*परिसीमन को लेकर “संदेह में साउथ”,क्या सच में घट जाएंगी लोकसभा में उनकी सीटें?*
देश में एक बार फिर परिसीमन का मुद्दा चर्चा में है। लोकसभा और विधानसभा सीटों के परिसीमन का काम अगले साल शुरू होने की संभावना है। इससे पहले परिसीमन को लेकर दक्षिण भारत के राज्यों का माहौल काफी गर्म है। वहां के राजनेता इसे दक्षिणी राज्यों पर लटक रही तलवार की तरह देख रहे हैं। असल में भारत के दक्षिणी राज्यों की आबादी उत्तर भारत के राज्यों की तुलना में कम है और उन्हें डर है कि अगले परिसीमन में उन्हें इसका नुकसान उठाना पड़ सकता है। हालांकि केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह ने दक्षिण भारत के राज्यों को आश्वस्त करते हुए कहा है कि 2026 के बाद होनी वाली जनगणना के आधार पर होने वाले परिसीमन में दक्षिण भारत के किसी भी राज्य की सीटें कम नहीं होंगीं। उन्होंने साफ किया कि कम जनसंख्या के बाद भी परिसीमन में दक्षिण भारत के राज्यों में लोकसभा की सीटें भी उत्तर भारत के राज्यों के अनुपात में ही बढ़ाई जाएंगी। सबसे पहले जानते हैं जिस परिसीमन को लेकर “पारा” चढ़ा है वो है क्या? यह कब कराया जाता है, इससे बदलता क्या है और दक्षिण भारत के राज्यों का डर कितना जायज है?
*क्या होता है परिसीमन?*
समय के साथ जनसंख्या में बदलाव के कारण किसी लोकसभा या विधानसभा क्षेत्र की सीमाओं के पुनर्निर्धारण की प्रक्रिया को परिसीमन कहा जाता है। परिसीमन आयोग ये कार्य करता है। यह एक स्वतंत्र निकाय होता है जिसके फैसले को कोर्ट में चुनौती नहीं दी जा सकती। इसका उद्देश्य इस तरह से सीमाएं निर्धारित करना होता है कि सभी सीटों के अंतर्गत लगभग बराबर आबादी आए। ये सीटों की संख्या घटा और बढ़ा भी सकता है। यह भी तय करता है कि अनुसूचित जातियों और अनुसूचित जनजातियों के लिए कितनी सीटें आरक्षित होंगी। अनुच्छेद 80 और 170 के अनुसार, प्रत्येक जनगणना के बाद परिसीमन किया जाना चाहिए। यह कार्य संसद द्वारा पारित कानून के माध्यम से गठित परिसीमन आयोग द्वारा किया जाना चाहिए। 1951, 1961 और 1971 में परिसीमन किया गया, क्योंकि जनसंख्या 36.1 करोड़ से बढ़कर 43.9 करोड़ और 54.8 करोड़ हो गई। परिणामस्वरूप, सीटों की संख्या 494 से बढ़कर 522 और 543 हो गई।
*परिसीमन 2026 तक स्थगित*
हालाँकि, 1976 में, जब परिवार नियोजन अभियान अपने चरम पर था, तब जन्म नियंत्रण को प्रोत्साहित करने और यह सुनिश्चित करने के लिए कि अधिक जनसंख्या वाले राज्यों को नियंत्रित जनसंख्या वाले राज्यों पर लाभ न मिल जाए, परिसीमन की प्रक्रिया को 25 वर्षों के लिए स्थगित करने का निर्णय लिया गया। यह 42वें संविधान संशोधन के ज़रिए किया गया, जो 2000 तक लागू रहा। 2001 में, 84वें संविधान संशोधन को पारित करके परिसीमन प्रक्रिया को अगले 25 वर्षों के लिए स्थगित कर दिया गया। यह 2026 में समाप्त हो जाएगा। देश की जनसंख्या 141 अरब हो गई है, इसलिए लोकसभा में सीटों की संख्या बढ़कर 753 होनी चाहिए।
*दक्षिणी राज्य क्यों परेशान हैं?*
वर्तमान में दक्षिणी राज्यों से लोकसभा की सीटों की संख्या 129 है, जो कुल सीटों की संख्या 543 का लगभग 24% है। इसमें तेलंगाना: 17 सीटें, आंध्र प्रदेश: 25 सीटें, केरल: 20 सीटें, तमिलनाडु: 39 सीटें और कर्नाटक: 28 सीटें शामिल हैं। यदि 20 लाख की आबादी पर एक लोकसभा सीट का फार्मूला लागू किया जाए तो दक्षिणी राज्यों का हिस्सा होगा- तेलंगाना: 20, आंध्र प्रदेश: 28, केरल: 19, तमिलनाडु: 41 और कर्नाटक: 36। 753 सदस्यीय सदन में कुल सीटें 144 होंगी, जो लगभग 19% होंगी, यानी 5% की गिरावट।
*दक्षिणी राज्यों का विद्रोह*
यही वजह है कि दक्षिणी राज्य प्रस्तावित परिसीमन के खिलाफ हैं। परिसीमन पर तमिलनाडु की सीटें कम होने की आशंका के बाद मुख्यमंत्री एमके स्टालिन ने अगले हफ्ते मंगलवार को सर्वदलीय बैठक बुलाई है। स्टालिन की पार्टी डीएमके को लगता है कि जनसंख्या नियंत्रण पर मिली उसकी सफलता की वजह से लोकसभा में तमिलनाडु की सीटें कम हो जाएंगी। उसे लगता है कि उत्तर भारत जहां जनसंख्या तेजी से बढ़ी है, वहां लोकसभा की सीटों में बेतहाशा बढ़ोतरी होगी। इससे लोकसभा में तमिलनाडु समेत दक्षिण भारत की आवाज कमजोर पड़ेगी। वहीं, कर्नाटक के मुख्यमंत्री सिद्धारमैया ने कहा, यह स्पष्ट है कि अगर नवीनतम जनसंख्या अनुपात के आधार पर परिसीमन किया जाता है, तो यह दक्षिणी राज्यों के साथ घोर अन्याय होगा।
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