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Jul 16 2024, 11:12

खतरे में पड़े समुद्री जीव,महासागरों में जिंक चक्र में हो रहा बदलाव

oppins,-apple-system,BlinkMacSystemFont," segoeui",roboto,oxygen,ubuntu,cantarell,"firasans","droidsans","helveticaneue",sans-serif; font-stretch:normal; font-style:normal; letter-spacing:normal; word-break:break-word; color:rgb(0,0,0); font-variant-ligatures:normal; font-variant-caps:normal; orphans:2text-indent:0px; text-transform:none; widows:2; word-spacing:0px; -webkit-text-stroke-width:0px; white-space:normal; background-color:rgb(255,255,255); text-decoration-thickness:initial; text-decoration-style:initial; text-decoration-color:initial; text-align:left;">
एक नए अध्ययन के मुताबिक, दक्षिण महासागर दुनिया भर में कार्बन चक्र में अहम भूमिका निभाता है। अध्ययन में पहली बार क्षेत्रीय सबूतों के आधार पर इन चक्रों में अकार्बनिक जिंक (जेडएन) के कणों की भूमिका को सामने लाया गया है।

oppins,-apple-system,BlinkMacSystemFont," segoeui",roboto,oxygen,ubuntu,cantarell,"firasans","droidsans","helveticaneue",sans-serif; font-stretch:normal; font-style:normal; letter-spacing:normal; word-break:break-word; color:rgb(0,0,0); font-variant-ligatures:normal; font-variant-caps:normal; orphans:2text-indent:0px; text-transform:none; widows:2; word-spacing:0px; -webkit-text-stroke-width:0px; white-space:normal; background-color:rgb(255,255,255); text-decoration-thickness:initial; text-decoration-style:initial; text-decoration-color:initial; text-align:left;">दक्षिणी महासागर दुनिया भर में फाइटोप्लांकटन के उत्पादकता में सबसे बड़ी भूमिका निभाता है, जो वायुमंडलीय कार्बन डाइऑक्साइड को अवशोषित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। इन प्रक्रियाओं में, समुद्र के पानी में सूक्ष्म मात्रा में मौजूद जिंक, समुद्री जीवों में कई जैव रासायनिक प्रक्रियाओं और विशेष रूप से ध्रुवीय फाइटोप्लांकटन खिलने के लिए अहम और जरूरी सूक्ष्म पोषक तत्व है।

जब फाइटोप्लांकटन के फूल नष्ट हो जाते हैं, तो इनसे जिंक निकलता है। लेकिन आज तक, वैज्ञानिक हैरान हैं क्योंकि जिंक और फास्फोरस के बीच एक विसंगति देखी गई थी, जो महासागरों में जीवन के लिए आवश्यक एक और पोषक तत्व है, भले ही दोनों पोषक तत्व फाइटोप्लांकटन में समान इलाकों में पाया जाता हो। इसके बजाय अक्सर जिंक और घुले हुए सिलिका के बीच एक मजबूत जुड़ाव देखा जाता है।

स्टेलनबोश विश्वविद्यालय के शोधकर्ता ने शोध के हवाले से कहा कि वे अब पहली बार महासागरों के जिंक चक्र को चलाने वाली जैव-भू-रासायनिक प्रक्रियाओं को समझा सकते हैं।

शोधकर्ताओं ने शोध में बताया कि उन्होंने गर्मियों और सर्दियों दोनों में अंटार्कटिका के रास्ते में विशाल दक्षिणी महासागर को पार करते हुए, सतह और गहरे समुद्री जल के नमूने तलछट के साथ एकत्र किए।

साइंस पत्रिका में प्रकाशित शोध के मुताबिक, दक्षिणी महासागर का अध्ययन करना बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि यह वैश्विक महासागर प्रसार के लिए एक मुख्य केंद्र के रूप में काम करता है। दक्षिणी महासागर में होने वाली प्रक्रियाएं अटलांटिक, हिंद और प्रशांत महासागरों तक पहुंच जाती हैं।

शोधकर्ताओं ने नमूनों का एक्स-रे स्पेक्ट्रोस्कोपिक तकनीक का उपयोग करके कण-दर-कण विस्तृत विश्लेषण किया, जिससे उन्हें नमूनों का परमाणु और आणविक स्तर पर अध्ययन करने में मदद मिली।

*महासागरों में वैश्विक जिंक चक्र के बदलाव के लिए जिम्मेवारों को सामने लाना*

शोध के मुताबिक, गर्मियों में भारी उत्पादकता महासागर के सतह पर कार्बनिक हिस्से के रूप में जिंक की अधिक प्रचुरता की ओर ले जाती है, जो फाइटोप्लांकटन द्वारा आसानी से ग्रहण किए जाने के लिए उपलब्ध हो सकता है। लेकिन शोधकर्ताओं ने इन नमूनों में मौजूद चट्टानों और पृथ्वी से निकले मलबे और वायुमंडलीय धूल से जुड़े जिंक की भारी मात्रा भी पाई।

खुले महासागर में, कणों से जिंक से जुड़े या इसके परस्पर क्रिया, समुद्री जीवन को सहारा देने के लिए विघटित हुए जिंक की फिर से पूर्ति के लिए अहम है।

शोधकर्ता ने शोध में कहा सर्दियों में कमजोर विकास के कारण, जिंक के कणों को सिलिका जैसे अकार्बनिक ठोस पदार्थों द्वारा ग्रहण किया जाता है, जो डायटम के रूप में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती है, साथ ही लौह और एल्यूमीनियम ऑक्साइड भी इसमें शामिल है। डायटम सूक्ष्म शैवाल हैं जो सिलिका से बने कंकाल वाले एककोशिकीय जीव हैं, जिनकी मदद से महासागरों में जिंक और सिलिका के बीच मजबूत संबंध के बारे में पता चला है।

जब जिंक किसी कार्बनिक परमाणु से बंधा होता है तो यह समुद्री जीवन जैसे कि फाइटोप्लांकटन द्वारा आसानी से अवशोषित हो जाता है। हालांकि खनिज अवस्था में जिंक को घुलाना आसान नहीं होता है और इसलिए यह अवशोषण के लिए आसानी से उपलब्ध नहीं होता है। इस रूप में, कण जिंक बड़े समूह बना सकता है और गहरे समुद्र में डूब सकता है, जहां यह फाइटोप्लांकटन द्वारा अवशोषण के लिए उपलब्ध नहीं होता है।

*जलवायु परिवर्तन पर असर*

शोधकर्ता शोध के हवाले से चेतावनी देते हैं कि दुनिया भर में जिंक चक्र की इस समझ का महासागरों के गर्म होने को लेकर अहम भूमिका है। गर्म जलवायु जिंक के क्षरण को बढ़ाती है, जिससे वायुमंडल में अधिक धूल बनती है जिसके कारण महासागरों में अधिक धूल जमा होती है। अधिक धूल का मतलब है जिंक के कणों का अधिक संचय, जिससे फाइटोप्लांकटन और अन्य समुद्री जीवन को बनाए रखने के लिए जिंक कम उपलब्ध होता है।

शोधकर्ता महासागरीय जिंक चक्र का अध्ययन करने के उनके नए नजरिए ने अब अन्य अहम सूक्ष्म पोषक तत्वों की जांच के लिए द्वार खोल दिए हैं। जिंक की तरह, भविष्य में तांबा, कैडमियम और कोबाल्ट के वितरण में भी जलवायु में बदलाव हो सकता है।

शोध में कहा गया है कि शोध के निष्कर्ष जलवायु और समुद्री खाद्य जाल को नियमित करने में दक्षिणी महासागर के वैश्विक प्रभाव की पुष्टि करते हैं।

शोधकर्ता ने शोध के हवाले से कहा, हमारे निष्कर्ष इस जुड़ाव का एक प्रमुख उदाहरण हैं, जहां आणविक स्तर पर होने वाली जैव रासायनिक प्रक्रियाएं हमारे ग्रह के गर्म होने जैसी वैश्विक प्रक्रियाओं को प्रभावित कर सकती हैं।

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Jul 16 2024, 06:39

शोधकर्ताओं ने नई टोमोग्राफिक छवियों से लगाया पता आखिर किस तरह बनी हिमालय की ऊंची-ऊंची चोटियां

एक अंतरराष्ट्रीय शोध टीम ने भारत-यूरेशिया टकराव और हिमालयी ऑरोजेनी की गतिशीलता संबंधी अहम जानकारी प्रदान की है। ऑरोजेनी, एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें पृथ्वी का ऊपरी भाग मुड़कर विकृत हो जाता है और पर्वत श्रृंखला में बदल जाता है।

शोध में कहा गया है कि शोधकर्ताओं ने भारत-यूरेशिया टकराव क्षेत्र के नीचे ऊपरी आवरण की एक उच्च-रिज़ॉल्यूशन टोमोग्राफिक छवि के हालिया विकास के माध्यम से इस जानकारी को हासिल किया। उन्नत इमेजिंग तकनीक के इस नए आवरण मॉडल, पृथ्वी के भूवैज्ञानिक अतीत और हमारी दुनिया को आकार देने वाली ताकतों में अभूतपूर्व जानकारी प्रदान करता है।

शोध टीम ने हिमालय और तिब्बती पठार के नीचे ऊपरी आवरण के विस्तृत स्नैपशॉट लेने के लिए, पृथ्वी पर चिकित्सा क्षेत्र में एक्स-रे लेने के समान एक परिष्कृत इमेजिंग और विश्लेषण तकनीक का इस्तेमाल किया। इस नए नजरिए ने भारत-यूरेशिया टकराव क्षेत्र के तहत टेक्टोनिक प्रक्रियाओं की छवियों का अनावरण किया, जो पर्वत निर्माण की गतिशीलता और महाद्वीपीय टेक्टोनिक प्लेटों की टक्कर पर प्रकाश डालती है।

नई छवियां सतह से असंबद्ध आवरण ट्रांज़िशन ज़ोन (एमटीजेड) के भीतर भूकंपीय रूप से तेज गति संबंधी विसंगतियों को उजागर करती हैं। एमटीजेड पृथ्वी के आंतरिक भाग में ऊपरी और निचले आवरण के बीच एक सीमा परत की तरह है, जो 410 किमी से 660 किमी की गहराई तक फैली हुई है।

शोध में कहा गया है कि शुरुआत में, यह नहीं समझा गया कि इन तेज गति वाले ब्लॉकों के इतने सारे टुकड़े क्यों हैं और वे अलग-अलग आकारों में क्यों हैं। ये विसंगतियां एक पहेली के टुकड़ों से मिलती-जुलती हैं, जिनके बारे में माना जाता है कि ये भारतीय महाद्वीपीय स्थलमंडल के टूटकर अलग होने वाले टुकड़े हैं। शोध में कहा गया कि शोध टीम ने इन टुकड़ों को वर्तमान भारतीय प्लेट से जोड़कर भारतीय महाद्वीप के शुरुआती उत्तरी किनारे का पुनर्निर्माण किया।

फैला हुआ क्षेत्र में विषम आवरण की संरचना और तापमान का मूल्यांकन करने के बाद, उन्होंने अनुमान लगाया कि टूटे हुए टुकड़े लिथोस्फीयर से स्लैब पुल बल में कमी भारतीय प्लेट पर लगाए गए चोटी से अधिक थी।

इन निष्कर्षों का एक गहरा संबंध उपडक्टिंग भारतीय महाद्वीपीय लिथोस्फीयर से घटते स्लैब की शक्ति है। अलग लिथोस्फेरिक टुकड़ों ने इस बल को कम कर दिया है, जिससे भारत-यूरेशिया अभिसरण धीमा हो गया है। शोध से पता चलता है कि जैसे-जैसे सबडक्ट स्लैब का अधिक हिस्सा टूटेगा, भारतीय और यूरेशियन प्लेटों के बीच अभिसरण अंततः बंद हो जाएगा। इससे दो महाद्वीपों का विलय हो सकता है, जिससे सुपरकॉन्टिनेंट गठन की एक नई समझ सामने आएगी।

सबडक्टेड लिथोस्फीयर के अलग होने से भूवैज्ञानिक बदलाव होने की उम्मीद है, जिसमें एस्थेनोस्फेरिक अपवेलिंग, प्लेट विस्तार और टकराव क्षेत्र में सतह उठना शामिल है। इन बदलावों के महत्वपूर्ण भूवैज्ञानिक परिणाम हैं, जो हिमालय के बढ़ने, दक्षिणी तिब्बत में दरारों की शुरुआत और अन्य क्षेत्रीय भूवैज्ञानिक घटनाओं की व्याख्या करते हैं।

शोध में कहा गया है कि यह खोज उस रहस्य को समझने के लिए महत्वपूर्ण है जो पिछले 100 वर्षों से मौजूद है: भारत और यूरेशिया के दो महाद्वीपों की निरंतर टक्कर को कौन नियंत्रित कर रहा है, और यह कैसे खत्म होगा? यह अरबों वर्षों से हमारे ग्रह को आकार देने वाली जटिल प्रक्रियाओं को जानने के लिए पृथ्वी के आंतरिक भाग के अध्ययन के महत्व को रेखांकित करता है। जैसे-जैसे वैज्ञानिक महाद्वीपीय सबडक्शन प्रक्रियाओं में गहराई से उतरते हैं, हम पृथ्वी के भूवैज्ञानिक विकास के बारे में हमारी समझ को नया आकार देने वाले और खुलासे की आशा करते हैं।

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Jul 15 2024, 10:07

कोलंबिया में वनों की कटाई में पिछले साल की तुलना में 2023 में 36 फीसदी की गिरावट आई है, जो पिछले 23 वर्षों में सबसे कम है
कोलंबिया में वनों की कटाई में पिछले साल की तुलना में 2023 में 36 फीसदी की गिरावट आई है, जो पिछले 23 वर्षों में सबसे कम है। इस बारे में कोलंबिया के पर्यावरण मंत्रालय ने आठ जुलाई 2924 को जानकारी साझा करते हुए कहा है कि यह अमेजन क्षेत्र में पर्यावरण विनाश में आती कमी की वजह से मुमकिन हो पाया है।

मंत्रालय के मुताबिक, कोलंबिया में 2022 के दौरान 1,235.17 वर्ग किलोमीटर में फैले जंगल काटे गए, वहीं 2023 में वन विनाश का यह आंकड़ा घटकर 792.56 वर्ग किलोमीटर पर पहुंच गया। मतलब की गत एक वर्ष में करीब 442.61 किलोमीटर में फैले जंगलों को कटने से बचाया जा सका है। देखा जाए तो यह न केवल कोलंबिया बल्कि पूरी दुनिया के लिए एक सकारात्मक खबर है।

oppins,-apple-system,BlinkMacSystemFont," segoeui",roboto,oxygen,ubuntu,cantarell,"firasans","droidsans","helveticaneue",sans-serif; font-stretch:normal; font-style:normal; letter-spacing:normal; word-break:break-word; color:rgb(0,0,0); font-variant-ligatures:normal; font-variant-caps:normal; orphans:2text-indent:0px; text-transform:none; widows:2; word-spacing:0px; -webkit-text-stroke-width:0px; white-space:normal; background-color:rgb(255,255,255); text-decoration-thickness:initial; text-decoration-style:initial; text-decoration-color:initial; text-align:left;">गौरतलब है कि कोलंबिया जैव विविधता के मामले में दुनिया के सबसे समृद्ध देशों में से एक है, जहां पौधों और जानवरों की हजारों प्रजातियां पाई जाती हैं। हालांकि दुनिया के अन्य हिस्सों की तरह ही यहां पर भी बड़े पैमाने पर जंगलों का विनाश किया जा रहा है।

oppins,-apple-system,BlinkMacSystemFont," segoeui",roboto,oxygen,ubuntu,cantarell,"firasans","droidsans","helveticaneue",sans-serif; font-stretch:normal; font-style:normal; letter-spacing:normal; word-break:break-word; color:rgb(0,0,0); font-variant-ligatures:normal; font-variant-caps:normal; orphans:2text-indent:0px; text-transform:none; widows:2; word-spacing:0px; -webkit-text-stroke-width:0px; white-space:normal; background-color:rgb(255,255,255); text-decoration-thickness:initial; text-decoration-style:initial; text-decoration-color:initial; text-align:left;">कोलंबिया के पर्यावरण एवं सतत विकास मंत्रालय ने इस बारे में जो आंकड़े साझा किए हैं उनके मुताबिक कोलंबियाई अमेजन क्षेत्र में वनों की कटाई 23 वर्षों के अपने सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई। 2022 में जहां इस क्षेत्र में 711.85 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैले जंगलों को काट दिया गया था।वहीं 2023 में वन विनाश का यह आंकड़ा घटकर 442.74 वर्ग किलोमीटर रह गया। जो जंगलों के होते विनाश में आई 38 फीसदी की गिरावट को दर्शाता है। मतलब कि गत एक वर्ष में कोलंबियाई सरकार अमेजन वर्षा वन क्षेत्र के 269.11 वर्ग किलोमीटर हिस्से को बचाने में कामयाब रही है, जो 37,000 से अधिक फुटबॉल मैदानों के बराबर है।

कोलंबिया की पर्यावरण मंत्री सुजाना मुहम्मद ने प्रेस विज्ञप्ति के हवाले से कहा है कि, “2021 से 2023 के बीच इस क्षेत्र में हो रहे वन विनाश में 61 फीसदी की कमी आई है, जो राष्ट्रीय विकास योजना में वनों की कटाई को कम से कम 20 फीसदी तक कम करने के निर्धारित लक्ष्य से कहीं अधिक है।“

बता दें कि इससे पहले कोलंबिया ने 2017 की अपनी रणनीति में 2030 तक वनों की कटाई को पूरी तरह से समाप्त करने का लक्ष्य रखा था।

उन्होंने आगे जानकारी देते हुए कहा कि, "हमने अपने प्रयासों को अमेजन पर केंद्रित किया है, क्योंकि यह वही क्षेत्र है जहां ऐतिहासिक रूप से 50 फीसदी से अधिक कटाई हुई है।

हमने इस कमी के साथ एक ऐतिहासिक उपलब्धि हासिल की है, क्योंकि इस क्षेत्र में आई गिरावट की वजह से ही देश में वनों की होती कटाई में 36 फीसदी की कमी मुमकिन हो सकी है।" उनके मुताबिक 85 फीसदी क्षेत्रों में जहां परिवारों के साथ समझौते हुए हैं, वहां जंगलों को बचाया जा सका है।

एक अन्य रिपोर्ट के हवाले से पता चला है कि 2023 के दौरान वैश्विक स्तर पर 37 लाख हेक्टेयर में फैले प्राथमिक उष्णकटिबंधीय जंगल नष्ट हो गए, जो आकार में करीब-करीब भूटान के बराबर हैं। देखा जाए तो हम हर मिनट औसतन 10 फुटबॉल मैदानों के आकार के बराबर उष्णकटिबंधीय वनों को खो रहे हैं। जो मानवता पर मंडराते एक बड़े खतरे की ओर इशारा करता है।

देखा जाए तो हम इंसान इन जंगलों को गंवा कर स्वयं ही अपने विनाश की पटकथा लिख रहे हैं। विश्लेषण के मुताबिक यह राजनीतिक नेतृत्व और मजबूत नीतियां का ही परिणाम है कि 2022 की तुलना में 2023 में वन क्षेत्रों को होते नुकसान में नौ फीसदी की गिरावट देखने को मिली है।

याद दिला दें कि दुनिया भर के नेताओं ने ग्लासगो में हुए कॉप-26 सम्मलेन के दौरान 2030 तक इन जंगलों को बचाने की प्रतिज्ञा ली थी। साथ ही इस दौरान 35 करोड़ हेक्टेयर क्षतिग्रस्त भूमि को दोबारा बहाल करने पर भी सहमति बनी थी।

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Jul 15 2024, 07:32

चीड़ के पेड़ों की संख्या में वृद्धि के कारण हिमाचल प्रदेश के जंगल में आग की घटनाएं बढ़ी

जंगलों में धधकती आग न केवल भारत बल्कि दुनिया के दूसरे कई देशों के लिए भी एक बड़ी समस्या बन चुकी है। बढ़ते तापमान और जलवायु में आते बदलावों के साथ, जिस तरह से आग लगने की यह घटनांए बढ़ रही हैं, वो एक गंभीर मुद्दा बन चुकी हैं। भारत, ऑस्ट्रेलिया, अमेरिका जैसे देशों को तो इन घटनाओं में हुई तबाही से उबरने में दशकों लग जाएंगें। ऐसे में इस समस्या पर गंभीरता से गौर करने की जरूरत है।

कहीं न कहीं आग के इस खतरे को कम करने के लिए दुनिया को नए तरीकों की आवश्यकता है। यह तरीके महज दिखावा भर न होकर ऐसे होने चाहिए जो गहरा प्रभाव डालें।

बता दें कि पहाड़ी इलाकों में पाए जाने वाले चीड़ के पेड़ की पत्तियों को पिरूल कहा जाता है। 20 से 25 सेंटीमीटर लम्बी यह नुकीली पत्तियां बेहद ज्वलनशील होती हैं, पहाड़ों में आग लगने और फैलने के पीछे इन घटनाओं की भी बड़ी भूमिका है। यही वजह है कि कई लोग इन्हें जंगल के लिए अभिशाप भी कहते हैं।

टीआर अभिलाषी मेमोरियल इंस्टीट्यूट ऑफ इंजीनियरिंग एंड टेक्नोलॉजी से जुड़े शोधकर्ता पंकज वर्मा और उनके दल का सुझाव है कि समुदायों को सूखे पौधों और पत्तियों को कचरा समझने के बजाय उसे ऊर्जा के संभावित स्रोत के रूप में देखना चाहिए। इससे आग लगने के जोखिम को कम करने में मदद मिल सकती है। उनके अनुसार इससे पर्यावरण के साथ-साथ अर्थव्यवस्था को भी मदद मिलेगी। इससे वन क्षेत्र साफ होगा और आग लगने के खतरे में कमी आएगी।

शोधकर्ताओं के मुताबिक यह जंगल पारिस्थितिकी चक्र में एक अहम भूमिका निभाते हैं। यह न केवल अनगिनत प्रजातियों को आवास और आहार प्रदान करते हैं। साथ ही कई तरह की वनस्पतियों की मेजबानी भी करते हैं। अध्ययन के दौरान शोधकर्ताओं ने पाया है कि भारत में हिमाचल प्रदेश के वन क्षेत्र में वृद्धि हुई है, और इसके पीछे की मुख्य वजह चीड़ के पेड़ (लॉन्गलीफ इंडियन पाइन) हैं।

चीड़ के पेड़ों से जनवरी से अप्रैल के बीच सूखी पिरूल गिरती है। शोधकर्ताओं ने इस बात का भी अंदेशा जताया है कि चीड़ के पेड़ों की संख्या में वृद्धि के कारण क्षेत्र में जंगल में लगने वाली आग की घटनाएं बढ़ गई हैं।

शोधकर्ताओं ने जानकारी  कि चीड़ की इन सूखी पत्तियों को अक्सर ईंधन के रूप में उपयोग नहीं किया जाता, क्योंकि यह ज्यादा गर्मी पैदा नहीं करती। हालांकि उनका सुझाव है कि इस कम ऊर्जा वाले बायोमास को ब्रिकेट्स जैसे उच्च ऊर्जा वाले ईंधन में बदलना संभव हो सकता है। देखा जाए तो जैसे-जैसे देश में ऊर्जा की मांग बढ़ रही है, उसको पूरा करने में ऐसे उपाय मददगार साबित हो सकते हैं।

उनके मुताबिक कचरे से ऊर्जा बनाने के ऐसे तरीके इस समस्या को हल करने में मददगार साबित हो सकते हैं। इससे न केवल अक्षय ऊर्जा हासिल होगी, साथ ही जंगल में आग लगने का जोखिम भी कम होगा। यह अवधारणा वन संसाधनों के सतत उपयोग को भी बढ़ावा देती है, साथ ही पर्यावरण संरक्षण को भी प्रोत्साहित करती है। इसकी मदद से स्थानीय समुदायों को सामाजिक और वित्तीय रूप से फायदा हो सकता है।

गौरतलब है कि पिछले साल जर्नल करंट साइंस में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में भी हिमालय के पहाड़ी इलाकों में चीड़ की पत्तियों से लगने वाली आग के जोखिम को उजागर किया था। सेंट्रल इंस्टिट्यूट ऑफ एग्रीकल्चर इंजीनियरिंग द्वारा किए इस अध्ययन ने भी माना था कि चीड़ की यह नुकीली पत्तियां बेहद ज्वलनशील होती हैं, जिससे आग लगने का बड़ा खतरा होता है।

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Jul 14 2024, 10:54

मानव-वन्यजीव संपर्क बढ़ रहा है, भारत में हर साल इंसानों और जानवरों के बीच टकराव के कारण सैकड़ों लोगों और जानवरों की हो जाती है मौत

मानव-वन्यजीव संपर्क बढ़ रहा है। लेकिन उनमें से सभी सकारात्मक नहीं हैं। भारत में हर साल इंसानों और जानवरों के बीच टकराव के कारण सैकड़ों लोगों और जानवरों की मौत हो जाती है। जंगली जानवरों के टकराव के कारण उनके अस्तित्व और संख्या पर दूरगामी प्रभाव पड़ सकता है। हालाँकि, दुनिया भर में कुछ इलाके दूसरे इलाकों की तुलना में अधिक जोखिम भरे हैं।


दुनिया के दो-तिहाई एशियाई हाथियों और बाघों का आवास, 1.4 अरब लोगों के साथ साझा जगहों में है। प्रत्येक वर्ग किलोमीटर में 400 से अधिक लोगों का उच्च-घनत्व है। भारत से जुड़ी इस तरह की वास्तविकताओं पर तत्काल वैश्विक रूप से ध्यान देने की आवश्यकता है। डॉक्यूमेंट्री फोटोग्राफर सेंथिल कुमारन इन वास्तविकताओं को बड़े पैमाने पर दर्शकों को दिखाने का इरादा रखते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों में मानव-बाघ टकराव को एक दशक तक अपने कैमरे में कैद करने के लंबे प्रयास के बाद कुमारन, ने ‘बाउंड्रीज़: ह्यूमन-टाइगर कॉन्फ्लिक्ट’ नामक एक प्रभावशाली डॉक्यूमेंट्री बनाया है। जिसकी वजह से उन्हें फोटो जर्नलिज्म का सबसे प्रतिष्ठित पुरस्कार मिला। वर्ल्ड प्रेस फोटो 2022 के 24 विजेताओं में एक नाम उनका भी है।

कुमारन के लिए पुरस्कार कोई नई बात नहीं है, उन्हें अब तक 20 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। मोंगाबे-इंडिया के साथ अनौपचारिक बात-चीत के दौरान फोटोग्राफर ने भारत में मानव-वन्यजीव संघर्षों, उनकी लंबी और थकाऊ कार्य प्रक्रिया और दो दशकों के अपने करियर के अनुभवों के बारे में बताया।

एक डॉक्यूमेंट्री फोटोग्राफर के रूप में, मेरा काम दोनों पक्ष को दर्शाता है। मैं पर्यावरण और वन्यजीव संरक्षण का समर्थन करता हूँ, साथ ही मैं स्थानीय लोगों के सामने आने वाली समस्याओं को भी सामने लाना चाहता हूँ।हम इसे केवल पारिस्थितिक नजरिए से इसका समाधान नहीं कर सकते। वास्तव में स्थानीय गांव के निवासियों और आदिवासी लोगों को जंगली जीवों से होने वाले नुकसान से बचाकर वन्यजीवों की रक्षा कर सकते हैं।

देश में हर साल लगभग 5 लाख लोग इंसान और हाथी के बीच टकराव से प्रभावित होते हैं। खुद को नुकसान से बचाने के लिए जब प्रभावित ग्रामीण जानवरों के खिलाफ हो जाते हैं, तो ऐसी परिस्थिति में वन्यजीवों की सुरक्षा एक चिंता का विषय होती है। इस तरह का विरोध हाथियों के संरक्षण के लिए एक बड़ा ख़तरा है, क्योंकि कई राज्यों में हाथियों से हुए नुकसान की जवाबी कार्रवाई में उनकी हत्याओं की सूचना मिलती रहती है।

यदि भारत में हाथियों के संरक्षण को सफल बनाना है, तो इंसान-हाथी टकराव का समाधान निकालना होगा। या हाथियों से होने वाले नुकसान को इस स्तर पर लाया जाए कि स्थानीय समुदाय उसे सहन कर सकें।

जब मैंने 2012 में डॉक्यूमेंटेशन शुरू किया, तो बाघों को विलुप्त होने से बचाने के लिए देश कुछ भी करने को तैयार था। हमारे पास सिर्फ 1,700 बाघ बचे थे। अनेक कार्यक्रम लागू किए गए थे और कई आदिवासी गांवों को बाघ अभयारण्यों के लिए स्थानांतरित किया गया था। 2022 में, बाघों की आबादी दोगुनी हो गई है और कोर टाइगर जोन में आदिवासी गांवों को छोड़ कर, पुनर्वास कार्यक्रम धीमा हो गया है।

कुछ टाइगर रिजर्व (बाघ अभयारण्य) में, बाघों की बढ़ती आबादी के कारण वन विभागों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। जहाँ बाघ जीवित रहने के लिए इंसानों के साथ संघर्ष करने के लिए मजबूर हैं, वहीं जब कुछ बाघ आदमखोर हो जाते हैं, तो अधिकारियों को उन्हें खत्म करने के लिए कड़ी मशक्कत करनी पड़ती है। इन सबके पीछे मुख्य कारण जंगलों की कटाई है। बाघों और हाथियों पर ध्यान देने से लेकर वनों की कटाई का पता लगाने तक मेरा काम फैला हुआ है। ये सभी मुद्दे आपस में जुड़े हुए हैं।

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Jul 13 2024, 09:16

चिड़ियाघर में बना खास सेल्फी प्वाइंट,अब कानपुर प्राणी उद्यान के वन्यजीवों के साथ ले सकेंगे सेल्फी

कानपुर प्राणी उद्यान आने वाले पर्यटकों के लिए एक अच्छी खबर है. अब वह यहां पर आकर सेल्फी पॉइंट में अपने पसंदीदा वन्य जीव के साथ अपनी फोटो क्लिक कर सकेंगे. इतना ही नहीं जो यह सेल्फी प्वाइंट बनाया गया है यह एक ब्रिज के रूप में बनाया गया है जिसके ऊपर चढ़कर वह बैक साइड पर मगरबाड़े का भी दीदार कर सकेंगे, यहां पर वह मगरमच्छ का दीदार कर सकेंगे.

कानपुर प्राणी उद्यान यूं तो प्रदेश के सबसे बड़े प्राणी उद्यानों में से एक है. लेकिन यहां पर सेल्फी प्वाइंट की बात की जाए तो यहां पर कोई खास सेल्फी प्वाइंट अभी तक नहीं था. सिर्फ एक कानपुर प्राणी उद्यान का बोर्ड था जिसके पास लोग फोटो क्लिक कर लेते थे. वहीं अब यह खास सेल्फी प्वाइंट बनाया गया है, जहां पर लोग यहां पर तस्वीरें क्लिक कर सकेंगे ताकि वह उनकी मेमोरी में रहेगा कि वह कानपुर प्राणी उद्यान आए थे.

इसमें न सिर्फ कानपुर प्राणी उद्यान के पर्यटन को बढ़ावा मिलेगा बल्कि जब लोग सोशल मीडिया पर यह तस्वीर डालेंगे तो कहीं ना कहीं कानपुर प्राणी उद्यान के प्रति लोग जानकारी ले पाएंगे और यहां के वन्य जीवों के बारे में भी उन्हें पता चल सकेगा. क्योंकि इस सेल्फी पॉइंट में कानपुर प्राणी उद्यान में रहने वाले वन जीवों की ही फोटो लगाई गई है.

अलग-अलग जानवरों के पास जाने के लिए बोर्ड बने हुए हैं जो डायरेक्शन देते हैं कि कहां पर कौन से जानवरों को लोग देख सकते हैं. लेकिन कानपुर प्राणी उद्यान में कुछ ऐसे अभी तक वन्य जीव रहे हैं जो बेहद खास रहे हैं. जिसमें एक बाघिन तृषा भी शामिल है उसका भी गेट बनाया गया है. ताकि लोग उसके बारे में जान सके कि यह क्यों स्पेशल रही है. आपको बता दें इस बाघिन ने कानपुर में 17 बच्चों को जन्म दिया है जो देश नहीं बल्कि विदेशों तक भेजे गए हैं.

चिड़ियाघर में नहीं था सेल्फी प्वाइंटकानपुर प्राणी उद्यान के रेंजर नावेद इकराम ने बताया की कानपुर प्राणी उद्यान में नया सेल्फी प्वाइंट बनाया गया है. फोटो प्वाइंट बनाया गया है. जहां पर लोग जाकर तस्वीर क्लिक कर सकते हैं. यहां पर ग्रुप में जाकर अपने परिवार वालों के जब जाकर अपने दोस्तों के साथ जाकर लोग फोटो क्लिक कर सकते हैं अभी तक यहां पर ऐसा कोई सेल्फी प्वाइंट नहीं था. लोगों को हमेशा कहना रहता था कि यहां पर एक सेल्फी प्वाइंट बनना चाहिए ताकि वह लोग फोटो क्लिक कर सके. इस पॉइंट में वन्यजीवों की फोटो लगाई गई है जो कानपुर प्राणी उद्यान के ही है.

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Jul 12 2024, 09:12

प्रकृति-आधारित उनकी जीवनशैली व आजीविकाओं की रक्षा के लिए राज्य सरकार व भागीदारों के साथ मिलकर ‘सुरक्षित हिमालय पहल’ शुरू की है


भारत में यूएनडीपी, वैश्विक पर्यावरण सुविधा (GEF), सिक्किम सरकार के साथ मिलकर, ‘सुरक्षित हिमालय पहल’ के ज़रिए, स्थाई प्रकृति-आधारित आजीविका का पालन करने वाले समुदायों को समर्थन दे रहे हैं.

MLAS व यूएनडीपी जैसे संगठनों के साथ साझेदारी के ज़रिए, लेप्चा समुदाय के लोगों को अपनी पारम्परिक आजीविका से मिलने वाले आर्थिक लाभ को बढ़ाने के उपाय इस्तेमाल किए जा रहे हैं. 

क्षेत्र में प्रचुर मात्रा में पाई जाने वाली जंगली घास - हिमालयन बिछुआ बूटी से प्राप्त रेशों का प्रसंस्करण, इस पहल के हिस्से के रूप में किया जा रहा है. इससे सूत बनाने के पारम्परिक तरीक़ों में बहुत समय और मेहनत लगती है.

ऐसे में, इस परियोजना के तहत विशेषज्ञों की मदद से, समुदाय के सदस्यों को जंगल से बिछुआ पौधों की कटाई के बेहतर तरीक़ों पर प्रशिक्षित किया जा रहा है. हाथ से कच्चे रेशे का सूत कातने में लगने वाली मेहनत को कम करने के लिए, नेपाल से मशीनों का आयात किया गया है.

समुदाय के सदस्य, बिच्छुआ घास के रेशों को नदी में धो रहे हैं. इनसे कपड़ा निर्माताओं के लिए उच्च गुणवत्ता वाले बिछुआ फाइबर का उत्पादन किया जाता है.

सिक्किम के एक बुटीक फैशन ब्रांड -ला डिजिंग्स की मालिक सोनम ताशी ग्यालत्सेन कहती हैं, "बिछुआ के रेशों से बने उत्पादों की अन्तरराष्ट्रीय बाज़ार में बहुत मांग है, और उनकी अच्छी क़ीमत मिलती है. बिछुआ के रेशों से बने, एक मीटर सूत के कपड़े की क़ीमत लगभग 20 अमेरिकी डॉलर है, जबकि समान मात्रा में कपास के रेशों की क़ीमत केवल 1 डॉलर होती है. इसलिए, आप कल्पना कर सकते हैं कि अगर हम उच्च गुणवत्ता वाले रेशों का उत्पादन करने में सक्षम हो सकें, तो यहाँ के समुदायों को कितना आर्थिक फ़ायदा हो सकता है.”
ला डिजिंग्स, ‘नेटल फाइबर’ के उत्पाद बनाकर, लन्दन और न्यूयॉर्क जैसे देशों को निर्यात करता है. प्रशिक्षण के परिणामस्वरूप, ला डिजिंग्स को अब समुदाय से उच्च गुणवत्ता वाले बिछुआ रेशे प्राप्त हो रहे हैं.
इसके अलावा, परियोजना के तहत, लेप्चाओं के साथ मिलकर, जैव विविधता के समुदाय-आधारित प्रबन्धन पर काम किया जा रहा है. परियोजना के हिस्से के रूप में, सरकार द्वारा मान्यता प्राप्त एक ग्रामीण स्तर की संस्था, जैव विविधता प्रबन्धन समिति (बीएमसी) की भी स्थापना की गई है. इस समिति के माध्यम से, क्षेत्र में स्थित समुदायों के समस्त जैविक संसाधनों की सूची बनाई जाती है, ताकि उनका निरन्तर उपयोग और प्रबन्धन किया जा सके.

Naturewild

Jul 12 2024, 09:02

'प्रकृति में ही ईश्वर का वास है'

45 वर्षीय उगेन पलज़ोर लेप्चा, सिक्किम के ज़ोगु क्षेत्र में, अपने गाँव ही-ग्याथांग के पीछे जंगल की ओर जाते हुए बताते हैं,“हमारी भाषा में जंगल के हर एक पौधे और जानवर को एक विशिष्ट नाम दिया गया है. इस तरह, परिवारों व समुदायों की ही तरह, प्रकृति के साथ भी हमारा एक रिश्ता क़ायम हो जाता है."

भारत के भौगोलिक क्षेत्र के केवल 0.22 प्रतिशत हिस्से वाला सिक्किम प्रदेश, जैव विविधता में अत्यधिक समृद्ध है. पूर्वी हिमालयी क्षेत्र का हिस्सा, यह राज्य, दुनिया के विशालतम 12 जैव विविधता हॉटस्पॉट में से एक है.

सिक्किम प्रदेश, अपने छोटे आकार के बावजूद, पौधों की 5 हज़ार 800 से अधिक प्रजातियों और जानवरों की एक हज़ार 200 प्रजातियों का घर है. इनमें से अनेक बेहद दुर्लभ व स्थानिक हैं, जो केवल इसी भाग में पाए जाते हैं.

लेप्चा  लोग, सिक्किम के तीन प्रमुख आदिवासी समुदायों में से एक हैं, जो प्रकृति एवं प्रकृति-आधारित जीवन शैली के प्रति गहरी आस्था रखने के लिए जाने जाते हैं.

उगेन पलज़ोर लेप्चा बताते हैं, "हमारे लिए, प्रकृति में ही ईश्वर का वास है. हर लेप्चा वंश का अपना एक पहाड़, गुफ़ा और झील होते हैं, जिनकी वो पूजा करते हैं.हमारी पारम्परिक आजीविकाओं में, खेती और प्राकृतिक रेशों से बने हस्तशिल्प प्रमुख हैं."

"यह क्षेत्र प्राकृतिक संसाधनों में इतना समृद्ध है कि हमारी ज़रूरतों के लिए यहाँ सब कुछ उपलब्ध है, और इसीलिए हम इसे 'मयल ल्यांग' कहते हैं, जिसका अर्थ है 'देवताओं का आशीर्वाद प्राप्त भूमि'.”

पिछले कुछ दशकों में, असतत संरचनाओं के विकास और आधुनिक उपभोक्तावाद ने इस क्षेत्र पर नकारात्मक प्रभाव डाला है.

उगेन बताते हैं, “हमारे सभी कृषि उत्पाद जैविक हैं, और हस्तशिल्प का उत्पादन स्थाई तरीक़े से किया जाता है. लेकिन बाज़ार में हमें जो क़ीमत मिलती है, वह लागत व समय एवं मेहनत के अनुरूप नहीं होती है. इसी कारण, अब युवा लोग, इन व्यवसायों को छोड़कर शहरों की ओर पलायन कर रहे हैं."

"जब ऐसा होता है तो प्रकृति के साथ हमारा सम्बन्ध और उससे जुड़ी सांस्कृतिक प्रथाएँ भी प्रभावित होती हैं. अगर लेप्चा लोग चले गए, तो इस क्षेत्र की समृद्ध जैव विविधता की रक्षा करने के लिए कोई नही होगा."

उगेन, एक समुदाय-आधारित संगठन मुतान्ची लोम अल शेजम यानि MLAS के कार्यकारी निदेशक हैं, जो लेप्चा जीवन शैली और इसे बनाए रखने वाले प्राकृतिक पारिस्थितिक तंत्र को संरक्षित करने के प्रयास कर रहा है.

Naturewild

Jul 11 2024, 09:15

आज हिमालय की पर्यावरणीय स्थिति अत्यंत संवेदनशील,तेजी से बदल रहा है हिमालय का पर्यावरण

देश के 1.3 फीसद वन हिमालय में हैं। हिमालय घना व असीमित जैव विविधता वाला क्षेत्र है। यह स्थान हजारों प्रकार के दुर्लभ प्रजातियां के जीव-जंतुओं और वनस्पतियों का बसेरा हैं जो इसके लगभग 5.7 लाख वर्ग किलोमीटर के क्षेत्रफल में फैला है। हिमालय पर्वत, वहां का पारिस्थितिकी तंत्र, वन्य जीवन, अनमोल वनस्पतियां हमारे देश की अमूल्य प्राकृतिक संपदा है। हिमालय की वजह से ही हमारे देश का पर्यावरण संतुलित हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हाइड्रोलाजी रुड़की के एक शोध से यह पता चला है कि हिमालय का पर्यावरण तेजी से बदल रहा है। आज हिमालय की पर्यावरणीय स्थिति अत्यंत संवेदनशील है।

एनआइएच के वैज्ञानिकों के मुताबिक 20 वर्षों में हिमालय में बारिश और बर्फबारी का समय बदल गया है। हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से झीलें के बनने का सिलसिला भी शुरू हो गया है।मानव ने अपनी गतिविधियों व प्रदूषण से हिमालय के पर्यावरणीय सेहत पर खासा असर डाला है। विकास के नाम पर अंधाधुंध पेड़ों व भूमि की कटाई-छंटाई, लगातार वनों से अमूल्य प्राकृतिक संपत्ति का दोहन हिमालयी पर्यावरण के लिए खतरा बन गए हैं। आज हिमालयी क्षेत्र की समूची जैव विविधता भी खतरे में हैं। इसके कई कारण हैं। हिमालय के वनों से लगातार होता दोहन, वहां बार-बार लगने वाली अनियंत्रित आग, तापमान बढ़ने से ग्लेशियरों का पिघलना, जैव विविधता का बड़े पैमाने पर कम या लुप्त होना, कई बड़ी नदियों का सूखना आदि प्रमुख कारण हैं।
इसके अलावा खत्म होते भूजल स्रोत, विकास नाम पर पहाड़ों का खोखला किया जाना, ऊपर से मानव द्वारा फैलाया गया कचरा व प्रदूषण हिमालय के पर्यावरणीय सेहत के लिए खतरनाक हैं। खराब वन प्रबंधन और लोगों में जागरूकता की कमी भी हिमालयी पर्यावरण के खतरे का कारण हैं। विकास के नाम पर बड़ी-बड़ी इमारतों का निर्माण और सड़कों का चौड़ीकरण। विस्फोटकों के जरिए अंधाधुंध कटाई-छंटाई से पहाड़ इतने कमजोर हो गए हैं कि थोड़ी सी बारिश होने पर वे धंसने या गिरने लगते हैं।

उच्च हिमालयी क्षेत्रों में पर्यावरण व जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से 50 से भी अधिक ग्लेशियर सिकुड़ रहे हैं। ग्लेशियरों के सिकुड़ने का सीधा प्रभाव हिमालयी वनस्पतियों व वहां रहने वाले जीव जंतुओं, वनों के साथ-साथ निचले हिमालयी क्षेत्रों में फसली पौधों तथा हिमालय क्षेत्र में रहने वाले लोगों पर पड़ेगा। इसके अलावा पूरा देश भी इसके प्रभाव से अछूता नहीं रहेगा। इसलिए ग्लेशियरों को सिकुड़ने से बचाने के उपाय समय रहते ढूढ़ने होंगे। ग्लोबल वार्मिंग के कारण हिमालयी क्षेत्र की जैव विविधता खतरे में हैं। हिमालय का बदलता पर्यावरण एवं पारिस्थितिकी तंत्र हमारी आने वाली पीढ़ी के लिए वायु, जल एवं अन्न की कमी का कारण हो सकता है।

जलवायु परिवर्तन, ग्लेशियरों का पिघलना, वर्षा एवं बर्फबारी के समय चक्र में हो रहे परिवर्तन, समुद्र के तल की ऊंचाई बढ़ने से पूरी दुनिया के सामने एक नया संकट पैदा होने वाला हैं । ऐसी परिस्थिति से निपटना इंसान के लिए वाकई चुनौती भरा होगा। हम यह भूल गए हैं कि अगर हिमालय सुरक्षित नहीं रहेगा तो, हम और हमारी आने वाली पीढ़ियां भी सुरक्षित नहीं रह सकती हैं।

इसलिए हिमालय को सुरक्षित व संभाल कर रखना हम सबकी जिम्मेदारी है। हिमालय की नैसर्गिक खूबसूरती और जैव विविधता जितनी हिमालयीे पर्यावरण के लिए अच्छा है, उससे कहीं ज्यादा हमारे लिए जरूरी है। हिमालय का संरक्षण तभी हो पाएगा, जब हम सभी लोग हिमालय के महत्व और हिमालय के उपकारों को समझें। स्थानीय लोगों के साथ-साथ हमारी भावी पीढ़ी खास कर नवयुवाओं को भी हिमालय के संरक्षण के लिए जागरूक होना पड़ेगा और आगे बढ़कर इसके हित के लिए कार्य करना पड़ेगा।

Naturewild

Jul 11 2024, 07:33

भारत में पिछले पचास वर्षों में सबसे ज्यादा जंगली वनस्पतियों का विलोपन

  
भारत में पिछले पचास वर्षों में सबसे ज्यादा जंगली वनस्पतियों का विलोपन हुआ। इसकी एक बड़ी वजह पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई रही है। लेकिन दूसरे भी कई कारण हैं। जैसे वनस्पतियों के संरक्षण के प्रति लोगों की घटती दिलचस्पी, सूखा या बाढ़ और वनस्पतियों को जीवन का हिस्सा मानने की प्रवृति का कम होते जाना भी है।

आने वाले दशकों में वनस्पतियों की प्रजातियों के लुप्त होने का सबसे बड़ा कारण कटिबंधी वनों का विनाश होगा। यह चेतावनी वाशिंगटन स्थित विश्व संसाधन संस्थान के अध्ययन में दी गई है। गौरतलब है कटिबंधीय वनों में ही संपूर्ण वनस्पतियों की पचास फीसद वनस्पतियां पाई जाती हैं। ये प्रकृति के संतुलन को बनाए रखती हैं। धरती के प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में मानव से भी ज्यादा भूमिका वन्य प्राणियों और वनस्पतियों की है। इसलिए इनके विलुप्त होने से प्रकृति पर गहरा असर पड़ेगा। इस खतरे को देखते हुए ही पिछले तीन दशकों में ज्यादातर देशों ने वन्य जीवों और वनस्पतियों के संरक्षण के लिए गंभीर प्रयास शुरू तो किए हैं, लेकिन ये अभी तक कोई ठोस नतीजे सामने नहीं आए हैं।


भारत में पिछले पचास वर्षों में सबसे ज्यादा जंगली वनस्पतियों का विलोपन हुआ। इसकी एक बड़ी वजह पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई रही है। लेकिन दूसरे भी कई कारण हैं। जैसे वनस्पतियों के संरक्षण के प्रति लोगों की घटती दिलचस्पी, सूखा या बाढ़ और वनस्पतियों को जीवन का हिस्सा मानने की प्रवृति का कम होते जाना भी है।

आने वाले दशकों में वनस्पतियों की प्रजातियों के लुप्त होने का सबसे बड़ा कारण कटिबंधी वनों का विनाश होगा। यह चेतावनी वाशिंगटन स्थित विश्व संसाधन संस्थान के अध्ययन में दी गई है। गौरतलब है कटिबंधीय वनों में ही संपूर्ण वनस्पतियों की पचास फीसद वनस्पतियां पाई जाती हैं। ये प्रकृति के संतुलन को बनाए रखती हैं। धरती के प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में मानव से भी ज्यादा भूमिका वन्य प्राणियों और वनस्पतियों की है। इसलिए इनके विलुप्त होने से प्रकृति पर गहरा असर पड़ेगा। इस खतरे को देखते हुए ही पिछले तीन दशकों में ज्यादातर देशों ने वन्य जीवों और वनस्पतियों के संरक्षण के लिए गंभीर प्रयास शुरू तो किए हैं, लेकिन ये अभी तक कोई ठोस नतीजे सामने नहीं आए हैं।


आंकड़े बताते हैं कि धरती पर उन्नीस हजार से ज्यादा पेड़-पौधे विलुप्त होने के कगार पर आ गए हैं। विलुप्त हो रहे ये पेड़-पौधे जैव विविधता विलोपन के अंतर्गत आते हैं। इसके मुताबिक यदि किसी वन्य जीव के प्राकृतिक वास को सत्तर फीसद कम कर दिया जाए तो वहां निवास करने वाली पचास फीसद प्रजातियां लुप्त होने की स्थिति में पहुंच जाएंगी। इससे यह पता चलता है कि वन्य जीवों और वनस्पतियों में सहजीवन की पूरकता है। इसलिए जितना वनस्पतियों को विलुप्त होने से बचाना जरूरी है, उतना ही वन्य जीवों को भी। आंकड़े और शोध बताते हैं कि विश्व में जंगली पेड़ों की आधी प्रजातियां विलुप्त होने के कगार पर आ गई हैं। इससे वैश्विक स्तर पर जंगलों के पारिस्थितिकी तंत्र का चरमराने का खतरा बढ़ गया है। इस संबंध में पिछले दिनों ‘स्टेट आॅफ द वर्ल्ड्स ट्रीज रिपोर्ट’ भी जारी की गई। इसमें पांच साल पहले तक चले अंतरराष्ट्रीय अध्ययन में जंगली पेड़ों की सत्रह हजार पांच सौ दस प्रजातियों का अस्तित्व गंभीर खतरे में पाया गया है।

गौरतलब है यह आंकड़ा वैश्विक स्तर पर पेड़ों की कुल ज्ञात अट्ठावन हजार चार सौ सनतानवे प्रजातियों का 29.9 फीसद है। अध्ययन में 7.1 फीसद अन्य प्रजातियों का अस्तित्व भी खतरे में होने की बात सामने आई है। अध्ययन में बताया गया है कि 21.6 फीसद प्रजातियों की मौजूदा स्थिति का विस्तृत विश्लेषण नहीं किया जा सका है, जबकि 41.5 फीसद प्रजातियों का अस्तित्व शोधकर्ताओं को सुरक्षित मिला। अध्ययन में ब्राजील में विलुप्तप्राय प्रजातियों की संख्या सबसे अधिक एक हजार सात सौ अट्ठासी दर्ज की गई है। इसमें महोगनी, शीशम आदि प्रमुख हैं। वहीं पर वनस्पति विविधता के लिहाज से कम संपन्न माने जाने वाले यूरोप और उत्तर अमेरिका में भी पेड़ों की कई प्रजातियां खतरे में मिली हैं। कीटों का आतंक और कीटनाशकों का ज्यादा इस्तेमाल इसकी मुख्य वजह बताई गई है।

स्टेट आॅफ द वर्ल्डस ट्रीज रिपोर्ट के मुताबिक ब्राजील में सबसे ज्यादा जंगली वनस्पतियों के विलुप्त होने का खतरा है। अध्ययन के अनुसार ब्राजील में पाई जाने वालीं आठ हजार आठ सौ सैंतालीस प्रजातियों में से एक हजार सात सौ अट्ठासी यानी बीस फीसद जंगली वनस्पतियों के विलुप्त होने का खतरा बढ़ गया है। इसी तरह कोलंबिया में पाई जाने वाली पांच हजार आठ सौ अड़सठ जंगली वनस्पतियों में से आठ सौ चौंतीस यानी चौदह फीसद वनस्पतियां विलुप्ति के कगार पर हैं। इंडोनेशिया में पाई जाने वाली पांच हजार सात सौ सोलह जंगली वनस्पतियों में से एक हजार तीन सौ छह यानी तेईस फीसद वनस्पतियों पर विलुप्ति का खतरा मंडरा रहा है।

हरे-भरे मलेशिया की हालत भी लगभग ऐसी ही है। आंकड़े बताते हैं कि मलेशिया में पाई जाने वाली पांच हजार चार सौ बाईस जंगली वनस्पतियों में से एक हजार दो सौ पनचानवे यानी चौबीस फीसद इसी संकट से गुजर रही हैं। गौरतलब है कि मलेशिया ऐसा देश है जहां लोग वन और वनस्पतियों को लेकर काफी जागरूक हैं। छोटे से देश वेनेजुएला में चार हजार आठ सौ बारह जंगली वनस्पतियां पाई जाती है जिसमें छह सौ चौदह यानी तेरह फीसद समाप्ति की ओर हैं। और दुनिया के सबसे ज्यादा आबादी वाले देश चीन में पाई जाने वाली चार हजार छह सौ आठ वनस्पतियों में से आठ सौ नब्बे यानी उन्नीस फीसद जंगली वनस्पतियों पर विलुप्त होने का खतरा मंडरा रहा है। इन आंकड़ों से एक बात तो साफ है कि वनस्पतियों की सुरक्षा और संरक्षण के प्रति तकरीबन सभी देशों में उदासीनता और लापरवाही की स्थिति है। गौरतलब है वन्य जीवों के प्रति भी लोगों की कमोवेश ऐसी ही असंवेदनशीलता देखने को मिल रही है।

भारत में पिछले पचास वर्षों में सबसे ज्यादा जंगली वनस्पतियों का विलोपन हुआ। इसकी एक बड़ी वजह पेड़-पौधों की अंधाधुंध कटाई रही है। लेकिन दूसरे भी कई कारण हैं। जैसे वनस्पतियों के संरक्षण के प्रति लोगों की घटती दिलचस्पी, सूखा या बाढ़ और वनस्पतियों को जीवन का हिस्सा मानने की प्रवृति का कम होते जाना भी है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों के फैलाव, उनके द्वारा उस इलाके की वनस्पतियों को उजाड़ने और पानी का अंधाधुंध दोहन की वजह से भी तमाम उपयोगी वनस्पतियां देखते ही देखते हमेशा के लिए विलुप्त हो गर्इं। सरकारी और गैरसरकारी प्रयास उन क्षेत्रों तक ही सीमित रहे जहां वनस्पतियों की सुरक्षा का दायित्व वन विभाग को सौंपा गया।