

महिला मतदाताओं का नजर अंदाज

भाजपा ने महिला मतदाताओं के मुद्दों को भी नजरअंदाज किया। कई स्थानों पर स्थानीय मतदाता महिलाओं की सहभागिता को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर ध्यान नहीं दिया गया। जब महिलाएं संतुष्ट नहीं होतीं, तो उसके परिणाम चुनावी परिणामों में निश्चित रूप से दिखाई पड़ते हैं। 

वोटर डेटा और जनगणना आंकड़ों की कमी

भाजपा ने अपने प्रचार में वोटर डेटा और जनगणना आंकड़ों का सही तरीके से उपयोग नहीं किया। कई बार देखा गया कि पार्टी अपने परंपरागत मतदाताओं की संख्या को सही से नहीं समझ पाई। इससे पार्टी को पिछले चुनावों में मिली सुरक्षा का भ्रम हो गया और नए मतदाताओं को जोड़ने में कठिनाई हुई। 

स्ट्रीटबजज ओपेनियन

चम्पई ने भी कोल्हान में कोई जादुई अकड़ा नहीं जूता पाए. जबकि समझा जाता था कि वे जमीन से जुड़े रहे हैं और उनका सम्पर्क यहाँ के आदिवासी मतदाताओं में काफी गहरा है.लेकिन उसका कोई सार्थक रिजल्ट नहीं मिला.

वास्तव में कोल्हान में भाजपा की सीटों में कमी एक व्यापक विश्लेषण का विषय है। यह विभिन्न कारणों का परिणाम है, जिसमें स्थानीय मुद्दों को नजरअंदाज करना, दुष्चक्र में फंसी चुनावी रणनीतियां, आंतरिक विवाद, और समाज के विभिन्न वर्गों की आवश्यकताओं की अनुपालना न करना शामिल है। 

भविष्य में भाजपा को यह समझने की आवश्यकता होगी कि चुनाव केवल बड़े वादों और स्वप्नों का खेल नहीं है, बल्कि यह स्थानीय जनता के वास्तविक मुद्दों को समझने और सुलझाने का अवसर है। यदि भाजपा स्थानीय लोकहित का ध्यान रखती है और लोगों के साथ तालमेल बढ़ाने का प्रयास करती है, तो वह अपनी खोई हुई सीटों को पुनः प्राप्त कर सकती है। 

अब भाजपा के नेताओं के लिए यह आवश्यक है कि वे अपने अनुभवों से सीखते हुए अगली राजनीतिक लड़ाई में अपनी रणनीतियों में सुधार करें, ताकि अगले चुनाव में वे एक नई ताकत के साथ उभरे।

सम्पादकीय: झारखण्ड विंधानसभा चुनाव में भाजपा के हार का कारण रणनीतिक भूल थी या झारखंड में भाजपा का घटता प्रभाव...?

 विनोद आनंद 

झारखंड में भारतीय जनता पार्टी को इस बार राज्य के विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार का सामना करना पड़ा। इसके बाद राजनितिक विशेषज्ञ से लेकर भाजपा के रणनीतिकार तक इस पर मंथन करना शुरू कर दिया है.कि इसकी वजह क्या है..?

वैसे यह हार बीजेपी के लिए न केवल राजनीतिक दृष्टि से एक बड़ा झटका है, बल्कि इसके कई रणनीतिक भूल है , जिनका विश्लेषण करना पार्टी को आवश्यक है। इस हार ने यह सवाल भी खड़ा कर दिया है कि क्या बीजेपी में नरेंद्र मोदी का वह प्रभाव ख़त्म हो रहा है जिसके बूते भाजपा चुनाव जीतती आयी है या भाजपा इतनी बड़ी गलती करती जा रही है जिससे भाजपा के प्रति लोगों में नाराजगी बढ़ती जा रही है.आइये भाजपा के झारखण्ड में हार के पीछे जो कारण हो सकते हैं उसपर एक के बाद एक पहलू पर चर्चा करते हैं.

हेमंत कि गिरफ्तारी


झारखण्ड में लगातार केंद्रीय एजेंसी ईडी, सीबीआई और एनएआई जैसी संस्थाएं काम कर रही है, कई घोटाले और भ्रस्ट्राचार के मामले ये केंद्रीय एजेंसी ने उजागर किया है. नि:संदेह यह अच्छी पहल है झारखण्ड में इन एजेंसी की बालू और पत्थर खनन के मामले को उजागर करना, मनरेगा के मामले मे अधिकारियों की गिरफ्तारी और भारी मात्रा में नगद बरामदगी, टेंडर घोटाला में भारी मात्रा में नगद राशि की बरामदगी और एक मंत्री की गिरफ्तारी, बहुत ऐसे मामले सामने आये जिसमे इन एजेंसियों की उपलब्धि को कहीं से नाकारा नहीं जा सकता. इस पर पुरे देश का ध्यान खींचा. लेकिन ईडी की एक भूल ने इन सारी उपलब्धियों पर पानी फेर दिया. वह भूल थी झारखण्ड के सीएम हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी. वह भी ऐसे मामले में जिसमे वे दोषी नहीं थे. क्यों कि कोर्ट ने जैसे टिप्पणी के साथ इन्हे जमानत दी है उससे ना सिर्फ ईडी कि साख पर सवाल उठ गया बल्कि केंद्र की भाजपा सरकार भी सवालों के घेरे में आ गए.जिस जमीन के कथित घोटाले में हेमंत सोरेन को गिरफ्तार किया गया था एक भी साक्ष्य ईडी ने हेमंत सोरेन के विरुद्ध कोर्ट में प्रस्तुत नहीं कर पायी. ऐसे स्थिति में जनता के बीच यह मेसेज गया कि ईडी केंद्र के भाजपा सरकार के इशारे पर एक आदिवासी मुख्यमंत्री को सत्ता से बेदखल करने के लिए षडयंत्र रची.लोगों की यह धारना इतना प्रभावी रहा की हेमंत सोरेन एक ऐसे राजनेता बनकर उभड़े कि पुरे राज्य कि जनता कि सहानुभूति हेमंत सोरेन के साथ चला गया. भाजपा की यह बहुत बड़ी भूल मानी जा रही है.

कल्पना सोरेन का राजनीति में पदार्पण


हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को कल्पना सोरेन जैसी एक ऐसी नेत्री मिली जो झारखण्ड मुक्ति मोर्चा को मज़बूत जनाधार वाला पार्टी बना दिया. हेमंत सोरेन की गिरफ्तारी के बाद हेमंत की पत्नी कल्पना की राजनीति में आगमन झारखण्ड के सियासी जगत की एक बड़ी घटना मानी जा रही है. कल्पना ना मात्र झारखण्ड बल्कि पुरे देश के लोगों का ध्यान खींचा, उनकी व्यक्तित्व, अपनी बात जनता के बीच रखने की कला, और लगातार बिना थके जनसभाएँ करना एक ऐसी घटना थी की ना सिर्फ आदिवासी समुदाय बल्कि सभी वर्ग के लोग कल्पना के शख्शियत को झारखण्ड के भविष्य के रुप में देखने लगे.

कल्पना ने अपनी आंसू और ज्जवात लेकर जनता के बीच गयी, अपने पति के साथ हुए ना इंसाफ से जनता को अवगत कराया, भाजपा के केंद्र सरकार को एक आदिवासी मुख्यमंत्री को परेशान करने और जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधि पर तानाशाही करने का आरोप लगाया, मुंबई और दिल्ली की सभा में झारखण्ड की शेरनी के रूप में उनकी गर्जना और झारखण्ड की जनता की आवाज़ के रूप में दी गयी भाषण ने ऐसा हलचल मचा दिया कि वह एक राष्ट्रीय शख्सियत के रूप में चर्चित हो गयी. आज उनकी सभाओं में भीड़ जुटती है, महिलाएं से मिलकर जिस तरह वह उसके दुख दर्द को बांटती है महिलाएं उसे अपना तारनहार समझती है. यही कारण है कि कल्पना के सामने भाजपा के सारे दावपेंच ख़त्म हो गए, सारे बड़े भाजपा में आदिवासी चेहरे ध्वस्त हो गए. अर्जुन मुंडा, बाबूलाल चम्पई लोविंन हेमब्रम, सीता सोरेन, गीता कोड़ा और भाजपा के सारे फ़ौज निरर्थक सावित हुए.यहाँ तक झारखण्ड में मोदी, शाह शिवराज हेमंता विश्व सरमा किसी का जादू नहीं चला, मोदी का तिलिस्म भी टूट गया और कल्पना का जादू चला पहली बार झारखण्ड में एक तिहाई बहुमत से सरकार बनने जा रही है.

मुस्लिम वोटों का धुर्वीकरण


भाजपा के रणनीतिकार एक एजेंडा के तहत एक समुदाय विशेष का वोट हासिल करने की कोशिस करती आ रही है. यह अब जनता समझने लगी है.राम मंदिर का मुद्दा उठाकर भाजपा अपनी जमीन मज़बूत की और हिन्दुकार्ड खेलकर आज तक अपनी राजनीतिक जमीन मज़बूत करती आयी है .इसके सामने सारे मुद्दे गौण होते गए. देश के विकास, युवाओं को रोजगार,बंद होते उद्योग, बेहतर चिकित्सा कई ऐसे बुनियादी सवाल रहे जिस पर कभी ठोस नीति नहीं बनी. भाजपा के यह रणनीति अब फेल होने लगा. जनता समझने लगी.यही वज़ह है की लोकसभा में जिस अयोध्या में राम मंदिर बना उस अयोध्या का सीट भी भजपा नहीं बचा पायी. और अगर विधानसभा की बात करें तो झारखण्ड में भी वह रणनीति फेल हो गयी.

भाजपा ने झारखण्ड में बांगलादेशी मुद्दा उठाकर चाहा कि यहां के आदिवासी और हिन्दू वोट बटोर लें लेकिन यह दाव उल्टा पड़ा. यहाँ इस एजेंडा को तूल देने के लिए असम के मुख्यमंत्री हिमांता विश्व सरमा को लगाया लेकिन उनके कई बयान के कारण मुस्लिम वोटों का धुर्वीकरण हो गया. जो वोट कहीं कहीं बटने वाली थी या जयराम महतो अथवा किसी अन्य पार्टी को पड़ने वाली वोट संघगठित होकर थोक के भाव से झारखण्ड मुक्तिमोर्चा को पड़ा. या गठबंधन में पड़ा जबकि आदिवासी और हिन्दू वोट भी भाजपा अपने पक्ष में नहीं कर पाए. यही वजह है कि भाजपा को इस बार करारी हार मिली.

लोकप्रियता में गिरावट


झारखंड में बीजेपी की इस हार के सबसे बड़े कारणों में से एक राज्य की जनता में पार्टी के प्रति बढ़ती नाराजगी रही। पार्टी द्वारा किए गए कई वादे, जैसे आदिवासी और पिछड़े वर्गों के लिए विकास और रोजगार के अवसर, पूरी तरह से सफल नहीं हो सके। इसके अलावा, रघुबर दास सरकार की नीतियां, जैसे भूमि अधिग्रहण और सरकारी नौकरियों में भर्ती प्रक्रिया, भी जनप्रिय नहीं रही जो स्थानीय लोगों के बीच अविश्वास का कारण बनीं।और 2019 में भाजपा की हाथ से सत्ता छीन गयी. और 2019 में झारखंड मुक्ति मोर्चा के हाथ में सत्ता आयी. इस से भाजपा को सबक लेने की जरूरत थी, लेकिन 2019 के बाद भी भाजपा ने अपने रणनीति में कई ऐसे भूल की जो भाजपा के पक्ष में बेहतर नहीं रहा. भाजपा की सबसे बड़ी भूल थी हेमंत सोरेन को कथित जमीन घोटाले में जेल के अंदर डालना .भाजपा के लिए उलटा पड़ा.

 आदिवासी वोटबैंक का नुकसान


झारखंड में आदिवासी समुदाय का महत्वपूर्ण वोटबैंक है, जो बीजेपी के लिए एक मजबूत आधार बनता था। लेकिन इस बार आदिवासी वोटरों ने बीजेपी से दूरी बना ली। आदिवासी समुदाय के बीच असंतोष और सरकारी नीतियों के विरोध ने पार्टी को नुकसान पहुंचाया। स्थानीय मुद्दे जैसे भूमि अधिकार, आदिवासी संस्कृति का संरक्षण, और सरकारी योजनाओं का सही क्रियान्वयन पार्टी के लिए चुनौती बने।

झारखंड मुक्ति मोर्चा और महागठबंधन का प्रभाव


झारखंड में विपक्षी दलों ने एकजुट होकर महागठबंधन का गठन किया, जिसमें झारखंड मुक्ति मोर्चा (JMM), कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (RJD) शामिल थे। महागठबंधन ने बीजेपी को कड़ी चुनौती दी। विशेष रूप से हेमंत सोरेन की नेतृत्व क्षमता और उनकी पार्टी की 'आदिवासी गौरव' की रणनीति ने राज्य के जनता को आकर्षित किया। महागठबंधन की एकजुटता और स्थानीय मुद्दों पर फोकस ने बीजेपी के खिलाफ एक मजबूत मोर्चा खड़ा किया।

किसान और आदिवासी आंदोलनों का असर


बीजेपी के लिए एक और संकट किसान और आदिवासी आंदोलनों के रूप में सामने आया। इन आंदोलनों में किसानों की समस्याओं, ज़मीन अधिग्रहण के मुद्दे और आदिवासियों के अधिकारों पर सरकार की नीतियों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन शामिल थे। ये आंदोलन बीजेपी के लिए एक बड़ा राजनीतिक बोझ बने और इसका सीधा असर पार्टी के चुनाव परिणामों पर पड़ा।

आंतरिक असंतोष और संगठन की कमजोरी


बीजेपी में आंतरिक असंतोष और संगठन की कमजोरी भी हार के कारणों में शामिल है। पार्टी के अंदर कई नेताओं के बीच गुटबाजी और एकजुटता की कमी ने चुनावी प्रचार और रणनीतियों को प्रभावित किया। इसके अलावा, केंद्रीय नेतृत्व का राज्य के स्थानीय मुद्दों के प्रति लापरवाही और संवाद की कमी ने बीजेपी की स्थिति को और कमजोर किया।

केंद्र सरकार के खिलाफ निराशा


केंद्र सरकार की नीतियों और चुनावी वादों के बीच भी झारखंड के मतदाताओं में असंतोष था। किसानों, युवाओं, और आदिवासियों के मुद्दे पर बीजेपी को आलोचना का सामना करना पड़ा। केंद्र सरकार की कुछ नीतियों, जैसे नोटबंदी और GST, ने भी राज्य के छोटे व्यापारियों और किसानों को प्रभावित किया, जिसके कारण बीजेपी को आलोचना का सामना करना पड़ा।

स्थानीय मुद्दों का प्रभाव


केंद्रीय नेताओं की भारी उपस्थिति और चुनावी प्रचार में ध्यान केंद्रित करने के बावजूद, बीजेपी स्थानीय मुद्दों पर प्रभावी तरीके से नहीं जीत पाई। राज्य के विकास, स्वास्थ्य, शिक्षा, और रोजगार जैसे मुद्दे स्थानीय लोगों के लिए ज्यादा महत्वपूर्ण थे, और बीजेपी इन मुद्दों पर प्रभावी समाधान प्रस्तुत करने में विफल रही।

निष्कर्ष


झारखंड में बीजेपी की हार एक संकेत है कि केवल केंद्रीय चुनावी रणनीतियों और राष्ट्रीय मुद्दों पर ध्यान केंद्रित करने से राज्य स्तर पर सफलता प्राप्त नहीं की जा सकती। पार्टी को राज्य के स्थानीय मुद्दों पर अधिक ध्यान देने, आदिवासी समुदाय के साथ संवाद बढ़ाने और आंतरिक संगठन को मजबूत करने की आवश्यकता है। अगर बीजेपी को झारखंड में भविष्य में सफलता प्राप्त करनी है, तो उसे जनता के विश्वास को फिर से जीतने के लिए अपनी नीतियों और रणनीतियों में सुधार करना होगा।

त्वरित टिप्पणी: झारखंड में महागठबंधन की जीत के हैं क्या मायने,जानिये भाजपा से कहाँ हुई चूक और रणनीतिक भूल...!

विनोद आनंद 

झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में झारखंड मुक्ति मोर्चा (झामुमो) गठबंधन ने शानदार प्रदर्शन करते हुए बहुमत हासिल किया। 81 सीटों वाली विधानसभा में झामुमो और उसके सहयोगियों ने स्पष्ट बहुमत का आंकड़ा पार कर लिया है। 

यह जीत राज्य के विकास के लिए उनके प्रयासों पर जनता की मुहर मानी जा रही है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के नेतृत्व में झामुमो ने रोजगार, शिक्षा और आदिवासी अधिकारों को चुनावी मुद्दा बनाया।

चुनाव प्रचार के दौरान झामुमो ने स्थानीय समस्याओं, जैसे कि खनिज संपत्तियों के बेहतर उपयोग, आदिवासी क्षेत्रों में बुनियादी सुविधाओं की कमी और पलायन जैसे मुद्दों को उठाया। इस जीत के बाद हेमंत सोरेन ने कहा कि यह जनता की समस्याओं को हल करने की दिशा में एक बड़ा कदम है।

 झारखंड की जनता ने झामुमो के कामकाज और उनके स्थानीय मुद्दों पर फोकस को समर्थन दिया। भाजपा के राष्ट्रीय एजेंडे की तुलना में झामुमो का स्थानीय दृष्टिकोण अधिक प्रभावी रहा। यह जीत झारखंड में क्षेत्रीय दलों की मजबूती और भाजपा के कमजोर होते जनाधार का संकेत देती है।

यह चुनाव परिणाम झारखंड की राजनीति के लिए नए युग की शुरुआत है, जिसमें जनता की आकांक्षाएं और उनकी समस्याएं प्राथमिकता पर रहेंगी।

भाजपा की हार के कारण


झारखंड विधानसभा चुनाव में भाजपा को बड़ा झटका लगा है। पिछली बार की तुलना में इस बार भाजपा का प्रदर्शन कमजोर रहा। झामुमो गठबंधन ने भाजपा को पीछे छोड़ते हुए सरकार बनाने का दावा ठोक दिया है। भाजपा की हार के पीछे कई कारण बताए जा रहे हैं।

 भाजपा ने राष्ट्रीय मुद्दों पर अधिक जोर दिया, जबकि झारखंड में स्थानीय समस्याएं और मुद्दे ज्यादा महत्वपूर्ण थे। आदिवासी समुदाय, जो झारखंड की राजनीति में अहम भूमिका निभाता है, इस बार भाजपा से दूर हो गया। खनिज संपत्तियों के प्रबंधन, रोजगार और पलायन जैसे मुद्दों पर भाजपा सरकार का प्रदर्शन संतोषजनक नहीं रहा।

इसके अलावा, विपक्ष की एकजुटता ने भी भाजपा के खिलाफ माहौल बनाया। झामुमो, कांग्रेस और अन्य क्षेत्रीय दलों ने भाजपा के खिलाफ साझा रणनीति बनाकर वोट बैंक को अपने पक्ष में कर लिया। 

भाजपा के स्थानीय नेतृत्व और संगठनात्मक ढांचे में भी कमजोरियां नजर आईं।

यह हार भाजपा के लिए आत्ममंथन का समय है। उन्हें यह समझना होगा कि झारखंड जैसे राज्यों में राष्ट्रीय राजनीति की जगह स्थानीय राजनीति को प्राथमिकता देना जरूरी है। भाजपा की हार यह भी दर्शाती है कि झारखंड में क्षेत्रीय दलों का प्रभाव बढ़ रहा है और राष्ट्रीय दलों को इनसे मुकाबला करने के लिए अपनी रणनीति बदलनी होगी।

क्षेत्रीय दलों का प्रभाव


झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 ने क्षेत्रीय दलों की ताकत को फिर से साबित कर दिया है। झामुमो और उसके सहयोगी दलों की जीत ने यह स्पष्ट कर दिया कि झारखंड जैसे राज्यों में स्थानीय मुद्दे और जनभावनाएं राष्ट्रीय राजनीति से कहीं अधिक मायने रखती हैं।

झारखंड मुक्ति मोर्चा ने रोजगार, शिक्षा, स्वास्थ्य और आदिवासी अधिकारों जैसे मुद्दों को केंद्र में रखा। उन्होंने अपने चुनाव प्रचार के दौरान यह सुनिश्चित किया कि उनकी प्राथमिकता झारखंड के लोगों के जीवन को बेहतर बनाना है। इस दौरान भाजपा ने राष्ट्रीय मुद्दों को केंद्र में रखा, लेकिन वह जनता को प्रभावित करने में असफल रही।

चुनाव परिणामों ने यह दिखाया कि जनता ने क्षेत्रीय दलों को अधिक महत्व दिया। झामुमो की इस जीत को देश में क्षेत्रीय दलों के बढ़ते प्रभाव का उदाहरण माना जा रहा है। इससे यह स्पष्ट होता है कि झारखंड जैसे राज्यों में राष्ट्रीय राजनीति का सीमित प्रभाव है और यहां के लोगों को अपने स्थानीय मुद्दों के समाधान के लिए क्षेत्रीय दलों पर अधिक भरोसा है।

झारखंड में इस बार का चुनाव परिणाम न केवल झामुमो के लिए, बल्कि देशभर के क्षेत्रीय दलों के लिए भी एक संदेश है। इससे अन्य राज्यों के क्षेत्रीय दलों को भी अपनी रणनीति बनाने और जनता से जुड़ने के लिए प्रेरणा मिलेगी।

महिला मतदाताओं की निर्णायक भूमिका


इस बाऱ झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 के परिणामों में महिलाओं की भूमिका निर्णायक रही। झामुमो की जीत के पीछे महिला मतदाताओं का समर्थन अहम माना जा रहा है। हेमंत सोरेन सरकार ने महिला सशक्तिकरण और उनके अधिकारों के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं, जिसका असर इस चुनाव में देखने को मिला।

महिलाओं ने झामुमो को वोट देते हुए रोजगार, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राथमिकता दी। चुनाव प्रचार के दौरान झामुमो ने महिलाओं के लिए रोजगार के अवसर, बालिका शिक्षा और घरेलू हिंसा जैसे मुद्दों पर फोकस किया। इन मुद्दों ने महिला मतदाताओं को झामुमो की तरफ आकर्षित किया।

झारखंड के कई क्षेत्रों में महिला मतदाताओं ने चुनाव परिणामों को प्रभावित किया। ग्रामीण इलाकों में महिलाओं ने बढ़-चढ़कर मतदान किया और अपनी प्राथमिकताओं को स्पष्ट किया। झारखंड के कई आदिवासी इलाकों में महिलाओं का समर्थन झामुमो के पक्ष में रहा।

हेमंत सोरेन ने चुनाव परिणामों के बाद अपने भाषण में महिला मतदाताओं का विशेष रूप से धन्यवाद दिया और वादा किया कि उनकी सरकार महिलाओं के लिए रोजगार और सुरक्षा पर विशेष ध्यान देगी। इस चुनाव ने यह स्पष्ट कर दिया कि महिला मतदाता अब झारखंड की राजनीति में निर्णायक भूमिका निभा रही हैं।

आदिवासी समुदाय का समर्थन झामुमो के साथ


झारखंड विधानसभा चुनाव 2024 में झामुमो को आदिवासी समुदाय का भरपूर समर्थन मिला। राज्य के आदिवासी बहुल क्षेत्रों में झामुमो ने भाजपा को भारी अंतर से हराया। झामुमो की जीत के पीछे आदिवासी समुदाय के अधिकारों और उनकी समस्याओं पर केंद्रित नीतियां मानी जा रही हैं।

हेमंत सोरेन ने आदिवासी अधिकारों की रक्षा के लिए कई योजनाएं शुरू की थीं। खनिज संपत्तियों का उचित प्रबंधन, वनाधिकार कानून का प्रभावी क्रियान्वयन और आदिवासी संस्कृति का संरक्षण जैसे मुद्दों ने आदिवासी समुदाय का विश्वास जीतने में अहम भूमिका निभाई।

चुनाव प्रचार के दौरान झामुमो ने आदिवासी क्षेत्रों में अपनी मजबूत पकड़ बनाए रखी। भाजपा की नीतियों को आदिवासी विरोधी बताते हुए उन्होंने वोट बैंक को अपने पक्ष में कर लिया।

आदिवासी समुदाय ने इस बार बड़े पैमाने पर मतदान किया और झामुमो को अपना समर्थन दिया। यह समर्थन दर्शाता है कि झारखंड की राजनीति में आदिवासी समुदाय का प्रभाव कितना महत्वपूर्ण है।

झामुमो की इस जीत ने यह साबित कर दिया है कि स्थानीय समुदायों के साथ संवाद और उनके मुद्दों पर ध्यान देना किसी भी राजनीतिक दल की सफलता के लिए अनिवार्य है। अब झामुमो के सामने चुनौती होगी कि वह इस समर्थन को आगामी पांच वर्षों में कैसे बनाए रखे।

सम्पादकीय : रतन टाटा नहीं रहे लेकिन उन्होंने सफल उधमी के रूप में अपने सामजिक सरोकार के लिए युग युग तक याद किये जायेंगें

विनोद आनंद 

मौत शास्वत सत्य है! जिसे कोई टाल नहीं सकता!इस नश्वर शरीर का भौतिक स्वरूप का नष्ट होना एक स्वभाविक प्रक्रिया है, लेकिन अगर इस शरीर और स्वरूप द्वारा कुछ अच्छा कर्म किया गया हो तो ऐसे लोगों का भौतिक शरीर भले हीं नष्ट हो जाए लेकिन उसका बजूद कभी समाप्त नहीं होता.

रतन टाटा एक ऐसे हीं व्यक्तित्व थे.कल बुधवार को देर शाम को उन्होंने अपने नश्वर शरीर का त्याग कर इस दुनिया को अलविदा कह दिया यह दुःखद और मार्मिक क्षण है लेकिन रतन टाटा जैसे लोग कभी मरते नहीं. ये युग युग तक जिन्दा रहते हैं.

रतन टाटा एक प्रभावशाली उद्योग पति थे. वे 30 से अधिक कंपनियों को नियंत्रित कर रहे थे. छ महाद्वीप के 100 से अधिक देशों में इनके कंपनी संचालित हैं. लेकिन इन्होने कभी अपने जीवन में आडम्बर नहीं किया. कोई भी ऐसा काम या आयोजन नहीं किया जिसमे अरबो रूपये पानी के तरह बहाये गए हो. बिलकुल साधारण जीवन जिया. शालीनता और ईमानदारी से एक संत के तरह अपने जीवन के हर पल को विताया.

 लेकिन अपने कर्मचारी को उसके परिश्रम के अनुरूप वेतन, सामाजिक कार्यों में बढ़ चढ़कर हिस्सा और मानव कल्याण के लिए दिल खोल कर दान किया.इसी लिए इन्हे पंथ निरपेक्ष संत के रूप में भी लोग देखने लगे. वे विनम्र और दयालू थे. असाधारण इंसान थे. हमेशा परोपकार में लगे रहे. 

रतन टाटा के नेतृत्व में ना मात्र औधोगिक विस्तार हुआ बल्कि विकास के कई अध्याय की शुरुआत भी हुई जिसमे शिक्षा, चिकित्सा मानव कल्याण समेत कई परियोजनाए है.जिसकी एक लम्बी सूची है जिसे उन्होंने शुरू किया या अनुदान देकर उसे बढ़ावाया.

रतन टाटा ने भारत में प्राथमिक स्वास्थ्य देखभाल में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. उन्होंने मातृ स्वास्थ्य, बच्चे के स्वास्थ्य, मानसिक स्वास्थ्य और कैंसर, मलेरिया और क्षयरोग जैसी बीमारियों के डायग्नोसिस और इलाज के लिए भी सहयोग किया है.

उन्होंने अल्ज़ाइमर रोग पर अनुसंधान के लिए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस में न्यूरोसाइंस केंद्र को ₹750 मिलियन का अनुदान भी प्रदान किया.

रतन टाटा की कैरियर की बात करें तो 1990 से 2012 तक वे टाटा ग्रुप के अध्यक्ष रहे और अक्टूबर 2016 से फरवरी 2017 तक अंतरिम अध्यक्ष. 

वे अपने करियर की शुरुआत से ही दूर दृष्टि रखने वाला व्यक्ति थे अपने असाधारण कौशल से उन्होंने विश्व भर की पीढ़ियों को प्रेरित किया .

रतन टाटा ने कहा था कि -“जिन मूल्यों और नीतियों से मैंने जीने का प्रयास किया है, उनके अलावा, जो विरासत मैं छोड़ना चाहूंगा, वह एक बहुत आसान है - मैंने हमेशा उसके लिए खड़ा रखा है जिसे मैं सही बात समझता हूं, और मैंने जैसा भी हो सकता हूं, उतना ही निष्पक्ष और न्यायपूर्ण होने की कोशिश की है."

उन्होंने उन्होंने वास्तुकला में स्नातक की डिग्री के साथ कॉर्नेल विश्वविद्यालय कालेज ऑफ आर्किटेक्चर से स्नातक किया. वह 1961 में टाटा में शामिल हुए जहां उन्होंने टाटा स्टील के दुकान के फर्श पर काम किया. बाद में उन्होंने वर्ष 1991 में टाटा सन्स के चेयरमैन के रूप में सफलता हासिल की.

रतन टाटा का जीवन यात्रा विश्व में सकारात्मक प्रभाव डालने वाला रहा.उनका पूरा जीवन दर्शन पुरे दुनिया को मूल्यवान सबक प्रदान करता है. उत्कृष्टता, नवान्वेषण और अनुकूलता पर उनका ध्यान हमेशा रहा.

 टाटा समूह की सफलता तथा नैतिक नेतृत्व तथा कारपोरेट के सामाजिक उत्तरदायित्व के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और योगदान ने पूरी दुनिया को एक नया सन्देश दिया. इसके अतिरिक्त उनकी टीमवर्क और सततता पर उनका जोर एक ऐसा उदहारण है जो हर नेतृत्व करने वालों के लिए आने वाले समय में मार्गदर्शन करता रहेगा.

उनमे एक सफल प्रबंधकीय गुण के साथ करुणा और इच्छा, सभी के लिए एक मॉडल के रूप में कार्य करेगा. ये सबक न केवल बिज़नेस लीडर के लिए प्रासंगिक हैं, बल्कि ऐसे किसी भी व्यक्ति के लिए जो दुनिया में सकारात्मक प्रभाव डालना चाहता है.

आज रतन टाटा चले गए लेकिन उन्होंने एक उधमी और सफल व्यक्ति के रूप में जो रास्ता बनाया उस पर चलकर युग युगन्तर तक आने वाले पीढ़ी को मार्ग दर्शन करते रहेगा.

त्वरित टिप्पणी :झारखंड में विधानसभा चुनाव को लेकर सह-मात का खेल जारी, जनता भ्रम में, कौन बेहतर.....?

झारखंड कि जनता के बीच जिस तरह राजनितिक दलों का सह -मात का खेल चल रहा है उस स्थिति में जनता किस करबट लेगी और अपना वोट किस पाले में डालेगी यह तो समय बताएगा. लेकिन युद्ध तेज़ है, घमासान मचा हुआ है,और जनता भ्रम में है कौन अच्छा कौन बुरा... जनता का यह निर्णय अब समय तय करेगा.....!पढ़िये पूरा विश्लेषण...!

विनोद आनंद 

सम्भवत: झारखंड में विधानसभा चुनाव नवम्बर या दिसम्बर में होगी, तिथि की घोषणा नही हुई लेकिन सम्भावना है कि अक्टूबर माह में चुनाव आयोग द्वारा तिथि की घोषणा हो जाएगी।

लेकिन ज्यों-ज्यों विंधानसभा चुनाव का समय निकट आते जा रहा है झारखंड में सियासी उठा पटक शुरू हो गयी है।यह स्थिति पक्ष में भी है और विपक्ष में भी।

   

इस सियासी उठा -पटक में आने वाले समय में राजनीतिक समीकरण क्या होगा यह आने वाला समय तय करेगा लेकिन अगर हम सत्ता पक्ष की बात करें तो महागठबंधन के अंदर भी सियासी घमासान है। सीटों को लेकर और अपने वजूद को लेकर।

भाजपा अपनी रणनीतिक भूल के कारण झारखंड में शिबू सोरेन परिवार की स्थिति काफी मजबूत कर दी है। पिछले पांच सालों में लगातार कई कमियों के वाबजूद भी हेमन्त सोरेन के साथ जनता की सहानुभूति दिख रही है।

ईडी द्वारा हेमन्त सोरेन को जेल में डालना और उसके विरुद्ध कोई ठोस एविडेंस नही जुटा पाना भाजपा के लिए एक ऐसा वजह बन गया कि भाजपा पूरी फ़ौज और रणनीतिकार को मैदान में उतारने के वाबजूद भी अपने पक्ष में हवा नहीं बना पा रही है.

इधर हेमंत सोरेन और दिल्ली के सीएम अरबिंद केजरीवाल को लेकर कोर्ट की जो टिप्पणी आयी उससे ईडी की स्थिति और हास्यस्पद सी हो गयी है। ऐसा नहीं है कि ईडी ने इस अवधि में अच्छे काम नहीं किये, मनरेगा घोटाला में रुपये की बरामदगी, कमीशन घोटाले का उजागर कुछ इस तरह का काम था जो ईडी को सफलता मिली, लेकिन हेमंत सोरेन जो झारखंड के एक सिटिंग मुख्यमंत्री थे उनको बिना किसी ठोस एविडेंस, को जेल भेज देने की घटना को झारखंड की जनता नहीं पाचा पायी. एक धरना बन गयी की ईडी किसी के इशारे पर हेमंत सोरेन के राजनितिक शक्ति को छिन्न भिन्न करना चाहती है. लेकिन हुआ उल्टा. भाजपा की इस पुरे प्रकरण में बहुत क्षति हुआ. हेमन्त सोरेन मामले में ईडी की कारवाई ने इसके सारे उपलब्धि पर पानी फेर दिया है।

अभी झारखंड के सियासी समर में हेमन्त सोरेन को जेल जाने के बाद घर की दहलीज से बाहर आई कल्पना सोरेन के रूप में झारखंड मुक्ति मोर्चा को एक ऐसा मज़बूत चेहरा मिल गया जो सिर्फ झारखंड हीं नही राष्ट्रीय राजनीति में भी एक मज़बूत चेहरा बन गयी.

आज कल्पना सोरेन की दहाड़ की गूंज ना मात्र झारखंड बल्कि दिल्ली, मुम्बई में गूंज चुकी और देश के युवाओं और महिलाओं के बीच एक लोकप्रिय चेहरा बन गयी।हेमन्त सोरेन और कल्पना सोरेन आज भाजपा के पूरी फ़ौज पर भारी पड़ रही है।

इधर केंद्र में राहुल गांधी के तेबर और सियासी चाल भाजपा के आत्म विश्वास को लगातार तोड़ रहा है, मोदी मैजिक के मिथक को बहुत हद तक राहुल ने तोड़ दिया,और रही सही कसर को भाजपा और आरएसएस का अंदरूनी विवाद ने पूरा कर दिया.

केंद्र में कांग्रेस के बढ़ते प्रभाव को लेकर झारखंड कांग्रेस के कुछ नेताओं के बोल भी बदलने लगे. कांग्रेस के झारखंड प्रभारी गुलाम अहमद मीर ने यह कह दिया कि अगर कांग्रेस के 30 विधायक हो जाये तो सीएम कांग्रेस का भी हो सकता है.

यह कहने के पीछे संदर्भ जो भी रहा हो लेकिन झामुमो के कुछ नेताओं और कार्यकर्ताओं में जरूर बौखलाहट है.अंदरूनी सूत्रों से जो बात छन कर आ रही है उसके अनुसार महागठबंधन में कांग्रेस भी सीट बढ़ाने के फिराक में है वहीं राजद और माले भी ज्यादा सीट कि चाहत रखती है.

जबकि सच यह है कि झारखंड में जमीनी स्तर पर ना तो कांग्रेस का संगठन है और नहीं राजद का. कुछ मज़बूत चेहरा जिनका प्रभाव जनता में है और हेमंत सोरेन या झामुमो के बैशाखी के सहारे चुनावी बैतरणी पार करने में यह दोनों संगठन कामयाब होते हैं.

ऐसे हालत में राजद और कांग्रेस को कोई ऐसा जोखिम नहीं लेना चाहिए जो पार्टी के सेहत के लिए मुश्किल स्थिति उत्पन्न कर दे. 

बहरहाल जानता कि सहानुभूति हेमंत के साथ दिख रही है. कुछ योजनाए महिला वोटर को आकर्षित किया. भाजपा इसके काट और प्रभाव को काम करने के लिए कई योजनाओं कि घोषणा कर रही है. अब इसका कितना असर जनता पर पड़ेगी और कौन झारखंड के इस महासमर में जीत पायेगा. यह तो समय बतायेगा.

फिर भी कहा जा सकता है झारखंड कि जनता के बीच जिस तरह राजनितिक दलों का सह मात का खेल चल रहा है उस स्थिति में जनता किस करबट लेगी और अपना वोट किस पाले में डालेगी यह तो समय बताएगा. लेकिन युद्ध तेज़ है, घमासान मचा हुआ है,और जनता भ्रम में है कौन अच्छा कौन बुरा... जनता का यह निर्णय समय तय करेगा.....!