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मोदी के नेतृत्व में कुवैत के साथ भारत के रिश्तों में नए आयाम: कूटनीति और व्यापारिक सहयोग का सशक्त विकास

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भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार के दौरान कई खाड़ी देशों के साथ मजबूत संबंध स्थापित किए हैं, जिनमें कुवैत एक महत्वपूर्ण साझेदार बना हुआ है। कुवैत, जो अरब खाड़ी में एक छोटा लेकिन प्रभावशाली देश है, भारत के लिए न केवल अपनी रणनीतिक स्थिति के कारण बल्कि दोनों देशों के बीच मजबूत आर्थिक और सांस्कृतिक संबंधों के कारण भी महत्वपूर्ण है। मोदी का कुवैत के प्रति दृष्टिकोण बहुपक्षीय रहा है, जिसमें कूटनीति, व्यापार और कुवैत में रहने वाली बड़ी भारतीय प्रवासी समुदाय की भलाई पर ध्यान केंद्रित किया गया है।

1. कूटनीतिक संबंधों को मजबूत करना

मोदी के नेतृत्व में भारत ने कुवैत के साथ अपने कूटनीतिक संबंधों को मजबूत करने के लिए कड़ी मेहनत की है। प्रधानमंत्री मोदी की खाड़ी देशों, जिसमें कुवैत भी शामिल है, की यात्राएं इस संबंध में एक प्रमुख भूमिका निभाती हैं। इन यात्राओं ने विचारों का आदान-प्रदान करने और विभिन्न क्षेत्रों में दीर्घकालिक साझेदारियों की स्थापना का अवसर प्रदान किया। 2019 में, मोदी की यात्रा संयुक्त अरब अमीरात और बहरीन के लिए थी, जिसके बाद उन्होंने खाड़ी में भारतीय प्रवासी समुदाय को संबोधित किया, जिसमें उन्होंने इस क्षेत्र को भारत की विदेश नीति में महत्वपूर्ण स्थान देने पर जोर दिया। 49 साल बाद भारत के कोई प्रधानमंत्री कुवैत की यात्रा कर रहे हैं , यह देश भारत की खाड़ी नीति का महत्वपूर्ण हिस्सा है, और मंत्री स्तर पर कई कूटनीतिक बैठकें होती रही हैं।

2. आर्थिक और व्यापारिक संबंध

कुवैत भारत के लिए एक महत्वपूर्ण आर्थिक साझेदार है, विशेष रूप से ऊर्जा, व्यापार और निवेश के क्षेत्रों में। भारत और कुवैत के बीच व्यापारिक संबंध काफी मजबूत हैं, और भारत, कुवैत का एक बड़ा व्यापारिक साझेदार है। कुवैत भारत को तेल आपूर्ति करने वाला एक प्रमुख देश है, जिससे ऊर्जा क्षेत्र इस दोनों देशों के आर्थिक संबंधों का एक अहम हिस्सा बनता है। 2020 में, भारत ने कुवैत से लगभग 10.6 मिलियन टन कच्चा तेल आयात किया, जो भारत की ऊर्जा सुरक्षा के लिए एक महत्वपूर्ण साझेदारी का संकेत है। भारतीय कंपनियां कुवैत में कई परियोजनाओं में शामिल हैं, जिनमें निर्माण, सूचना प्रौद्योगिकी, और अन्य सेवाएं शामिल हैं। आर्थिक सहयोग को और मजबूती मिलती है कुवैत द्वारा भारत में ऊर्जा और बुनियादी ढांचे के क्षेत्र में किए गए निवेशों के माध्यम से। इसके अलावा, मोदी सरकार भारत के निर्यात को बढ़ावा देने के लिए काम कर रही है, खासकर कृषि उत्पाद, वस्त्र, और दवाओं के निर्यात को कुवैत में बढ़ावा देने के लिए।

3. भारतीय प्रवासी समुदाय

मोदी के कुवैत के साथ संबंधों में एक महत्वपूर्ण तत्व वहाँ रहने वाला भारतीय प्रवासी समुदाय है। भारतीय, कुवैत की आबादी का एक महत्वपूर्ण हिस्सा हैं, और उनके योगदान को कुवैत की अर्थव्यवस्था और सामाजिक संरचना में गहरा महत्व प्राप्त है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस समुदाय की भलाई सुनिश्चित करने के लिए कई कदम उठाए हैं, और वे अक्सर उनके मुद्दों को विभिन्न चैनलों के माध्यम से उठाते हैं। कुवैत में भारतीय श्रमिकों की भलाई, खासकर निर्माण और घरेलू कामकाजी क्षेत्रों में, मोदी के शासनकाल में महत्वपूर्ण रही है। उनकी सरकार भारतीय श्रमिकों के अधिकारों की रक्षा करने, कार्य परिस्थितियों को बेहतर बनाने और कुवैत सरकार के साथ श्रम कानूनों और प्रवासी श्रमिकों के उपचार को लेकर वार्ता करने में लगी रही है।

4. रणनीतिक संबंध और सुरक्षा सहयोग

हाल के वर्षों में, भारत और कुवैत ने सुरक्षा मामलों में भी सहयोग बढ़ाया है। आतंकवाद से लड़ाई, खाड़ी क्षेत्र में स्थिरता सुनिश्चित करना, और अरब सागर में समुद्री सुरक्षा बनाए रखना दोनों देशों के साझा हितों में शामिल हैं। कुवैत ने भारत के वैश्विक सुरक्षा मुद्दों पर स्टैंड को समर्थन दिया है, विशेष रूप से आतंकवाद के खिलाफ भारत की लड़ाई में। इसके अलावा, दोनों देशों ने रक्षा और खुफिया जानकारी साझा करने के मामलों में भी सहयोग किया है, विशेष रूप से खाड़ी क्षेत्र में भारतीय प्रवासी की सुरक्षा और व्यापक क्षेत्रीय शांति प्रयासों के संदर्भ में।

5. सांस्कृतिक और शैक्षिक सहयोग

सांस्कृतिक कूटनीति भी भारत और कुवैत के रिश्तों को मजबूत करने में भूमिका निभाती है। भारतीय संस्कृति, कला, और भोजन को कुवैत में बढ़ावा देने के लिए निरंतर प्रयास किए गए हैं। भारतीय सरकार कुवैत के साथ शैक्षिक संबंधों को भी बढ़ावा दे रही है, जिसमें कई कुवैती छात्र भारतीय विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थानों में दाखिला लेते हैं। मोदी सरकार ने कुवैत में भारतीय त्योहारों, जैसे दिवाली, को मनाने के लिए पहल की है, ताकि दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक संबंधों को बढ़ावा दिया जा सके और भारतीय समुदाय की सांस्कृतिक पहचान बनी रहे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में, भारत ने कुवैत के साथ अपने संबंधों को कूटनीति, व्यापार, ऊर्जा सहयोग और भारतीय प्रवासी समुदाय की भलाई के क्षेत्र में मजबूत किया है। ये बहुआयामी संबंध कुवैत को भारत के लिए खाड़ी क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण साझेदार बना रहे हैं। जैसे-जैसे वैश्विक भू-राजनीतिक परिदृश्य विकसित होता है, भारत और कुवैत के रिश्ते और भी गहरे होते जाएंगे, जिसमें विभिन्न क्षेत्रों में संयुक्त प्रयासों को बढ़ावा दिया जाएगा।

आध्यात्मिकता के दबाव में शिक्षा की अनदेखी: अभिनव अरोड़ा के मामले से सीख

#childrenleavingstudiesandfindinglivlihoodin_spirituality

Child spiritual leader Abhinav Arora

हाल के वर्षों में एक चिंताजनक प्रवृत्ति उभरी है, जिसमें कुछ माता-पिता अपने बच्चों को आध्यात्मिकता और धार्मिक प्रथाओं की ओर धकेल रहे हैं, जबकि उनकी शिक्षा को नजरअंदाज किया जा रहा है। हालांकि आध्यात्मिक विकास निश्चित रूप से मानसिक और भावनात्मक समर्थन प्रदान कर सकता है, लेकिन जब यह शिक्षा और बौद्धिक विकास की कीमत पर होता है, तो यह बच्चे के समग्र विकास के लिए हानिकारक हो सकता है। अभिनव अरोड़ा का मामला, जिसमें उनके माता-पिता की आध्यात्मिक मान्यताओं से जुड़ी एक दुखद घटना सामने आई, इस बात का प्रतीक है कि यह प्रवृत्ति बच्चों को किस तरह प्रभावित कर रही है।

अभिनव अरोड़ा का मामला

अभिनव अरोड़ा, एक 10 वर्षीय लड़का जो एक साधारण लड़का था, जो अपने माता-पिता से अत्यधिक आध्यात्मिक दबाव का सामना करना पड़ा, जो मानते थे कि उनका भविष्य आध्यात्मिक प्रथाओं का पालन करने में निहित है। हालांकि अभिनव एक बुद्धिमान छात्र था और शैक्षिक रूप से सफल होने की पूरी क्षमता रखता था, लेकिन उसके माता-पिता ने उसकी ऊर्जा को आध्यात्मिक गतिविधियों में लगाने पर जोर दिया। वे चाहते थे कि वह हर दिन घंटों ध्यान करे, मंत्र जाप करे और धार्मिक अध्ययन में लिप्त रहे, क्योंकि उनका मानना था कि इससे वह भगवान के करीब पहुंचेगा और एक समृद्ध जीवन प्राप्त करेगा।

अभिनव की स्थिति तब दुखद मोड़ पर आ गई, जब उसकी पढ़ाई में गिरावट और लगातार आध्यात्मिक प्रथाओं का पालन करने के मानसिक और भावनात्मक तनाव ने उसे निराशा की स्थिति में डाल दिया। उसकी ग्रेड्स गिरने लगे, उसका सामाजिक जीवन खत्म हो गया उसे इंटरनेट पर भारी ट्रॉल्लिंग का सामना करना पड़ रहा है। वह एक धर्म गुरु बनने की मार्ग पर चल रहा है,ऐसे ही अन्य कई मामले सामने आ रहे है बच्चों की पढाई छुड़वा कर उनसे दरम की बातें करवाई जा रही हैं। 

आध्यात्मिकता की ओर झुकाव के कारण

अभिनव अरोड़ा का मामला एकमात्र उदाहरण नहीं है। ऐसे कई मामले सामने आए हैं, जिनमें माता-पिता अपने बच्चों को आध्यात्मिक गतिविधियों में शामिल करने की कोशिश कर रहे हैं, यहां तक कि शिक्षा को नजरअंदाज कर रहे हैं। यह प्रवृत्ति विशेष रूप से उन समुदायों में अधिक देखने को मिलती है, जहां धार्मिक मान्यताओं और आध्यात्मिक उन्नति को सफलता के मार्ग के रूप में देखा जाता है।

कुछ मुख्य कारणों से माता-पिता बच्चों को आध्यात्मिकता की ओर धकेलते हैं:

1.सांस्कृतिक और धार्मिक विश्वास: कई संस्कृतियों में आध्यात्मिक उन्नति को बौद्धिक सफलता से अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है। माता-पिता धार्मिक शिक्षाओं को एक नैतिक दिशा के रूप में देखते हैं, जो उनके बच्चों को जीवन में मार्गदर्शन करेगी। उनका मानना है कि आध्यात्मिकता उनके बच्चों को आंतरिक शांति, सफलता और संतोष दिलाएगी, भले ही इसका मतलब शिक्षा की उपेक्षा करना हो।

2. सफलता का दबाव: उन समाजों में जहां शैक्षिक प्रतिस्पर्धा अत्यधिक है, कुछ माता-पिता आध्यात्मिकता को तनाव और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से निपटने के एक उपाय के रूप में देखते हैं। हालांकि यह अच्छी नीयत से किया जाता है, लेकिन यह अक्सर आध्यात्मिक गतिविधियों को अतिशय महत्वपूर्ण बना देता है, जबकि बच्चों की शिक्षा और समग्र विकास को नजरअंदाज कर दिया जाता है।

३ 3. बेहतर भविष्य की उम्मीद: कुछ परिवारों में विशेष रूप से आर्थिक रूप से कमजोर वर्गों में यह मान्यता है कि आध्यात्मिकता सफलता और धन पाने का एक रास्ता हो सकती है। माता-पिता अपने बच्चों से यह उम्मीद करते हैं कि वे धार्मिक प्रथाओं में भाग लें, ताकि उन्हें दिव्य आशीर्वाद मिले और उनका भविष्य बेहतर हो। हालांकि, इससे बच्चे की शिक्षा में बाधा आती है और वे ऐसे क्षेत्रों में पिछड़ जाते हैं जहां मेहनत, शिक्षा और सामाजिक संबंध आवश्यक हैं।

शिक्षा पर प्रभाव

जब आध्यात्मिकता को शिक्षा से ऊपर रखा जाता है, तो इसके बच्चों पर गंभीर परिणाम हो सकते हैं। बच्चे अत्यधिक दबाव के कारण उलझन में पड़ सकते हैं, जिसके परिणामस्वरूप:

1. शैक्षिक उपेक्षा: जैसा कि अभिनव के मामले में देखा गया, आध्यात्मिकता पर ध्यान केंद्रित करने से शैक्षिक उपेक्षा हो सकती है। बच्चों को धार्मिक गतिविधियों में अधिक समय बिताने के लिए मजबूर किया जाता है, जिससे उनकी पढ़ाई में गिरावट आती है और उन्हें भविष्य में सफलता प्राप्त करने के लिए जरूरी कौशल और ज्ञान की कमी हो सकती है।

2. भावनात्मक और मानसिक तनाव: आध्यात्मिक प्रथाओं का पालन करने का दबाव बच्चों पर अत्यधिक भावनात्मक तनाव डाल सकता है। यदि बच्चे अकादमिक या सामाजिक अपेक्षाओं को पूरा नहीं कर पाते हैं, तो वे अकेलापन, चिंता और अवसाद का शिकार हो सकते हैं।

3. अवसरों की कमी: वे बच्चे जो आध्यात्मिक प्रथाओं में अत्यधिक संलग्न होते हैं, शिक्षा, बौद्धिक विकास और सामाजिक कौशल प्राप्त करने के अवसरों से वंचित रहते हैं। ये अवसर बच्चे को एक सफल और संतुलित व्यक्ति बनाने में मदद करते हैं।

अभिनव अरोड़ा का दुखद मामला यह दर्शाता है कि जब आध्यात्मिकता को शिक्षा की तुलना में अधिक महत्व दिया जाता है, तो इसके गंभीर परिणाम हो सकते हैं। जबकि आध्यात्मिकता एक मूल्यवान उपकरण हो सकती है, यह बच्चे की शिक्षा या मानसिक स्वास्थ्य को नुकसान पहुंचाए बिना किया जाना चाहिए। माता-पिता को यह सुनिश्चित करने के लिए संतुलन बनाए रखने की आवश्यकता है कि उनके बच्चे बौद्धिक, भावनात्मक और आध्यात्मिक रूप से समग्र रूप से विकसित हों। ऐसा करने से वे यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि उनके बच्चे एक सक्षम और संतुलित व्यक्तित्व के रूप में समाज में योगदान देने के लिए तैयार हों।

नरेंद्र मोदी का ईसाई समुदाय के साथ संबंध: क्रिसमस पर समावेशिता की ओर एक संदेश

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नरेंद्र मोदी का भारतीय ईसाई समुदाय के साथ एक जटिल संबंध है, जो उनके राजनीतिक कृत्यों, सार्वजनिक बयानों और उस व्यापक सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ से आकारित हुआ है, जिसमें वह कार्य करते हैं।

प्रारंभिक वर्ष और राजनीतिक करियर:

नरेंद्र मोदी, 2001 से 2014 तक गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में, कुछ ईसाई समूहों से आलोचना का सामना कर चुके हैं, विशेष रूप से 2002 के गुजरात दंगों के बाद। इन दंगों में व्यापक हिंसा हुई थी, जिसमें अल्पसंख्यकों, खासकर मुसलमानों और ईसाई समुदाय के खिलाफ साम्प्रदायिक हमलों का आरोप था। जबकि मोदी के नेतृत्व में दंगों के दौरान आलोचना हुई और यह आरोप लगाया गया कि उन्होंने हिंसा पर काबू पाने में लापरवाही बरती या इसमें उनकी सहमति थी, लेकिन अदालतों ने उन पर किसी तरह का दोष नहीं तय किया। हालांकि, उनके आलोचक यह मानते हैं कि उनकी भाजपा में उभरती हुई भूमिका हिंदू राष्ट्रीयता (हिंदुत्व) के विचारों से जुड़ी है, जिसे कुछ लोग धार्मिक अल्पसंख्यकों, जैसे कि ईसाईयों, के लिए पूरी तरह समावेशी नहीं मानते।

प्रधानमंत्री बनने के बाद और धार्मिक समावेशिता:

2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद से मोदी ने एक ऐसे नेतृत्व की छवि पेश करने की कोशिश की है, जो भारत के सभी धार्मिक समुदायों, जिसमें ईसाई भी शामिल हैं, के लिए काम करता हो। उनके भाषणों में अक्सर एकता, विकास और धार्मिक सहिष्णुता की बातें होती हैं। उदाहरण के तौर पर, उन्होंने धार्मिक अल्पसंख्यकों के खिलाफ हिंसा की कड़ी निंदा की है और क्रिसमस जैसे प्रमुख धार्मिक त्योहारों पर ईसाई समुदाय को शुभकामनाएं दी हैं। उन्होंने ट्विटर पर एक संदेश भेजा था, जिसमें शांति, भाईचारे और प्रेम के महत्व पर जोर दिया गया था।

ईसाइयों से संबंधित नीतियाँ:

हालांकि उन्होंने समावेशिता की बात की है, मोदी के कार्यकाल में कुछ नीतियाँ ईसाई समूहों के बीच चिंताएँ पैदा कर चुकी हैं। कई राज्यों, जैसे उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश में, धर्मांतरण को नियंत्रित या प्रतिबंधित करने के लिए कानून बनाए गए हैं, जिन्हें कुछ ईसाई यह तर्क देते हैं कि यह उनके समुदाय और धर्म की स्वतंत्रता को असमान रूप से प्रभावित करता है।

 विभिन्न मानवाधिकार संगठनों की रिपोर्टों में यह भी सामने आया है कि कुछ ईसाई नेता यह महसूस करते हैं कि हिंदुत्व राजनीति की बढ़ती लोकप्रियता ने ऐसे दक्षिणपंथी समूहों को प्रोत्साहित किया है, जो ईसाई मिशनरी गतिविधियों और ग्रामीण क्षेत्रों में उनके कामकाज के खिलाफ आलोचना करते हैं।

नरेंद्र मोदी का ईसाई समुदाय के साथ संबंध बहुआयामी है। हालांकि उन्होंने राष्ट्रीय एकता का एक ऐसा दृष्टिकोण प्रस्तुत करने का प्रयास किया है, जिसमें धार्मिक अल्पसंख्यक शामिल हों, ईसाई समूहों द्वारा उठाए गए धार्मिक असहिष्णुता और कुछ राज्य सरकारों की नीतियों के खिलाफ चिंताएँ उनके समावेशिता के चित्रण के लिए एक चुनौती बनी हुई हैं। मोदी के विकास के दृष्टिकोण और उनके आलोचकों के धार्मिक अल्पसंख्यकों के हाशिए पर चले जाने के डर के बीच संतुलन, उनके नेतृत्व में एक महत्वपूर्ण गतिशीलता बना हुआ है।

2024 के क्रिसमस गैदरिंग में शामिल हुए नरेंद्र मोदी , उन्होंने ईसाई भाइयों और बहनों को येसु के जन्मोत्सव की बधाई दी और साथ उनके ईसाई धर्म से उनके लगाव को भी साझा किया। 

संभल में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने नए मंदिर और कुओं का किया अन्वेषण, ऐतिहासिक महत्व की खोज

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ANI

उत्तर प्रदेश के संभल में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआई) की चार सदस्यीय टीम ने नए खोजे गए मंदिर, 5 तीर्थ और 19 कुओं का निरीक्षण किया, जिला मजिस्ट्रेट डॉ राजेंद्र पेंसिया ने समाचार एजेंसी एएनआई को बताया। डीएम पेंसिया ने कहा, "संभल में, एएसआई द्वारा 5 तीर्थ और 19 कुओं का निरीक्षण किया गया, जो नया मंदिर मिला था, उसका भी निरीक्षण किया गया। सर्वेक्षण 8-10 घंटे चला। कुल मिलाकर लगभग 24 क्षेत्रों का सर्वेक्षण किया गया।" उन्होंने यह भी कहा कि एएसआई अपने निष्कर्षों के आधार पर उन्हें एक रिपोर्ट सौंपेगा। समाचार एजेंसी पीटीआई ने बताया कि संभल जिला प्रशासन ने मंदिर और कुएं की कार्बन डेटिंग के लिए एएसआई को पत्र लिखा था।

13 दिसंबर को, शाही जामा मस्जिद के पास अतिक्रमण विरोधी अभियान के दौरान अधिकारियों द्वारा खोजे जाने के बाद, 'प्राचीन' श्री कार्तिक महादेव मंदिर (भस्म शंकर मंदिर) को प्रार्थना के लिए फिर से खोल दिया गया। कथित तौर पर 1978 में क्षेत्र में सांप्रदायिक दंगों के बाद से मंदिर बंद था, जिसके कारण हिंदू परिवारों को विस्थापित होना पड़ा था। मंदिर की यह खोज शाही जामा मस्जिद के न्यायालय द्वारा आदेशित सर्वेक्षण को लेकर क्षेत्र में पुलिस और निवासियों के बीच झड़पों के तुरंत बाद हुई। 

24 नवंबर को हुई हिंसा में पांच लोगों की जान चली गई और 20 पुलिस अधिकारी घायल हो गए। तब से, साइट के चारों ओर पुलिस बल तैनात किया गया है। नवंबर में सुप्रीम कोर्ट ने सिविल कोर्ट को आदेश दिया कि वे पूजा स्थल अधिनियम (1991) के अनुसार किसी भी पूजा स्थल के स्वामित्व या शीर्षक को चुनौती देने वाले नए मुकदमों को न लें या विवादित धार्मिक स्थलों के सर्वेक्षण का आदेश न दें।

सुनीता विलियम्स, बुच विल्मोर के लिए बुरी खबर: अंतरिक्ष बचाव मिशन में फिर देरी

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फंसे नासा के अंतरिक्ष यात्री सुनीता "सुनी" विलियम्स और बैरी "बुच" विल्मोर के बचाव अभियान में एक और बाधा आ गई है। स्पेसएक्स की बदौलत पहले से तय अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन से उतरने वाले दोनों के धैर्य की कड़ी परीक्षा हो रही है। बचाव प्रक्षेपण पर नवीनतम अपडेट के अनुसार, विलियम्स और विल्मोर का अंतरिक्ष में प्रवास लगभग 10 महीने के निशान को छू लेगा क्योंकि अब उनके वसंत 2025 में वापस आने की उम्मीद है।

नासा की यह जोड़ी 5 जून को बोइंग स्टारलाइनर में उड़ान भरने के बाद से अंतरिक्ष में फंसी हुई है। हालाँकि उनके मूल अंतरतारकीय अभियान ने ISS के लिए एक सप्ताह के नियोजित मिशन की मांग की थी, लेकिन उनका संकटग्रस्त जहाज, जो तब से अंतरिक्ष यात्रियों के बिना पृथ्वी पर उतरा है, ने उनकी घर वापसी की यात्रा में कई देरी की है। सुनीता विलियम्स-बुच विल्मोर की फरवरी में वापसी को वसंत 2025 तक टाल दिया गया। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी और बोइंग के बीच झगड़े के बाद, नासा ने अंततः स्टारलाइनर पर दोनों की वापसी को असुरक्षित करार दिया। लीक और थ्रस्टर की खराबी सहित कई समस्याओं से जूझने के बाद, सुनी और बुच को एलन मस्क की स्पेसएक्स द्वारा जीवनदान दिया गया। अरबपति टेक दिग्गज की कंपनी ने अपने क्रू-9 मिशन को पुनर्व्यवस्थित किया, फरवरी में अंतरिक्ष नायकों के लिए क्रू ड्रैगन कैप्सूल पर दो सीटें खाली कर दीं। हालाँकि, नवीनतम देरी के खुलासे से पता चलता है कि दोनों मार्च के अंत तक पृथ्वी पर वापस नहीं आएंगे। प्रतीक्षा अप्रैल की शुरुआत तक भी बढ़ सकती है।

देरी क्यों?

नासा के अधिकारियों ने घोषणा की कि स्पेसएक्स को लिफ्टऑफ के लिए नए कैप्सूल को तैयार करने के लिए और समय चाहिए। यह शेड्यूल मार्च के अंत तक पूरा हो जाएगा। अमेरिकी सरकारी एजेंसी ने चीजों को शेड्यूल पर रखने के लिए प्रतिस्थापन चालक दल को लॉन्च करने के लिए एलन मस्क की कंपनी से एक अलग कैप्सूल का उपयोग करने का विचार भी पेश किया। उन्होंने अंततः विलियम्स और विल्मोर के अंतरिक्ष प्रवास को बढ़ाने का विकल्प चुना, और नए कैप्सूल का इंतज़ार करने का फ़ैसला किया।

फ़िलहाल, अनुभवी अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष में सांता की भूमिका निभा रहे हैं। ISS पर थैंक्सगिविंग मनाने के बाद, दोनों और उनके साथी भारहीन क्रिसमस उत्सव की तैयारी कर रहे हैं। अंतरिक्ष में छुट्टियों के रीति-रिवाज़ों का पालन करते हुए, विलियम्स और अन्य लोगों से उम्मीद की जाती है कि वे इस मज़ेदार उत्सव से पहले वीडियो कॉल के ज़रिए परिवार और दोस्तों से जुड़ेंगे।

भारत-श्रीलंका संबंध: वर्षों के दौरान एक संक्षिप्त अवलोकन

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भारत और श्रीलंका के बीच संबंध सदियों पुराने और विविध रहे हैं, जिनमें ऐतिहासिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और आर्थिक आयाम शामिल हैं। दोनों देशों के बीच ऐतिहासिक रूप से गहरे सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध रहे हैं, लेकिन साथ ही समय-समय पर राजनीतिक और कूटनीतिक उतार-चढ़ाव भी देखे गए हैं।

प्रारंभिक संबंध और सांस्कृतिक समानताएँ

भारत और श्रीलंका के बीच संबंध पहले से ही प्राचीन काल में मजबूत थे, जब बौद्ध धर्म के प्रसार के साथ दोनों देशों के बीच सांस्कृतिक और धार्मिक संबंध स्थापित हुए थे। भारत ने श्रीलंका में बौद्ध धर्म को फैलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, विशेष रूप से अशोक महान के शासनकाल के दौरान। इस दौरान, दोनों देशों के बीच व्यापार और सांस्कृतिक आदान-प्रदान भी हुआ।

स्वतंत्रता के बाद: 1947-1970

भारत और श्रीलंका के स्वतंत्रता के बाद, दोनों देशों ने सामरिक और व्यापारिक संबंधों को मजबूत किया। 1948 में श्रीलंका (तत्कालीन सीलोन) ने ब्रिटिश उपनिवेश से स्वतंत्रता प्राप्त की, और भारत ने इसे शीघ्र ही मान्यता दी। 1950 के दशक में, भारत ने श्रीलंका को अपनी स्वतंत्रता की यात्रा में मदद की और दोनों देशों के बीच राजनीतिक और व्यापारिक रिश्ते आगे बढ़े। इस समय, भारत और श्रीलंका के बीच विश्वासपूर्ण कूटनीतिक संबंध बने रहे।

1970s-1980s: तामिल समस्या और युद्ध

1970 और 1980 के दशकों में, दोनों देशों के संबंधों में तनाव बढ़ा, खासकर श्रीलंका में तमिल अल्पसंख्यक की स्थिति को लेकर। 1980 के दशक में श्रीलंकाई सरकार और तमिल संघर्षरत समूहों के बीच हिंसक संघर्ष शुरू हो गया, जिसे भारत ने क्षेत्रीय स्थिरता बनाए रखने के संदर्भ में देखा। 1987 में, भारत और श्रीलंका के बीच एक ऐतिहासिक समझौता हुआ, जिसे "इंडो-लंकन एग्रीमेंट" कहा जाता है, जिसके तहत भारत ने श्रीलंका में सैन्य हस्तक्षेप किया। हालांकि, यह हस्तक्षेप विवादास्पद साबित हुआ, और 1990 के दशक तक दोनों देशों के बीच संबंधों में खटास आ गई।

2000: कूटनीतिक पुनर्निर्माण

2000 के दशक में, भारत और श्रीलंका ने अपनी कूटनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक सहयोग को फिर से स्थापित किया। भारत ने श्रीलंका को आतंकवाद और प्राकृतिक आपदाओं के मामलों में मदद की। इसके अतिरिक्त, व्यापार और आर्थिक संबंध भी मजबूत हुए। हालांकि, श्रीलंका के तमिल आतंकवाद के खिलाफ संघर्ष के दौरान भारत ने मानवाधिकारों के उल्लंघन को लेकर आलोचना की, जो दोनों देशों के रिश्तों में तनाव का कारण बना।

वर्तमान स्थिति: रणनीतिक साझेदारी

हाल के वर्षों में, भारत और श्रीलंका के संबंधों में निरंतर सुधार देखा गया है। श्रीलंका की वर्तमान सरकार ने भारत के साथ आर्थिक, सुरक्षा और कूटनीतिक संबंधों को मजबूत करने का प्रयास किया है। दोनों देशों के बीच व्यापार और निवेश में वृद्धि हुई है, और भारत ने श्रीलंका को कई आर्थिक सहायता प्रदान की है, खासकर कोविड-19 महामारी के दौरान। हालांकि, चीन की बढ़ती उपस्थिति श्रीलंका में, विशेष रूप से बंदरगाहों और बुनियादी ढांचे के विकास में, दोनों देशों के बीच कुछ रणनीतिक चिंताएँ भी उत्पन्न कर रही हैं। भारत ने इस संदर्भ में श्रीलंका को सतर्क किया है, लेकिन यह भी स्पष्ट है कि दोनों देशों के बीच रिश्ते अब पहले से कहीं ज्यादा महत्वपूर्ण और मजबूत हैं।

भारत और श्रीलंका के बीच संबंध एक लंबी और जटिल यात्रा रही है, जिसमें दोनों देशों के बीच सहयोग, विवाद और संघर्ष का मिश्रण रहा है। अब दोनों देशों ने एक दूसरे के साथ अपने रिश्तों को सुधारने और आगे बढ़ाने के लिए कई कदम उठाए हैं। भविष्य में, यदि ये देश एक-दूसरे के साथ कूटनीतिक, सुरक्षा और आर्थिक सहयोग पर ध्यान केंद्रित करते हैं, तो उनके रिश्ते और मजबूत हो सकते हैं, और क्षेत्रीय स्थिरता में योगदान कर सकते हैं।

भारतीय स्नातकों का विदेशों में नौकरी करने का बढ़ता रुझान: भारत की बढ़ती चिंताएं

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हाल के वर्षों में, भारत के एक बढ़ते हुए स्नातक वर्ग ने नौकरी के अवसरों की तलाश में देश छोड़ दिया है। यह प्रवृत्ति विभिन्न कारणों के कारण उत्पन्न हो रही है, और इन कारणों को समझना आवश्यक है ताकि यह स्पष्ट किया जा सके कि युवा पेशेवरों के लिए यह निर्णय क्यों लिया जा रहा है। जैसे-जैसे भारत आर्थिक रूप से प्रगति कर रहा है, इस प्रवृत्ति से यह स्पष्ट होता है कि भारतीय नौकरी बाजार, शैक्षिक प्रणाली, और यहां तक कि सामाजिक-राजनीतिक वातावरण में कुछ गहरे और महत्वपूर्ण मुद्दे हैं। BITS Pilani में डॉ एस सोमनाथ (चेयरमैन,इसरो ) ने ग्रेजुएट हो रहे विद्यार्थियों को उनके दीक्षांत सम्हारोह में सम्बोधित करते हुए कहा की देश को युवा की ज़रूरत है और वे चाहेंगे कि देश का कौशल देश की प्रग्रति के लिए काम आए , विदेश में जाना और वह अपने योगदान देने से भारत उन नई उचाईयों से वंचित रह जाएगा। बच्चों के बाहर जाकर नौकरी करने के प्रमुख कारणों का विश्लेषण किया गया है। 

1.बेहतर नौकरी के अवसर और उच्च वेतन

एक प्रमुख कारण है कि स्नातक विदेशों में नौकरी करने के लिए क्यों जाते हैं, वह है बेहतर वेतन और नौकरी के अवसर। भारत में कई क्षेत्रों में वेतन अपेक्षाकृत कम है, खासकर उन पेशेवरों के लिए जिनकी शिक्षा और कौशल स्तर उच्च हैं। जैसे-जैसे भारत में वेतन संरचना उतनी प्रतिस्पर्धी नहीं है, विदेशों में विशेष रूप से उत्तरी अमेरिका, यूरोप और मध्य-पूर्व के देशों में उच्च वेतन और बेहतर नौकरी के अवसर मिलते हैं। तकनीकी, वित्त, स्वास्थ्य देखभाल, और इंजीनियरिंग जैसे क्षेत्रों में, विदेशों में मिलने वाले वेतन पैकेज भारतीय नौकरी बाजार से कहीं अधिक आकर्षक होते हैं। यह वेतन अंतर स्नातकों को आर्थिक सुरक्षा और जीवन स्तर में सुधार के लिए प्रेरित करता है।

2. सीमित करियर विकास और अवसर

भारत में नौकरी के अवसरों में कमी और करियर में सीमित वृद्धि भी एक प्रमुख कारण है। विशेष रूप से उच्च शिक्षा प्राप्त व्यक्तियों के लिए भारत में कई बार करियर का विकास धीमा होता है, वरिष्ठ पदों के लिए अवसर कम होते हैं और विशिष्ट प्रशिक्षण या कौशल विकास की कमी होती है। इसके विपरीत, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया और जर्मनी जैसे देशों में करियर में तेज़ी से वृद्धि, वैश्विक नेटवर्किंग के अवसर और निरंतर सीखने की संभावना होती है, जिससे ये देश स्नातकों के लिए अत्यधिक आकर्षक बनते हैं।

3.जीवन की गुणवत्ता

वह बेहतर जीवन स्तर जो विदेशों में मिलता है, यह एक और बड़ा कारण है कि स्नातक भारत से बाहर जा रहे हैं। इसमें कार्य-जीवन संतुलन, उन्नत स्वास्थ्य देखभाल, बेहतर सार्वजनिक बुनियादी ढांचा, स्वच्छ वातावरण और पारदर्शी शासन जैसी सुविधाएं शामिल हैं। उदाहरण के तौर पर, यूरोप के देशों में कार्य-जीवन संतुलन को प्राथमिकता दी जाती है, वहीं भारत में कई युवा पेशेवर लंबे कार्य घंटों, उच्च प्रतिस्पर्धा और तनावपूर्ण कार्य वातावरण से परेशान रहते हैं। इस कारण से वे अधिक आरामदायक जीवन जीने के लिए विदेशों में नौकरी करने का विकल्प चुनते हैं।

4. भारत में बेरोजगारी और अपर्याप्त रोजगार

भारत में नौकरी के अवसर बहुत अधिक प्रतिस्पर्धी हैं और अत्यधिक शैक्षिक योग्यता होने के बावजूद, लाखों युवा बेरोजगार या अपर्याप्त रोजगार में फंसे हुए हैं। CMIE (सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकॉनमी) के एक अध्ययन के अनुसार, भारत में बेरोजगारी दर 2023 में 8-9 प्रतिशत के आसपास रही है, जबकि कई स्नातक ऐसे कामों में लगे हुए हैं जो उनकी शैक्षिक योग्यता से मेल नहीं खाते। उच्च गुणवत्ता वाली नौकरियों की मांग आपूर्ति से कहीं अधिक है, जिससे युवा पेशेवरों को बेहतर अवसरों की तलाश में विदेशों में जाने के लिए मजबूर होना पड़ता है।

5. उभरते हुए तकनीकी और स्टार्ट-अप क्षेत्र

वैश्विक स्तर पर तकनीकी क्षेत्र का विस्तार और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का प्रभाव तेजी से बढ़ रहा है। देश जैसे अमेरिका, ब्रिटेन, कनाडा और जर्मनी में इन क्षेत्रों में अत्यधिक आकर्षक रोजगार उपलब्ध हैं। विशेष रूप से STEM (विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग, गणित) क्षेत्रों में स्नातक विदेशों में उच्च मांग में हैं और अपनी क्षमताओं का पूरा लाभ उठाने के लिए इन देशों में जाने का विकल्प चुनते हैं। इसके अतिरिक्त, सिलिकॉन वैली जैसे तकनीकी केंद्र और लंदन जैसे स्टार्ट-अप हब नवाचार के लिए समर्थन प्रदान करते हैं और वहां कार्य करने का एक अनुकूल वातावरण मिलता है। ये विशेषताएं भारतीय स्नातकों को आकर्षित करती हैं, जो वैश्विक स्तर पर समाधान तैयार करने में रुचि रखते हैं।

 6. शैक्षिक प्रणाली और अनुसंधान अवसर

भारत के उच्च शिक्षा संस्थान अक्सर आवश्यक अनुसंधान अवसर, व्यावहारिक शिक्षा और अंतरराष्ट्रीय मानकों के अनुरूप अनुभव प्रदान नहीं कर पाते हैं। इसके परिणामस्वरूप, कई भारतीय स्नातक विदेशों में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए जाते हैं, जो बाद में उन देशों में नौकरी करने के अवसर प्राप्त करते हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, और कनाडा जैसे देश उच्च गुणवत्ता वाली शिक्षा और व्यावासिक प्रशिक्षण प्रदान करते हैं और यह स्नातकों को स्थायी निवास प्राप्त करने का अवसर भी देते हैं।

7. उद्यमिता के अवसर

भारत में उद्यमिता के लिए कई बाधाएं हैं, जैसे सरकारी नौकरशाही, अत्यधिक प्रतिस्पर्धा, और सीमित निवेश के अवसर। इसके विपरीत, अमेरिका, ब्रिटेन और सिंगापुर जैसे देशों में उद्यमिता के लिए अधिक अनुकूल वातावरण है, जिसमें पूंजी तक आसान पहुंच, सरकारी समर्थन, और नवाचार के लिए प्रेरणा मिलती है। यही कारण है कि कई भारतीय स्नातक, जो उद्यमिता में रुचि रखते हैं, विदेशों में अपनी कंपनियों की शुरुआत करते हैं।

भारतीय स्नातकों का विदेशों में नौकरी करने जाने का बढ़ता हुआ रुझान कई आर्थिक, सामाजिक और पेशेवर कारणों से उत्पन्न हो रहा है। भारत में नौकरी के अवसरों की कमी, वेतन की असमानताएं, और करियर विकास की सीमाएं इन युवा पेशेवरों को विदेशों में बेहतर अवसरों की तलाश में भेज रही हैं। हालांकि, यह प्रवृत्ति "ब्रेन ड्रेन" के रूप में देखी जा सकती है, लेकिन यह भारत के लिए एक अवसर भी प्रदान करती है, क्योंकि वे जब वापस लौटते हैं तो वे विदेशी अनुभव और विशेषज्ञता लेकर आते हैं। भारत को इस प्रवृत्ति को रोकने और अपने पेशेवरों के लिए बेहतर अवसरों और कार्य वातावरण बनाने के लिए उपायों की आवश्यकता है, ताकि वे अपने कौशल का अधिकतम लाभ भारत में ही उठा सकें।

1989 के दंगों से बर्बाद हुआ बिहार का यह गांव अब बनेगा राज्य का पहला स्मार्ट गांव

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बिहार के बांका जिले का बाबरचक गांव 1989 की सांप्रदायिक हिंसा में तबाह हो गया था और इसकी पूरी आबादी कहीं और चली गई थी। किस्मत ने पलटी मारते हुए यह गांव राज्य का पहला स्मार्ट गांव बनने जा रहा है, जिसमें 15 जनवरी 2025 तक ग्रामीणों के लिए कई आधुनिक सुविधाएं तैयार हो जाएंगी। यह गांव बांका जिले के रजौन ब्लॉक में आता है। कुल मिलाकर, जिला प्रशासन 130 परिवारों को बसाने की योजना बना रहा है, जिनमें से 65 को 15 जनवरी को घर आवंटित किए जाएंगे और 65 को बाद में आवास मिलेंगे। ये घर प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत बनाए जा रहे हैं।

राज्य सरकार की स्मार्ट विलेज योजना के तहत, गांव में अपना खुद का मॉडल स्कूल, अस्पताल, खेल मैदान, सोलर स्ट्रीट लाइट, वाटर टावर, पार्क, आंगनवाड़ी केंद्र, सामुदायिक केंद्र, स्वास्थ्य और कल्याण केंद्र, ग्रामीण हाट के अलावा सभी बुनियादी सुविधाओं से सुसज्जित घर होंगे, जैसे कि शहरी नागरिकों को कस्बों और शहरों में मिलते हैं। गांव 11 एकड़ जमीन पर फैला हुआ है और इसमें 130 परिवारों को बसाया जाएगा, जिसमें पहले चरण में 65 परिवार और दूसरे चरण में बाकी 65 परिवारों को बसाया जाएगा। लाभार्थी अपने लिए निर्धारित मानदंडों के अनुसार 3 डेसीमल माप की सरकारी जमीन पर अपने घर बनवा रहे हैं।

भविष्य में गांव का क्षेत्रफल बढ़ाया जाएगा।

स्मार्ट गांव का मुख्य उद्देश्य लोगों को बेहतर जीवन-यापन की स्थिति प्रदान करना है, जिससे वे आत्मनिर्भर बन सकें। इसमें युवाओं को कौशल विकास का प्रशिक्षण दिया जाएगा और महिलाओं को स्वयं सहायता समूहों में शामिल होने में भी मदद मिलेगी। इससे गांवों को विकास केंद्र बनने में मदद मिलेगी और लोगों को आजीविका के लिए दूसरे राज्यों में जाने के लिए मजबूर नहीं होना पड़ेगा। लाभार्थी प्रधानमंत्री आवास योजना के तहत घर का निर्माण कर रहे हैं। स्मार्ट गांव के अधिकार क्षेत्र में आने वाले नवादा खरौनी पंचायत की मुखिया आरती देवी ने कहा, "हम बिहार में पहला स्मार्ट गांव बनने के लिए वास्तव में भाग्यशाली हैं और हमें उम्मीद है कि यह दूसरों के लिए एक उदाहरण स्थापित करने में सक्षम होगा।"

1989 के दंगों में तबाह होने के बाद गांव को बहुत अभाव का सामना करना पड़ा था क्योंकि इसकी सड़क और बिजली कनेक्शन पूरी तरह से खत्म हो गए थे। यह वास्तव में अन्य गांवों के लिए एक अनुकरणीय उदाहरण है।"

शतरंज की समृद्ध धरोहर और उभरते सितारे, गुकेश डोमराजू ने संभाली कमान

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Gukesh Domraju (PTI)

भारत के युवा शतरंज खिलाड़ी गुकेश डोमराजू ने इतिहास रचते हुए गुरुवार को सिंगापुर में आयोजित 14-गेम मैच के आखिरी गेम में चीन के गत शतरंज विश्व चैंपियन डिंग लिरेन को हराकर सबसे कम उम्र के शतरंज विश्व चैंपियन बनने का गौरव प्राप्त किया। 18 साल के गुकेश ने इस नाटकीय मुकाबले में काले मोहरे से खेलते हुए डिंग को दबाव में झुकने पर मजबूर किया और अंततः 7.5-6.5 के स्कोर के साथ खिताब छीन लिया। यह जीत उन्हें शतरंज की दुनिया में एक नई पहचान दिलाने वाली साबित हुई।

गुकेश, जो केवल 18 वर्ष के हैं, इस खिताब को जीतने वाले सबसे युवा शतरंज विश्व चैंपियन बन गए। वह इससे पहले गैरी कास्पारोव (1985) से चार साल छोटे हैं, जिन्होंने 1985 में 22 साल की उम्र में अनातोली कार्पोव को हराकर शतरंज विश्व चैंपियन का खिताब जीता था। इस तरह गुकेश ने एक नई शतरंज पीढ़ी को प्रेरणा दी है। इस मैच के दौरान, डिंग लिरेन, जिनका प्रदर्शन 2023 में विश्व चैंपियन इयान नेपोमनियाचची को हराने के बाद कुछ कमजोर हुआ था, ने पहले कुछ राउंड में अच्छा खेल दिखाया, लेकिन अंत में उनकी गलतियों ने गुकेश को जीत दिलाई। 2023 के बाद से, डिंग ने लंबे समय तक "क्लासिकल" शतरंज में कोई बड़ा मैच नहीं जीता था और कई शीर्ष आयोजनों से दूर रहे थे। 

गुकेश की इस ऐतिहासिक जीत ने उसे कैंडिडेट्स टूर्नामेंट (अप्रैल में जीता गया) से विश्व चैंपियनशिप मैच तक पहुँचाया, जहां वह डिंग को मात देने में सफल रहे। यह मैच 14 राउंड के एक लंबे समय से चल रहे "क्लासिकल" इवेंट का हिस्सा था, जिसकी पुरस्कार राशि 2.5 मिलियन डॉलर थी। इस जीत से पहले, भारत के शतरंज क्षेत्र में विश्वनाथन आनंद,पेंटाला हरिकृष्णा, और विदित गुर्जरथी जैसे शीर्ष खिलाड़ियों ने अपनी जगह बनाई थी। गुकेश, जिनकी युवा सफलता से देशभर में शतरंज के प्रति रुचि बढ़ी है, भारत के शतरंज के भविष्य को लेकर उम्मीदों को और भी मजबूत करते हैं।

गुकेश की यह जीत शतरंज की दुनिया में एक नए युग की शुरुआत का प्रतीक है, और यह युवा खिलाड़ियों को यह संदेश देती है कि अगर मेहनत और समर्पण हो, तो कोई भी लक्ष्य असंभव नहीं है। भारत में शतरंज का भविष्य अब और भी उज्जवल नजर आ रहा है, और गुकेश ने अपनी सफलता से यह साबित कर दिया कि युवा खिलाड़ी अब वैश्विक मंच पर अपनी छाप छोड़ने के लिए तैयार हैं।

भारत का शतरंज से जुड़ाव हजारों वर्षों पुराना है, जो प्राचीन खेल चतुरंगा से जुड़ा हुआ है, जो 6वीं शताब्दी के आसपास का एक रणनीतिक बोर्ड खेल था। यह खेल 8x8 के ग्रिड पर खेला जाता था और इसे आधुनिक शतरंज का पूर्ववर्ती माना जाता है। चतुरंगा सिर्फ एक खेल नहीं था, बल्कि यह सम्राटों और सैनिकों के लिए युद्ध की रणनीतियों को समझने और सिखाने का एक माध्यम था। चतुरंगा का खेल फारस, इस्लामिक दुनिया और यूरोप में फैला और यहाँ से यह आधुनिक शतरंज के रूप में विकसित हुआ। जैसे-जैसे व्यापारिक मार्गों से यह खेल अन्य देशों में फैला, भारत का प्रभाव बना रहा, और आज यह देश वैश्विक शतरंज मंच पर एक प्रमुख शक्ति बन चुका है।

प्राचीन जड़ें: चतुरंगा और इसका विकास

आधुनिक शतरंज की जड़ें भारत के चतुरंगा में छुपी हैं, जिसका अर्थ है "सैन्य की चार शाखाएं" संस्कृत में, जो पैदल सेना, घुड़सवार, हाथी और रथों को दर्शाती हैं—जो आज के प्यादे, घोड़े, ऊंट और हाथी के रूप में बदल गए हैं। चतुरंगा केवल एक खेल नहीं था, बल्कि यह युद्ध की रणनीतियों की अभ्यास विधि था। यह खेल गुप्त साम्राज्य में खेला जाता था और इसके बाद यह फारस में शतरंज के रूप में विकसित हुआ, और फिर यूरोप में आधुनिक शतरंज के रूप में इसका रूप बदला।

भारत की आधुनिक शतरंज पुनर्जागरण

20वीं और 21वीं शताब्दियों में, भारत का शतरंज से जुड़ा योगदान बेहद महत्वपूर्ण रहा है। 2000 में विश्वनाथन आनंद ने विश्व शतरंज चैंपियन बनकर इतिहास रचा, और वह ऐसा करने वाले पहले भारतीय बने। उनके इस सफलता ने भारत के शतरंज के खेल को वैश्विक स्तर पर प्रमुख बना दिया। इसके बाद से भारत के युवा खिलाड़ियों ने भी इस खेल में अपनी पहचान बनाई है और उनकी सफलता ने शतरंज के प्रति देश की रुचि और प्रेरणा को बढ़ाया है।

भारत की शतरंज यात्रा प्राचीन काल से लेकर आधुनिक समय तक उत्कृष्टता, परंपरा और भविष्य की संभावनाओं से भरी हुई है। चतुरंगा से लेकर आज के वैश्विक सितारे जैसे आनंद, प्रग्गानंदा, और हरिकृष्णा तक, भारत शतरंज की दुनिया में प्रमुख शक्ति बन चुका है। युवा खिलाड़ियों और अनुभवी दिग्गजों के लगातार सफलता से यह सुनिश्चित हो गया है कि भारत का शतरंज क्षेत्र भविष्य में भी मजबूती से बढ़ता रहेगा और वैश्विक मंच पर अपनी धरोहर बनाए रखेगा।

मसूद अजहर को लेकर भारत-पाकिस्तान के बीच एक कूटनीतिक संघर्ष और पाकिस्तान का दोहरा चरित्र

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Masood Azhar

पाकिस्तान स्थित आतंकवादी संगठन जैश-ए-मोहम्मद (JeM) के प्रमुख मसूद अजहर, भारत और पाकिस्तान के बीच जारी तनाव का केंद्रीय मुद्दा बने हुए हैं। भारत ने शुक्रवार को पाकिस्तान से जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर के खिलाफ कड़ी कार्रवाई करने को कहा। ऐसी खबरें सामने आई हैं कि उसने हाल ही में पाकिस्तान के शहर बहावलपुर में एक सार्वजनिक सभा में भाषण दिया है। नई दिल्ली ने कहा कि पाकिस्तान का दोहरा चरित्र उजागर हो गया है।अजहर, जो भारत में 2001 के संसद हमले और 2019 के पुलवामा हमले जैसे कई प्रमुख हमलों में शामिल रहे हैं, दोनों देशों के रिश्तों में तनाव का मुख्य कारण हैं। 

पृष्ठभूमि और बढ़ता तनाव

मसूद अजहर ने 2000 में जैश-ए-मोहम्मद की स्थापना की थी, और इस समूह को भारत में कई आतंकवादी हमलों से जोड़ा गया है। 2019 में पुलवामा हमले के बाद, जिसमें 40 से अधिक भारतीय सैनिक शहीद हो गए थे, जैश ने इस हमले की जिम्मेदारी ली। इसके बाद भारत ने पाकिस्तान में जैश के प्रशिक्षण शिविरों पर एयरस्ट्राइक की, जिससे दोनों देशों के बीच सैन्य तनाव बढ़ गया।

संयुक्त राष्ट्र में प्रतिबंध और भारत की कूटनीतिक सफलता

भारत ने लंबे समय से मसूद अजहर को वैश्विक आतंकवादी के रूप में नामित करने की मांग की थी। मई 2019 में, संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (UNSC) ने अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित किया, जो एक कूटनीतिक जीत के रूप में देखा गया। इस कदम ने अजहर की संपत्तियों को फ्रीज़ कर दिया और यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिए। यह कदम भारत के लिए एक महत्वपूर्ण कूटनीतिक सफलता था, जिसे वैश्विक आतंकवाद के खिलाफ एक मजबूत कदम माना गया।

कूटनीतिक चुनौतियां और पाकिस्तान का रुख

हालांकि, यह कदम केवल एक कूटनीतिक जीत थी, मसूद अजहर का प्रभाव और जैश-ए-मोहम्मद की गतिविधियां अब भी एक गंभीर समस्या बनी हुई हैं। पाकिस्तान ने बार-बार यह दावा किया है कि वह अजहर और उसके समूह पर नियंत्रण नहीं रखता, लेकिन भारत और अंतरराष्ट्रीय समुदाय का मानना है कि पाकिस्तान के सैन्य और खुफिया तंत्र ने इन आतंकवादी समूहों को समर्थन दिया है। भारत अब भी पाकिस्तान पर दबाव बना रहा है कि वह आतंकवादी गतिविधियों को रोकने के लिए और सख्त कदम उठाए।

भारत-पाकिस्तान संबंधों पर प्रभाव

मसूद अजहर पाकिस्तान के लिए केवल एक आतंकी नेता नहीं, बल्कि कश्मीर में आतंकवाद और संघर्ष का प्रतीक बन चुके हैं। भारत के लिए, अजहर पाकिस्तानी आतंकवाद को रोकने में पाकिस्तान की विफलता का प्रतीक बन गए हैं। भारत अब भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दबाव बना रहा है कि पाकिस्तान जैश और अन्य आतंकी समूहों के खिलाफ प्रभावी कदम उठाए। मसूद अजहर का मुद्दा भारत और पाकिस्तान के बीच जटिल और संवेदनशील संबंधों का एक मुख्य कारण बना हुआ है। हालांकि भारत ने UNSC में अजहर को वैश्विक आतंकवादी घोषित कर कूटनीतिक सफलता प्राप्त की है, लेकिन अजहर और जैश-ए-मोहम्मद से संबंधित आतंकवाद की समस्या अब भी बरकरार है। अंतरराष्ट्रीय समुदाय की भूमिका और भारत के कूटनीतिक प्रयास इस मुद्दे के समाधान के लिए महत्वपूर्ण होंगे।