भारत विरोधी' पत्रकार फज़ल अंसारी को बांग्लादेशी सरकार ने नियुक्त किया अपना राजदूत, क्या है पड़ोसी देश की मंशा?

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बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने विवादित 'पत्रकार' मुश्फिकुल फजल अंसारी को 3 साल के लिए राजदूत नियुक्त किया है।फजल अपने कथित भारत विरोधी रुख और अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना के खिलाफ एक दशक लंबा अभियान चलाने के लिए जाने जाते हैं। फजल को हसीना सरकार के समय बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था। एक दशक के निर्वासन के बाद वह 12 सितंबर को बांग्लादेश लौटे हैं। इसके बाद मौजूदा सरकार ने उनको नियुक्ति के तौर पर ये तोहफा दिया है।

बांग्लादेश के लोक प्रशासन मंत्रालय ने सोमवार को एक अधिसूचना जारी करते हुए अंसारी की नियुक्ति की पुष्टि की है। नए राजदूत का कार्यकाल तीन साल का होगा, जिसके दौरान उन्हें अपनी नियुक्ति की शर्तों के अनुसार सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ किसी भी अन्य पेशेवर जुड़ाव या संबद्धता से इस्तीफा देना होगा। उनकी भूमिका विदेश मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में होगी, और अनुबंध की अन्य बारीकियों को बाद में निर्धारित किया जाएगा।

अंसारी की नियुक्ति ऐसे समय हुई है, जब अंतरिम सरकार ने अमेरिका, रूस और यूएई में अपने राजदूतों की संविदात्मक नियुक्तियों को रद्द कर दिया है। इन देशों में नए अफसरों को भेजा जाएगा।

इसी साल मार्च में फज़ल अंसारी सुर्खियों में आए थे, जब उन्होंने अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर के साथ एक प्रेस वार्ता के दौरान दिल्ली शराब नीति मामले (जो भारत का आंतरिक मामला है) में आप नेता अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी का मुद्दा उठाया था। मुश्फिकुल फ़ज़ल अंसारी ने भी यूएन महासचिव के प्रवक्ता के सामने यही मुद्दा उठाया। साथ ही लोकसभा चुनावों के दौरान आयकर विभाग द्वारा कांग्रेस पार्टी के बैंक खातों को फ्रीज करने पर प्रतिक्रिया मांगी थी।

अंसारी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के समर्थक हैं। वे 2001 से 2006 तक पूर्व प्रधान मंत्री खालिदा जिया के सहायक प्रेस सचिव रहे थे, जो बांग्लादेश में शेख हसीना की मुख्य प्रतिद्वन्द्वी हैं। अंसारी बीते काफी समय से वाशिंगटन स्थित विदेश नीति पत्रिका साउथ एशिया पर्सपेक्टिव्स के कार्यकारी संपादक के रूप में काम रहे थे। अंसारी संयुक्त राष्ट्र, अमेरिकी विदेश विभाग और पेंटागन को कवर करने वाले जस्टन्यूजबीडी के संपादक और व्हाइट हाउस संवाददाता भी हैं।

बांग्लादेश जैसा उपद्रव भारत में भी हो सकता है”? किस खतरे की ओर है भगवात का इशारा

#rsschiefmohanbhagwatwarnedindiabygivingexampleofbangladesh

अगस्त में पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ, जिसके बाद देश के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि बांग्लादेश के प्रधानमंत्री आवास में जिस तरह लूट-खसोट हुई, वैसा ही दृश्य भारत में भी देखा जा सकता है। ये दोनों नेता कांग्रेस पार्टी के हैं। इनमें एक तो केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। हालांकि, उस वक्त बीजेपी नेताओं ने आपत्तियां दर्ज की थी। अब दशहरे के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी बांग्लादेश की राजनीतिक अस्थिरता की तुलना भारत से कर दी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 'बांग्लादेश में हिंसा जैसी स्थिति भारत में पैदा करने की कोशिश', 'बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार' जैसे मुद्दे पर टिप्पणी की।

संघ प्रमुख ने कहा कि 'डीप स्टेट', 'वोकिज्म', 'कल्चरल मार्क्सिस्ट' शब्द इस समय चर्चा में हैं और ये सभी सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित दुश्मन हैं। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और जहां जहां जो कुछ भी भद्र, मंगल माना जाता है, उसका समूल उच्छेद (पूरी तरह से ख़त्म करना) इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है। भागवत ने आगे कहा, समाज में अन्याय की भावना पैदा होती है। असंतोष को हवा देकर उस तत्व को समाज के अन्य तत्वों से अलग और व्यवस्था के प्रति आक्रामक बना दिया जाता है। व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अविश्वास और घृणा को बढ़ावा देकर अराजकता और भय का माहौल बनाया जाता है. इससे उस देश पर हावी होना आसान हो जाता है।

भागवत ने आगे कहा कि तथाकथित 'अरब स्प्रिंग' से लेकर पड़ोसी बांग्लादेश में हाल की घटनाओं तक, एक ही पैटर्न देखा गया। हम पूरे भारत में इसी तरह के नापाक प्रयास देख रहे हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि पिछले कुछ सालों में भारत अधिक ताकतवर हुआ है और विश्व में उसकी साख भी बढ़ी है लेकिन मायावी षडयंत्र देश के संकल्प की परीक्षा ले रहे हैं।

भागवत ने कहा क शिक्षा संस्थान, बौद्धिक जगत में कब्जा कर विचारों में विकृति पैदा करने की कोशिश करते हैं। ऐसा माहौल बनाते है कि हम ही अपनी परंपरा को तुच्छ समझें। उन्होंने कहा कि समाज की विविधताओं को अलगाव में बदलने की कोशिश करना, लोगों में टकराव की स्थिति पैदा करना, सत्ता, प्रशासन, कानून, संस्था सबके प्रति अनादर का व्यवहार सिखाना... इससे उस देश पर बाहर से वर्चस्व चलाना आसान है।

अब सवाल ये है कि भागवत के बयान में इशारा किसकी तरफ है। संघ ने हमेशा आरोप लगाया है कि भारत की संस्कृति 'हिंदू संस्कृति' है उसे 'सांस्कृतिक मार्क्सवाद' के माध्यम से नष्ट करने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, संघ का इशारा उन गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की तरफ है, जिसे बाहरी लोग फंडिंग करते हैं और इनसे भारत विरोधी गतिविधियां करते। संघ का दावा है कि दुनिया भर के कई अंतरराष्ट्रीय संगठन भारत में विभिन्न संगठनों को वित्तीय सहायता देते हैं, यह सहायता भारत में विकास में बाधा डालने के लिए है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने पिछले कुछ सालों में उन तमाम गैर-सरकारी संगठनों पर नकेल कसी है, जो कथित तौर पर भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल रहते थे। राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था को पुख्ता करने का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय का होता है और मंत्रालय ने ऐसे ही संगठनों के खिलाफ जांच और उचित कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिए हैं। दूसरी तरफ, जो संगठन देश और देशवासियों के लिए जनकल्याण की भावना से काम करते हैं और भारतीय कानून को मानते हैं, सरकार की तरफ से उचित मदद भी दी जा रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनने के बाद से ही देश में रजिस्टर्ड एनजीओ की गहरी छानबीन शुरू हुई और पड़ताल में हजारों एनजीओ नियम-कानून की धज्जियां उड़ाते पाए गए। सरकार ने ऐसे एनजीओ पर लगाम कसना शुरू किया और उन सारे एनजीओ के लाइसेंस कैंसल करने लगी जो नियमों के पालन में हीला-हवाली करते पाए गए। सरकार की कार्रवाई का शिकार कई मशहूर अंतरराष्ट्रीय एनजीओ भी हुए जिन्होंने भारतीय कानूनों की अनदेखी की थी।

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“बांग्लादेश जैसा उपद्रव भारत में भी हो सकता है”? किस खतरे की ओर है भगवात का इशारा

अगस्त में पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ, जिसके बाद देश के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि बांग्लादेश के प्रधानमंत्री आवास में जिस तरह लूट-खसोट हुई, वैसा ही दृश्य भारत में भी देखा जा सकता है। ये दोनों नेता कांग्रेस पार्टी के हैं। इनमें एक तो केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। हालांकि, उस वक्त बीजेपी नेताओं ने आपत्तियां दर्ज की थी। अब दशहरे के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी बांग्लादेश की राजनीतिक अस्थिरता की तुलना भारत से कर दी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 'बांग्लादेश में हिंसा जैसी स्थिति भारत में पैदा करने की कोशिश', 'बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार' जैसे मुद्दे पर टिप्पणी की।

संघ प्रमुख ने कहा कि 'डीप स्टेट', 'वोकिज्म', 'कल्चरल मार्क्सिस्ट' शब्द इस समय चर्चा में हैं और ये सभी सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित दुश्मन हैं। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और जहां जहां जो कुछ भी भद्र, मंगल माना जाता है, उसका समूल उच्छेद (पूरी तरह से ख़त्म करना) इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है। भागवत ने आगे कहा, समाज में अन्याय की भावना पैदा होती है। असंतोष को हवा देकर उस तत्व को समाज के अन्य तत्वों से अलग और व्यवस्था के प्रति आक्रामक बना दिया जाता है। व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अविश्वास और घृणा को बढ़ावा देकर अराजकता और भय का माहौल बनाया जाता है. इससे उस देश पर हावी होना आसान हो जाता है।

भागवत ने आगे कहा कि तथाकथित 'अरब स्प्रिंग' से लेकर पड़ोसी बांग्लादेश में हाल की घटनाओं तक, एक ही पैटर्न देखा गया। हम पूरे भारत में इसी तरह के नापाक प्रयास देख रहे हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि पिछले कुछ सालों में भारत अधिक ताकतवर हुआ है और विश्व में उसकी साख भी बढ़ी है लेकिन मायावी षडयंत्र देश के संकल्प की परीक्षा ले रहे हैं।

भागवत ने कहा क शिक्षा संस्थान, बौद्धिक जगत में कब्जा कर विचारों में विकृति पैदा करने की कोशिश करते हैं। ऐसा माहौल बनाते है कि हम ही अपनी परंपरा को तुच्छ समझें। उन्होंने कहा कि समाज की विविधताओं को अलगाव में बदलने की कोशिश करना, लोगों में टकराव की स्थिति पैदा करना, सत्ता, प्रशासन, कानून, संस्था सबके प्रति अनादर का व्यवहार सिखाना... इससे उस देश पर बाहर से वर्चस्व चलाना आसान है।

अब सवाल ये है कि भागवत के बयान में इशारा किसकी तरफ है। संघ ने हमेशा आरोप लगाया है कि भारत की संस्कृति 'हिंदू संस्कृति' है उसे 'सांस्कृतिक मार्क्सवाद' के माध्यम से नष्ट करने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, संघ का इशारा उन गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की तरफ है, जिसे बाहरी लोग फंडिंग करते हैं और इनसे भारत विरोधी गतिविधियां करते। संघ का दावा है कि दुनिया भर के कई अंतरराष्ट्रीय संगठन भारत में विभिन्न संगठनों को वित्तीय सहायता देते हैं, यह सहायता भारत में विकास में बाधा डालने के लिए है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने पिछले कुछ सालों में उन तमाम गैर-सरकारी संगठनों पर नकेल कसी है, जो कथित तौर पर भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल रहते थे। राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था को पुख्ता करने का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय का होता है और मंत्रालय ने ऐसे ही संगठनों के खिलाफ जांच और उचित कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिए हैं। दूसरी तरफ, जो संगठन देश और देशवासियों के लिए जनकल्याण की भावना से काम करते हैं और भारतीय कानून को मानते हैं, सरकार की तरफ से उचित मदद भी दी जा रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनने के बाद से ही देश में रजिस्टर्ड एनजीओ की गहरी छानबीन शुरू हुई और पड़ताल में हजारों एनजीओ नियम-कानून की धज्जियां उड़ाते पाए गए। सरकार ने ऐसे एनजीओ पर लगाम कसना शुरू किया और उन सारे एनजीओ के लाइसेंस कैंसल करने लगी जो नियमों के पालन में हीला-हवाली करते पाए गए। सरकार की कार्रवाई का शिकार कई मशहूर अंतरराष्ट्रीय एनजीओ भी हुए जिन्होंने भारतीय कानूनों की अनदेखी की थी।

क्या बांग्लादेश में तख्तापलट की जानकारी भारत की एजेंसियों को नहीं थी?

#wereindianagenciesunawareoftheactivitiesgoingin_bangladesh

Flags of India & Bangladesh

भारत बांग्लादेश में अशांति पर कड़ी नज़र रख रहा है, जो एक पड़ोसी देश होने के साथ-साथ नई दिल्ली के सबसे करीबी सहयोगियों में से एक है। यह हज़ारों भारतीय छात्रों का अस्थायी घर भी है। बांग्लादेश में छात्र समूहों ने प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार द्वारा हिरासत में लिए गए नेताओं को रिहा करने और हाल की हिंसा के लिए माफ़ी मांगने की उनकी मांग को पूरा करने में विफल रहने के बाद हसीना के 16 साल के शासन से नाराज़गी जताते हुए उन्हें देश छोड़ने को मजबूर कर दिया था। लेकिन नई दिल्ली ने इसपर कोई भी पूर्व प्रतिक्रिया जारी नई की थी, जिसके कारण लोगों के मन में यह सवाल है कि क्या भारत की ख़ुफ़िया एजेंसीज ने इस घटना को लेकर भारत सरकार को कोई चेतवानी नई दी थी। 

"भारत देश में चल रही स्थिति को बांग्लादेश का आंतरिक मामला मानता है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने साप्ताहिक प्रेस वार्ता में कहा था, "बांग्लादेश सरकार के समर्थन और सहयोग से हम अपने छात्रों की सुरक्षित वापसी की व्यवस्था करने में सक्षम हैं।"

देश में हिंसक झड़पों के बीच बांग्लादेश से करीब 6,700 भारतीय छात्र वापस लौटे थे

जायसवाल ने कहा, "एक करीबी पड़ोसी होने के नाते जिसके साथ हमारे बहुत ही मधुर और मैत्रीपूर्ण संबंध हैं, हमें उम्मीद है कि देश में स्थिति जल्द ही सामान्य हो जाएगी।"

सुरक्षा, व्यापार और कूटनीति के लिए बांग्लादेश महत्वपूर्ण

भारत के लिए, सामान्य स्थिति में लौटने का मतलब है हसीना का सत्ता में लौटना, आंशिक रूप से सुरक्षा कारणों से दोनों देश 4,100 किलोमीटर लंबी (2,500 मील) छिद्रपूर्ण सीमा साझा करते हैं, जिसका मानव तस्कर और आतंकवादी समूह फायदा उठा सकते हैं। इसके अलावा, बांग्लादेश पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के भारतीय राज्यों के साथ सीमा साझा करता है, जो हिंसक विद्रोहों के लिए असुरक्षित हैं। बांग्लादेश में भारत के पूर्व उच्चायुक्त पिनाक रंजन चक्रवर्ती ने बताया भारत ने पड़ोसी देश में जन समर्थन और सद्भावना बनाने के लिए निवेश किया है। "बांग्लादेश की भौगोलिक स्थिति उसे बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल वाले उप-क्षेत्र के विकास में एक हितधारक बनाती है। इस क्षेत्र में बांग्लादेश के उत्तर और पूर्व में स्थित भारतीय राज्य शामिल हैं। भारत के पूर्वोत्तर में स्थित ये राज्य कभी अविभाजित भारत में आपूर्ति श्रृंखला में एकीकृत थे," चक्रवर्ती ने बताया। अब, बांग्लादेश और भारत परिवहन संपर्क को बढ़ावा देने और "विभाजन-पूर्व युग में जो मौजूद था उसे बहाल करने" के लिए काम कर रहे हैं, उन्होंने कहा।

ढाका को अरबों का ऋण

भारत, बांग्लादेश को एक महत्वपूर्ण पूर्वी बफर के रूप में पहचानता है और अपने बंदरगाहों और बिजली ग्रिड तक पहुँच के माध्यम से महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करता है। नई दिल्ली ने अब तक ढाका को लगभग 8 बिलियन डॉलर (€7.39 बिलियन) की ऋण रेखाएँ दी हैं, जिसका उपयोग विकास परियोजनाओं, बुनियादी ढाँचे के निर्माण और डीजल की आपूर्ति के लिए पाइपलाइन के निर्माण के लिए किया जाता है। देश में निवेश करने वाली प्रमुख भारतीय कंपनियों में मैरिको, इमामी, डाबर, एशियन पेंट्स और टाटा मोटर्स शामिल हैं।

छात्र विरोध प्रदर्शनों के बढ़ने से इन कंपनियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ सकता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र के संजय भारद्वाज ने कहा, "भारत और बांग्लादेश के बीच संबंध उनके साझा इतिहास, जटिल सामाजिक-आर्थिक अंतरनिर्भरता और उनकी भू-राजनीतिक स्थिति में अंतर्निहित हैं। क्षेत्र में कोई भी टकराव वाली राजनीति और राजनीतिक अस्थिरता आतंकवाद, कट्टरवाद, उग्रवाद और पलायन की समस्याओं को आमंत्रित करती है।" उन्होंने कहा, "हिंसक विरोध और राजनीतिक अस्थिरता हिंसा के चक्र को जन्म देगी और लोग भारत की ओर पलायन करेंगे।" भारत और चीन के बीच टकराव हाल के वर्षों में, भारत और चीन दोनों ने बांग्लादेश में अपने आर्थिक दांव बढ़ाए हैं, जो दोनों देशों की बढ़ती भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में बदल रहा है। बांग्लादेश के साथ घनिष्ठ संबंधों का दावा करने के बावजूद, कुछ विश्लेषकों का मानना ​​है कि भारतीय नीति निर्माता बांग्लादेश की आबादी के कुछ हिस्सों में व्याप्त भारत विरोधी भावना को समझने में संघर्ष करते हैं। इसका कुछ कारण नई दिल्ली द्वारा सत्तारूढ़ अवामी लीग को समर्थन देना हो सकता है। 

इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो, हसीना सरकार की हालिया विफलताएं और विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी, साथ ही स्थानीय इस्लामिस्ट पार्टियों का मजबूत होना भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है। फिर भी, भारत स्थित जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स की प्रोफेसर श्रीराधा दत्ता का मानना ​​है कि छात्र विरोध प्रदर्शनों पर हसीना सरकार की अतिवादी प्रतिक्रिया को उचित नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने विपक्षी दलों और इस्लामिस्ट छात्रों पर हिंसा का सारा दोष मढ़ने के बांग्लादेशी अधिकारियों के प्रयास की आलोचना की। दत्ता ने कहा कि सरकार की "गैर-प्रतिक्रिया और अपमानजनक टिप्पणियों" की प्रतिक्रिया के रूप में विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए।

जमात-ए-इस्लामी का उदय और बांग्लादेश की राजनीतिक पहेली, भारत पर क्या होगा इनका असर ?

#rise_of_jamaat-e-islami_and_bangladesh_political_conundrum

Nobel laureate Muhammad Yunus salutes to the attendees upon arrival at the Bangabhaban,Bangladesh (REUTERS)

शेख हसीना को सत्ता से हटाए जाने के एक महीने बाद, पश्चिम समर्थक मोहम्मद यूनुस और सेना प्रमुख जनरल वकर-उस-ज़मान की अगुआई वाली बांग्लादेश की अंतरिम सरकार देश में कानून और व्यवस्था बहाल करने में विफल रही है, जबकि खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की कीमत पर भी इस्लामी जमात-ए-इस्लामी (जेईआई) का तेजी से उदय हो रहा है।

जेईआई का उदय, जिसका मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ गहरा वैचारिक संबंध है, और कट्टरपंथी हिफाजत-ए-इस्लाम और इस्लामी राज्य समर्थक अंसार-उल-बांग्ला टीम के साथ रणनीतिक रूप से हाथ मिलाना बांग्लादेश की लोकतांत्रिक साख के लिए गंभीर खतरा है, क्योंकि खुफिया जानकारी से संकेत मिलता है कि छात्र नेता भी इस्लामवादियों द्वारा नियंत्रित या शायद प्रभावित हैं।

रिपोर्ट्स से पता चलता है कि न तो बांग्लादेश की सेना और न ही यूनुस देश में अवामी लीग के कार्यकर्ता विरोधी और हिंदू विरोधी हिंसा को नियंत्रित करने में सक्षम रहे हैं, क्योंकि सेना अपराधियों से निपटने के लिए तैयार नहीं है और केवल मूकदर्शक बनकर रह गई है।

जम्मू-कश्मीर और भारत के अंदरूनी इलाकों में जमात का प्रभाव होने के कारण, भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा योजनाकारों ने जेईआई के उदय को देखा है, क्योंकि इसका भारत के भीतर सुरक्षा पर असर पड़ता है। 1990 के दशक में, जमात पूरे भारत में विशेष रूप से यूपी, महाराष्ट्र, अविभाजित आंध्र प्रदेश में सिमी के उदय के पीछे थी और बाद में पाकिस्तान ने इस समूह को इंडियन मुजाहिदीन के रूप में हथियारबंद कर दिया। जमात ने घाटी में युवाओं को हथियार उठाने के लिए कट्टरपंथी बनाकर पाकिस्तान समर्थक भावना को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

जबकि बांग्लादेश में अंतरिम सरकार चुनावों की घोषणा करने की जल्दी में नहीं है, एक कमजोर सरकार, बढ़ती इस्लामी कट्टरता और अर्थव्यवस्था की गिरती स्थिति ढाका के लिए आपदा का कारण बन रही है। दूसरी ओर, वर्तमान में आवामी लीग के भयभीत कार्यकर्ता आने वाले महीनों में फिर से संगठित होकर हाथ मिला सकते हैं और बीएनपी तथा इसके अधिक मजबूत सहयोगी जेईआई को चुनौती दे सकते हैं। इनपुट संकेत देते हैं कि वास्तव में 5 अगस्त के बाद बांग्लादेश में जेईआई ने बीएनपी की कीमत पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है।

जबकि भारत हिंसा तथा हिंदुओं और आवामी लीग कार्यकर्ताओं को विशेष रूप से निशाना बनाए जाने के बारे में चिंतित है, वह स्थिति पर नजर रख रहा है, क्योंकि एक अनिर्णायक अंतरिम सरकार उन युवाओं में असंतोष को जन्म देगी, जिन्होंने शेख हसीना को बाहर किया था। इसके साथ ही आर्थिक संकट, कपड़ा मिलों तथा परिधान विनिर्माण इकाइयों के बंद होने से बेरोजगारी तथा राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ेगी। पहले ही, बांग्लादेश का बाह्य तथा आंतरिक ऋण 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर चुका है। बांग्लादेश राजनीतिक रूप से बारूद के ढेर पर बैठा है और एक वर्ष के भीतर एक बार फिर विस्फोट हो सकता है।

बांग्लादेश स्तिथि का आंकलन करना भारत के लिए भी ज़रूरी है क्योकि इसका असर भारत को भी झेलना पड़ सकता है। बॉर्डर पर माइग्रेशन जैसी गतिविधियों में बढ़ोतरी हो सकती है।

क्या भारत और बांग्लादेश के बीच सुलझेगा तीस्ता जल विवाद? जानें बांग्लादेश के केयरटेकर सरकार की राय

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जब भी भारत और बांग्लादेश के बीच द्विपक्षीय वार्ता होती है, तीस्ता नदी विवाद हर बार सुर्खियों में रहता है। विवाद तीस्ता नदी के जल बंटवारे को लेकर है। भारत और बांग्लादेश से होकर बहने वाली तीस्ता नदी जल बंटवारे से संबंधित मुद्दों के कारण दोनों देशों के बीच विवाद का स्रोत रही है। अब बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने इस विवाद को लेकर बड़ी बात कही है। मोहम्मद यूनुस ने कहा है कि अंतरिम सरकार भारत के साथ तीस्ता जल बंटवारा संधि पर लंबित मुद्दों को सुलझाने के तरीकों पर काम करेगी। इस मुद्दे को वर्षों तक टालने से किसी को फायदा नहीं होगा।

शेख हसीना के तख्तापलट के बाद बांग्लादेश की आंतरिक सरकार भारत के साथ संबंधों को और सुधारने के लिए कदम उठा रही है। अब उसने फैसला लिया है कि वह तीस्ता जल बंटवारा संधि पर मतभेदों को सुलझाने के लिए भारत के साथ काम करेगी। बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस का कहना है कि अंतरिम सरकार भारत के साथ वार्ता फिर से शुरू करना चाहती है। मुहम्मद यूनुस ने कहा, इस मुद्दे (पानी के बंटवारे) को निपटाने के लिए काम नहीं करने से कोई फायदा नहीं होगा। भले ही मैं खुश ना भी होऊं और हस्ताक्षर कर दूं, लेकिन यदि मुझे पता होगा कि मुझे कितना पानी मिलेगा, तो यह बेहतर होगा। इस मुद्दे को सुलझाना होगा।

“बंटवारे के लिए अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों का पालन करना चाहिए”

मुहम्मद यूनुस ने कहा कि नदी के ऊपरी और निचले तटवर्ती देशों को जल बंटवारे के अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। मुख्य सलाहकार का कहना है कि दोनों देशों के बीच जल-बंटवारे के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार हल किया जाना चाहिए। साथ ही इस बात पर जोर दिया कि बांग्लादेश जैसे निचले तटवर्ती देशों के पास विशिष्ट अधिकार हैं, जिन्हें वे बनाए रखना चाहते हैं।

क्या है तिस्ता विवाद

बता दें कि भारत और बांग्लादेश साल 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ढाका यात्रा के दौरान तीस्ता जल बंटवारे पर एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार थे, लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने राज्य में पानी की कमी का हवाला देते हुए इसका समर्थन करने से इनकार कर दिया था।जिसके बाद से यह समझौता स्थगित कर दिया गया और पश्चिम बंगाल की आपत्तियों के कारण इस पर हस्ताक्षर नहीं हो सके।

CM Yogi Adityanath calls for all Hindus to unite.

BIGGEST BREAKING NEWS  CM Yogi Adityanath calls for all Hindus to unite.

He said "If we remain divided, we will be cut like what happened in Bangladesh. We can survive only if we remain united"

He said "Opposition spoke for Gaza Muslims but not for Bangladeshi Hindus. 90% of Bangladeshi Hindus are Dalits"

"India has only one Religion - Sanatan Dharma & it is the National religion of this country" - CM YOGI

बांग्लादेश सरकार ने शेख हसीना का पासपोर्ट किया रद्द, अब दूसरे देश कैसे जाएंगी ?

#bangladeshrevokessheikhhasinadiplomatic_passport 

अपने देश से भाग भारत में शरण लिए हुए शेख हसीना की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही है। एक तरफ बांग्लादेश पूर्व प्रधानंमत्री शेख हसीना के खिलाफ एक के बाद एक कई मामले दर्ज किए जा रहे हैं। यही वहीं, बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने भारत से शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की है। अब बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने शेख हसीना का पासपोर्ट रद्द कर दिया है।

बांग्लादेश में फैली भयंकर हिंसा के बीच 5 अगस्त को अपनी जान बचाने के लिए हसीना ने ढाका से भागकर भारत आकर शरण ली।भारत पहुंचने से पहले शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद भी छोड़ना पड़ा था।अब बांग्लादेश की मौजूदा सरकार ने शेख हसीना का डिप्लोमेटिक पासपोर्ट रद्द करने का भी ऐलान कर दिया है यानी जिस पासपोर्ट को लेकर शेख हसीना भारत आई थीं अब वो मान्य नहीं है।

बांग्लादेश के गृह मंत्रालय ने कहा, "पूर्व प्रधानमंत्री, उनके सलाहकार, पूर्व कैबिनेट मंत्री और भंग राष्ट्रीय असेंबली के सभी सदस्य अपने पदों के आधार पर राजनयिक पासपोर्ट के पात्र थे। अगर उन्हें पदों से हटाया गया हो या वे सेवानिवृत्त हो गए हैं तो उनके और उनके जीवनसाथी के पासपोर्ट रद्द करने होंगे।" ढाका के नए अधिकारियों ने कहा कि शेख हसीना और उनके कार्यकाल के पूर्व शीर्ष अधिकारी स्टैंडर्ड पासपोर्ट के लिए आवेदन कर सकते थे।

पासपोर्ट रद्द करने की वजह

बांग्लादेश के गृह मंत्रालय ने पासपोर्ट रद्द करने के पीछे कारण दिया गया है कि शेख हसीना के खिलाफ अब तक 44 आपराधिक मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। इसके साथ ही कुछ और मुकदमे अभी दर्ज हो सकते हैं। ऐसे में जरूरी है कि उन पर पाबंदी लगाने के लिए उनका डिप्लोमेटिक पासपोर्ट रद्द कर दिया जाए।

भारत से बाहर शरण मिलना होगा मुश्किल

बता दें कि शेख हसीना अभी फिलहाल भारत में शरण ली हुई हैं और वह कुछ अन्य देशों में भी शरण लेने की योजना के तहत काम कर रही हैं। बांग्लादेश की अंतिम सरकार द्वारा उनका डिप्लोमेटिक पासपोर्ट रद्द किए जाने के बाद उनको विदेश में शरण मिलना मुश्किल हो जाएगा। इसके साथ ही अंतिम सरकार ने उनके अनेक सहयोगियों के भी डिप्लोमेटिक पासपोर्ट रद्द कर दिए हैं, जिससे वह बांग्लादेश छोड़कर भाग न पाएं या यदि उनमें से कुछ लोग जो बाहर चले गए हैं वह अन्य देशों की यात्रा न कर पाएं।

यूएन टीम ने हसीना पर कई गंभीर आरोप लगाए

बांग्लादेश में पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना पर 40 से अधिक मुकदमे दर्ज किए जा चुके हैं, जिसमें ज्यादातर हत्या के मुकदमे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक टीम भी बांग्लादेश पहुंच चुकी है जो कि शेख हसीना के कार्यकाल में हुए मानवाधिकार हनन के मामलों की जांच करेगी। अपनी प्राथमिक जांच में यूएन टीम ने शेख हसीना पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि जल्द ही बांग्लादेश की सरकार शेख हसीना के खिलाफ भारत से प्रत्यर्पण की मांग कर सकती है।

बीएनपी ने की हसीने के प्रयार्पण की मांग 

बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने भारत से शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की है। बीएनपी के महासचिव मिर्जा फखरुल इस्लाम आलमगीर ने शेख हसीना पर देश में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन को बाधित करने की साजिश रचने का आरोप लगाते हुए हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की है। फखरुल इस्लाम ने कहा कि शेख हसीना को शरण देकर भारत बांग्लादेशियों का दिल नहीं जीत सकता। उन्होंने भारत पर लोकतंत्र के समर्थन से पीछे हटने का भी आरोप लगाया।

बांग्लादेश में 3 और मामलों में पूर्व पीएम शेख हसीना का नाम शामिल, बढ़ रही है मुश्किलें

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Ex PM of Bangladesh

पूर्व प्रधान मंत्री शेख हसीना को 2015 में अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) प्रमुख खालिदा जिया पर हमले का निर्देश देने, 2013 में ढाका में एक रैली पर गोलीबारी करने में कथित संलिप्तता और 4 अगस्त को जोइपुरहाट जिले में एक छात्र की हत्या के लिए बांग्लादेश में दर्ज तीन और मामलों में नामित किया गया है। 

इन तीन मामलों के साथ, 5 अगस्त को पद छोड़ने के बाद से हसीना के खिलाफ अधिकारियों के पास दर्ज की गई शिकायतों की कुल संख्या 10 हो गई है। अपनी सरकार को हटाने के लिए एक महीने तक चले छात्र नेतृत्व वाले आंदोलन के बाद हसीना भारत भाग गईं। संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि विरोध प्रदर्शन के दौरान छात्रों सहित 600 से अधिक लोग मारे गए।

बीएनपी नेता बेलाल हुसैन ने हसीना और 113 अन्य के खिलाफ मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि वे 2015 में बीएनपी प्रमुख खालिदा जिया के काफिले पर हुए हमले में शामिल थे। ढाका के तेजगांव पुलिस स्टेशन में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) के अनुसार, हमले में अन्य 500 से 700 अज्ञात हमलावर भी शामिल थे।

4 अगस्त को जॉयपुरहाट में छात्रों के विरोध प्रदर्शन में 18 वर्षीय कॉलेज छात्र नाज़ीबुल सरकार की मौत पर दर्ज एक मामले में पूर्व प्रधान मंत्री का भी नाम लिया गया था। यह मामला जॉयपुरहाट में छात्र के पिता मजीदुल सरकार द्वारा दायर किया गया था। इस मामले में हसीना के अलावा पूर्व सड़क परिवहन मंत्री और अवामी लीग नेता ओबैदुल कादर और 128 अन्य को आरोपी बनाया गया था।

बांग्लादेश पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष मोहम्मद बाबुल सरदार चखारी ने ढाका मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में एक मामला दायर किया, जिसमें हसीना और 33 अन्य लोगों पर 2013 में शपला छत्तर में एक इस्लामी संगठन हेफजत-ए इस्लाम द्वारा आयोजित एक रैली पर गोलीबारी में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। आरोप लगाया कि गोलीबारी के कारण कई मौतें हुईं। इस बीच, अधिकारियों ने रविवार को कहा कि हालिया विरोध प्रदर्शन और हसीना सरकार के सत्ता से हटने के बाद हुई हिंसा के दौरान कुल 44 पुलिसकर्मी मारे गए।

अभी बांग्लादेश में हुए विरोध के बाद हसीना पर मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। देखना ये है की कबतक उनकी मुश्किलें यूँ ही बढ़ी रहेंगी और उनका अगला कदम क्या होगा। 

भारत में भी पैदा हो सकते हैं बांग्लादेश जैसे हालात” कांग्रेस का ये दुःस्वप्न या देशद्रोह?

#canconditionslikebangladeshhappeninindia

पिछले हफ्ते बांग्लादेश के हालात की पूरी दुनिया में चर्चा रही। 5 अगस्त 2024 बांग्लादेश के इतिहास में एक काला अध्याय बन कर रह गया। तीन बार की प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना अपनी सरकार ही नहीं बल्कि अपना देश छोड़कर भागने पर मजबूर हो गईं। शेख हसीना के पद और देश छोड़ने के बाद भी हालत बदले नहीं हैं। छात्र आंदोलन के नाम पर बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में जो हालात हैं, उससे देश में भी कुछ लोगों की बांछें खिल गईं। राजनीति में मर्यादा के घटते स्तर की बानगी देखिए कि विपक्ष के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि बांग्लादेश में जिस तरह की परिस्थितियां पैदा हुईं हैं, वैसा ही दृश्य भारत में भी देखा जा सकता है। अब इसे केवल दुःस्वप्न कहा जाए ये देश को गर्त में देखने का सपना देखने वालों का देशद्रोह?

दरअसल, पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ तो विपक्ष के नेताओं की ओर से कुछ बयान दिए गए हैं कि बांग्लादेश जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति भारत में हो सकती है। कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि बांग्लादेश के जौसे हालात भारत में भी पैदा हो सकते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि भारत में भले ऊपर-ऊपर सबकुछ सामान्य दिख रहा हो, लेकिन अंदर से कुछ सुलग रहा है। 

दूसरी तरफ, कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने कहा कि बांग्लादेश जैसी परिस्थितियां कुछ-कुछ भारत में भी बननी शुरू हो गई हैं और लोगों के मन में चुनावों की निष्पक्षता को लेकर शक पैदा होने लगा है, इसलिए हमें पड़ोसी देश से सीख लेते हुए सावधान रहने की जरूरत है। अय्यर ने न्‍यूज एजेंसी आईएएनएस के साथ एक विशेष साक्षात्कार में कहा कि भारत में भी आर्थिक विकास के बावजूद बेरोजगारी बहुत बढ़ चुकी है। उन्होंने कहा, "वहां की परिस्थिति और हमारी परिस्थिति में काफी तुलना की जा सकती है। उनके लोकतंत्र में कमियां महसूस होने लगीं। जो उनके चुनाव हुए - पहले और इस बार भी - तो विपक्ष की पार्टियों ने भाग ही नहीं लिया, क्योंकि उनको लगा कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव नहीं होंगे।

सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर के अलावा मध्य प्रदेश कांग्रेस के नेता सज्जन सिंह वर्मा ने धमकी भरे अंदाज में कहा कि एक दिन भारत के प्रधानमंत्री आवास पर भी लोग धावा बोल देंगे, ठीक उसी तरह जैसे बांग्लादेश में हुआ है। उन्होंने कहा कि पहले श्रीलंका में हुआ था, अब बांग्लादेश में हुआ, अबकी भारत की बारी है। 

कांग्रेस नेताओं के इस बयान के बाद हैरानी होती है, ये उसी पार्टी नेता हैं, जिसने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। आजादी के सात दशक बाद भारत में अराजकता का ख्वाब उस कांग्रेस पार्टी के नेता देख रहे हैं जिसने आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया था। ये बयान केवल हमारे लोकतंत्र को कमजोर करते हैं और किसी भी तरह से राष्ट्र निर्माण को मजबूत नहीं करते हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या भारत में भी ऐसा हो सकता है?

इस सवाल को अगर सिरे से खारिज कर दिया जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि, 1947 में जब भारत ने अंग्रेजों से आजादी पाई थी, तब भी यही भविष्यवाणी की गई कि भारत कुछ ही वर्षों में बिखर जाएगा। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली, पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल समेत कई अंग्रेज अधिकारियों और प्रशासकों ने कहा था कि भारत जातीयता, धर्म, संस्कृति समेत अन्य कई पहलुओं से इतना भिन्न है कि इसका साथ रहना नामुमकिन है। वो सब गलत साबित हुए।

भारत में सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन

वैसे भी जिन भी देशों में लोकतंत्र ज्यादा मजबूत रहता है, वहां पर सेना के पास असीमित शक्तियां नहीं रहती हैं, उन देशों में सेना सरकार के अनुसार ही काम करती दिखती है। ऐसे में तख्तापलट जैसे हालात उन देशों में पैदा नहीं होते। अब भारत की सेना का जैसा इतिहास रहा है, वहां पर अनुशासन ही सर्वोपरि है। यहां पर सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन भी। इसका एक प्रमाण तो आपातकाल के दौरान भी दिख गया था। उस समय इंदिरा गांधी के खिलाप तीनों सेना प्रमुख को एक हो जाना चाहिए था, तब की पीएम से स्थिति को लेकर बात करनी चाहिए थी। लेकिन क्योंकि भारत में लोकतंत्र रहा और सेना ने खुद को राजनीति से अलग रखने का फैसला लिया, ऐसे में उस दौर में भी सेना ज्यादा ताकतवर दिखाई नहीं दी। माना जाता है कि तख्तापलट वही पर होता है जहां पर अस्थिरता बन जाती है।

इस्लीमिक देशों में लोकतंत्र से ज्यादा शरीया पर विश्वास

दूसरी और अहम बात, बांग्लादेश हो या कोई अन्य मुस्लिम बहुल देश, वहां की सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक भावनाओं के सम्मान की भारी कमी का होना है। मुस्लिम देशों में बहुत बड़ा वर्ग वैसे नागरिकों का है जिनका लोकतांत्रिक संस्थाओं में जरा भी यकीन नहीं होता। वो लोकतंत्र को इस्लाम के खिलाफ मानते हैं और दिनरात शरियत का सपना देखते हैं। उनका यकीन इस्लामी धार्मिक कानून शरिया पर होता है। इसलिए वो लोकतंत्र को कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पाते। इसके उलट भारत की व्यापक आबादी लोकतंत्र में यकीन रखती है। यहां लोकतांत्रिक संस्थाओं, उसके क्रियाकलापों से लोगों को अनगिनत शिकायतें हो सकती हैं, बावजूद इसके लोगों का इन पर गहरा विश्वास है। बहुसंख्यक भारतीय मानते हैं कि देश का भविष्य तय करने वाले किसी भी मुद्दे का समाधान लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही होना चाहिए।

राजनीतिक अस्थिरता के दौर में भी सेना ने नहीं लांघी मर्यादा

लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा हर चुनाव के बाद सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण है। यह केवल भारत में है कि 1951-1952 में पहले आम चुनाव से लेकर 2024 में आखिरी आम चुनाव तक सत्ता का ऐसा शांतिपूर्ण हस्तांतरण हुआ है। हालांकि, यहां भी राजनीतिक अस्थिरता का लंबा दौर रहा। देश ने गठबंधन राजनीति का दौर देखा। सरकारें आती-जाती रहीं। देवगौड़ा और गुजराल जैसी कमजोर सरकारे आईं, अटल सरकार सिर्फ 13 दिन में धराशायी हो गई, लेकिन सेना ने कभी सरकार की तरफ आंख उठाकर नहीं देखा।

वहीं, अगर आम जनता की बात करें तो उन्हें भी पता है कि उसकी समस्याओं का समाधान सरकार के पास है। लोगों को अपनी बात शांतिपूर्ण ढंग से कहने का अधिकार है। उदाहरण के लिए,सीएए के खिलाफ राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में करीब सालभर तक धरना-प्रदर्शन चला। किसी सरकार ने उसे दबाने की कोशिश नहीं की, कोई लाठी-डंडे नहीं चले। यहां तक कि आंदोलनकारी किसान लाल किले तक पहुंच गए, फिर भी उन पर जोर-जबर्दस्ती नहीं हुई। कुल मिलाकर कहें तो यहां नाराजगी जाहिर करने के जनता के अधिकार का सरकारें सम्मान करती हैं तो बदले में जनता भी सरकारों को सुधार करने का मौका देती है।

इसके बावजूद अगर देश की प्रमुख विपक्षी दल के वरिष्ठ नेता इस तरह का बयान देते हैं, तो इससे उनकी मंशा साफ जाहिर होती है।

भारत में भी पैदा हो सकते हैं बांग्लादेश जैसे हालात” कांग्रेस का ये दुःस्वप्न या देशद्रोह?

#canconditionslikebangladeshhappeninindia

पिछले हफ्ते बांग्लादेश के हालात की पूरी दुनिया में चर्चा रही। 5 अगस्त 2024 बांग्लादेश के इतिहास में एक काला अध्याय बन कर रह गया। तीन बार की प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना अपनी सरकार ही नहीं बल्कि अपना देश छोड़कर भागने पर मजबूर हो गईं। शेख हसीना के पद और देश छोड़ने के बाद भी हालत बदले नहीं हैं। छात्र आंदोलन के नाम पर बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में जो हालात हैं, उससे देश में भी कुछ लोगों की बांछें खिल गईं। राजनीति में मर्यादा के घटते स्तर की बानगी देखिए कि विपक्ष के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि बांग्लादेश में जिस तरह की परिस्थितियां पैदा हुईं हैं, वैसा ही दृश्य भारत में भी देखा जा सकता है। अब इसे केवल दुःस्वप्न कहा जाए ये देश को गर्त में देखने का सपना देखने वालों का देशद्रोह?

दरअसल, पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ तो विपक्ष के नेताओं की ओर से कुछ बयान दिए गए हैं कि बांग्लादेश जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति भारत में हो सकती है। कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि बांग्लादेश के जौसे हालात भारत में भी पैदा हो सकते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि भारत में भले ऊपर-ऊपर सबकुछ सामान्य दिख रहा हो, लेकिन अंदर से कुछ सुलग रहा है। 

दूसरी तरफ, कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने कहा कि बांग्लादेश जैसी परिस्थितियां कुछ-कुछ भारत में भी बननी शुरू हो गई हैं और लोगों के मन में चुनावों की निष्पक्षता को लेकर शक पैदा होने लगा है, इसलिए हमें पड़ोसी देश से सीख लेते हुए सावधान रहने की जरूरत है। अय्यर ने न्‍यूज एजेंसी आईएएनएस के साथ एक विशेष साक्षात्कार में कहा कि भारत में भी आर्थिक विकास के बावजूद बेरोजगारी बहुत बढ़ चुकी है। उन्होंने कहा, "वहां की परिस्थिति और हमारी परिस्थिति में काफी तुलना की जा सकती है। उनके लोकतंत्र में कमियां महसूस होने लगीं। जो उनके चुनाव हुए - पहले और इस बार भी - तो विपक्ष की पार्टियों ने भाग ही नहीं लिया, क्योंकि उनको लगा कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव नहीं होंगे।

सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर के अलावा मध्य प्रदेश कांग्रेस के नेता सज्जन सिंह वर्मा ने धमकी भरे अंदाज में कहा कि एक दिन भारत के प्रधानमंत्री आवास पर भी लोग धावा बोल देंगे, ठीक उसी तरह जैसे बांग्लादेश में हुआ है। उन्होंने कहा कि पहले श्रीलंका में हुआ था, अब बांग्लादेश में हुआ, अबकी भारत की बारी है। 

कांग्रेस नेताओं के इस बयान के बाद हैरानी होती है, ये उसी पार्टी नेता हैं, जिसने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। आजादी के सात दशक बाद भारत में अराजकता का ख्वाब उस कांग्रेस पार्टी के नेता देख रहे हैं जिसने आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया था। ये बयान केवल हमारे लोकतंत्र को कमजोर करते हैं और किसी भी तरह से राष्ट्र निर्माण को मजबूत नहीं करते हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या भारत में भी ऐसा हो सकता है?

इस सवाल को अगर सिरे से खारिज कर दिया जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि, 1947 में जब भारत ने अंग्रेजों से आजादी पाई थी, तब भी यही भविष्यवाणी की गई कि भारत कुछ ही वर्षों में बिखर जाएगा। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली, पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल समेत कई अंग्रेज अधिकारियों और प्रशासकों ने कहा था कि भारत जातीयता, धर्म, संस्कृति समेत अन्य कई पहलुओं से इतना भिन्न है कि इसका साथ रहना नामुमकिन है। वो सब गलत साबित हुए।

भारत में सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन

वैसे भी जिन भी देशों में लोकतंत्र ज्यादा मजबूत रहता है, वहां पर सेना के पास असीमित शक्तियां नहीं रहती हैं, उन देशों में सेना सरकार के अनुसार ही काम करती दिखती है। ऐसे में तख्तापलट जैसे हालात उन देशों में पैदा नहीं होते। अब भारत की सेना का जैसा इतिहास रहा है, वहां पर अनुशासन ही सर्वोपरि है। यहां पर सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन भी। इसका एक प्रमाण तो आपातकाल के दौरान भी दिख गया था। उस समय इंदिरा गांधी के खिलाप तीनों सेना प्रमुख को एक हो जाना चाहिए था, तब की पीएम से स्थिति को लेकर बात करनी चाहिए थी। लेकिन क्योंकि भारत में लोकतंत्र रहा और सेना ने खुद को राजनीति से अलग रखने का फैसला लिया, ऐसे में उस दौर में भी सेना ज्यादा ताकतवर दिखाई नहीं दी। माना जाता है कि तख्तापलट वही पर होता है जहां पर अस्थिरता बन जाती है।

इस्लीमिक देशों में लोकतंत्र से ज्यादा शरीया पर विश्वास

दूसरी और अहम बात, बांग्लादेश हो या कोई अन्य मुस्लिम बहुल देश, वहां की सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक भावनाओं के सम्मान की भारी कमी का होना है। मुस्लिम देशों में बहुत बड़ा वर्ग वैसे नागरिकों का है जिनका लोकतांत्रिक संस्थाओं में जरा भी यकीन नहीं होता। वो लोकतंत्र को इस्लाम के खिलाफ मानते हैं और दिनरात शरियत का सपना देखते हैं। उनका यकीन इस्लामी धार्मिक कानून शरिया पर होता है। इसलिए वो लोकतंत्र को कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पाते। इसके उलट भारत की व्यापक आबादी लोकतंत्र में यकीन रखती है। यहां लोकतांत्रिक संस्थाओं, उसके क्रियाकलापों से लोगों को अनगिनत शिकायतें हो सकती हैं, बावजूद इसके लोगों का इन पर गहरा विश्वास है। बहुसंख्यक भारतीय मानते हैं कि देश का भविष्य तय करने वाले किसी भी मुद्दे का समाधान लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही होना चाहिए।

राजनीतिक अस्थिरता के दौर में भी सेना ने नहीं लांघी मर्यादा

लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा हर चुनाव के बाद सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण है। यह केवल भारत में है कि 1951-1952 में पहले आम चुनाव से लेकर 2024 में आखिरी आम चुनाव तक सत्ता का ऐसा शांतिपूर्ण हस्तांतरण हुआ है। हालांकि, यहां भी राजनीतिक अस्थिरता का लंबा दौर रहा। देश ने गठबंधन राजनीति का दौर देखा। सरकारें आती-जाती रहीं। देवगौड़ा और गुजराल जैसी कमजोर सरकारे आईं, अटल सरकार सिर्फ 13 दिन में धराशायी हो गई, लेकिन सेना ने कभी सरकार की तरफ आंख उठाकर नहीं देखा।

वहीं, अगर आम जनता की बात करें तो उन्हें भी पता है कि उसकी समस्याओं का समाधान सरकार के पास है। लोगों को अपनी बात शांतिपूर्ण ढंग से कहने का अधिकार है। उदाहरण के लिए,सीएए के खिलाफ राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में करीब सालभर तक धरना-प्रदर्शन चला। किसी सरकार ने उसे दबाने की कोशिश नहीं की, कोई लाठी-डंडे नहीं चले। यहां तक कि आंदोलनकारी किसान लाल किले तक पहुंच गए, फिर भी उन पर जोर-जबर्दस्ती नहीं हुई। कुल मिलाकर कहें तो यहां नाराजगी जाहिर करने के जनता के अधिकार का सरकारें सम्मान करती हैं तो बदले में जनता भी सरकारों को सुधार करने का मौका देती है।

इसके बावजूद अगर देश की प्रमुख विपक्षी दल के वरिष्ठ नेता इस तरह का बयान देते हैं, तो इससे उनकी मंशा साफ जाहिर होती है।

भारत विरोधी' पत्रकार फज़ल अंसारी को बांग्लादेशी सरकार ने नियुक्त किया अपना राजदूत, क्या है पड़ोसी देश की मंशा?

#bangladesh_interim_govt_names_anti_india_mushfiqul_fazal_ansarey_as_envoy 

बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने विवादित 'पत्रकार' मुश्फिकुल फजल अंसारी को 3 साल के लिए राजदूत नियुक्त किया है।फजल अपने कथित भारत विरोधी रुख और अपदस्थ प्रधानमंत्री शेख हसीना के खिलाफ एक दशक लंबा अभियान चलाने के लिए जाने जाते हैं। फजल को हसीना सरकार के समय बांग्लादेश छोड़ना पड़ा था। एक दशक के निर्वासन के बाद वह 12 सितंबर को बांग्लादेश लौटे हैं। इसके बाद मौजूदा सरकार ने उनको नियुक्ति के तौर पर ये तोहफा दिया है।

बांग्लादेश के लोक प्रशासन मंत्रालय ने सोमवार को एक अधिसूचना जारी करते हुए अंसारी की नियुक्ति की पुष्टि की है। नए राजदूत का कार्यकाल तीन साल का होगा, जिसके दौरान उन्हें अपनी नियुक्ति की शर्तों के अनुसार सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं के साथ किसी भी अन्य पेशेवर जुड़ाव या संबद्धता से इस्तीफा देना होगा। उनकी भूमिका विदेश मंत्रालय के अधिकार क्षेत्र में होगी, और अनुबंध की अन्य बारीकियों को बाद में निर्धारित किया जाएगा।

अंसारी की नियुक्ति ऐसे समय हुई है, जब अंतरिम सरकार ने अमेरिका, रूस और यूएई में अपने राजदूतों की संविदात्मक नियुक्तियों को रद्द कर दिया है। इन देशों में नए अफसरों को भेजा जाएगा।

इसी साल मार्च में फज़ल अंसारी सुर्खियों में आए थे, जब उन्होंने अमेरिकी विदेश विभाग के प्रवक्ता मैथ्यू मिलर के साथ एक प्रेस वार्ता के दौरान दिल्ली शराब नीति मामले (जो भारत का आंतरिक मामला है) में आप नेता अरविंद केजरीवाल की गिरफ्तारी का मुद्दा उठाया था। मुश्फिकुल फ़ज़ल अंसारी ने भी यूएन महासचिव के प्रवक्ता के सामने यही मुद्दा उठाया। साथ ही लोकसभा चुनावों के दौरान आयकर विभाग द्वारा कांग्रेस पार्टी के बैंक खातों को फ्रीज करने पर प्रतिक्रिया मांगी थी।

अंसारी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) के समर्थक हैं। वे 2001 से 2006 तक पूर्व प्रधान मंत्री खालिदा जिया के सहायक प्रेस सचिव रहे थे, जो बांग्लादेश में शेख हसीना की मुख्य प्रतिद्वन्द्वी हैं। अंसारी बीते काफी समय से वाशिंगटन स्थित विदेश नीति पत्रिका साउथ एशिया पर्सपेक्टिव्स के कार्यकारी संपादक के रूप में काम रहे थे। अंसारी संयुक्त राष्ट्र, अमेरिकी विदेश विभाग और पेंटागन को कवर करने वाले जस्टन्यूजबीडी के संपादक और व्हाइट हाउस संवाददाता भी हैं।

बांग्लादेश जैसा उपद्रव भारत में भी हो सकता है”? किस खतरे की ओर है भगवात का इशारा

#rsschiefmohanbhagwatwarnedindiabygivingexampleofbangladesh

अगस्त में पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ, जिसके बाद देश के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि बांग्लादेश के प्रधानमंत्री आवास में जिस तरह लूट-खसोट हुई, वैसा ही दृश्य भारत में भी देखा जा सकता है। ये दोनों नेता कांग्रेस पार्टी के हैं। इनमें एक तो केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। हालांकि, उस वक्त बीजेपी नेताओं ने आपत्तियां दर्ज की थी। अब दशहरे के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी बांग्लादेश की राजनीतिक अस्थिरता की तुलना भारत से कर दी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 'बांग्लादेश में हिंसा जैसी स्थिति भारत में पैदा करने की कोशिश', 'बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार' जैसे मुद्दे पर टिप्पणी की।

संघ प्रमुख ने कहा कि 'डीप स्टेट', 'वोकिज्म', 'कल्चरल मार्क्सिस्ट' शब्द इस समय चर्चा में हैं और ये सभी सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित दुश्मन हैं। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और जहां जहां जो कुछ भी भद्र, मंगल माना जाता है, उसका समूल उच्छेद (पूरी तरह से ख़त्म करना) इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है। भागवत ने आगे कहा, समाज में अन्याय की भावना पैदा होती है। असंतोष को हवा देकर उस तत्व को समाज के अन्य तत्वों से अलग और व्यवस्था के प्रति आक्रामक बना दिया जाता है। व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अविश्वास और घृणा को बढ़ावा देकर अराजकता और भय का माहौल बनाया जाता है. इससे उस देश पर हावी होना आसान हो जाता है।

भागवत ने आगे कहा कि तथाकथित 'अरब स्प्रिंग' से लेकर पड़ोसी बांग्लादेश में हाल की घटनाओं तक, एक ही पैटर्न देखा गया। हम पूरे भारत में इसी तरह के नापाक प्रयास देख रहे हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि पिछले कुछ सालों में भारत अधिक ताकतवर हुआ है और विश्व में उसकी साख भी बढ़ी है लेकिन मायावी षडयंत्र देश के संकल्प की परीक्षा ले रहे हैं।

भागवत ने कहा क शिक्षा संस्थान, बौद्धिक जगत में कब्जा कर विचारों में विकृति पैदा करने की कोशिश करते हैं। ऐसा माहौल बनाते है कि हम ही अपनी परंपरा को तुच्छ समझें। उन्होंने कहा कि समाज की विविधताओं को अलगाव में बदलने की कोशिश करना, लोगों में टकराव की स्थिति पैदा करना, सत्ता, प्रशासन, कानून, संस्था सबके प्रति अनादर का व्यवहार सिखाना... इससे उस देश पर बाहर से वर्चस्व चलाना आसान है।

अब सवाल ये है कि भागवत के बयान में इशारा किसकी तरफ है। संघ ने हमेशा आरोप लगाया है कि भारत की संस्कृति 'हिंदू संस्कृति' है उसे 'सांस्कृतिक मार्क्सवाद' के माध्यम से नष्ट करने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, संघ का इशारा उन गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की तरफ है, जिसे बाहरी लोग फंडिंग करते हैं और इनसे भारत विरोधी गतिविधियां करते। संघ का दावा है कि दुनिया भर के कई अंतरराष्ट्रीय संगठन भारत में विभिन्न संगठनों को वित्तीय सहायता देते हैं, यह सहायता भारत में विकास में बाधा डालने के लिए है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने पिछले कुछ सालों में उन तमाम गैर-सरकारी संगठनों पर नकेल कसी है, जो कथित तौर पर भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल रहते थे। राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था को पुख्ता करने का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय का होता है और मंत्रालय ने ऐसे ही संगठनों के खिलाफ जांच और उचित कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिए हैं। दूसरी तरफ, जो संगठन देश और देशवासियों के लिए जनकल्याण की भावना से काम करते हैं और भारतीय कानून को मानते हैं, सरकार की तरफ से उचित मदद भी दी जा रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनने के बाद से ही देश में रजिस्टर्ड एनजीओ की गहरी छानबीन शुरू हुई और पड़ताल में हजारों एनजीओ नियम-कानून की धज्जियां उड़ाते पाए गए। सरकार ने ऐसे एनजीओ पर लगाम कसना शुरू किया और उन सारे एनजीओ के लाइसेंस कैंसल करने लगी जो नियमों के पालन में हीला-हवाली करते पाए गए। सरकार की कार्रवाई का शिकार कई मशहूर अंतरराष्ट्रीय एनजीओ भी हुए जिन्होंने भारतीय कानूनों की अनदेखी की थी।

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“बांग्लादेश जैसा उपद्रव भारत में भी हो सकता है”? किस खतरे की ओर है भगवात का इशारा

अगस्त में पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ, जिसके बाद देश के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि बांग्लादेश के प्रधानमंत्री आवास में जिस तरह लूट-खसोट हुई, वैसा ही दृश्य भारत में भी देखा जा सकता है। ये दोनों नेता कांग्रेस पार्टी के हैं। इनमें एक तो केंद्रीय मंत्री रह चुके हैं। हालांकि, उस वक्त बीजेपी नेताओं ने आपत्तियां दर्ज की थी। अब दशहरे के मौके पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत ने भी बांग्लादेश की राजनीतिक अस्थिरता की तुलना भारत से कर दी।

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के नागपुर स्थित मुख्यालय में संघ प्रमुख मोहन भागवत ने 'बांग्लादेश में हिंसा जैसी स्थिति भारत में पैदा करने की कोशिश', 'बांग्लादेश में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार' जैसे मुद्दे पर टिप्पणी की।

संघ प्रमुख ने कहा कि 'डीप स्टेट', 'वोकिज्म', 'कल्चरल मार्क्सिस्ट' शब्द इस समय चर्चा में हैं और ये सभी सांस्कृतिक परंपराओं के घोषित दुश्मन हैं। उन्होंने कहा कि सांस्कृतिक मूल्यों, परंपराओं और जहां जहां जो कुछ भी भद्र, मंगल माना जाता है, उसका समूल उच्छेद (पूरी तरह से ख़त्म करना) इस समूह की कार्यप्रणाली का अंग है। भागवत ने आगे कहा, समाज में अन्याय की भावना पैदा होती है। असंतोष को हवा देकर उस तत्व को समाज के अन्य तत्वों से अलग और व्यवस्था के प्रति आक्रामक बना दिया जाता है। व्यवस्था, कानून, शासन, प्रशासन आदि के प्रति अविश्वास और घृणा को बढ़ावा देकर अराजकता और भय का माहौल बनाया जाता है. इससे उस देश पर हावी होना आसान हो जाता है।

भागवत ने आगे कहा कि तथाकथित 'अरब स्प्रिंग' से लेकर पड़ोसी बांग्लादेश में हाल की घटनाओं तक, एक ही पैटर्न देखा गया। हम पूरे भारत में इसी तरह के नापाक प्रयास देख रहे हैं। आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि पिछले कुछ सालों में भारत अधिक ताकतवर हुआ है और विश्व में उसकी साख भी बढ़ी है लेकिन मायावी षडयंत्र देश के संकल्प की परीक्षा ले रहे हैं।

भागवत ने कहा क शिक्षा संस्थान, बौद्धिक जगत में कब्जा कर विचारों में विकृति पैदा करने की कोशिश करते हैं। ऐसा माहौल बनाते है कि हम ही अपनी परंपरा को तुच्छ समझें। उन्होंने कहा कि समाज की विविधताओं को अलगाव में बदलने की कोशिश करना, लोगों में टकराव की स्थिति पैदा करना, सत्ता, प्रशासन, कानून, संस्था सबके प्रति अनादर का व्यवहार सिखाना... इससे उस देश पर बाहर से वर्चस्व चलाना आसान है।

अब सवाल ये है कि भागवत के बयान में इशारा किसकी तरफ है। संघ ने हमेशा आरोप लगाया है कि भारत की संस्कृति 'हिंदू संस्कृति' है उसे 'सांस्कृतिक मार्क्सवाद' के माध्यम से नष्ट करने की कोशिश की जा रही है। दरअसल, संघ का इशारा उन गैर-सरकारी संगठनों (एनजीओ) की तरफ है, जिसे बाहरी लोग फंडिंग करते हैं और इनसे भारत विरोधी गतिविधियां करते। संघ का दावा है कि दुनिया भर के कई अंतरराष्ट्रीय संगठन भारत में विभिन्न संगठनों को वित्तीय सहायता देते हैं, यह सहायता भारत में विकास में बाधा डालने के लिए है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र सरकार ने पिछले कुछ सालों में उन तमाम गैर-सरकारी संगठनों पर नकेल कसी है, जो कथित तौर पर भारत विरोधी गतिविधियों में शामिल रहते थे। राष्ट्रीय सुरक्षा और आंतरिक व्यवस्था को पुख्ता करने का काम केंद्रीय गृह मंत्रालय का होता है और मंत्रालय ने ऐसे ही संगठनों के खिलाफ जांच और उचित कानूनी कार्रवाई करने का निर्देश दिए हैं। दूसरी तरफ, जो संगठन देश और देशवासियों के लिए जनकल्याण की भावना से काम करते हैं और भारतीय कानून को मानते हैं, सरकार की तरफ से उचित मदद भी दी जा रही है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अगुवाई में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) की सरकार बनने के बाद से ही देश में रजिस्टर्ड एनजीओ की गहरी छानबीन शुरू हुई और पड़ताल में हजारों एनजीओ नियम-कानून की धज्जियां उड़ाते पाए गए। सरकार ने ऐसे एनजीओ पर लगाम कसना शुरू किया और उन सारे एनजीओ के लाइसेंस कैंसल करने लगी जो नियमों के पालन में हीला-हवाली करते पाए गए। सरकार की कार्रवाई का शिकार कई मशहूर अंतरराष्ट्रीय एनजीओ भी हुए जिन्होंने भारतीय कानूनों की अनदेखी की थी।

क्या बांग्लादेश में तख्तापलट की जानकारी भारत की एजेंसियों को नहीं थी?

#wereindianagenciesunawareoftheactivitiesgoingin_bangladesh

Flags of India & Bangladesh

भारत बांग्लादेश में अशांति पर कड़ी नज़र रख रहा है, जो एक पड़ोसी देश होने के साथ-साथ नई दिल्ली के सबसे करीबी सहयोगियों में से एक है। यह हज़ारों भारतीय छात्रों का अस्थायी घर भी है। बांग्लादेश में छात्र समूहों ने प्रधानमंत्री शेख हसीना की सरकार द्वारा हिरासत में लिए गए नेताओं को रिहा करने और हाल की हिंसा के लिए माफ़ी मांगने की उनकी मांग को पूरा करने में विफल रहने के बाद हसीना के 16 साल के शासन से नाराज़गी जताते हुए उन्हें देश छोड़ने को मजबूर कर दिया था। लेकिन नई दिल्ली ने इसपर कोई भी पूर्व प्रतिक्रिया जारी नई की थी, जिसके कारण लोगों के मन में यह सवाल है कि क्या भारत की ख़ुफ़िया एजेंसीज ने इस घटना को लेकर भारत सरकार को कोई चेतवानी नई दी थी। 

"भारत देश में चल रही स्थिति को बांग्लादेश का आंतरिक मामला मानता है। विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता रणधीर जायसवाल ने साप्ताहिक प्रेस वार्ता में कहा था, "बांग्लादेश सरकार के समर्थन और सहयोग से हम अपने छात्रों की सुरक्षित वापसी की व्यवस्था करने में सक्षम हैं।"

देश में हिंसक झड़पों के बीच बांग्लादेश से करीब 6,700 भारतीय छात्र वापस लौटे थे

जायसवाल ने कहा, "एक करीबी पड़ोसी होने के नाते जिसके साथ हमारे बहुत ही मधुर और मैत्रीपूर्ण संबंध हैं, हमें उम्मीद है कि देश में स्थिति जल्द ही सामान्य हो जाएगी।"

सुरक्षा, व्यापार और कूटनीति के लिए बांग्लादेश महत्वपूर्ण

भारत के लिए, सामान्य स्थिति में लौटने का मतलब है हसीना का सत्ता में लौटना, आंशिक रूप से सुरक्षा कारणों से दोनों देश 4,100 किलोमीटर लंबी (2,500 मील) छिद्रपूर्ण सीमा साझा करते हैं, जिसका मानव तस्कर और आतंकवादी समूह फायदा उठा सकते हैं। इसके अलावा, बांग्लादेश पश्चिम बंगाल, असम, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम के भारतीय राज्यों के साथ सीमा साझा करता है, जो हिंसक विद्रोहों के लिए असुरक्षित हैं। बांग्लादेश में भारत के पूर्व उच्चायुक्त पिनाक रंजन चक्रवर्ती ने बताया भारत ने पड़ोसी देश में जन समर्थन और सद्भावना बनाने के लिए निवेश किया है। "बांग्लादेश की भौगोलिक स्थिति उसे बांग्लादेश, भूटान, भारत और नेपाल वाले उप-क्षेत्र के विकास में एक हितधारक बनाती है। इस क्षेत्र में बांग्लादेश के उत्तर और पूर्व में स्थित भारतीय राज्य शामिल हैं। भारत के पूर्वोत्तर में स्थित ये राज्य कभी अविभाजित भारत में आपूर्ति श्रृंखला में एकीकृत थे," चक्रवर्ती ने बताया। अब, बांग्लादेश और भारत परिवहन संपर्क को बढ़ावा देने और "विभाजन-पूर्व युग में जो मौजूद था उसे बहाल करने" के लिए काम कर रहे हैं, उन्होंने कहा।

ढाका को अरबों का ऋण

भारत, बांग्लादेश को एक महत्वपूर्ण पूर्वी बफर के रूप में पहचानता है और अपने बंदरगाहों और बिजली ग्रिड तक पहुँच के माध्यम से महत्वपूर्ण सहायता प्रदान करता है। नई दिल्ली ने अब तक ढाका को लगभग 8 बिलियन डॉलर (€7.39 बिलियन) की ऋण रेखाएँ दी हैं, जिसका उपयोग विकास परियोजनाओं, बुनियादी ढाँचे के निर्माण और डीजल की आपूर्ति के लिए पाइपलाइन के निर्माण के लिए किया जाता है। देश में निवेश करने वाली प्रमुख भारतीय कंपनियों में मैरिको, इमामी, डाबर, एशियन पेंट्स और टाटा मोटर्स शामिल हैं।

छात्र विरोध प्रदर्शनों के बढ़ने से इन कंपनियों पर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से असर पड़ सकता है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के दक्षिण एशियाई अध्ययन केंद्र के संजय भारद्वाज ने कहा, "भारत और बांग्लादेश के बीच संबंध उनके साझा इतिहास, जटिल सामाजिक-आर्थिक अंतरनिर्भरता और उनकी भू-राजनीतिक स्थिति में अंतर्निहित हैं। क्षेत्र में कोई भी टकराव वाली राजनीति और राजनीतिक अस्थिरता आतंकवाद, कट्टरवाद, उग्रवाद और पलायन की समस्याओं को आमंत्रित करती है।" उन्होंने कहा, "हिंसक विरोध और राजनीतिक अस्थिरता हिंसा के चक्र को जन्म देगी और लोग भारत की ओर पलायन करेंगे।" भारत और चीन के बीच टकराव हाल के वर्षों में, भारत और चीन दोनों ने बांग्लादेश में अपने आर्थिक दांव बढ़ाए हैं, जो दोनों देशों की बढ़ती भू-राजनीतिक प्रतिद्वंद्विता में बदल रहा है। बांग्लादेश के साथ घनिष्ठ संबंधों का दावा करने के बावजूद, कुछ विश्लेषकों का मानना ​​है कि भारतीय नीति निर्माता बांग्लादेश की आबादी के कुछ हिस्सों में व्याप्त भारत विरोधी भावना को समझने में संघर्ष करते हैं। इसका कुछ कारण नई दिल्ली द्वारा सत्तारूढ़ अवामी लीग को समर्थन देना हो सकता है। 

इस दृष्टिकोण से देखा जाए तो, हसीना सरकार की हालिया विफलताएं और विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी, साथ ही स्थानीय इस्लामिस्ट पार्टियों का मजबूत होना भारत के लिए अच्छी खबर नहीं है। फिर भी, भारत स्थित जिंदल स्कूल ऑफ इंटरनेशनल अफेयर्स की प्रोफेसर श्रीराधा दत्ता का मानना ​​है कि छात्र विरोध प्रदर्शनों पर हसीना सरकार की अतिवादी प्रतिक्रिया को उचित नहीं ठहराया जा सकता। उन्होंने विपक्षी दलों और इस्लामिस्ट छात्रों पर हिंसा का सारा दोष मढ़ने के बांग्लादेशी अधिकारियों के प्रयास की आलोचना की। दत्ता ने कहा कि सरकार की "गैर-प्रतिक्रिया और अपमानजनक टिप्पणियों" की प्रतिक्रिया के रूप में विरोध प्रदर्शन हिंसक हो गए।

जमात-ए-इस्लामी का उदय और बांग्लादेश की राजनीतिक पहेली, भारत पर क्या होगा इनका असर ?

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Nobel laureate Muhammad Yunus salutes to the attendees upon arrival at the Bangabhaban,Bangladesh (REUTERS)

शेख हसीना को सत्ता से हटाए जाने के एक महीने बाद, पश्चिम समर्थक मोहम्मद यूनुस और सेना प्रमुख जनरल वकर-उस-ज़मान की अगुआई वाली बांग्लादेश की अंतरिम सरकार देश में कानून और व्यवस्था बहाल करने में विफल रही है, जबकि खालिदा जिया की बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) की कीमत पर भी इस्लामी जमात-ए-इस्लामी (जेईआई) का तेजी से उदय हो रहा है।

जेईआई का उदय, जिसका मुस्लिम ब्रदरहुड के साथ गहरा वैचारिक संबंध है, और कट्टरपंथी हिफाजत-ए-इस्लाम और इस्लामी राज्य समर्थक अंसार-उल-बांग्ला टीम के साथ रणनीतिक रूप से हाथ मिलाना बांग्लादेश की लोकतांत्रिक साख के लिए गंभीर खतरा है, क्योंकि खुफिया जानकारी से संकेत मिलता है कि छात्र नेता भी इस्लामवादियों द्वारा नियंत्रित या शायद प्रभावित हैं।

रिपोर्ट्स से पता चलता है कि न तो बांग्लादेश की सेना और न ही यूनुस देश में अवामी लीग के कार्यकर्ता विरोधी और हिंदू विरोधी हिंसा को नियंत्रित करने में सक्षम रहे हैं, क्योंकि सेना अपराधियों से निपटने के लिए तैयार नहीं है और केवल मूकदर्शक बनकर रह गई है।

जम्मू-कश्मीर और भारत के अंदरूनी इलाकों में जमात का प्रभाव होने के कारण, भारतीय राष्ट्रीय सुरक्षा योजनाकारों ने जेईआई के उदय को देखा है, क्योंकि इसका भारत के भीतर सुरक्षा पर असर पड़ता है। 1990 के दशक में, जमात पूरे भारत में विशेष रूप से यूपी, महाराष्ट्र, अविभाजित आंध्र प्रदेश में सिमी के उदय के पीछे थी और बाद में पाकिस्तान ने इस समूह को इंडियन मुजाहिदीन के रूप में हथियारबंद कर दिया। जमात ने घाटी में युवाओं को हथियार उठाने के लिए कट्टरपंथी बनाकर पाकिस्तान समर्थक भावना को संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।

जबकि बांग्लादेश में अंतरिम सरकार चुनावों की घोषणा करने की जल्दी में नहीं है, एक कमजोर सरकार, बढ़ती इस्लामी कट्टरता और अर्थव्यवस्था की गिरती स्थिति ढाका के लिए आपदा का कारण बन रही है। दूसरी ओर, वर्तमान में आवामी लीग के भयभीत कार्यकर्ता आने वाले महीनों में फिर से संगठित होकर हाथ मिला सकते हैं और बीएनपी तथा इसके अधिक मजबूत सहयोगी जेईआई को चुनौती दे सकते हैं। इनपुट संकेत देते हैं कि वास्तव में 5 अगस्त के बाद बांग्लादेश में जेईआई ने बीएनपी की कीमत पर अपनी पकड़ मजबूत कर ली है।

जबकि भारत हिंसा तथा हिंदुओं और आवामी लीग कार्यकर्ताओं को विशेष रूप से निशाना बनाए जाने के बारे में चिंतित है, वह स्थिति पर नजर रख रहा है, क्योंकि एक अनिर्णायक अंतरिम सरकार उन युवाओं में असंतोष को जन्म देगी, जिन्होंने शेख हसीना को बाहर किया था। इसके साथ ही आर्थिक संकट, कपड़ा मिलों तथा परिधान विनिर्माण इकाइयों के बंद होने से बेरोजगारी तथा राजनीतिक उथल-पुथल बढ़ेगी। पहले ही, बांग्लादेश का बाह्य तथा आंतरिक ऋण 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर को पार कर चुका है। बांग्लादेश राजनीतिक रूप से बारूद के ढेर पर बैठा है और एक वर्ष के भीतर एक बार फिर विस्फोट हो सकता है।

बांग्लादेश स्तिथि का आंकलन करना भारत के लिए भी ज़रूरी है क्योकि इसका असर भारत को भी झेलना पड़ सकता है। बॉर्डर पर माइग्रेशन जैसी गतिविधियों में बढ़ोतरी हो सकती है।

क्या भारत और बांग्लादेश के बीच सुलझेगा तीस्ता जल विवाद? जानें बांग्लादेश के केयरटेकर सरकार की राय

#bangladeshschiefadviseryunuscallsforresolvingissuesoverteestawatersharing

जब भी भारत और बांग्लादेश के बीच द्विपक्षीय वार्ता होती है, तीस्ता नदी विवाद हर बार सुर्खियों में रहता है। विवाद तीस्ता नदी के जल बंटवारे को लेकर है। भारत और बांग्लादेश से होकर बहने वाली तीस्ता नदी जल बंटवारे से संबंधित मुद्दों के कारण दोनों देशों के बीच विवाद का स्रोत रही है। अब बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मोहम्मद यूनुस ने इस विवाद को लेकर बड़ी बात कही है। मोहम्मद यूनुस ने कहा है कि अंतरिम सरकार भारत के साथ तीस्ता जल बंटवारा संधि पर लंबित मुद्दों को सुलझाने के तरीकों पर काम करेगी। इस मुद्दे को वर्षों तक टालने से किसी को फायदा नहीं होगा।

शेख हसीना के तख्तापलट के बाद बांग्लादेश की आंतरिक सरकार भारत के साथ संबंधों को और सुधारने के लिए कदम उठा रही है। अब उसने फैसला लिया है कि वह तीस्ता जल बंटवारा संधि पर मतभेदों को सुलझाने के लिए भारत के साथ काम करेगी। बांग्लादेश के मुख्य सलाहकार मुहम्मद यूनुस का कहना है कि अंतरिम सरकार भारत के साथ वार्ता फिर से शुरू करना चाहती है। मुहम्मद यूनुस ने कहा, इस मुद्दे (पानी के बंटवारे) को निपटाने के लिए काम नहीं करने से कोई फायदा नहीं होगा। भले ही मैं खुश ना भी होऊं और हस्ताक्षर कर दूं, लेकिन यदि मुझे पता होगा कि मुझे कितना पानी मिलेगा, तो यह बेहतर होगा। इस मुद्दे को सुलझाना होगा।

“बंटवारे के लिए अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों का पालन करना चाहिए”

मुहम्मद यूनुस ने कहा कि नदी के ऊपरी और निचले तटवर्ती देशों को जल बंटवारे के अंतरराष्ट्रीय सिद्धांतों का पालन करना चाहिए। मुख्य सलाहकार का कहना है कि दोनों देशों के बीच जल-बंटवारे के मुद्दे को अंतरराष्ट्रीय मानदंडों के अनुसार हल किया जाना चाहिए। साथ ही इस बात पर जोर दिया कि बांग्लादेश जैसे निचले तटवर्ती देशों के पास विशिष्ट अधिकार हैं, जिन्हें वे बनाए रखना चाहते हैं।

क्या है तिस्ता विवाद

बता दें कि भारत और बांग्लादेश साल 2011 में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की ढाका यात्रा के दौरान तीस्ता जल बंटवारे पर एक समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए तैयार थे, लेकिन पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने राज्य में पानी की कमी का हवाला देते हुए इसका समर्थन करने से इनकार कर दिया था।जिसके बाद से यह समझौता स्थगित कर दिया गया और पश्चिम बंगाल की आपत्तियों के कारण इस पर हस्ताक्षर नहीं हो सके।

CM Yogi Adityanath calls for all Hindus to unite.

BIGGEST BREAKING NEWS  CM Yogi Adityanath calls for all Hindus to unite.

He said "If we remain divided, we will be cut like what happened in Bangladesh. We can survive only if we remain united"

He said "Opposition spoke for Gaza Muslims but not for Bangladeshi Hindus. 90% of Bangladeshi Hindus are Dalits"

"India has only one Religion - Sanatan Dharma & it is the National religion of this country" - CM YOGI

बांग्लादेश सरकार ने शेख हसीना का पासपोर्ट किया रद्द, अब दूसरे देश कैसे जाएंगी ?

#bangladeshrevokessheikhhasinadiplomatic_passport 

अपने देश से भाग भारत में शरण लिए हुए शेख हसीना की मुश्किलें बढ़ती ही जा रही है। एक तरफ बांग्लादेश पूर्व प्रधानंमत्री शेख हसीना के खिलाफ एक के बाद एक कई मामले दर्ज किए जा रहे हैं। यही वहीं, बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने भारत से शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की है। अब बांग्लादेश की अंतरिम सरकार ने शेख हसीना का पासपोर्ट रद्द कर दिया है।

बांग्लादेश में फैली भयंकर हिंसा के बीच 5 अगस्त को अपनी जान बचाने के लिए हसीना ने ढाका से भागकर भारत आकर शरण ली।भारत पहुंचने से पहले शेख हसीना को प्रधानमंत्री पद भी छोड़ना पड़ा था।अब बांग्लादेश की मौजूदा सरकार ने शेख हसीना का डिप्लोमेटिक पासपोर्ट रद्द करने का भी ऐलान कर दिया है यानी जिस पासपोर्ट को लेकर शेख हसीना भारत आई थीं अब वो मान्य नहीं है।

बांग्लादेश के गृह मंत्रालय ने कहा, "पूर्व प्रधानमंत्री, उनके सलाहकार, पूर्व कैबिनेट मंत्री और भंग राष्ट्रीय असेंबली के सभी सदस्य अपने पदों के आधार पर राजनयिक पासपोर्ट के पात्र थे। अगर उन्हें पदों से हटाया गया हो या वे सेवानिवृत्त हो गए हैं तो उनके और उनके जीवनसाथी के पासपोर्ट रद्द करने होंगे।" ढाका के नए अधिकारियों ने कहा कि शेख हसीना और उनके कार्यकाल के पूर्व शीर्ष अधिकारी स्टैंडर्ड पासपोर्ट के लिए आवेदन कर सकते थे।

पासपोर्ट रद्द करने की वजह

बांग्लादेश के गृह मंत्रालय ने पासपोर्ट रद्द करने के पीछे कारण दिया गया है कि शेख हसीना के खिलाफ अब तक 44 आपराधिक मुकदमे दर्ज हो चुके हैं। इसके साथ ही कुछ और मुकदमे अभी दर्ज हो सकते हैं। ऐसे में जरूरी है कि उन पर पाबंदी लगाने के लिए उनका डिप्लोमेटिक पासपोर्ट रद्द कर दिया जाए।

भारत से बाहर शरण मिलना होगा मुश्किल

बता दें कि शेख हसीना अभी फिलहाल भारत में शरण ली हुई हैं और वह कुछ अन्य देशों में भी शरण लेने की योजना के तहत काम कर रही हैं। बांग्लादेश की अंतिम सरकार द्वारा उनका डिप्लोमेटिक पासपोर्ट रद्द किए जाने के बाद उनको विदेश में शरण मिलना मुश्किल हो जाएगा। इसके साथ ही अंतिम सरकार ने उनके अनेक सहयोगियों के भी डिप्लोमेटिक पासपोर्ट रद्द कर दिए हैं, जिससे वह बांग्लादेश छोड़कर भाग न पाएं या यदि उनमें से कुछ लोग जो बाहर चले गए हैं वह अन्य देशों की यात्रा न कर पाएं।

यूएन टीम ने हसीना पर कई गंभीर आरोप लगाए

बांग्लादेश में पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना पर 40 से अधिक मुकदमे दर्ज किए जा चुके हैं, जिसमें ज्यादातर हत्या के मुकदमे हैं। संयुक्त राष्ट्र की एक टीम भी बांग्लादेश पहुंच चुकी है जो कि शेख हसीना के कार्यकाल में हुए मानवाधिकार हनन के मामलों की जांच करेगी। अपनी प्राथमिक जांच में यूएन टीम ने शेख हसीना पर कई गंभीर आरोप लगाए हैं। ऐसा माना जा रहा है कि जल्द ही बांग्लादेश की सरकार शेख हसीना के खिलाफ भारत से प्रत्यर्पण की मांग कर सकती है।

बीएनपी ने की हसीने के प्रयार्पण की मांग 

बांग्लादेश की मुख्य विपक्षी बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) ने भारत से शेख हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की है। बीएनपी के महासचिव मिर्जा फखरुल इस्लाम आलमगीर ने शेख हसीना पर देश में सरकार के खिलाफ प्रदर्शन को बाधित करने की साजिश रचने का आरोप लगाते हुए हसीना के प्रत्यर्पण की मांग की है। फखरुल इस्लाम ने कहा कि शेख हसीना को शरण देकर भारत बांग्लादेशियों का दिल नहीं जीत सकता। उन्होंने भारत पर लोकतंत्र के समर्थन से पीछे हटने का भी आरोप लगाया।

बांग्लादेश में 3 और मामलों में पूर्व पीएम शेख हसीना का नाम शामिल, बढ़ रही है मुश्किलें

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Ex PM of Bangladesh

पूर्व प्रधान मंत्री शेख हसीना को 2015 में अपने कट्टर प्रतिद्वंद्वी, बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (बीएनपी) प्रमुख खालिदा जिया पर हमले का निर्देश देने, 2013 में ढाका में एक रैली पर गोलीबारी करने में कथित संलिप्तता और 4 अगस्त को जोइपुरहाट जिले में एक छात्र की हत्या के लिए बांग्लादेश में दर्ज तीन और मामलों में नामित किया गया है। 

इन तीन मामलों के साथ, 5 अगस्त को पद छोड़ने के बाद से हसीना के खिलाफ अधिकारियों के पास दर्ज की गई शिकायतों की कुल संख्या 10 हो गई है। अपनी सरकार को हटाने के लिए एक महीने तक चले छात्र नेतृत्व वाले आंदोलन के बाद हसीना भारत भाग गईं। संयुक्त राष्ट्र ने कहा है कि विरोध प्रदर्शन के दौरान छात्रों सहित 600 से अधिक लोग मारे गए।

बीएनपी नेता बेलाल हुसैन ने हसीना और 113 अन्य के खिलाफ मामला दर्ज किया, जिसमें आरोप लगाया गया कि वे 2015 में बीएनपी प्रमुख खालिदा जिया के काफिले पर हुए हमले में शामिल थे। ढाका के तेजगांव पुलिस स्टेशन में दर्ज प्रथम सूचना रिपोर्ट (एफआईआर) के अनुसार, हमले में अन्य 500 से 700 अज्ञात हमलावर भी शामिल थे।

4 अगस्त को जॉयपुरहाट में छात्रों के विरोध प्रदर्शन में 18 वर्षीय कॉलेज छात्र नाज़ीबुल सरकार की मौत पर दर्ज एक मामले में पूर्व प्रधान मंत्री का भी नाम लिया गया था। यह मामला जॉयपुरहाट में छात्र के पिता मजीदुल सरकार द्वारा दायर किया गया था। इस मामले में हसीना के अलावा पूर्व सड़क परिवहन मंत्री और अवामी लीग नेता ओबैदुल कादर और 128 अन्य को आरोपी बनाया गया था।

बांग्लादेश पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष मोहम्मद बाबुल सरदार चखारी ने ढाका मेट्रोपॉलिटन मजिस्ट्रेट की अदालत में एक मामला दायर किया, जिसमें हसीना और 33 अन्य लोगों पर 2013 में शपला छत्तर में एक इस्लामी संगठन हेफजत-ए इस्लाम द्वारा आयोजित एक रैली पर गोलीबारी में शामिल होने का आरोप लगाया गया था। आरोप लगाया कि गोलीबारी के कारण कई मौतें हुईं। इस बीच, अधिकारियों ने रविवार को कहा कि हालिया विरोध प्रदर्शन और हसीना सरकार के सत्ता से हटने के बाद हुई हिंसा के दौरान कुल 44 पुलिसकर्मी मारे गए।

अभी बांग्लादेश में हुए विरोध के बाद हसीना पर मुश्किलें बढ़ती जा रही हैं। देखना ये है की कबतक उनकी मुश्किलें यूँ ही बढ़ी रहेंगी और उनका अगला कदम क्या होगा। 

भारत में भी पैदा हो सकते हैं बांग्लादेश जैसे हालात” कांग्रेस का ये दुःस्वप्न या देशद्रोह?

#canconditionslikebangladeshhappeninindia

पिछले हफ्ते बांग्लादेश के हालात की पूरी दुनिया में चर्चा रही। 5 अगस्त 2024 बांग्लादेश के इतिहास में एक काला अध्याय बन कर रह गया। तीन बार की प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना अपनी सरकार ही नहीं बल्कि अपना देश छोड़कर भागने पर मजबूर हो गईं। शेख हसीना के पद और देश छोड़ने के बाद भी हालत बदले नहीं हैं। छात्र आंदोलन के नाम पर बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में जो हालात हैं, उससे देश में भी कुछ लोगों की बांछें खिल गईं। राजनीति में मर्यादा के घटते स्तर की बानगी देखिए कि विपक्ष के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि बांग्लादेश में जिस तरह की परिस्थितियां पैदा हुईं हैं, वैसा ही दृश्य भारत में भी देखा जा सकता है। अब इसे केवल दुःस्वप्न कहा जाए ये देश को गर्त में देखने का सपना देखने वालों का देशद्रोह?

दरअसल, पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ तो विपक्ष के नेताओं की ओर से कुछ बयान दिए गए हैं कि बांग्लादेश जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति भारत में हो सकती है। कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि बांग्लादेश के जौसे हालात भारत में भी पैदा हो सकते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि भारत में भले ऊपर-ऊपर सबकुछ सामान्य दिख रहा हो, लेकिन अंदर से कुछ सुलग रहा है। 

दूसरी तरफ, कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने कहा कि बांग्लादेश जैसी परिस्थितियां कुछ-कुछ भारत में भी बननी शुरू हो गई हैं और लोगों के मन में चुनावों की निष्पक्षता को लेकर शक पैदा होने लगा है, इसलिए हमें पड़ोसी देश से सीख लेते हुए सावधान रहने की जरूरत है। अय्यर ने न्‍यूज एजेंसी आईएएनएस के साथ एक विशेष साक्षात्कार में कहा कि भारत में भी आर्थिक विकास के बावजूद बेरोजगारी बहुत बढ़ चुकी है। उन्होंने कहा, "वहां की परिस्थिति और हमारी परिस्थिति में काफी तुलना की जा सकती है। उनके लोकतंत्र में कमियां महसूस होने लगीं। जो उनके चुनाव हुए - पहले और इस बार भी - तो विपक्ष की पार्टियों ने भाग ही नहीं लिया, क्योंकि उनको लगा कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव नहीं होंगे।

सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर के अलावा मध्य प्रदेश कांग्रेस के नेता सज्जन सिंह वर्मा ने धमकी भरे अंदाज में कहा कि एक दिन भारत के प्रधानमंत्री आवास पर भी लोग धावा बोल देंगे, ठीक उसी तरह जैसे बांग्लादेश में हुआ है। उन्होंने कहा कि पहले श्रीलंका में हुआ था, अब बांग्लादेश में हुआ, अबकी भारत की बारी है। 

कांग्रेस नेताओं के इस बयान के बाद हैरानी होती है, ये उसी पार्टी नेता हैं, जिसने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। आजादी के सात दशक बाद भारत में अराजकता का ख्वाब उस कांग्रेस पार्टी के नेता देख रहे हैं जिसने आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया था। ये बयान केवल हमारे लोकतंत्र को कमजोर करते हैं और किसी भी तरह से राष्ट्र निर्माण को मजबूत नहीं करते हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या भारत में भी ऐसा हो सकता है?

इस सवाल को अगर सिरे से खारिज कर दिया जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि, 1947 में जब भारत ने अंग्रेजों से आजादी पाई थी, तब भी यही भविष्यवाणी की गई कि भारत कुछ ही वर्षों में बिखर जाएगा। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली, पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल समेत कई अंग्रेज अधिकारियों और प्रशासकों ने कहा था कि भारत जातीयता, धर्म, संस्कृति समेत अन्य कई पहलुओं से इतना भिन्न है कि इसका साथ रहना नामुमकिन है। वो सब गलत साबित हुए।

भारत में सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन

वैसे भी जिन भी देशों में लोकतंत्र ज्यादा मजबूत रहता है, वहां पर सेना के पास असीमित शक्तियां नहीं रहती हैं, उन देशों में सेना सरकार के अनुसार ही काम करती दिखती है। ऐसे में तख्तापलट जैसे हालात उन देशों में पैदा नहीं होते। अब भारत की सेना का जैसा इतिहास रहा है, वहां पर अनुशासन ही सर्वोपरि है। यहां पर सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन भी। इसका एक प्रमाण तो आपातकाल के दौरान भी दिख गया था। उस समय इंदिरा गांधी के खिलाप तीनों सेना प्रमुख को एक हो जाना चाहिए था, तब की पीएम से स्थिति को लेकर बात करनी चाहिए थी। लेकिन क्योंकि भारत में लोकतंत्र रहा और सेना ने खुद को राजनीति से अलग रखने का फैसला लिया, ऐसे में उस दौर में भी सेना ज्यादा ताकतवर दिखाई नहीं दी। माना जाता है कि तख्तापलट वही पर होता है जहां पर अस्थिरता बन जाती है।

इस्लीमिक देशों में लोकतंत्र से ज्यादा शरीया पर विश्वास

दूसरी और अहम बात, बांग्लादेश हो या कोई अन्य मुस्लिम बहुल देश, वहां की सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक भावनाओं के सम्मान की भारी कमी का होना है। मुस्लिम देशों में बहुत बड़ा वर्ग वैसे नागरिकों का है जिनका लोकतांत्रिक संस्थाओं में जरा भी यकीन नहीं होता। वो लोकतंत्र को इस्लाम के खिलाफ मानते हैं और दिनरात शरियत का सपना देखते हैं। उनका यकीन इस्लामी धार्मिक कानून शरिया पर होता है। इसलिए वो लोकतंत्र को कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पाते। इसके उलट भारत की व्यापक आबादी लोकतंत्र में यकीन रखती है। यहां लोकतांत्रिक संस्थाओं, उसके क्रियाकलापों से लोगों को अनगिनत शिकायतें हो सकती हैं, बावजूद इसके लोगों का इन पर गहरा विश्वास है। बहुसंख्यक भारतीय मानते हैं कि देश का भविष्य तय करने वाले किसी भी मुद्दे का समाधान लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही होना चाहिए।

राजनीतिक अस्थिरता के दौर में भी सेना ने नहीं लांघी मर्यादा

लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा हर चुनाव के बाद सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण है। यह केवल भारत में है कि 1951-1952 में पहले आम चुनाव से लेकर 2024 में आखिरी आम चुनाव तक सत्ता का ऐसा शांतिपूर्ण हस्तांतरण हुआ है। हालांकि, यहां भी राजनीतिक अस्थिरता का लंबा दौर रहा। देश ने गठबंधन राजनीति का दौर देखा। सरकारें आती-जाती रहीं। देवगौड़ा और गुजराल जैसी कमजोर सरकारे आईं, अटल सरकार सिर्फ 13 दिन में धराशायी हो गई, लेकिन सेना ने कभी सरकार की तरफ आंख उठाकर नहीं देखा।

वहीं, अगर आम जनता की बात करें तो उन्हें भी पता है कि उसकी समस्याओं का समाधान सरकार के पास है। लोगों को अपनी बात शांतिपूर्ण ढंग से कहने का अधिकार है। उदाहरण के लिए,सीएए के खिलाफ राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में करीब सालभर तक धरना-प्रदर्शन चला। किसी सरकार ने उसे दबाने की कोशिश नहीं की, कोई लाठी-डंडे नहीं चले। यहां तक कि आंदोलनकारी किसान लाल किले तक पहुंच गए, फिर भी उन पर जोर-जबर्दस्ती नहीं हुई। कुल मिलाकर कहें तो यहां नाराजगी जाहिर करने के जनता के अधिकार का सरकारें सम्मान करती हैं तो बदले में जनता भी सरकारों को सुधार करने का मौका देती है।

इसके बावजूद अगर देश की प्रमुख विपक्षी दल के वरिष्ठ नेता इस तरह का बयान देते हैं, तो इससे उनकी मंशा साफ जाहिर होती है।

भारत में भी पैदा हो सकते हैं बांग्लादेश जैसे हालात” कांग्रेस का ये दुःस्वप्न या देशद्रोह?

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पिछले हफ्ते बांग्लादेश के हालात की पूरी दुनिया में चर्चा रही। 5 अगस्त 2024 बांग्लादेश के इतिहास में एक काला अध्याय बन कर रह गया। तीन बार की प्रधानमंत्री रहीं शेख हसीना अपनी सरकार ही नहीं बल्कि अपना देश छोड़कर भागने पर मजबूर हो गईं। शेख हसीना के पद और देश छोड़ने के बाद भी हालत बदले नहीं हैं। छात्र आंदोलन के नाम पर बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों को निशाना बनाया जा रहा है। पड़ोसी मुल्क बांग्लादेश में जो हालात हैं, उससे देश में भी कुछ लोगों की बांछें खिल गईं। राजनीति में मर्यादा के घटते स्तर की बानगी देखिए कि विपक्ष के नेताओं ने यहां तक कह दिया कि बांग्लादेश में जिस तरह की परिस्थितियां पैदा हुईं हैं, वैसा ही दृश्य भारत में भी देखा जा सकता है। अब इसे केवल दुःस्वप्न कहा जाए ये देश को गर्त में देखने का सपना देखने वालों का देशद्रोह?

दरअसल, पड़ोसी देश बांग्लादेश में तख्तापलट हुआ तो विपक्ष के नेताओं की ओर से कुछ बयान दिए गए हैं कि बांग्लादेश जैसी घटनाओं की पुनरावृत्ति भारत में हो सकती है। कांग्रेस के नेताओं ने कहा कि बांग्लादेश के जौसे हालात भारत में भी पैदा हो सकते हैं। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता सलमान खुर्शीद ने कहा कि भारत में भले ऊपर-ऊपर सबकुछ सामान्य दिख रहा हो, लेकिन अंदर से कुछ सुलग रहा है। 

दूसरी तरफ, कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर ने कहा कि बांग्लादेश जैसी परिस्थितियां कुछ-कुछ भारत में भी बननी शुरू हो गई हैं और लोगों के मन में चुनावों की निष्पक्षता को लेकर शक पैदा होने लगा है, इसलिए हमें पड़ोसी देश से सीख लेते हुए सावधान रहने की जरूरत है। अय्यर ने न्‍यूज एजेंसी आईएएनएस के साथ एक विशेष साक्षात्कार में कहा कि भारत में भी आर्थिक विकास के बावजूद बेरोजगारी बहुत बढ़ चुकी है। उन्होंने कहा, "वहां की परिस्थिति और हमारी परिस्थिति में काफी तुलना की जा सकती है। उनके लोकतंत्र में कमियां महसूस होने लगीं। जो उनके चुनाव हुए - पहले और इस बार भी - तो विपक्ष की पार्टियों ने भाग ही नहीं लिया, क्योंकि उनको लगा कि स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव नहीं होंगे।

सलमान खुर्शीद और मणिशंकर अय्यर के अलावा मध्य प्रदेश कांग्रेस के नेता सज्जन सिंह वर्मा ने धमकी भरे अंदाज में कहा कि एक दिन भारत के प्रधानमंत्री आवास पर भी लोग धावा बोल देंगे, ठीक उसी तरह जैसे बांग्लादेश में हुआ है। उन्होंने कहा कि पहले श्रीलंका में हुआ था, अब बांग्लादेश में हुआ, अबकी भारत की बारी है। 

कांग्रेस नेताओं के इस बयान के बाद हैरानी होती है, ये उसी पार्टी नेता हैं, जिसने देश की स्वतंत्रता के लिए लड़ाई लड़ी। आजादी के सात दशक बाद भारत में अराजकता का ख्वाब उस कांग्रेस पार्टी के नेता देख रहे हैं जिसने आजादी की लड़ाई का नेतृत्व किया था। ये बयान केवल हमारे लोकतंत्र को कमजोर करते हैं और किसी भी तरह से राष्ट्र निर्माण को मजबूत नहीं करते हैं। ऐसे में सवाल है कि क्या भारत में भी ऐसा हो सकता है?

इस सवाल को अगर सिरे से खारिज कर दिया जाए तो हैरानी नहीं होनी चाहिए। क्योंकि, 1947 में जब भारत ने अंग्रेजों से आजादी पाई थी, तब भी यही भविष्यवाणी की गई कि भारत कुछ ही वर्षों में बिखर जाएगा। तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लिमेंट एटली, पूर्व प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल समेत कई अंग्रेज अधिकारियों और प्रशासकों ने कहा था कि भारत जातीयता, धर्म, संस्कृति समेत अन्य कई पहलुओं से इतना भिन्न है कि इसका साथ रहना नामुमकिन है। वो सब गलत साबित हुए।

भारत में सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन

वैसे भी जिन भी देशों में लोकतंत्र ज्यादा मजबूत रहता है, वहां पर सेना के पास असीमित शक्तियां नहीं रहती हैं, उन देशों में सेना सरकार के अनुसार ही काम करती दिखती है। ऐसे में तख्तापलट जैसे हालात उन देशों में पैदा नहीं होते। अब भारत की सेना का जैसा इतिहास रहा है, वहां पर अनुशासन ही सर्वोपरि है। यहां पर सेना ताकतवर जरूर रही है, लेकिन सरकार के अधीन भी। इसका एक प्रमाण तो आपातकाल के दौरान भी दिख गया था। उस समय इंदिरा गांधी के खिलाप तीनों सेना प्रमुख को एक हो जाना चाहिए था, तब की पीएम से स्थिति को लेकर बात करनी चाहिए थी। लेकिन क्योंकि भारत में लोकतंत्र रहा और सेना ने खुद को राजनीति से अलग रखने का फैसला लिया, ऐसे में उस दौर में भी सेना ज्यादा ताकतवर दिखाई नहीं दी। माना जाता है कि तख्तापलट वही पर होता है जहां पर अस्थिरता बन जाती है।

इस्लीमिक देशों में लोकतंत्र से ज्यादा शरीया पर विश्वास

दूसरी और अहम बात, बांग्लादेश हो या कोई अन्य मुस्लिम बहुल देश, वहां की सबसे बड़ी समस्या लोकतांत्रिक भावनाओं के सम्मान की भारी कमी का होना है। मुस्लिम देशों में बहुत बड़ा वर्ग वैसे नागरिकों का है जिनका लोकतांत्रिक संस्थाओं में जरा भी यकीन नहीं होता। वो लोकतंत्र को इस्लाम के खिलाफ मानते हैं और दिनरात शरियत का सपना देखते हैं। उनका यकीन इस्लामी धार्मिक कानून शरिया पर होता है। इसलिए वो लोकतंत्र को कभी दिल से स्वीकार नहीं कर पाते। इसके उलट भारत की व्यापक आबादी लोकतंत्र में यकीन रखती है। यहां लोकतांत्रिक संस्थाओं, उसके क्रियाकलापों से लोगों को अनगिनत शिकायतें हो सकती हैं, बावजूद इसके लोगों का इन पर गहरा विश्वास है। बहुसंख्यक भारतीय मानते हैं कि देश का भविष्य तय करने वाले किसी भी मुद्दे का समाधान लोकतांत्रिक प्रक्रिया से ही होना चाहिए।

राजनीतिक अस्थिरता के दौर में भी सेना ने नहीं लांघी मर्यादा

लोकतंत्र की सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा हर चुनाव के बाद सत्ता का शांतिपूर्ण हस्तांतरण है। यह केवल भारत में है कि 1951-1952 में पहले आम चुनाव से लेकर 2024 में आखिरी आम चुनाव तक सत्ता का ऐसा शांतिपूर्ण हस्तांतरण हुआ है। हालांकि, यहां भी राजनीतिक अस्थिरता का लंबा दौर रहा। देश ने गठबंधन राजनीति का दौर देखा। सरकारें आती-जाती रहीं। देवगौड़ा और गुजराल जैसी कमजोर सरकारे आईं, अटल सरकार सिर्फ 13 दिन में धराशायी हो गई, लेकिन सेना ने कभी सरकार की तरफ आंख उठाकर नहीं देखा।

वहीं, अगर आम जनता की बात करें तो उन्हें भी पता है कि उसकी समस्याओं का समाधान सरकार के पास है। लोगों को अपनी बात शांतिपूर्ण ढंग से कहने का अधिकार है। उदाहरण के लिए,सीएए के खिलाफ राजधानी दिल्ली के शाहीन बाग इलाके में करीब सालभर तक धरना-प्रदर्शन चला। किसी सरकार ने उसे दबाने की कोशिश नहीं की, कोई लाठी-डंडे नहीं चले। यहां तक कि आंदोलनकारी किसान लाल किले तक पहुंच गए, फिर भी उन पर जोर-जबर्दस्ती नहीं हुई। कुल मिलाकर कहें तो यहां नाराजगी जाहिर करने के जनता के अधिकार का सरकारें सम्मान करती हैं तो बदले में जनता भी सरकारों को सुधार करने का मौका देती है।

इसके बावजूद अगर देश की प्रमुख विपक्षी दल के वरिष्ठ नेता इस तरह का बयान देते हैं, तो इससे उनकी मंशा साफ जाहिर होती है।