संपादकीय: प्राकृतिक खेती – झारखंड की हरियाली और भविष्य का संकल्प
विनोद आनंद
आज जब पूरा विश्व जलवायु परिवर्तन के गंभीर परिणामों और लगातार बढ़ते पर्यावरणीय संकट से जूझ रहा है, ऐसे विकट समय में प्राकृतिक खेती एक आशा की किरण बनकर उभरी है। यह न केवल हमारे ग्रह के लिए एक स्थायी समाधान प्रस्तुत करती है, बल्कि विशेषकर झारखंड जैसे कृषि-प्रधान राज्य के लिए, यह एक दूरगामी आर्थिक और सामाजिक क्रांति का मार्ग प्रशस्त करती है। झारखंड, जिसकी ग्रामीण अर्थव्यवस्था कृषि पर अत्यधिक निर्भर है, के लिए प्राकृतिक खेती केवल पर्यावरण संरक्षण का एक साधन मात्र नहीं, बल्कि किसानों की आजीविका को सुदृढ़ करने और राज्य की समग्र आर्थिक मजबूती को बढ़ावा देने का भी एक सशक्त माध्यम है।
प्राकृतिक खेती के असीमित लाभ: ऊर्जा दक्षता और पर्यावरणीय संतुलन
प्राकृतिक खेती की मूल अवधारणा रासायनिक उर्वरकों और सिंथेटिक कीटनाशकों से मुक्ति पाकर प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करना है। इसमें उन पारंपरिक और जैविक पद्धतियों का उपयोग होता है जो सदियों से हमारी कृषि विरासत का हिस्सा रही हैं। इस दृष्टिकोण से ऊर्जा की खपत में भारी कमी आती है, क्योंकि रासायनिक इनपुट के उत्पादन और परिवहन में लगने वाली ऊर्जा की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।
परिणामस्वरूप, कार्बन उत्सर्जन में भी उल्लेखनीय गिरावट दर्ज की जाती है, जो जलवायु परिवर्तन के खिलाफ हमारी लड़ाई में एक महत्वपूर्ण योगदान है।
प्राकृतिक खेती मिट्टी की उर्वरता और उसकी जैव विविधता को बनाए रखने पर विशेष जोर देती है। कंपोस्ट, वर्मीकम्पोस्ट और फसल चक्र जैसी पद्धतियाँ न केवल मिट्टी को आवश्यक पोषक तत्व प्रदान करती हैं, बल्कि उसके सूक्ष्मजीवों और जैविक संरचना को भी समृद्ध करती हैं। खेत का जैविक कचरा, जिसे अक्सर अनुपयोगी मानकर जला दिया जाता है, प्राकृतिक खेती में एक मूल्यवान संसाधन बन जाता है, जिसका उपयोग खाद बनाने में किया जाता है। इसके अतिरिक्त, वर्षा जल संचयन (रेन वाटर हार्वेस्टिंग) और बायोगैस उत्पादन जैसी स्मार्ट और टिकाऊ तकनीकों को भी अपनाया जाता है, जो ऊर्जा और जल के कुशल उपयोग को सुनिश्चित करती हैं।
एक और महत्वपूर्ण लाभ कम पानी की मांग वाली सूखा-सहिष्णु फसलों, जैसे बाजरा, तिलहन और दालों को अपनाने से प्राप्त होता है। ये फसलें न केवल कम सिंचाई में बेहतर उपज देती हैं, बल्कि प्राकृतिक रूप से मिट्टी की नमी को बनाए रखने में भी सहायक होती हैं, जिससे जल और ऊर्जा दोनों की बचत होती है। इस प्रकार, प्राकृतिक खेती केवल एक कृषि पद्धति नहीं, बल्कि एक समग्र पारिस्थितिक दृष्टिकोण है जो संसाधनों के संरक्षण और पर्यावरणीय संतुलन को बढ़ावा देता है।
संभावनाएँ और चुनौतियाँ: झारखंड के संदर्भ में
झारखंड की भौगोलिक स्थिति, उसकी परंपरागत कृषि संस्कृति और यहाँ के छोटे जोतदार किसान प्राकृतिक खेती के लिए एक अनुकूल वातावरण प्रदान करते हैं। राज्य की जलवायु विविध प्रकार की फसलों के लिए उपयुक्त है, और यहाँ की ग्रामीण आबादी में कृषि के प्रति गहरा लगाव है। हालांकि, इस परिवर्तनकारी मार्ग पर कुछ महत्वपूर्ण चुनौतियाँ भी हैं जिन्हें संबोधित करना आवश्यक है।
सबसे बड़ी चुनौती जागरूकता और प्रशिक्षण की कमी है। अधिकांश किसानों को प्राकृतिक खेती की तकनीकों, इसके लाभों और संक्रमण काल में आने वाली चुनौतियों के बारे में पर्याप्त जानकारी नहीं है।
परंपरागत रासायनिक खेती से जैविक खेती की ओर बदलाव के लिए गहन प्रशिक्षण और प्रदर्शन की आवश्यकता है। इसके अलावा, मानकीकृत डेटा और अनुसंधान का अभाव एक और बड़ी बाधा है। प्राकृतिक खेती के दीर्घकालिक प्रभावों, सर्वोत्तम पद्धतियों और स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल तकनीकों पर व्यापक अनुसंधान की कमी है, जिससे नीति निर्माताओं और किसानों के लिए निर्णय लेना कठिन हो जाता है।
संक्रमण के दौरान शुरुआती लागत और संभावित उपज में कमी किसानों के लिए एक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है। रासायनिक इनपुट से जैविक इनपुट की ओर स्विच करते समय, प्रारंभिक वर्षों में उपज में थोड़ी कमी आ सकती है, और जैविक सामग्री के उत्पादन या खरीद में अतिरिक्त लागत लग सकती है। यह आर्थिक दबाव छोटे किसानों के लिए विशेष रूप से चुनौतीपूर्ण हो सकता है। बाजार और मूल्य श्रृंखला का सीमित होना भी एक गंभीर समस्या है। प्राकृतिक रूप से उत्पादित उत्पादों के लिए एक संगठित और प्रीमियम बाजार का अभाव है, जिससे किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य नहीं मिल पाता। अंत में, आधारभूत सुविधाओं और पूंजी की आवश्यकता भी इस राह में रोड़ा अटकाती है।
जैविक इनपुट के उत्पादन के लिए बुनियादी ढाँचा, भंडारण सुविधाएँ और किसानों को शुरुआती निवेश के लिए पूंजी तक पहुँच का अभाव है।
राज्य सरकार की जिम्मेदारी: नीतिगत और व्यवहारिक पहलें
झारखंड में प्राकृतिक खेती को एक सफल और व्यापक आंदोलन बनाने के लिए राज्य सरकार को एक बहुआयामी और दूरगामी रणनीति अपनानी होगी।
सबसे पहले, प्रशिक्षण एवं प्रदर्शन केंद्रों की स्थापना अत्यंत महत्वपूर्ण है। प्रत्येक जिले में 'मॉडल फार्म' स्थापित किए जाने चाहिए जो किसानों को प्राकृतिक खेती की व्यावहारिक तकनीकों का सीधा अनुभव प्रदान करें। इन केंद्रों पर विशेषज्ञ किसानों को कंपोस्टिंग, जैविक कीट नियंत्रण, फसल चक्र और अन्य नवीन तकनीकों के बारे में शिक्षित कर सकते हैं। दूसरा, अनुसंधान और मानकीकरण को गति देना आवश्यक है। कृषि विश्वविद्यालयों और कृषि विज्ञान केंद्रों को प्राकृतिक खेती पर गहन अनुसंधान में सक्रिय रूप से शामिल किया जाना चाहिए। इससे स्थानीय परिस्थितियों के अनुकूल सर्वोत्तम पद्धतियों की पहचान होगी और प्राकृतिक खेती के पर्यावरणीय लाभों की माप के लिए एक मजबूत ढाँचा विकसित किया जा सकेगा।
वित्तीय समर्थन किसानों को प्रारंभिक जोखिमों से निपटने में मदद करेगा। सरकार को प्राकृतिक खेती अपनाने वाले किसानों को अनुदान और सब्सिडी प्रदान करनी चाहिए। इसके अतिरिक्त, 'कार्बन प्रग्रहण' जैसी पर्यावरणीय सेवाओं के लिए भुगतान योजनाएँ विकसित की जा सकती हैं, जहाँ किसानों को उनकी भूमि द्वारा कार्बन डाइऑक्साइड को sequester करने के लिए प्रोत्साहन मिलेगा। सहकारी समितियों को बढ़ावा देना भी एक प्रभावी रणनीति है। ये समितियाँ किसानों को संसाधन साझा करने, जैविक खाद या प्राकृतिक कीटनाशकों का सामूहिक रूप से उत्पादन करने और अपने उत्पादों के विपणन में सामूहिक पहल करने में मदद कर सकती हैं।
विशिष्ट बाजार और मूल्य संवर्धन प्राकृतिक उत्पादों के लिए एक मजबूत मांग पैदा करेगा। जैविक प्रमाणन प्रक्रियाओं को सरल बनाना और प्रसंस्करण इकाइयों की स्थापना को प्रोत्साहित करना आवश्यक है, ताकि प्राकृतिक उत्पादों को एक अलग बाजार मिल सके और उन्हें बेहतर मूल्य प्राप्त हो। नीतिगत अनुकूलन भी महत्वपूर्ण है। सरकार को अपनी उर्वरक और ऊर्जा सब्सिडी नीतियों पर पुनर्विचार करना चाहिए और धीरे-धीरे प्राकृतिक खेती को मुख्यधारा में लाना चाहिए। अंत में, कृषि वानिकी (एग्रोफॉरेस्ट्री) को प्राकृतिक खेती के साथ प्रोत्साहित किया जाना चाहिए। पेड़ों और फसलों का एकीकरण भूमि, जल और आजीविका की सुरक्षा सुनिश्चित करेगा, जिससे एक समग्र और टिकाऊ कृषि प्रणाली विकसित होगी।
ग्रामीण अर्थव्यवस्था और रोजगार पर प्राकृतिक खेती का प्रभाव
प्राकृतिक खेती का विस्तार झारखंड की ग्रामीण अर्थव्यवस्था और रोजगार सृजन में बहुआयामी वृद्धि ला सकता है। यह केवल कृषि उत्पादन को बढ़ावा नहीं देगा, बल्कि स्थानीय स्तर पर कई नए आर्थिक अवसर भी पैदा करेगा।
सबसे पहले, स्थानीय स्तर पर जैविक खाद, बीज और बायो-कीटनाशकों का निर्माण स्वयं में एक बड़ा रोजगार क्षेत्र बन सकता है। ग्रामीण उद्यमी और स्वयं सहायता समूह इन आवश्यक इनपुट का उत्पादन कर सकते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था मजबूत होगी और रसायनों पर निर्भरता कम होगी। दूसरा, प्राकृतिक रूप से उगाए गए दाल, अनाज, फल और सब्जियों पर आधारित छोटे प्रसंस्करण उद्योग ग्रामीण क्षेत्रों में विकसित हो सकते हैं। ये उद्योग न केवल किसानों को उनके उत्पाद का बेहतर मूल्य प्रदान करेंगे, बल्कि पैकेजिंग, ग्रेडिंग और मार्केटिंग से संबंधित नए रोजगार के अवसर भी पैदा करेंगे।
इसके अतिरिक्त, प्राकृतिक खेती ग्रामीण पर्यटन और इको-टूरिज्म के विकास को बढ़ावा दे सकती है। प्राकृतिक खेतों का दौरा, जैविक भोजन का अनुभव और ग्रामीण जीवन शैली का अन्वेषण पर्यटकों को आकर्षित कर सकता है, जिससे स्थानीय समुदायों के लिए आय के नए स्रोत खुलेंगे। अंत में, प्राकृतिक खेती कृषि श्रमिकों, विशेष रूप से युवाओं के लिए कौशल वृद्धि के अवसर प्रदान करेगी। उन्हें जैविक खेती की तकनीकों, वर्मीकम्पोस्ट उत्पादन, बीज संरक्षण और प्राकृतिक कीट नियंत्रण जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया जा सकता है, जिससे उनकी रोजगार क्षमता में वृद्धि होगी।
झारखंड के लिए प्राकृतिक खेती केवल कृषि की एक पद्धति मात्र नहीं है, बल्कि यह एक क्रांतिकारी दृष्टिकोण है, जिससे राज्य में एक हरित भविष्य के द्वार खुल सकते हैं। यह न केवल हमारे पर्यावरण का संरक्षण करती है, बल्कि राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करती है, किसानों के हितों की रक्षा करती है और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और समृद्ध भविष्य सुनिश्चित करती है। प्राकृतिक खेती झारखंड के लिए आशा का एक नया सूरज साबित हो सकती है।
यह अत्यंत आवश्यक है कि सरकार, कृषि विशेषज्ञ, किसान समुदाय और समग्र समाज मिलकर इस आंदोलन को सशक्त बनाने के लिए नीतिगत समर्थन, गहन प्रशिक्षण और नवाचार पर ध्यान केंद्रित करें। हमें सामूहिक प्रयासों से इस दिशा में आगे बढ़ना होगा ताकि झारखंड "हरित क्रांति" की एक मिसाल बनकर उभरे और देश तथा विश्व के लिए एक प्रेरणा स्रोत बने। क्या हम सब मिलकर इस हरित भविष्य के संकल्प को साकार करने के लिए तैयार हैं?
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