भगवान आदिशंकराचार्य जी की जयन्ती पर दो शब्द :लेख डॉ विद्यासागर
संजीव सिंह बलिया!आज भगवान आदिशंकराचार्य जी की जयन्ती पर दो शब्द इस अनुरोध के साथ लिख रहा हूँ कि भारतीय दर्शन के प्रति रुचि रखने वाले महानुभाव इसकी गंभीरतापूर्वक समीक्षा करें ,जिस सज्जन की रुचि दर्शन शास्त्र में न हो तो अपना समय नष्ट न करें। क्या आपने चित्र देखा है......................... बूढ़े राम का????????? बूढ़े कृष्ण का???????? बूढ़े आदि शंकराचार्य का????????? बूढ़े विवेकानन्द का????????? नही ना,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,, किसी भी राष्ट्र का उत्थान एवं पतन उस राष्ट्र की युवा ऊर्जा पर निर्भर होती है जो बल ,बुद्धि,पराक्रम,नवीन ज्ञान,नवीन विज्ञान और नवीन अनुसंधान से नवीन कीर्तिमान स्थापित करती है।माना कि चीन की जनसंख्या विश्व मे सर्वाधिक है लेकिन भारत मे विश्व के सर्वाधिक युवा निवास करते है, जिनके प्रेरक एक समय विशेष पर राम, कृष्ण,आदि शंकराचार्य, विवेकानन्द जैसे उच्च कोटि के आदर्श पुरुष रहे हैं।वो युवा राम थे जो लंका में युद्ध प्रारम्भ होने से पूर्व ही पूरे कॉन्फिडेंस के साथ विभीषण को राजतिलक कर दिया ,वो युवा कृष्ण थे जिन्होंने युद्ध भूमि में अपना प्रण तोड़कर शस्त्र उठाये और सिद्ध किया कि जब धर्म खतरे में हो,अधर्म के हौसले बुलंद हों,सत्य पराजय की ओर उन्मुख हो तो नैतिकता,सदाचार और प्रण का चक्कर छोड़के सिर्फ वही कार्य करो जिससे धर्म की रक्षा हो ।वो युवा विवेकानन्द जी थे जिन्होंने नौजवानों को फुटबाल खेलना ग्रंथ से बेहतर बताया लेकिन शिकागो में सनातन धर्म को ऐसा प्रतिष्ठित किया कि ज्ञान ,विज्ञान का दम्भ भरने वाले पश्चिमी विद्वान नतमस्तक हो शिष्य बनने लगे । ऐसे ही एक महान सार्वकालिक युवा भगवान आदि शंकराचार्य जी की आज जयन्ती है जिन्होंने मात्र आठ वर्ष की अवस्था मे सन्यास लेकर सोलह वर्ष की अवस्था मे प्रस्थानत्रयी सहित अन्य शास्त्रों के गूढ़ रहस्यों की व्याख्या कर दी जो समस्त मनुष्य जाति के लिए आश्चर्य का विषय है।कहा गया है------- अष्टवर्षेचतुर्वेदी, द्वादशेसर्वशास्त्रवित्। षोडशेकृतवान्भाष्यम्द्वात्रिंशेमुनिरभ्यगात्।। अर्थात् आठ वर्ष की आयु में चारों वेदों में निष्णात हो गए, बारह वर्ष की आयु में सभी शास्त्रों में पारंगत, सोलह वर्ष की आयु में शांकरभाष्य तथा बत्तीस वर्ष की आयु में शरीर त्याग कर दिया।जिस तरह से स्वामी विवेकानन्द जी ने मात्र 39 वर्ष की आयु में अपने उद्देश्यों को प्राप्त कर लिया उसी तरह उनसे हज़ारो वर्ष पूर्व जब बौद्ध धर्म को राज्याश्रय प्राप्त था और लग रहा था कि सनातन धर्म पूर्णतः समाप्त हो जाएगा तब भारतीय आध्यात्मिक क्षितिज पर सूर्य की भाँति भगवान आदि शंकराचार्य का अभिर्भाव हुआ ।भगवान आदि शंकर का जन्म कालड़ी(केरल) में वैशाख शुक्ल पंचमी तिथि ई. सन् 788 को तथा मोक्ष ई. सन् 820 स्वीकार किया जाता है, परंतु सुधन्वा जो कि भगवान आदि शंकर के समकालीन थे, उनके ताम्रपत्र अभिलेख में शंकर का जन्म युधिष्ठिराब्द 2631 शक् (507 ई०पू०) तथा शिवलोक गमन युधिष्ठिराब्द 2663 शक् (475 ई०पू०) सर्वमान्य है। भगवान आदि शंकराचार्य के महान् व्यक्तित्व में धर्म-सुधारक, समाज-सुधारक, दार्शनिक, कवि, साहित्यकार, योगी, भक्त, गुरु, कर्मनिष्ठ, विभिन्न सम्प्रदायों एवं मतों के समन्वयकर्त्ता-जैसे रूप समाहित थे। उनका महान् व्यक्तित्व सत्य के लिए सर्वस्व का त्याग करनेवाला था। उन्होंने शास्त्रीय ज्ञान की प्राप्ति के साथ ब्रह्मत्व का भी अनुभव किया था। उनके व्यक्तित्व में अद्वैतवाद, शुद्धाद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद और निर्गुण ब्रह्म के साथ सगुण-साकार की भक्ति की धाराएँ समाहित थीं।गुप्त और वर्धन युग भारत के सनातन धर्म के लिए स्वर्णयुग कहा जाता है। वैदिक ब्राह्मणों ने बड़ी विद्वता का परचम लहराया था, परंतु बौद्ध व जैन धर्म के अनुयायी भी अपने-अपने मत के प्रतिपादन में काफी जागरूक थे, इसलिए भारत में सनातन वैदिक धर्म में उत्थान व पतन दोनों चलते रहे। अतः वैदिक धर्म की पुन: प्रतिष्ठा के लिए उस समय यह आवश्यक था कि श्रुति के सिद्धांतों की वास्तविकता समाज भलीभांति समझे। यज्ञ और कर्मकांड ,दर्शन आदि की उपयोगिता तर्क की कसौटी पर कसी जाए।उस समय धर्म की लड़ाई तलवार की नहीं थी। शास्त्रार्थ और कलम के माध्यम से दूसरे के धर्मों की नकारात्मकता दिखलाते थे। तात्पर्य यह कि उस समय आचार्य कुमारिल भट्ट और आचार्य शंकर के अथक परिश्रम से वैदिक धर्म के मार्ग की जो पुनः प्रतिष्ठा की गई, वह आज भी सुदृढ है। इन आचार्यों के तर्क और सिद्धांतों के आगे बौद्ध धर्म ज्यादा समय तक टीका नहीं और तिब्बत, चीन, जापान आदि की ओर उसने अपना रुख कर लिया।कालान्तर में बौद्ध धर्म दक्षिण-पूर्व एशिया में तो फैला, किंतु उसने वहां कोई महान मानदण्ड स्थापित नहीं किए। श्रीलंका और म्यांमार नरसंहारों के लिए कुख्यात हुए, चीन निरंकुश विस्तारवाद के लिए और जापान मानवद्रोह की धुरी के लिए।उस दौर में शंकराचार्य जी ने पूरे भारत वर्ष का भ्रमण करते हुए हर जगह सिर्फ एक ही भाषा ‘संस्कृत’ में संवाद किया, जो इस भूभाग के उच्च बौद्धिक वर्ग को जोड़ती थी।वेदव्यास जी के बाद शंकराचार्य जी ऐसे पहले रचनाकार माने जा सकते हैं जिन्होंने पौराणिक और वैदिक हिंदूवाद को आपस में जोड़ा था।भारतीय संस्कृति के विकास में भगवान आदि शंकराचार्य जी का सर्वाधिक योगदान रहा है।आचार्य शंकर दिग्विजय, शंकरविजयविलास, शंकरजय आदि ग्रन्थों में उनके जीवन से सम्बन्धित तथ्य उद्घाटित होते हैं। दक्षिण भारत के केरल राज्य (तत्कालीन मालाबारप्रांत) में आद्य शंकराचार्य जी का जन्म हुआ था। उनके पिता शिव गुरु तैत्तिरीय शाखा के यजुर्वेदी ब्राह्मण थे। आठ वर्ष की अवस्था में गोविन्दपाद के शिष्यत्व को ग्रहण कर संन्यासी हो जाना, पुन: वाराणसी से होते हुए बद्रिकाश्रम तक की पैदल यात्रा करना, सोलह वर्ष की अवस्था में बद्रीकाश्रम पहुंच कर ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखना, सम्पूर्ण भारत वर्ष में भ्रमण कर अद्वैत वेदान्त का प्रचार करना, दरभंगा में जाकर मण्डन मिश्र से शास्त्रार्थ कर वेदान्त की दीक्षा देना तथा मण्डन मिश्र को संन्यास धारण कराना, भारतवर्ष में प्रचलित तत्कालीन कुरीतियों को दूर कर समभावदर्शी धर्म की स्थापना करना - इत्यादि कार्य इनके महत्व को और बढ़ा देता है। सबसे बड़ा प्रश्न कि "मैं कौन हूँ?'' जिसके उत्तर की प्रतीक्षा में पीढ़ियाँ गुज़र गयीं ,तपस्वियों ने अपना शरीर गला दिया ,वैज्ञानिकों ने सब कुछ झोंक दिया उसका उत्तर देते हुए उन्होंने कहा " अहं ब्रह्मास्मि'' अर्थात मैं ब्रह्म हूँ ,आगे "तत्त्वमसि'' अर्थात तुम भी वही हो ,"प्रज्ञानं ब्रह्म'' -चेतना भी ब्रह्म है, "सर्व खल्विदं ब्रह्म" -समस्त संसार ब्रह्म का ही रूप है,इस प्रकार उन्होंने इस मत को प्रतिष्ठित किया कि ब्रह्म और जीव दो नहीं है,एक ही है ,आत्मा और परमात्मा एक है,सगुण और निर्गुण एक है और यदि इनमें कोई भेद दिखाई देता है तो उसका कारण अज्ञान है, और इस मत का नाम दिया "अद्वैतवाद''।जब हम कहते है कि जो तुम हो वही मैं हूँ उसी क्षण जाति प्रथा पर गंभीर चोट पहुंचती है।यह सर्वविदित है कि उस काल मे भारत मे इस्लाम और ईसाइयत का नामोनिशान नहीं था,इस सिद्धान्त को इस्लाम ने लिया और एक शब्द दिया "अनलहक'' जिसका अर्थ ही है ''अहं ब्रह्मास्मि'' ,ये बात अलग है कि अरबी अध्ययनकर्ता मंसूर भारत मे योग सीखने के बाद जब अरब गया और बोला कि "अनलहक'' तो उसे फाँसी दी गयी जिसके बारे में मैं डॉ विद्यासागर दिल्ली के कांस्टीट्यूशन क्लब में शंकराचार्य परिषद द्वारा आयोजित "हिन्दू कौन '' विषयक विचार गोष्ठी में विस्तार से चर्चा किया जिसे आप यूट्यूब पर सुन सकते हैं। बौद्ध धर्म की मान्यता थी कि Mind और Matter के संयोग से सृष्टि बनी है ,भगवान आदि शंकर ने इसे मिथ्या सिद्ध किया और बताया कि सृष्टि महत्तत्व का विस्तार है जिसे आधुनिक विज्ञान मूल कण (हिग्स बोसान) मानता है और जमीन के अन्दर एक महामशीन स्थापित करके उस महत्तत्व की खोज की जा रही है ।उन्होंने कहा ब्रह्म निराकार है ,इस सृष्टि का कण-कण ,सजीव-निर्जीव सब उसी के रूप है और प्रथमतः तो उसका विस्तार होता है ,पुनः संकुचन होता है और एक दिन सृष्टि ब्रह्म में विलीन हो जाती है। आज के खगोलविद ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति बिग-बैंग अर्थात महा विस्फोट से मानते है ,और माना जाता है कि ब्रह्माण्ड का वृत्ताकार विस्तार हो रहा है ,परन्तु आगे खरबो वर्ष बाद वृत्ताकार संकुचन होगा ,सिकुड़ते -सिकुड़ते यह पूरा ब्रह्माण्ड उच्च आकर्षण युक्त ब्लैकहोल में समा जाएगा ।मैं डॉ विद्यासागर जब भी भगवान आदि शंकराचार्य जी के दर्शन पर चिंतन करता हूँ तो पाता हूँ कि इतनी कम अवस्था मे इतनी विलक्षण प्रतिभा निश्चित रूप से विश्व का प्रथम आश्चर्य है ।भारतीय दार्शनिक परम्परा में जो विद्वान प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिखता है उसे ही आचार्य माना जाता है और वही अपना एक वाद चलाने का अधिकारी होता है।प्रस्थानत्रयी क्या है...????ब्रह्मसूत्र ,गीता और उपनिषदों को सामूहिक रूप से प्रस्थानत्रयी कहा जाता है जो वेदांत के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं।इनमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, भगवद्गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। प्राचीन काल में भारतवर्ष में जब कोई गुरू अथवा आचार्य अपने मत का प्रतिपादन एवं उसकी प्रतिष्ठा करना चाहता था तो उसके लिये सर्वप्रथम वह इन तीनों पर भाष्य लिखता था।अर्थात इन तीनो प्रस्थान का भाष्य किये बिना आप एक अलग स्वतंत्र मत के संस्थापक आचार्य नहीं माने जा सकते।बल्लभाचार्य, निम्बार्काचार्य, रामानुजाचार्य, मध्वाचार्य आदि गुरुओं ने ऐसा कर के ही अपने-अपने मत यथा-द्वैतवाद,विशिष्टाद्वैतवाद,शुद्धाद्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद, आदि का प्रतिपादन किया जिसमे भगवान आदि शंकर का नाम बहुत ही आदर और सम्मान के साथ लिया जाता है ,जिन्होंने अद्वैतवाद को स्थापित किया और वर्तमान में यह मत ही सर्वाधिक प्रचलित और मान्य है।भगवान आदि शंकर द्वारा लिखित साहित्य-- अष्टोत्तरसहस्रनामावलिः, उपदेशसहस्री,चर्पटपंजरिकास्तोत्रम्, त्त्वविवेकाख्यम् ,दत्तात्रेयस्तोत्रम्,द्वादशपंजरिकास्तोत्रम्,कूटस्थदीप,चित्रदीप,तत्त्वविवेक,तृप्तिदीप,द्वैतविवेक,ध्यानदीप,नाटक दीप,पञ्चकोशविवेक,पञ्चमहाभूतविवेक,पञ्चकोशविवेक,ब्रह्मानन्दे अद्वैतानन्द,ब्रह्मानन्दे आत्मानन्द,ब्रह्मानन्दे योगानन्द,महावाक्यविवेक,विद्यानन्द,विषयानन्द,परापूजास्तोत्रम्,प्रपंचसार,भवान्यष्टकम्,लघुवाक्यवृत्ती,विवेकचूडामणि,सर्व वेदान्त सिद्धान्त सार संग्रह,साधनपंचकम,अध्यात्म पटल भाष्य,ईशोपनिषद भाष्य,ऐतरोपनिषद भाष्य,कठोपनिषद भाष्य,केनोपनिषद भाष्य,छांदोग्योपनिषद भाष्य,तैत्तिरीयोपनिषद भाष्य,नृसिंह पूर्वतपन्युपनिषद भाष्य,प्रश्नोपनिषद भाष्य,बृहदारण्यकोपनिषद भाष्य,ब्रह्मसूत्र भाष्य,भगवद्गीता भाष्य,ललिता त्रिशती भाष्य,हस्तामलकीय भाष्य,मंडूकोपनिषद कारिका भाष्य,मुंडकोपनिषद भाष्य,विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र भाष्य,सनत्सुजातीय भाष्य है। इसकेअतिरिक्त तत्त्वज्ञानविषक रचनाए-- अद्वैत अनुभूति,,अद्वैत पंचकम्,अनात्मा श्रीविगर्हण,अपरोक्षानुभूति,उपदेश पंचकम् ,किंवा साधन पंचकम् ,एकश्लोकी,कौपीनपंचकम्,जीवनमुक्त आनंदलहरी ,तत्त्वोपदेश,धन्याष्टकम् ,निर्वाण मंजरी,निर्वाणशतकम्,पंचीकरणम् (गद्य),प्रबोध सुधाकर,प्रश्नोत्तर रत्नमालिका,प्रौढ अनुभूति,यति पंचकम्,योगतरावली,वाक्यवृत्ति,शतश्लोकी,सदाचार अनुसंधानम् ,साधन पंचकम् किंवा उपदेश पंचकम्,स्वरूपानुसंधान अष्टकम्,स्वात्म निरूपणम्,स्वात्मप्रकाशिका,गणेश स्तुतिपरगणेश पंचरत्नम्,गणेश भुजांगम्,शिवस्तुतिपरकालभैरव अष्टकम्,दशश्लोकी स्तुति,दक्षिणमूर्ति अष्टकम्,दक्षिणमूर्ति स्तोत्रम्,दक्षिणमूर्ति वर्णमाला स्तोत्रम्,मृत्युंजय मानसिक पूजा ,वेदसार शिव स्तोत्रम् ,शिव अपराधक्षमापन स्तोत्रम् शिव आनंदलहरी,शिव केशादिपादान्तवर्णन स्तोत्रम्,शिव नामावलि अष्टकम्,शिव पंचाक्षर स्तोत्रम् ,शिव पंचाक्षरा नक्षत्रमालास्तोत्रम्,शिव पादादिकेशान्तवर्णनस्तोत्रम्,शिव भुजांगम्,शिव मानस पूजा,सुवर्णमाला स्तुति,शक्तिस्तुतिपरअन्नपूर्णा अष्टकम् ,आनंदलहरी,कनकधारा स्तोत्रम् ,कल्याण वृष्टिस्तव,गौरी दशकम्,त्रिपुरसुंदरी अष्टकम्,त्रिपुरसुंदरी मानस पूजा,त्रिपुरसुंदरी वेद पाद स्तोत्रम्,देवी चतु:षष्ठी उपचार पूजा,स्तोत्रम्,देवी भुजांगम्,नवरत्न मालिका,भवानी भुजांगम्,भ्रमरांबा अष्टकम्,मंत्रमातृका पुष्पमालास्तव,महिषासुरमर्दिनी स्तोत्रम्,ललिता पंचरत्नम्,शारदा भुजंगप्रयात स्तोत्रम्,सौंदर्यलहरी,विष्णू आणि त्याच्या अवतारांच्या स्तुतिपरअच्युताष्टकम्,कृष्णाष्टकम्,गोविंदाष्टकम्,जगन्नाथाष्टकम्,पांडुरंगाष्टकम्,भगवन् मानस पूजा,मोहमुद्गार (भज गोविंदम्),राम भुजंगप्रयात स्तोत्रम्,लक्ष्मीनृसिंह करावलंब (करुणरस) स्तोत्रम्,लक्ष्मीनरसिंह पंचरत्नम्,विष्णुपादादिकेशान्त स्तोत्रम्,विष्णु भुजंगप्रयात स्तोत्रम्,षट्पदीस्तोत्रम्,उमा महेश्वर स्तोत्रम्,काशी पंचकम् ,गंगाष्टकम् ,गुरु अष्टकम्,नर्मदाष्टकम्,निर्गुण मानस पूजा,मनकर्णिका अष्टकम् ,यमुनाष् ,,,है।इतना वृहदसहित्य सामान्य मनुष्य के लिए संभव है क्या?????असम्भव.....।शंकराचार्य जी का दर्शन स्पष्ट रूप से वैदिक है।बौद्ध और जैन विद्वानों से इतर वेदों से ज्ञान हासिल करके उन्होंने अपने भाष्य और प्रकरणों में बार-बार निराकार ब्रह्म का उल्लेख किया है।एक उसे ही अर्थात निराकार ब्रह्म को सच माना है।ब्रह्मसूत्र भाष्य में उन्होंने जो टिप्पणियां की हैं उनमें, विवेकचूड़ामणि व निर्वाण शटकम् जैसे काव्य और आत्म-बोध नाम की पुस्तक में इसके प्रमाण मिलते हैं।उनकी तीन रचनाएं - दक्षिणमूर्ति स्तोत्र, गोविंदाष्टक और सौंदर्य लहरी, जिनमें क्रमश: शिव, विष्णु और शक्ति की आराधना की गई है, उनकी लीलाओं का गान किया गया है।ये रचनाएं उन्हें वेदव्यास के बाद पहला ऐसा रचनाकार बनाती हैं, जो साकार और निराकार दोनों तरह के ईश्वर की बात कर खुले तौर पर पौराणिक और वैदिक हिंदूवाद को जोड़ता है।इसके पीछे मैं डॉ विद्यासागर जब चिंतन करता हूँ तो ऐसा लगता है कि भगवान आदिशंकर ने भारतीय जनता की बौद्धिक क्षमता के अनुकूल धर्म के स्वरूप को ढालने का प्रयास किया ।उन्हें प्रतीत हुआ होगा कि सामान्य जन की बौद्धिक क्षमता निराकार ब्रह्म को समझने में शायद सफल न हो इसलिए साकार स्वरूप सगुणोपासना हेतु शिव,विष्णु और शक्ति की आराधना हेतु स्तोत्र लिखा इस विश्वास के साथ कि सगुणोपासना से जब ध्यान केंद्रित होगा तो मनुष्य समाधि की अवस्था को प्राप्त करेगा एवं क्षमता और विकसित होगा तो सगुण से निर्गुण की ओर गतिमान होते हुए ब्रह्म अर्थात आत्मसाक्षात्कार करेगा । शंकराचार्य जी ने तंत्र पर भी लिखा है और उनके उस साहित्य ने भी समय-समय पर अपनी मजबूत उपस्थिति दर्ज कराई है ,इसके पीछे भी तर्क उपरोक्त ही है।उन्होंने धर्मराज्य की स्थापना के लिये व्यासपीठ तथा राजपीठ में सद्भावपूर्ण सम्वाद के माध्यम से सामंजस्य बनाये रखने की प्रेरणा प्रदान की।भगवान आदि शंकर ने समस्त भारतवर्ष में भ्रमण करके बौद्ध विद्वानों से प्रामाणिक तर्क के आधार पर बौद्ध धर्म को मिथ्या सिद्ध किया किया तथा वैदिक धर्म को पुनरुज्जीवित किया। जब काशी में भगवान आदि शंकर का सामना चाण्डाल से हुआ, तो उन्होंने उससे रास्ते से परे हटने को कहा। जवाब में वह हाथ जोड़कर बोला, ‘क्या हटाऊं? अपना शरीर या आत्मा? आकार या निराकार? सीम या असीम?’ इन प्रश्नों ने शंकराचार्य जी को भीतर तक झकझोर दिया। उन्होंने उस चाण्डाल को अपना गुरु बना लिया।चूंकि उस वक्त वे पारंपरिक वर्ण व्यवस्था में ही पूरी तरह रचे-बसे थे, जिसमें जातिगत शुद्धता मायने रखता था इसलिए एक चाण्डाल को अपना गुरु बनाकर प्रचलित व्यवस्था को तोड़ देना ,,,उनका यह कदम विशेष अहमियत रखता था।आज हिंदू धर्म का जो स्वरूप हमें दिखाई देता है वह भगवान आदि शंकर का ही बनाया हुआ है। । उन्होंने शताधिक ग्रंथों की रचना शिष्यों को पढ़ाते हुए कर दी। भारतीय इतिहास में भगवान आदि शंकर को श्रेष्ठतम दार्शनिक स्वीकार किया गया है।तत्कालीन भारत की स्थिति भयावह थी। लोकयतिक बौद्ध, जैन, वैदिक सनातन धर्म विरोधी हो चुके थे। कापालिक पाशुपत, पांचराज मतावलंबी पाखंड प्रचार में संलग्न थे। प्रत्येक संप्रदाय, पंथ उनके प्रमुख देवता की उपासना आराधना तक सीमित हो चुका था। फलस्वरूप धार्मिक एकता ही नहीं, अपितु भौगोलिक एकता भी नष्टप्रायः थी। सार रूप में यह स्पष्ट था कि भारतीय वैदिक सनातन संस्कृति एवं सभ्यता जीवन-मृत्यु के बीच संघर्षमय थी।ऐसे भयावह दौर में आचार्य शंकर का अवतरण "परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्'' के अनुरूप हुआ ।भगवान आदि शंकर सिर्फ विशाल व्यक्तित्व वाले दार्शनिक के रूप में ही नहीं, बल्कि एक ऐसे राजनैतिक संत के तौर पर भी स्थापित होते हैं, जिसने एक बड़े भू-भाग को आध्यात्मिक और राजनैतिक रूप से एक सूत्र में पिरोने में मदद की।वह भारतीय उपमहाद्वीप, जिसका वर्णन हिंदू, बौद्ध और जैन साहित्य में कहीं जम्बू द्वीप , कहीं आर्यावर्त तो कहीं भारत वर्ष के रूप में मिलता है ,कहना गलत न होगा कि भगवान आदि शंकर ने अपने दर्शन, काव्य और तीर्थयात्राओं से उसे एक करने का प्रयास किया और इसी के परिणामस्वरूप सनातन धर्म के प्रचार और प्रसार में भगवान आदि शंकर द्वारा भारतवर्ष के चारो कोनों में चार पीठों १-दक्षिण में शृंगेरपीठ- शंकराचार्यपीठ, २-पूर्व जगन्नाथपुरी में गोवर्धनपीठ, ३-पश्चिम द्वारिका में शारदामठ तथा ४-उत्तर बद्रिकाश्रम में ज्योतिष्पीठ की स्थापना की।साथ ही सनातन धर्म रक्षा के निमित्त अखाड़ों का गठन किया ,जैसे अभी आप सब महाराष्ट्र में जूना अखाड़े के दो सन्यासियों व एक ड्राइवर की हत्या से उपजे तनाव और आक्रोश की दुःखद अनुभूति कर रहे होंगे ,ऐसे १३ अखाड़े हैं जो सनातन धर्म के कमाण्डो फोर्स माने जाते हैं।अखाड़े संतों की उस सेना या संगठन को कहा जाता है जो धर्म की रक्षा के लिए विशेष पारंपरिक रूप से गठित किए गए हैं। अपनी धर्मध्वजा ऊंची रखने और विधर्मियों से अपने धर्म, धर्मस्थल, धर्मग्रंथ, धर्म संस्कृति और धार्मिक परंपराओं की रक्षा के लिए ही भगवान आदि शंकर ने इस सेना का गठन किया था जो आज अखाड़ों के रूप में विद्यमान है।भगवान आदिशंकर ने भारत के भौगोलिक मानचित्र का पर विचार किया कि भारतवर्ष दस अलग-अलग भौगोलिक इकाइयों में फैला है। इन इकाइयों में फैले हुए भारत को राष्ट्रीयता के संस्कार देने और संगठित करने के लिए दशनामी संन्यासियों की परम्परा को स्थापित किया। राष्ट्र नदी किनारे तीर्थों में, वनो में, अरण्यों में, पर्वतीय क्षेत्रों में, नगरों में, इत्यादि दस इकाइयों में बसा हुआ है। इनके लिए दशनामी संन्यासियों का आधार बनाया। तीर्थाश्रमवनारण्यगिरिसागरपर्वताः। सरस्वती पुरी चैव भारती च दशक्रमात्॥ इस श्लोक में तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, सागर, पर्वत, सरस्वती, पुरी, और भारती ऐसे दस नाम आते हैं जिन्हें दीक्षित करके उनके नाम के अनुकूल उत्तरदायित्व भगवान आदि शंकर ने दिया जिसका एकमात्र उद्देश्य राष्ट्रीय एकता रही।मैं डॉ विद्यासागर यह दावे के साथ कह सकता हूँ कि सारे राष्ट्र को एकता के सूत्र में पिरोने की परिकल्पना 2500 वर्ष पूर्व मात्र 32 वर्ष की आयु तक साकार करने का कार्य कोई देवता ही कर सकता है । अन्य धर्मों के कुछ लोग दुष्प्रचार करते है कि शंकराचार्य जी ने युद्ध करके विधर्मियों को परास्त किया जबकि कहीं इसका कोई प्रमाण नहीं है ।हिन्दू समाज द्वारा भी उनके योगदान को ‘दिग्विजय’ की तरह पेश किया गया है। यहां तक कि इसमें मंडन मिश्र जैसे दार्शनिकों के साथ उनके शास्त्रार्थ को भी संघर्ष की तरह पेश किया गया है, जिसमें भगवान आदि शंकर को विजेता बताया गया है। लेकिन इसकी संभावना शून्य है कि किसी इतने बड़े वैदिक दार्शनिक ने ऐसा किया होगा,क्योंकि वेदों में ‘अहं’ को ऐसा ग्रहण बताया गया है, जो ब्रह्म से साक्षात्कार की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है।एक प्रसंग बड़ा रोचक है ,भगवान आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्र के मध्य सोलह दिन से शास्त्रार्थ चल रहा था। मंडन मिश्र की पत्नी देवी भारती निर्णायक थीं। हार-जीतका निर्णय नहीं हो पा रहा था, तभी देवी भारतीको किसी आवश्यक कार्यसे बाहर जाना पड़ा। जानेके पूर्व उन्होंने दोनों विद्वानोंके गलेमें एक-एक माला डालते हुए कहा, मेरी अनुपस्थितिमें मेरा काम ये फूलमालाएं करेंगी। देवी भारती चली गई। शास्त्रार्थ यथावत चलता रहा। कुछ समय बाद जब वे अपना काम पूरा कर लौटीं, तो उन्होंने भगवान आदि शंकराचार्य और मंडन मिश्रको बारी-बारी से देखा, उनके गलेमें डाली गई फूलों की मालाकी स्थितिको परखा और अपना निर्णय सुना दिया। निर्णयके अनुसार आदि शंकराचार्यकी विजय हुई और उनके पति मंडन मिश्र पराजित हुए।सभी आश्चर्यचकित थे कि उन्होंने किस आधारपर अपने पतिको पराजित घोषित किया। अंततः एक व्यक्तिने नम्रतापूर्वक पूछा, आप तो शास्त्रार्थके मध्य ही चली गई थीं। फिर लौटते ही आपने यह फैसला कैसे सुना दिया? देवी भारतीने उत्तर दिया, “जब विद्वान शास्त्रार्थमें पराजित होने लगता है तो वह क्रोधित हो जाता है। इसका प्रभाव उस व्यक्ति के साथ ही वहांके वातावरणपर भी होता है। मेरे पति मंडन मिश्रके गलेकी माला क्रोधके तापसे सूख गई, जबकि भगवान आदि शंकर की मालाके फूल अभी भी ताजे हैं। इसीसे प्रकट होता है कि शंकराचार्यकी विजय हुई है ,क्योंकि उन्होंने क्रोध पर भी विजय प्राप्त की है।” भगवान आदि शंकर पूरे देश में घूमे , चारों दिशाओं में अपने मठ स्थापित किए, संन्यासियों के लिए अखाड़े स्थापित किए, माना जाता है कि उन्होंने ही तीर्थ क्षेत्रों और कुंभ मेलों में इन अखाड़ों के जुटने का चलन शुरू किया। इन सारे कामों को करने के बाद महज 32 साल की उम्र में हिमालय क्षेत्र में भगवान आदि शंकर का देहांत हो गया।आज मैं डॉ विद्यासागर जब भगवान आदि शंकर के जीवनवृत्त पर लिखने बैठा हूँ तो उनके व्यक्तित्व व कृतित्व की व्यापकता से समझ मे नहीं आ रहा कि कैसे आदि व अन्त करूँ ,हज़ारो बाते दिमाग में घूम रही है ,लेखन के माध्यम से व्यक्त भी करना चाह रहा हूँ परन्तु लेख इतना लम्बा हो गया है कि इसे और बढ़ाना उचित प्रतीत नहीं हो रहा है,बस यही कहना चाहता हूं कि वर्तमान में भगवान आदि शंकराचार्य जी की जयंती पर हमें विचार करना होगा कि राम,कृष्ण,शंकराचार्य, विवेकानन्द, अरविंद की भूमि पर आज का युवा इनसे प्रेरणा न लेकर फिल्मी हीरो ,हीरोइनों से प्रेरित क्यों हो रहा है???धर्म को स्थापित करने वाले इन महामानवों के देश मे आज का युवा, धर्म को बुजुर्गों की विषयवस्तु क्यों मान बैठा है????पूरी दुनियां को चमत्कृत करने वाले इन महान युवाओं के देश मे आज का युवा ओलम्पिक में एक गोल्ड मैडल के लिए तरसता क्यों है???उत्तर सबको पता है.......................। अंत मे एक लघु प्रसंग से अपनी बात समाप्त करूँगा,जब एक अच्छे गुरु की तलाश करते हुए शंकराचार्य जी गुरु गोविंदपाद जी से मिलने गए तो वो अंधेरी गुफा में साधना में लीन थे।जैसे ही शंकराचार्य जी गुफा के द्वार पर पहुंचे ,अंदर से आवाज आई "तुम कौन हो??'' और इस प्रश्न का ऐसा उत्तर शंकराचार्य जी ने दिया कि गुरु भावविह्वल हो उठे और उन्हें शिष्य के रूप में अंगीकार किया।उनके उत्तर का एक संक्षिप्त अंश निम्न है -------- न मे मृत्यु शंका न मे जातिभेद:, पिता नैव मे नैव माता न जन्म:। न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्य: , चिदानन्दरूप: शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥(निर्वाण षट्कम ५।। अर्थात----- न मुझे मृत्यु का डर है, न जाति का भेदभाव मेरा न कोई पिता है, न माता, न ही मैं कभी जन्मा था मेरा न कोई भाई है, न मित्र, न गुरू, न शिष्य, मैं तो शुद्ध चेतना हूं, अनादि, अनंत शिव हूं। ।।मैं ही शिव हूँ।। ©डॉ विद्यासागर
Apr 28 2025, 21:28