किलकारी के समर कैम्प में कथा चित्र के माध्यम से बयां की गई बिहोला विषहरी की दास्तां
पूर्णिया
लोक कला के संवर्धन के लिए सजग है पूर्णिया के बच्चे । वैसे तो गर्मी की छुट्टियों में बच्चे आमतौर पर घर में आराम करना चाहते हैं या फिर किसी हिल स्टेशन की सैर करने के लिए जाना चाहते हैं, लेकिन इन दोनों पूर्णिया में सेकड़ों बच्चे अपनी छुट्टी के साथ प्रयोग करते हुए समर कैम्प में हिस्सा ले रहे हैं और एक से बढ़कर एक हुनर दिखा रहे हैं। यही नहीं बिहुला विषहरी के कथा चित्र के माध्यम से अपनी अंगभूमि की सभ्यता और संस्कृति को दस्तावेज का रूप देने में जुट गए हैं, यह अपने आप में एक अनूठी पहल है ।
दरअसल किलकारी, बिहार बाल भवन, पूर्णिया के द्वारा इन दिनों अपने सिलेबस के मुताबिक, विगत वर्ष की भांति इस वर्ष भी व्यापक स्तर पर समर कैम्प का आयोजन किया गया है और इस समर कैंम्प में एक से बढ़कर एक कई विधा में बच्चों के बीच प्रशिक्षण कार्य चल रहा है जिससे इनकी छिपी हुई प्रतिभा लगातार सामने आ रही है । खाश तौर पर यह बच्चे इस समर कैम्प में अपनी माटी की सभ्यता और संस्कृति को भी खूब संरक्षित कर रहे हैं। हमारे संस्कृतिऔर सभ्यता को दर्शाती हुई एक हम कल है, मंजूषा कला ! इस कला विद्या में यहां खाश तौर पर बच्चों को प्रशिक्षित किया जा रहा है । इसके लिए भागलपुर सेइस मंजुषा कला के विशेषज्ञ मनोज कुमार पंडित को बुलवाया गया है, जो मंजूषा गुरु सम्मान और बिहार कला सम्मान से भी नवाजे जा चुके हैं और उनके कुशल संरक्षण में, पूर्णिया के बच्चे लगातार अपने अंग की धरती की पौराणिक सभ्यता और संस्कृति को सहेजने में जुटे हुए हैं ।
बेहोला बिषहरी की कथा को कथा चित्र के माध्यम से अपनी संस्कृति का दस्तावेजीकरण कर रहे हैं । ... क्या है मंजुषा कला और कैसे हुई उत्पत्ति ? बताया जाता है कि चौदह.सौ वर्ष पूर्व से इस मंजुषा कला का अस्तित्व रहा है, लेकिन कालांतर में यह विलचप्त हो गई थी ,फिर सन 1971 में जब अंग प्रदेश धरोहर की खोज में पुरातत्व विभाग की ओर से खुदाई हुई तो यह बात सामने आई कि, अंग प्रदेश के चंपा में चौदह सौ साल पुरानी इस सभ्यता संस्कृति से जुड़ी कलाकृति हुआ करती थी और यह कलाकृति मंजूषा कला के नाम से आज जानी जाती थी । इस खुदाई में लगभग पन्द्रह किलो वजन वाली दो मूर्तियां प्राप्त हुई थी जिसका स्वरूप नाग नागिन की तरह था लेकिन खास बात यह थी कि, नाग नागिन के स्वरूप में आदमी का स्वरूप भी समाहित था । फिर इस भित्ति चित्र पर कई शोध हुए और आज मंजूषा कला को पूरी दुनिया में एक स्थान मिल चुका है। बिहार के बाहर जब मंजूषा कला की काफी चर्चा होने लगी तब बिहार में भी इसके लिए प्रमुख रूप से कार्य होना शुरू हुआ और आज प्रमुखता के साथ इस कला के संवर्धन और संरक्षण के लिए बिहार में कार्य किया जा रहा है । इसी कड़ी में इस समर कैम्प के बच्चों को भी मंजुषा कला के लिए प्रशिक्षित किया गया और बच्चों ने अपनी तूलिका से बिहुला विषहरी की कथा को कथा चित्र के माध्यम से प्रदर्शित कर सबों का ध्यान अपनी ओर खींचा! हमने अन्य.सभी प्रशिक्षण के साथ मंजुषा कला के बारे में बारिकी से जानकारी लेते हुए बच्चों से यह जाना कि इसमें कितने बॉर्डर होते हैं और कितने प्रकार के रंग भरे जाते हैं। बच्चों ने हमारे इस प्रश्न का उत्तर देते हुए यह बताया कि ,
इस कला के पेन्टिंग में पांच बॉर्डर होते हैं और तीन तरह के निर्धारित रंग गुलाबी, हरा व पिला का ही इस्तेमाल होता हैं । निश्चित तौर पर पूर्णिया के बच्चों के द्वारा अंग प्रदेश की महत्वपूर्ण कला को सहेजने और समेटने के लिए इस समर कैम्प में जो प्रयास किए जा रहे हैं ,वह सराहनीय हैं और इस कार्य में लगभग 150 छात्र-छात्राएं शामिल हैं । सभी बच्चों की तूलिका कमाल कर रही है । सभी एक से बढ़कर एक मंजूषा पेंटिंग बना रहे हैं। इससे यह प्रलक्षित होता है कि पूर्णिया के बच्चे अपनी सभ्यता और संस्कृति को सहेजने के लिए सचेष्ट हैं और लोक कला का भविष्य यहां उज्जवल है ।
May 06 2024, 16:55