होली पर्व विशेष:फागोत्सव का संदेश है कि अभी और इसी क्षण मानवमात्र से बिना शर्त प्रेम करें
ललितपुर। होली पर्व पर आयोजित एक परिचर्चा को संबोधित करते हुए नेहरू महाविद्यालय के पूर्व प्राचार्य प्रो.भगवत नारायण शर्मा ने कहा कि बुन्देलखण्ड और बृजभूमि में रसेस्वर रंगनाथ श्रीकृष्ण लीला अथवा आज अवध में होरी रे रसिया का निमित्त हो तो फागोत्सव का परमानंद कुछ अजब और गजब सतरंगी छटा और रंग और गुलाल की विलक्षण घटा के साथ मन को इतना हिल्लोलित कर देता है कि यहां के किसान, श्रमिक और शिल्पकार धरती माता के इस मैले आँचल के दुख-दारिद्रय को भूल जाते हैं और यहां के रसीले जनकवि ईसुरी की फागें गाकर मस्त हो जाते हैं। यह सिलसिला विगत संक्रान्ति के पर्व से शुरु होकर होली के बाद रंगपंचमी तक बदस्तूर जारी रहता है।
यथा- दिन ललित बसंती आन लगे, हरे पात पियरान लगे, छिन-छिन घटन लगी है रजनी रवि के रथ ठहरान लगे उडऩ लगे चहुओर पताका आमन बौर दिखान लगे ऐसे में गंगाधर मोहन किन सौतन के कान लगे।रितुराज बसंत के शुभागमन से स्वाभाविक है कि जड़ और चेतन जगत नई करवट ले रहा है और सहसा जाग उठने पर दूने उत्साह से कर्मक्षेत्र में कूद पडऩे का आवाहन कर रहा है। हिन्दी के रसमय रीतिकालीन कवि पद्माकर भट्ट थे तो मूलरूप से मराठी, परंतु नख से शिख तक नीकी-नौनी, गुरीरी बुन्देली की चासनी में पग गये थे-वे कहते है- वनन में, बागन में बगरौ बसंत है। अन्य स्थल पर कही गई उनकी यह फाग समस्त उत्तर भारत में आज तक दोहराई जाती है। होली के मौके पर एक गोपिका भगवान रंगनाथ को ऐसा मजा चखाती है कि जिसे वे जीवन भर कदाचित भूले नहीं होंगे।
फाग की भीर, अभीरन में, गहि गोविंद लै गई भीतर गोरी, भाई करी मन की पदमाकर, सो ऊपर नाय अबीर की झोरी। छीन पितंबर कम्मर तै सो विदा दई मीड़ कपोलन रोरी। नैन नचाय कही मुसकाय, लला फिर अइयो खेलन होरी? भारत के यूं तो सभी उत्सव खेती-किसानी से जुड़े हैं परंतु फागोत्सव का विशेष ही आनंद है। क्योंकि खेतों में नवान्न गेहूं बालों से निवस्याने (बाहर आने) को व्याकुल हो रहा है। दलहनी फसलों पर तो खरर-खरर हंसिया चलता देख किसानों की हंसी -खुशी का पार-सम्हार का तो कहना ही क्या है? किसान संस्कृति अपने इस आनंदोत्सव में सभी को पुरा-पाले और गांववासियों को सहज रूप से साझा कर लेती है और नागर-शहरी संस्कृति अकेले ही कुठिया में दुबककर मंसूमा (अकेले ही ) गुड़ चूसती रहती है। इसीलिए बहुत पहले से ही होली की प्रेम और मस्ती की फागें गूंज रही हैं। जबसे सुनी बांसुरी हर की, नंदनंदन गिरधर की, मैं जमुनाजल भरत जातती, खबर भूल गई घर की, करन देत सखी री कोउ, नांश बांस की जर की।
यानि न रहे बांस और न बजे बांसुरी, हिन्दी के सगुण और निर्गुण भक्तिकालीन भक्तों की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि वे अपने आराध्य देवाधिदेव शंकर, भगवान राम और कृष्ण के साथ राग-रंग में इतने डूब जाते हैं कि भक्त और भगवान का भेद ही मिट जाता है। अत: सभी होली गीत जितने आध्यात्मिक हैं उतने ही लौकिक है। संसार के सभी मनुष्यों के खून का रंग लाल है इसीलिए समस्त मानवजाति जिसे एक ही ईश्वर ने जन्म दिया है वह सहोदर भ्राता है ।
सदगुरु कबीर की अभिव्यक्ति कितनी सटीक है लाली मेरे लाल की, जित देखो तित लाल, लाली देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल। निर्गुनिया संत भी मरघट को भी साधनास्थली बनाते हुए इतने मस्त हो जाते हैं कि मसाने में होरी खेले दिगम्बर। अनादिकाल से जीवात्मा और परमात्मा की एकात्मता की होली के अजब-गजब रंग-ढंग को भी भक्तिकाल के निरंजनी संतों ने चेतावनी के रूप में अनदेखा नहीं होने दिया है। सचमुच होली का आनंदोत्सव मानव एकात्मता और उल्लास का वैश्विक महापर्व है। एक गोपिका अपने प्रिय कान्हा से कहती है। का मिलत हमें रंग डारे सैं मैं तौ सदा रंगी रंग कारे सैं। वस्तुत: जीव और परमात्मा की अद्वैतता ही आज की सभी समस्याओं का तार्किक समाधान है।
Mar 24 2024, 18:22