भृगुवंश के अंश भगवान परशुराम की तपोभूमि है बलिया का मनियर: डॉ विद्यासागर
संजीव सिंह बलिया!भगवान विष्णु की छाती में लात मारने वाले महर्षि भृगु के प्रपौत्र हैं भगवान परशुराम बागी बलिया के बगावत के प्रतीक हैं भगवान परशुराम।मनियर स्थित विश्व का सर्वाधिक प्राचीन परशुराम मन्दिर है भगवान परशुराम का आश्रम।भगवान विष्णु की छाती में लात मारने वाले महर्षि भृगु के प्रपौत्र हैं भगवान परशुराम और भृगु बाबा की जय का उद्घोष भी बलिया की राष्ट्रीय पहचान है।कहा गया है--- अश्वत्थामा बलिर्व्यासो हनुमांश्च विभीषणः। कृपः परशुरामश्च सप्तैते चिरंजीविनः॥' अर्थात् : अश्वत्थामा, बलि, व्यास, हनुमान, विभीषण, कृपाचार्य और भगवान परशुराम ये सभी चिरंजीवी हैं। तो आइए ट्रेंड से थोड़ा अलग हटकर बलिया जनपद के संदर्भ में भगवान परशुराम की चर्चा करते हैं।महर्षि भृगु ने बलिया मे तप किया और यहीं भृगु संहिता की रचना की थी जिसका अनुमोदन करने हेतु विद्वान ऋषियों ने लम्बा विमर्श किया और कार्तिक पूर्णिमा के दिन भृगु संहिता अनुमोदित हुई थी।चूंकि समस्त ऋषियों के ठहरने ,व भोजन इत्यादि का प्रबन्ध महर्षि भृगु के शिष्य दर्दर मुनि ने किया था इसीलिए उनके नाम पर प्रत्येक वर्ष कार्तिक पूर्णिमा के ऐतिहासिक ददरी मेला लगता है।भृगुवंश का केंद्र रहा है भार्गव पुर ,वर्तमान भागलपुर ,जिला -देवरिया जो बेल्थरारोड से आगे सरयू नदी पर बने तुर्तीपार पुल को पार करते ही पड़ता है ।कभी -कभी शास्त्र मत से अधिक लोकमत प्रभावी होता है ,और यह लोकमत है कि भागलपुर के सटे सोहनाग में ऋषि जमदग्नि का आश्रम था,जहाँ वैशाख मास के शुक्ल पक्ष की तृतीया तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में रात्रि के प्रथम प्रहर में उच्च ग्रहों से युक्त मिथुन राशि पर राहु के स्थित रहते माता रेणुका के गर्भ से भगवान परशुराम का प्रादुर्भाव हुआ था।ऋषि जमदग्नि के पुत्र होने के कारण उनका एक और नाम जामदग्नेय भी प्रचलित है। अपने प्रपितामह महर्षि भृगु की तरह भगवान परशुराम ने भी बलिया को अपना कर्मभूमि बनाया और सरयू नदी के दूसरे पार मनियर में कठोर साधना की ।शास्त्र मतानुसार नैमिसारण्य से लेकर चम्पारण्य (वर्तमान चम्पारण ,बिहार) के बीच का भूभाग धर्मारण्य के नाम से जाना जाता है और उस धर्मारण्य में मुनिअरण्य अर्थात मुनियों के वन की विशेष प्रतिष्ठा रही है ,उसी मुनिअरण्य को वर्तमान में मनियर के नाम से जाना जाता है जहां आज भी भगवान परशुराम का अति प्राचीन वैभवशाली मंदिर विद्यमान है ,जिसके बगल में सरयू प्रवाहित हो रही हैं।यह भी अद्भुत है कि क्षत्रिय कुल नाशक कहे जाने के बावजूद भी मनियर के क्षत्रिय समाज द्वारा आज भी श्रद्धा और आस्था के साथ भगवान परशुराम पूजित होते है। भगवान परशुराम के जन्मदिन वैसाख तृतीया को अनादि काल से मनियर में लगने वाला एकतीजिया के नाम से प्रसिद्ध मेला आज भी उस गौरवशाली अतीत की याद दिलाता है। लोक मान्यता है कि सिकन्दरपुर - बलिया मार्ग पर अवस्थित खेजुरी के निकट जनुवान में जब बहेरा नामक राक्षस का अत्याचार चरम पर पहुंचा तो उसका दमन करने हेतु भगवान परशुराम जनुवान गए ,मल्ल युद्ध हुआ ,और बहेरा मारा गया ।बहेरा की लाश को जनुवान से घसीटते हथौज, बालूपुर, छपरा पर,धनौती,बहदुरा,असना ,पिलुई ,विक्रमपुर ,चांदुपाकड होते हुए भगवान परशुराम ने मनियर सरयू जी मे फेंक दिया जिसके स्मृति स्वरूप उक्त मार्ग होते हुए आज भी बहेरा नाला विद्यमान है । ब्रह्रावैवर्त पुराण के अनुसार, भगवान परशुराम एक बार भगवान शिव से मिलने उनके कैलाश पर्वत पहुंच गए, लेकिन वहां उन्हें रास्ते में ही उऩके पुत्र भगवान गणेश ने रोक दिया, इस बात से क्रोधित होकर उन्होंने अपने फरसे से भगवान गणेश का एक दांत तोड़ दिया था,जिसके बाद भगवान गणेश एकदंत कहलाए।भगवान परशुराम माता रेणुका और ॠषि जमदग्नि की चौथी संतान थे।परशुराम जी ने अपने पिता की आज्ञा के बाद अपनी मां का वध कर दिया था,जिसकी वजह से उन्हें मातृ हत्या का पाप भी लगा।उन्हें अपने इस पाप से मुक्ति भगवान शिव की कठोर तपस्या करने के बाद मिली। भगवान शिव ने परशुराम को मृत्युलोक के कल्याणार्थ परशु अस्त्र प्रदान किया, यही वजह थी कि वो बाद में परशुराम कहलाए।एक दिन जब भगवान परशुराम कहीं बाहर गये थे तो कार्तवीर्य अर्जुन उनकी कुटिया पर आये। युद्ध के मद में उन्होंने माता रेणुका का अपमान किया तथा उसके बछड़ों का हरण करके चले गये, गाय रंभाती रह गयी। भगवान परशुराम को मालूम पड़ा तो क्रुद्ध होकर उन्होंने सहस्त्रबाहु हैहयराज को मार डाला। हैहयराज के पुत्रों ने आश्रम पर धावा बोला तथा भगवान परशुराम की अनुपस्थिति में मुनि जमदग्नि को मार डाला। जब भगवान परशुराम घर पहुँचे तो बहुत दुखी हुए तथा पृथ्वी को क्षत्रियहीन करने का संकल्प किया और इक्कीस बार पृथ्वी के हैहयवंशी क्षत्रियों का संहार किया। त्रेतायुग में भगवान राम ने जब शिव धनुष को तोड़ा तो भगवान परशुराम जी महेंद्र पर्वत पर तपस्या में लीन थे, लेकिन जैसे ही उन्हें धनुष टूटने का पता चला तो क्रोध में आ गए,लेकिन जब उन्हें प्रभु श्रीराम के बारे में मालूम हुआ तो उन्होंने श्रीराम को प्रणाम किया ,बाद में श्रीराम ने भगवान परशुराम जी को अपना सुदर्शन चक्र भेट किया और बोले द्वापर युग में जब उनका अवतार होगा तब उन्हें इसकी जरूरत होगी।इसके बाद जब भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर में अवतार लिया तब परशुरामजी ने धर्म की रक्षा के लिए भगवान श्रीकृष्ण को सुदर्शन चक्र वापिस कर दिया।उन्होंने द्रोणाचार्य ,पितामह भीष्म और कर्ण को शस्त्रविद्या प्रदान की थी। उन्होंने एकादश छन्दयुक्त "शिव पंचत्वारिंशनाम स्तोत्र" भी लिखा। भगवान परशुराम का मानना था कि अन्याय करना और सहना दोनों ही पाप हैं। इसलिए उनका फरसा सदैव अन्याय के खिलाफ उठा है। जब उन्हें यह ज्ञात हो गया कि धरती पर भगवान श्रीहरि ने सातवां अवतार श्रीराम के रूप में ले लिया है, तब उन्होंने अपने क्रोध की ज्वाला को शांत करने और तपस्या के उद्देश्य से महेंद्रगिरि पर्वत का रुख किया। ऐसा माना जाता है कि भगवान परशुराम आज भी महेंद्रगिरि पर्वत पर चिरकाल से तपस्यारत हैं।मैं डॉ विद्यासागर अपने अध्ययन और अनुभव के आधार पर यह स्वीकार करता हूँ कि भारतवर्ष में जब भी प्रवृत्ति और निवृत्ति के मध्य संघर्ष हुआ है तो जनक मार्ग की स्वीकार्यता बढ़ी है(भारतीय दर्शन में रुचि रखने वाले जिज्ञासु उक्त विषय मे हमसे वार्ता करके अपनी जिज्ञासा शान्त कर सकते हैं), और जब यह देश धर्म और हिंसा के अंतर्द्वंद्व में फंसता है तब भगवान परशुराम के विचारों का आश्रय लेता है।जनक वह जो राजा होते हुए भी प्रजा हित मे हल चलाता हो और भगवान परशुराम वह जो तपस्वी होते हुए भी आततायियों के संहार हेतु शस्त्र उठा लेता हो ।लौकिक युग मे जनक मार्ग का प्रतिनिधित्व किया हर्ष ने और भगवान परशुराम की परम्परा को आगे बढ़ाया गुरु गोविंद सिंह ने।(लेख बड़ा होता जा रहा है इसलिए लेखन को यही अल्पविराम देता हूँ।) ॐ जामदग्न्याय विद्महे महावीराय धीमहि, तन्नोपरशुराम: प्रचोदयात्।"
May 05 2025, 10:42