कौमी एकता का प्रतीक ऐतिहासिक लतीफशाह मेला ,मेले की परंपरा पूर्व काशी नरेश उदित नारायण ने ही डाली थी
श्रीप्रकाश यादव
चंदौली। प्रत्येक वर्ष की भांति इस वर्ष भी हरितालिका तीज के तीसरे दिन चकिया में लगने वाले चार दिवसीय मेले को लेकर चारों तरफ चहल-पहल देखने को मिल रही है, और नगर पंचायत चकिया की ओर से हरितालिका तीज के तीसरे दिन लतीफशाह में बाबा लतीफ शाह व बाबा बनवारी दास की याद में भव्य मेले का आयोजन किया जाता है। उसी क्रम में 8 सितंबर को मेले का शुभारंभ किया जाएगा। जिसमें पूर्वांचल के विभिन्न जिलों समेत बिहार प्रांत के भी कई जनपदों के लोग यहां पहुंचेंगे और आनंद उठाएंगे। उसके अगले दिन चकिया नगर पंचायत द्वारा नगर के उप जिलाधिकारी आवास में विराट कजरी महोत्सव का आयोजन किया जाता है। जिसमें तमाम जनपदों के कलाकार शिरकत करते हैं। वही उसी के अगले दिन चकिया नगर के मां काली मंदिर पोखरा परिसर में विराट कुश्ती दंगल का आयोजन किया जाता है जिसमें की कई जनपदों के पहलवान पहुंचकर जोर आजमाइश भी करते हैं।
वही चार दिवसीय मेले को लेकर स्थानीय पुलिस प्रशासन भी पूरी तरीके से चुस्त व दुरुस्त है,और लगातार चप्पे-चप्पे पर पुलिस प्रशासन तैनात रहती है। सैदूपुर चौकी प्रभारी परमानंद त्रिपाठी ने लतीफ शाह जाकर सुरक्षा व्यवस्था का जायजा लिया। बता दें कि कर्मनाशा नदी के तट पर स्थित बाबा लतीफशाह की पवित्र मजार जनपद की सांस्कृतिक व एतिहासिक धरोहरो में से एक है। कौमी एकता के प्रतीक बाबा लतीफशाह का एतिहासिक तीन दिवसीय मेला 8 सितंबर दिन रविवार से प्रारम्भ होगा। मेले की एतिहासिकता सैकड़ों वर्ष पुरानी है। मेले को लेकर पूर्व संध्या पर तैयारियां जोरों पर है।
जीवन पर्यंत रूढि़वादी परंपरा के विरूद्ध संघर्ष करने वाले बाबा जहां हिंदू मुस्लिम सछ्वावना की बीज बोए। वही दोनों संप्रदायों की कुरीतियों पर कुठाराघात किया। सूफीमत के प्रर्वतक बाबा की चर्चाएं आज भी दूरदराज तक फैली हुई है। काशी नरेश के दस्तावेजों के अनुसार बाबा का पूरा नाम सैयद अब्दुल लतीफशाह बर्री था। ईरानी देश (तत्कालीन) के बर्री नामक शहर के किसी गांव में उनका जन्म हुआ था। बचपन में ही साकार ब्रह्म के तत्व ज्ञान को ढूढ़ने के लिए वह सन्यासी बन गये। अकबर के शासन काल में कट्टर पंथ से परहेज किए जाने की बात सुनकर वे भारत आए थे। अजमेर शरीफ में ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती के तत्कालीन गद्दीनशी की सलाह पर वे काशी चले आए। प्रेम, सौहार्द, समरसता तथा धार्मिक पाखंड के प्रति उनके विचारों ने शिष्यों की एक बड़ी जमात खड़ी कर दी। बाद में वे कर्मनाशा नदी के किनारे आकर रहने लगे।
एक दंत कथा के अनुसार कौडिहार गांव के पास कर्मनाशा नदी के किनारे आने के समय ही उसी स्थान पर बाबा बनवारी दास नामक हिंदू संत भी रहा करते थे, वे भी बड़े तपस्वी तथा विद्वान थे। दोनों संत साथ-साथ हिन्दू मुस्लिम एकता का संदेश देते थे। परंतु ईश्वर की इच्छा अनुसार एक दिन बाबा बनवारी दास के मस्तिष्क में श्रेष्ठता की भावना ने जन्म लिया, वे कहने लगे कि मैं बाबा लतीफशाह से श्रेष्ठ संत हूं। कर्मनाशा की तीव्र धारा को पानी के उपर से चलकर पार करने की उन्होने पेशकश रख दी। बाबा बनवारी दास नदी पार करने गये तो वे पानी के अंदर चले गये। जबकि बाबा लतीफशाह ने पानी पर चलकर नदी पार कर ली। बाबा लतीफशाह को श्रेष्ठ संत होने का दर्जा मिल गया।
मजार का हुआ निर्माण
पूर्ववर्ती काशी नरेश उदित नारायण सन 1793 वें में चकिया काली जी का मंदिर बनवाना आरंभ किया तो उसी समय बाबा लतीफशाह के पक्की मजार का भी निर्माण कराया। हूबहू मां काली मंदिर की तरह दिखने वाला मजार आज भी मौजूद है। कहा जाता हैं कि किसी नदी के किनारे यह पहली पक्की मजार है। किदवंतियों के अनुसार मजार निर्माण के साथ ही लतीफशाह मेले की परंपरा पूर्व काशी नरेश उदित नारायण ने ही डाली थी। जो आज तक चली आ रही है।
हिंदूओं की श्रद्धा मुस्लिमों से कम नहीं
विंध्य पर्वत माला की सुरंग वादियों में स्थित बाबा लतीफशाह की दरगाह गंगा-जमुनी तरजीब की जीती जागती मिशाल है। रामरहिम की भांति परंपरा की जीवंत उदाहरण को अपने आगोश में समेटे बाबा की मजार पर हिंदुओं की श्रद्धा मुसलमानों से कम नहीं है। इस तीन दिवसीय के प्रथम दिन लतीफशाह में मेले का आयोजन किया जाता है। दूसरे दिन मेला चकिया में चला आता है। जहां नगर पंचायत की ओर से उपजिलाधिकारी आवास परिसर में भव्य कजरी प्रतियोगिता का आयोजन किया जाता है। अंतिम दिन नगर स्थित मां काली जी पोखरे पर विराट कुश्ती दंगल का आयोजन होता है।
Sep 08 2024, 13:09