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आखिर क्यों है प्रसिद्ध कोलकाता का कालीघाट मंदिर,जानें इनकी पौराणिक इतिहास,और महत्व

भारत को मंदिरों की भूमि के रूप में जाना जाता है। अनुमान है कि भारत में 20 लाख मंदिर हैं। कालीघाट मंदिर हिंदू देवी काली को समर्पित है और यह भारत के सबसे प्रसिद्ध काली मंदिरों में से एक है। यह आदि गंगा के तट पर स्थित है, जो हुगली नदी से मिलने वाली एक छोटी सी नहर है। कालीघाट मंदिर धार्मिक लोगों के बीच प्रसिद्ध है। हर दिन हज़ारों काली भक्त मंदिर में आते हैं और पूजा करते हैं। यह एक शक्ति पीठ है। कालीघाट मंदिर उस स्थान पर बनाया गया है जहाँ देवी सती के दाहिने पैर की उंगलियाँ गिरी थीं।

इतिहास

कालीघाट मंदिर से जुड़ी कई कहानियाँ हैं। सबसे लोकप्रिय कहानियों में से एक आत्मा राम नामक ब्राह्मण की है, जिसने भागीरथी नदी में एक मानव पैर के आकार की संरचना देखी। लोगों का मानना है कि उसे एक प्रकाश की किरण द्वारा निर्देशित किया गया था जो पानी से आती हुई प्रतीत हो रही थी। ब्राह्मण ने पत्थर के टुकड़े की प्रार्थना की। उसे सपने में बताया गया कि पैर की अंगुली देवी सती की है। उसे अपने सपनों में एक मंदिर स्थापित करने के लिए कहा गया। उसे नकुलेश्वर भैरव के स्वंभु लिंगम की तलाश करने के लिए भी कहा गया। ब्राह्मण ने शंभु लिंगम पाया, और लिंगम और पैर के आकार की संरचना की पूजा करना शुरू कर दिया।

कालीघाट मंदिर का संदर्भ पंद्रहवीं शताब्दी के मानसर भाषन के संश्लेषण और कवि चंडी में पाया गया है, जिसे सत्रहवीं शताब्दी के दौरान वितरित किया गया था। कालीघाट काली मंदिर का उल्लेख लालमोहन बिद्यानिधि के 'संबंदा निर्णय' में भी किया गया है। वर्तमान मंदिर 200 साल पुराना है और इसे उन्नीसवीं शताब्दी में बनाया गया था। जेसोर के राजा, राजा बसंत रॉय ने मूल मंदिर का निर्माण कराया था।

पौराणिक महत्व

यह स्थान हिंदू लोगों के लिए धार्मिक रूप से महत्वपूर्ण है। हिंदू पौराणिक कथाओं के अनुसार, देवी सती ने अपने पिता के घर पूजा सेवा के लिए स्वागत न किए जाने पर अपने पिता से झगड़ा करने के बाद खुद को शांति अग्नि में जिंदा जला लिया था। भगवान शिव क्रोधित हो गए और उन्होंने सती के शरीर को अपने कंधे पर रख लिया। उन्होंने तांडव नृत्य करना शुरू कर दिया। स्वर्ग के देवता घबरा गए और भयभीत हो गए। उन्होंने भगवान विष्णु से हस्तक्षेप करने के लिए कहा। भगवान विष्णु ने तब सती के शरीर को कई टुकड़ों में काट दिया, और वे टुकड़े धरती पर गिर गए। ऐसा माना जाता है कि कालीघाट वह स्थान है जहाँ सती के दाहिने पैर की उंगलियाँ गिरी थीं।

देवी काली को हिंदू धर्म की एक असाधारण रूप से भयावह देवी के रूप में देखा जाता है। उन्हें एक रक्षक और एक विध्वंसक के रूप में भी जाना जाता है। देवी काली की पूजा हजारों लोग करते हैं जो भारत और दुनिया के दूर-दूर से आते हैं। यहाँ, देवी काली की मूर्ति देवी काली की अन्य मूर्तियों से अलग है। मूर्ति में तीन प्रमुख आँखें, चार हाथ और एक लंबी उभरी हुई जीभ शामिल है। मूर्ति को आत्माराम गिरि और ब्रह्मानंद गिरि द्वारा बलुआ पत्थर से बनाया गया है। देवी के एक हाथ में शैतान भगवान शुंभ का सिर है। दूसरे हाथ में एक तलवार है जो दर्शाती है कि मानव अहंकार को स्वर्गीय जानकारी द्वारा मार दिया जाना चाहिए और हमारे व्यवहार के तरीकों से समाप्त कर दिया जाना चाहिए। इसी तरह कोई मोक्ष प्राप्त कर सकता है।

कालीघाट मंदिर का महत्व

कालीघाट मंदिर सबसे ज़्यादा देखे जाने वाले काली मंदिरों में से एक है। पूरे भारत से देवी काली के भक्त दिवाली के दौरान काली पूजा के लिए यहाँ आते हैं, हिंदू महीने अश्विन के महीने में। काली पूजा बहुत उत्साह और उमंग के साथ मनाई जाती है। दुर्गा पूजा भी बहुत उत्साह और जोश के साथ मनाई जाती है। दुर्गा पूजा के दौरान सड़कों पर भीड़ रहती है और पूजा के दौरान दृश्य बहुत शानदार और देखने लायक होते हैं। इस मंदिर की स्नान यात्रा भी बहुत प्रसिद्ध है। पुजारी अपनी आँखों पर पट्टी बांधकर मूर्तियों को स्नान कराते हैं। मंदिर में लोगों की भीड़ हो जाती है, जिससे भक्तों को संभालना मुश्किल हो जाता है। यह मंदिर अपनी खूबसूरत और अनूठी वास्तुकला के लिए जाना जाता है। देवी षष्ठी, शीतला और मंगल चंडी का प्रतिनिधित्व करने वाले तीन पत्थर हैं। यहाँ सभी पुजारी महिलाएँ हैं।

माना जाता है कि मंदिर में एक कुंड है जिसमें गंगा का पानी है, जिसे बहुत पवित्र माना जाता है। इस स्थान को काकू-कुंड के नाम से जाना जाता है। भक्तों का मानना ​​है कि कुंड में स्नान करने से कई लाभ होते हैं। ऐसा माना जाता है कि कई निःसंतान दंपत्ति संतान प्राप्ति के लिए यहाँ स्नान करते हैं। स्नान घाट को जोर-बांग्ला के नाम से जाना जाता है। बलि हरकठ ताला नामक स्थान पर दी जाती है। राधा कृष्ण को समर्पित एक स्थान भी है, जिसे शमो-रे मंदिर के नाम से जाना जाता है।

निष्कर्ष

कालीघाट मंदिर कोलकाता के सबसे पवित्र स्थलों में से एक है और यह एक शीर्ष पर्यटन स्थल है। ऐसा माना जाता है कि कलकत्ता नाम कालीघाट से ही लिया गया है। इसे सभी 52 मार्गों में सबसे पवित्र पीठ के रूप में जाना जाता है। यह आदि गंगा के तट पर स्थित है। इस मंदिर का हिंदू भक्तों के दिलों में एक विशेष स्थान है, जो देवी काली का आशीर्वाद लेने के लिए बड़ी संख्या में मंदिर में आते हैं। कोलकाता त्योहारों का शहर है, और त्योहारों के दौरान अधिक भक्त मंदिर में आते हैं।

भगवान शिव का एक अनोखा शिवालय, जहां चिता की आग से जलाई जाती है आरती की ज्योत"

वैसे तो उज्जैन स्थित महाकालेश्वर मंदिर में भस्म आरती होती है और वाराणसी के काशी विश्वनाथ मंदिर में भी आरती के लिए चिता की अग्नि का इस्तेमाल किया जाता है। भगवान शंकर के ये दोनों ही मंदिर द्वादश ज्योतिर्लिंग में शामिल हैं, लेकिन इसके अतिरिक्त अगर देश में कोई अन्य ऐसा शिवालय है जहां आरती की ज्योत प्रज्जवलित करने के लिए जलती हुई चिता की लकड़ी का सहारा लिया जाता है, तो वह है कोलकाता के नीमतल्ला घाट के समीप बना बाबा भूतनाथ मंदिर।

जी हां, बाबा भूतनाथ मंदिर भले ही द्वादश ज्योतिर्लिंग में शामिल न हो, इसके बावजूद यह शिवभक्तों की अटूट आस्था और विश्वास का केंद्र है। जानकारों के अनुसार मंदिर करीब सवा 300 साल पुराना है, जिसकी स्थापना नीमतल्ला श्मशान घाट पर रहने वाले एक अघोरी बाबा ने की थी। शुरूआती दिनों में मंदिर के नाम पर केवल एक शिवलिंग था और अघोरी बाबा के अलावा आसपास के अन्य लोग जलाभिषेक व पूजा-अर्चना करते थे।

भूतनाथ मंदिर का इतिहास खंगालने पर पता चला है कि बिल्कुल श्मशान भूमि पर ही शिवलिंग यानी मंदिर बना हुआ था इसीलिए आरती के वक्त जब ज्योति प्रज्जवलन की जरूरत होती थी तब पुजारी किसी भी जलती हुई चिता से एक लकड़ी उठा लेता था। यह प्रथा तब से आज तक जारी है।

गंगा नदी के पश्चिम किनारे पर बने भूतनाथ मंदिर के भव्य व दिव्य मंदिर के संचालन का जिम्मा हिंदू सत्कार समिति के पास है, जबकि प्रबंधन का कार्य मंदिर कमेटी देखती है। हिंदू सत्कार समिति के संयुक्त सचिव के मुताबिक 1932 से समिति ने मंदिर का संचालन अपने हाथों में लिया और साल-दर-साल मंदिर का विस्तार व प्रचार होता गया।

1940 में खड़ी की गई दीवार.

उनके अनुसार 1940 के आसपास कोलकाता नगर निगम की पहल पर मंदिर और श्मशान घाट के बीच एक दीवार खड़ी कर दोनों को पृथक किया गया। मंदिर स्थापना की निश्चित तिथि किसी के स्मरण में नहीं है, इसलिए मंदिर संचालन समिति, प्रबंधक कमेटी, पुजारी और नित्य आने वाले भक्तों की रजामंदी से अंग्रेजी नववर्ष के पहले दिन यानी पहली जनवरी को मंदिर का स्थापना दिवस मान लिया गया और इसी दिन मंदिर का वार्षिक उत्सव मनाया जाने लगा।

इसकी पूर्व संध्या यानी 31 दिसम्बर की रात मंदिर के समक्ष भजन-कीर्तन होता है, जिसमें लाखों भक्तों की मौजूदगी में देश के ख्याति प्राप्त भजन गायक अपनी-अपनी मधुर आवाज में बाबा के भजनों की गंगा प्रवाहित करते है। इसके अलावा महाशिवरात्रि पर भव्य आयोजन होता है और पूरे सावन महीने के दौरान भक्तों द्वारा अलौकिक श्रृंगार, संगीतमय भजन-कीर्तन और महारुद्राभिषेक कराया जाता है। हालांकि, कोरोना महामारी की वजह से बीते दो साल सावन में होने वाले आयोजनों को स्थगित कर दिया गया था। कोरोना महामारी के दौरान पुजारीगण ही नियमित पूजा पाठ करते थे। मंदिर परिसर में भक्तों के प्रवेश पर राज्य प्रशासन और संचालन समिति द्वारा रोक थी।

भूतनाथ मंदिर के प्रति लोगों के विश्वास का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि मंदिर परिसर में प्रवेश पर रोक के बावजूद भगवान शिव के अति प्रिय सावन महीने में रोजाना हजारों लोग मंदिर की चौखट पर माथा टेकने पहुंचते रहे। इस दफा कोरोना नियमों को मानकर सावन महोत्सव मनाया जा रहा है।

300 साल से जारी है क्रम

इसे बाबा भूतनाथ की कृपा से कम नहीं कहा जा सकता, कि मंदिर के स्थापना काल (सवा 300 साल पहले) से अभी तक मंगला आरती (सुबह 4 बजे) और संध्या आरती (शाम साढ़े 6 बजे) की ज्योत चिता की आग से प्रज्वलित हो रही है।

बाबा की आरती के वक्त पुजारी को कोई न कोई जलती चिता अवश्य मिल जाती है, जिसकी लकड़ी से दीपक की ज्योत जलाई जाती है। इतने लंबे इतिहास में एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि आरती के वक्त किसी की चिता न जल रही हो।

चांदी की दीवार

अपने किसी मनोरथ के पूर्ण होने पर स्वेच्छा से मंदिर में श्रृंगार या विशेष पूजा के लिए भी भक्तों को अपनी बारी के लिए लंबा इंतजार करना पड़ता है। भक्तों में बाबा के प्रति विश्वास इस बात से पुख्ता होता है कि लाखों खर्च कर मंदिर परिसर की पूरी दीवार रजत (चांदी) से बनवाई गई है।

इसके अलावा नंदी, त्रिशूल, डमरू और अर्धनारीश्वर के अतिरिक्त भगवान शंकर के कई रूप चांदी के हैं, जिन्हें बारी-बारी से हर शाम सुसज्जित कर भक्तों के दर्शनार्थ शिवलिंग पर विराजित किया जाता है। इन सबसे अलग एक और बात, जो केवल भूतनाथ मंदिर में ही देखने को मिलेगी, वह यह कि सर्व भूतों के स्वामी भूतनाथ नमामि का यह मंदिर सातों दिन और चौबीसों घंटे खुला रहता है। कहते हैं कि नियमित रूप से इस मंदिर में आकर कपूर जलाने वाले और उसकी कालिख का टीका लगाने वाले भक्तों की बाबा हर मनोकामना पूर्ण करते हैं।

माता कात्यायनी की महिमा: गोपियों ने अपने हाथों से बनाई थी मूर्ति, भगवान कृष्ण को वर रूप में चाहा था

नवरात्रि में देवी के विभिन्न स्वरुपों की पूजा हो रही है. इनमें एक माता कात्यायनी का स्वरूप भी शामिल है. दिल्ली के पास देवी कात्यायनी का ऐसा मंदिर है, जिसके बारे में कहा जाता है कि यहां आज भी माता के दरबार से कोई भक्त खाली हाथ नहीं लौटता. हम बात कर रहे हैं कि भगवान की रास स्थली वृंदावन के कात्यायनी माता मंदिर की. यह मंदिर तो बाद में बना, लेकिन मंदिर में मौजूद माता की मूर्ति द्वापर युग में खुद गोपियों ने अपने हाथों से बनाई थीं और नियमित माता की पूजा कर भगवान कृष्ण को वर रूप में चाहा था.

माता की कृपा से उनकी इच्छा पूरी भी हुई.इसके बाद तमाम ऋषि मुनियों ने इस स्थान पर तप कर माता की कृपा का फल प्राप्त किया. इस प्रसंग में हम श्रीमद भागवत के हवाले से उसी मंदिर की चर्चा करेंगे, जहां माता आज भी अपने भक्तों की झोली सहज ही भर देती हैं. श्रीमदभागवत की कथा के मुताबिक भगवान कृष्ण वृंदावन में 11 वर्ष 56 दिनों तक रहे. जब भगवान गोप गोपियों के साथ खेलते हुए 7 वर्ष के हो गए, तो गोपियों के मन में भाव जगा कि उन्हें पति के रूप में कृष्ण की ही प्राप्ति हो.

इस भाव के चलते गोपियां रोज सुबह ब्रह्म मुर्हुत में उठ जातीं, यमुना स्नान करतीं और अपने हाथों से माता कात्यायनी की मूर्ति बनाकर ‘कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्द गोपसुतं देविपतिं मे कुरु ते नमः॥’ मंत्र से उनकी पूजा करतीं.

ऐसे पूरी हुई गोपियों की कामना

उनकी इस पूजा से भगवान प्रसन्न हुए और जब अघासुर के वध के बाद एक वर्ष का कालाक्षेप हुआ था, भगवान खुद ही वृंदावन के सभी ग्वाल बाल बन गए थे, उसी समय सभी गोपियों से शादी कर उनकी इच्छा की पूर्ति की थी.श्रीमद भागवत कथा के मुताबिक खुद भगवान जब 11 वर्ष 56 दिन तक वृंदावन में गुजारने के बाद कंस वध के लिए मथुरा जाने लगे तो इस मंदिर में आए और कंस वध की कामना के साथ विधि विधान से माता की स्तुति की थी. बाद में इस स्थान पर कई ऋषि मुनियों ने माता की पूजा की और अभीष्ठ फल की प्राप्ति की.

शक्तिपीठ है माता का मंदिर

देवी पुराण और मार्कंडेय पुराण के मुताबिक यह मंदिर ठीक उसी स्थान पर है, जहां पूर्व में माता सती के केश गिरे थे. इसलिए यह स्थान शक्तिपीठ भी हैं. मान्यता है कि इस मंदिर में आज भी कोई भक्त मन वचन और कर्म से शुद्ध होकर ‘कात्यायनि महामाये महायोगिन्यधीश्वरि। नन्द गोपसुतं देविपतिं मे कुरु ते नमः॥’ का जाप करता है तो उसकी मनोकामना सहज ही पूरी हो जाती है. खासतौर पर जिन लोगों की शादी में बाधा आती है, उनकी कुंडली में ग्रहों के दोष की वजह से तय हुई शादी भी टूट जाती है, उन्हें इस मंदिर में पूजा का बड़ा फल मिलता है.

कौन हैं मां कात्यायनी

देवी भागवत की एक कथा के मुताबिक ऋषि कात्य के गोत्र में कात्यायन नाम के एक ऋषि हुए. उस समय महामारी फैली हुई थी. इससे दुखी होकर ऋषि ने देवी भगवती की खूब तपस्या की थी. उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर माता उनके सामने प्रकट हुईं और वरदान मांगने को कहा. उस समय ऋषि माता के स्वरुप पर मोहित हो गए और कहा कि वह उन्हें बेटी स्वरूप में पाना चाहते हैं. माता ने तथास्तु कहा और नियत समय पर मां भगवती कात्यायन ऋषि के घर बेटी बनकर अवतरित हुईं और महामारी का हरण किया था. उस समय उनका नाम कात्यायनी रखा गया.

सलकनपुर देवी पीठ: जहां बंजारों ने की थी इस मंदिर की स्थापना, आज भी 1400 सीढ़ियां चढ़कर पहुंचते हैं भक्त

सलकनपुर मंदिर आस्था और श्रद्धा का 52 वां शक्ति पीठ माना जाता है. मंदिर पहुंचने के लिए भक्तों को पत्थर से बनी 1 हजार 451 सीढ़ियों चढ़ना होती हैं. हालांकि अब सलकनपुर देवी मंदिर ट्रस्‍ट ने पहाड़ी यहां सड़क भी बनवा दी है. सालभर भक्त भोपाल, इटारसी, होशंगाबाद, पिपरिया, सोहागपुर, बैतूल सहित दूर दूर से टोलियां बनाकर गाते-बजाते पैदल ही यहां आते हैं.

सलकनपुर मंदिर : श्रीमद् भागवत कथा के अनुसार जब रक्तबीज नामक देत्य से त्रस्त होकर जब देवता देवी की शरण में पहुंचे। तो देवी ने विकराल रूप धारण कर लिया। और इसी स्थान पर रक्तबीज का संहार कर उस पर विजय पाई। मां भगवति की इस विजय पर देवताओं ने जो आसन दिया, वही विजयासन धाम के नाम से विख्यात हुआ। मां का यह रूप विजयासन देवी कहलाया।

बंजारों ने कराया था निर्माण: मंदिर निर्माण के संबंध में कहा जाता है कि आज से करीब 300 वर्ष पूर्व बंजारो द्वारा उनकी मनोकामना पूर्ण होने पर इस मंदिर का निर्माण किया गया था। मंदिर निर्माण और प्रतिमा मिलने की इस कथा के अनुसार पशुओं का व्यापार करने वाले बंजारे इस स्थान पर विश्राम और चारे के लिए रूके। अचानक ही उनके पशु अदृष्य हो गए।

बंजारे को मिली थी बालिका: इस तरह बंजारे पशुओं को ढूंडने के लिए निकले, तो उनमें से एक बृद्ध बंजारे को एक बालिका मिली। बालिका के पूछने पर उसने सारी बात कही। तब बालिका ने कहा की आप यहां देवी के स्थान पर पूजा-अर्चना कर अपनी मनोकामना पूर्ण कर सकते हैं। बंजारे ने कहा कि हमें नही पता है कि मां भगवति का स्थान कहां है। तब बालिका ने संकेत स्थान पर एक पत्थर फेंका। जिस स्थान पर पत्थर फेंका वहां मां भगवति के दर्शन हुए। उन्होने मां भगवति की पूजा-अर्चना की। कुछ ही क्षण बाद उनके खोए पशु मिल गए। मन्नत पूरी होने पर बंजारों ने मंदिर का निर्माण करवाया। यह घटना बंजारों द्वारा बताये जाने पर लोगों का आना शुरू हो गया और वे भी अपनी मन्नत लेकर आने लगे।

धुने की स्थापना: हिंसक जानवरों, चौसठ योग-योगिनियों का स्थान होने से कुछ लोग यहां पर आने में संकोच करते थे। तब स्वामी भद्रानंद ने यहां तपस्या कर चौसठ योग-योगिनियों के लिए एक स्थान स्थापित किया। तथा मंदिर के समीप ही एक धुने की स्थापना की। और इस स्थान को चैतन्य किया है। तथा धुने में एक अभिमंत्रित चिमटा, जिसे तंत्र शक्ति से अभिमंत्रित कर तली में स्थापित किया गया है। आज भी इस धुने की भवूत को ही मुख्य प्रसाद के रूप में भक्तगणों को वितरित किया जाता है।

वाराणसी में स्थित एक ऐसा मंदिर जहां देवी-देवता नहीं, बल्कि भारत का नक्शा है, जो पूजा जाता है

उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में स्थित भारत माता का एकमात्र मंदिर जो सम्पूर्ण देश की विरासत को समेटे हुए है. हम बात कर रहे हैं बनारस के काशी में स्थित 'भारत माता मंदिर' की. यह मंदिर देश के अन्य मंदिरों से अलग खासियत के लिए मशहूर है. इस मंदिर की भव्यता और प्राचीनता को देखने के लिए देश-विदेश से लोग आते हैं.

मंदिर का इतिहास

भारत माता का मंदिर महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ परिसर में स्थित है. मंदिर का निर्माण स्वतंत्रता से पहले बाबू शिव प्रसाद गुप्ता ने उस समय कराया था, जब महात्मा गांधी स्वतंत्रता के लिए राष्ट्रीय आंदोलन की कमान संभाल रहे थे. इस मंदिर का निर्माण 1918 से शुरू होकर साल 1924 में पूरा हुआ. महात्मा गांधी ने 25 अक्टूबर 1936 को वाराणसी में भारत माता मंदिर का उद्घाटन किया था.

पूजा जाता अखंड भारत का नक्शा

बनारस स्थित भारत माता के मंदिर में अविभाजित नक्शे की पूजा की जाती है. यह मंदिर सैलानियों के लिए खास और हम भारतीयों का गर्व है.

भारत माता मंदिर के गर्भ गृह के केंद्र में अविभाजित भारत के नक्शे की आराधना की जाती है. जिसमें अफगानिस्तान, बलूचिस्तान सहित पाकिस्तान, बांग्लादेश, म्यांमार को बर्मा और श्रीलंका को मकराना यानी पाकिस्तान से लाए गए सीलोन संगमरमर के रूप में दिखाया गया है.

साल में दो बार सजाया जाता है मंदिर

अखंड भारत के मंदिर को साल में 2 बार सजाया जाता है. इसे स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्रता दिवस पर सजाया जाता है.

नक्शे के जलाशय वाले हिस्सा को पानी से भर दिया जाता है और मैदानी भाग को हरे भरे घास से और फूलों से सजाया जाता है. जो देखने में बेहद खूबसूरत लगता है.

राष्ट्रीय गीत से सजा है मंदिर का दरवाजा

मंदिर के दरवाजे पर पहुंचते ही, हमें बडे़ अक्षरों में राष्ट्रीय गीत दिखाई देता है. पूरे दरवाजे को राष्ट्रीय गीत और मैथलीशरण गुप्त की लिखी हुई कविता से सजाया गया है. इस कविता का सार देशवासियों को एकता के धागे में पिरोना है.

नवरात्रि विशेष: मथुरा के नरी सेमरी मंदिर में ढोल-नगाड़े नहीं, डंडे और लाठियां बजती हैं - जानें इसके पीछे की कहानी

शारदीय नवरात्रि की शुरुआत हो चुकी है. 9 दिनों तक चलने वाले इस त्योहार में मां दुर्गा की उपासना की जाती है. इस दौरान मां शक्ति की आराधना करने से इंसान के जीवन के सारे दुख खत्म हो जाते हैं. देशभर में मां दुर्गा के एक से बढ़कर एक मंदिर हैं. कई मंदिरों में तो पूजा की विधि भी एकदम अलग है. कृष्ण नगरी मथुरा में भी नरी सेमरी नाम का मां दुर्गा का एक ऐसा मंदिर है जहां पूजा करने की विधि एकदम अलग है. इस जगह पर मां दुर्गा के उत्सव में ढोल-नगाड़े नहीं बजते हैं बल्कि डंडे और लाठियां बजती हैं.

मथुरा को यूं तो कृष्ण की नगरी कहा जाता है लेकिन मथुरा में एक ऐसा दुर्गा मां का मंदिर भी है जो सबसे अनूठा है. इसका नाम है नरी सेमरी मंदिर. इस मंदिर में नवरात्रि के दौरान अलग ही धूम देखने को मिलती है. इस मंदिर को लेकर एक 750 साल पुरानी मान्यता है. इस मान्यता की वजह से ही इस मंदिर पर नवरात्रि के दौरान पूजा के वक्त लाठी-डंडे बजाए जाते हैं. ये मंदिर उत्तर प्रदेश के मथुरा से करीब 30 किलोमीटर दूर स्थित छाता गांव में है.

क्या है इस मंदिर से जुड़ी मान्यता ?

कहा जाता है कि इस मंदिर में अगर नवरात्रि के आखिरी दिन डंडे और लाठियां बजाईं जाएं तो इससे मां दुर्गा प्रसन्न होती हैं और भक्तों पर उनकी असीम कृपा बरसती है. ऐसा पिछले 750 साल से किया जाता रहा है. एक समय इस मंदिर में स्थित प्रतिमा को लेकर सिसोदिया और यधुवंशी ठाकुरों के बीच लड़ाई-झगड़ा हो गया था. इस दौरान खूब लाठी-डंडे चले जिसके अंत में यधुवंशी ठाकुरों की जीत हुई. तभी से यहां पर पूजा के दौरान दीवार, फर्श और मंदिर की घंटियों पर लाठी-डंडा बजाए जाते हैं. कहा जाता है कि मंदिर में वैसे तो जो माता रानी की मूर्ति है वो सालभर टेढ़ी रहती है लेकिन राम-नवमी के दिन ये सीधी हो जाती है. इसलिए इस दिन माता रानी की पूजा करने का विशेष महत्व है.

नौ दिन की नौ देवियां

नवरात्रि 9 दिनों की होती है और इस दौरान 9 देवियों की पूजा की जाती है. पहली देवी शैलपुत्री हैं, दूसरी ब्रह्मचारिणी, तीसरी चंद्रघंटा, चौथी कूष्मांडा, पांचवी स्कंध माता, छठी कात्यायिनी, सातवीं कालरात्रि, आठवीं महागौरी और नौवीं सिद्धिदात्री हैं. ये मां दुर्गा के नौ रुप हैं और मां दुर्गा के इन्हीं 9 देवियों की पूजा नवरात्रि के 9 दिन में की जाती है. हर पूजा का अपना विशेष महत्व है और सबके पीछे की पौराणिक मान्यताएं भी हैं. इस दौरान लोग 9 दिनों का व्रत रखते हैं और जगह-जगह माता रानी के पंडाल लगते हैं. देशभर में नवरात्रि के दौरान अलग ही उल्लास देखने को मिलता है.

ओडिशा का अनोखा मंदिर: साल में सिर्फ 9 दिन नवरात्र में ही खुलता है माता रानी का ये दरबार

शारदीय नवरात्र का पावन पर्व आज से शुरू हो चुका है। यह हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक है, जिसे हर साल आश्विन माह में मनाया जाता है। इस दौरान मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है और व्रत-उपवास भी किया जाता है। इसके अलावा इन दिनों देवी मां के दर्शन के लिए मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है। भारत मंदिरों का देश है। यहां हर कदम पर कई छोटे-बड़े मंदिर मिलते हैं, जिनका अपना सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व होता है।

ऐसा ही एक मंदिर ओडिशा में स्थित है, जो कई वजहों से अनोखा मंदिर माना जाता है। आमतौर पर ओडिशा का नाम सुनते ही सबसे पहले मन में जगन्नाथ मंदिर का ख्याल आता है, लेकिन ओडिशा में माता रानी का एक अनोखा मंदिर भी है, जो सिर्फ नवरात्र के दौरान ही खुलता है। यहां गजपति जिले के परलाखेमुंडी में एक छोटा- सा दुर्गा मंदिर है, जिसके बारे में बेहद कम लोग ही जानते हैं। ऐसे में नवरात्र के अवसर पर आज हम आपको बताएंगे इस अनोखे मंदिर के बारे में-

सालभर बंद रहता है कपाट

बेहद कम प्रसिद्ध यह मंदिर साल में सिर्फ नौ दिन नवरात्र के दौरान खुला रहता है। उड़िया में इस मंदिर को दांडू मां के नाम से जाना जाती है। यह काफी पुराना मंदिर है, जहां नवरात्र के दौरान ओडिशा और आंध्र प्रदेश से बड़ी संख्या में लोग आते हैं। खास बात यह है कि अन्य मंदिरों के विपरीत में यह मंदिर साल के बाकी दिनों बंद रहता है और सिर्फ नवरात्र के नौ दिनों में ही खुला रहता है। साल में सिर्फ नौ दिन मंदिर खुलने की यह परंपरा अज्ञात समय से चली आ रही है और इसका कारण भी अज्ञात है।

सिर्फ नौ दिन खुलता है मंदिर

इस मंदिर के कपाट नवरात्र के पहले दिन ही खोले जाते हैं। इसके बाद यहां कई अनुष्ठान होते हैं, जो नवरात्र के आखिरी दिन की आधी रात तक जारी रहते हैं। इसके बाद एक मिट्टी के बर्तन में नारियल के प्रसाद के साथ मंदिर का दरवाजा अगले साल तक के लिए बंद कर दिया जाता है। खास बात यह है कि जब अगले साल मंदिर का दरवाजा खोला जाता है, तो यह जैसे का तैसा रखा रहता है, जिसे बाद में नवरात्र के दौरान मंदिर आने वाले भक्तों को दिया जाता है।

दूर-दूर से आते हैं लोग

शहर के कई प्राचीन मंदिरों में से एक यह दुर्गा का मंदिर शहर की सांस्कृतिक सुंदरता में एक विशेष स्थान रखता है। नवरात्र के पवित्र अवधि के दौरान यहां दूर-दूर से लोग आते हैं। यह साल का एकमात्र ऐसा समय होता है, जब भक्त देवी मां की एक झलक पा सकते हैं, जिन्हें तेलुगु में दंडमरम्मा और उड़िया में दंडु मां के नाम से जाना जाता है। बात करें इस शहर की, तो परलाखेमुंडी या पराला ओडिशा में 1885 में स्थापित सबसे पुरानी नगर पालिकाओं में से एक है। इस शहर के लोग ज्यादातर तेलुगु और उड़िया बोलते हैं और इस जगह की सीमाएं आंध्र प्रदेश से लगती हैं।

केदारनाथ से जुड़ी डोलेश्वर महादेव मंदिर की कहानी,जाने मंदिर की पौराणिक मान्यता

आत्म-चिंतन, भक्ति और परमात्मा के साथ गहरे संबंध के लिए एक पवित्र वातावरण आपको पहाड़ों के बीच ही मिलता है। नेपाल देश की सुंदरता किसी से नहीं छिपी है। यहां की पहाड़ियां वास्तुक सब अलौकिक हैं। इस अलौकिकता में चार चांद लगाता है हिन्दू मान्यताओं से धनी पशुपतिनाथ और डोलेश्वर महादेव मंदिर। जहां इन मंदिरों का अत्यधिक सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है, जो हिंदू धर्म की परंपराओं और स्थानीय संस्कृति से जुड़ा हुआ है। इसका महत्व इसकी स्थापत्य सुंदरता से कहीं ज्यादा है, जो इसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भक्ति दोनों के लिए एक प्रसिद्ध स्थल बनाता है।

केदारनाथ की यात्रा नेपाल से होती है पूरी

डोलेश्वर महादेव मंदिर नेपाल में स्थित है और यह पौराणिक महत्व के साथ जाना जाता है। यह शिवालय कोशी नदी के किनारे स्थित है और यहाँ का पूजा-अर्चना का वातावरण बहुत ही शांतिपूर्ण है। मंदिर का निर्माण पुरातात्विक रूप से बहुत पुराना माना जाता है और यहाँ की सुंदरता को देखकर लोगों को शिवालय दर्शन का अद्भुत अनुभव होता है। हरे-भरे जंगल के बीच एक विशाल चट्टान को भगवान केदारनाथ के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि पशुपतिनाथ और डोलेश्वर की यात्रा के बिना केदारनाथ की यात्रा पूरी नहीं होती है।

डोलेश्वर महादेव मंदिर का अवलोकन करने के लिए यात्री नेपाल के भक्तपुर जिले के तांखेल गाँव में जाते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए प्राकृतिक और शांतिपूर्ण मार्ग हैं। जो यात्रा को और भी आनंदमय बना देते हैं। मंदिर के आसपास के क्षेत्र में विभिन्न धार्मिक और पौराणिक स्थल हैं। जो यात्रियों का ध्यान आकर्षित करते हैं। यहाँ पर आने वाले लोगअद्भुत वातावरण में शिव पूजा का आनंद लेते हैं और आत्मिक शांति का अनुभव करते हैं।

मंदिर की पौराणिक मान्यता

4000 वर्षों से लोग पंच केदार मंदिरों के प्रमुख बैल की खोज कर रहे हैं, जो वास्तव में शिव थे, जिन्होंने महाभारत के नायकों, पांच पांडव भाइयों से बचने के लिए बैल का रूप धारण किया था। यह किंवदंती पांच पांडव भाइयों और उनके चचेरे भाइयों, कौरव भाइयों के बीच लड़े गए कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध युद्ध से जुड़ी है। ऐसा कहा जाता है कि जब पांडव भाइयों ने बैल को पकड़ने की कोशिश की, तो वे केवल पूंछ ही पकड़ सके, जबकि बैल का सिर शरीर के बाकी हिस्सों से अलग हो गया। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार शेष शरीर भारत के केदारनाथ में है, जबकि माना जाता है कि डोलेश्वर उसका सिर वाला भाग है। वहीं पंच केदार में उनके अन्य शरीर के भाग है, जैसे केदारनाथ में पीछे का का भाग, तुंगनाथ में भुजा, कल्पेश्वर में जटा, मध्यमहेश्वर में मध्य भाग और रुद्रनाथ में चेहरा (मुख) की पूजा की जाती है।

मंदिर की भव्य वास्तुकला

डोलेश्वर महादेव मंदिर पारंपरिक नेवारी वास्तुकला का एक सुंदर उदाहरण है, जिसमें बढ़िया लकड़ी का काम और पगोडा-शैली का डिज़ाइन है। मंदिर का वास्तुशिल्प वैभव नेपाल की काठमांडू घाटी की समृद्ध विरासत का एक स्मारक है। मंदिर की पैगोडा-शैली की संरचना में कई स्तर हैं, जिनमें से प्रत्येक को जटिल नक्काशीदार लकड़ी के तत्वों से सजाया गया है। लकड़ी की नक्काशी पौराणिक डिजाइनों, धार्मिक प्रतीकों और नेवारी कलात्मकता के विशिष्ट पैटर्न को चित्रित करती है। ये मूर्तियां गहन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदेश देने के साथ-साथ सजावटी होने के साथ एक प्रतीकात्मक कार्य भी करती हैं। लकड़ी का प्रचुर उपयोग, नेवारी निर्माण का एक ट्रेडमार्क, डोलेश्वर महादेव मंदिर की वास्तुकला की एक उल्लेखनीय विशेषता है।

मंदिर की मान्यता पर शोध

डोलेश्वर महादेव नेपाल के भक्तपुर जिले के दक्षिण पूर्वी भाग सूर्यबिनायक में स्थित भगवान शिव का एक हिंदू मंदिर है। हिंदू कार्यकर्ता भरत जंगम केदारनाथ और डोलेश्वर के बीच आश्चर्यजनक संबंधों के आधार पर शोध का दावा करते है कि डोलेश्वर महादेव केदारनाथ का प्रमुख हिस्सा है। दोनों मंदिरों में पाई गई शिव की मूर्तियां 4,000 साल पुरानी हैं। यहां तक कि डोलेश्वर में पाया गया एक पत्थर का ग्रंथ भी संस्कृत और पुरानी नेपाली में लिखा गया था। दोनों तीर्थस्थलों में पुजारी भारत के दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु से चुने जाते हैं।

पांडवों से जुड़ा है निष्कलंक महादेव का मंदिर, जानते हैं इस मंदिर का रोचक इतिहास

निष्कलंक महादेव मंदिर में एक चौकोर मंच पर 5 अलग-अलग स्वयंभू शिवलिंग हैं और प्रत्येक के सामने एक नंदी की मूर्ति विराजमान है। यह मंदिर समुद्र में उच्च ज्वार के दौरान डूब जाता है और कम ज्वार के दौरान खुद को भव्यता से प्रकट करने के लिए उभर आता है।

उच्च ज्वार के दौरान, शिवलिंग जलमग्न हो जाते हैं। इस दौरान केवल ध्वज और एक स्तंभ दिखाई देता है। आइए जानते हैं इस मंदिर का रोचक इतिहास।

पांडवों से जुड़ा है मंदिर का इतिहास

ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर को पांडवों द्वारा बनवाया गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इसे बनवाने के कारण यह था कि पांडवों द्वारा कुरुक्षेत्र युद्ध में सभी कौरवों को मारने के बाद, उन्हें अपने पापों के लिए दोषी महसूस होने लगा।

अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए, पांडवों ने भगवान श्री कृष्ण से परामर्श किया, जिन्होंने उन्हें एक काला झंडा और एक काली गाय सौंपी और उनसे पीछा करने को कहा और कहा कि जब ध्वज और गाय दोनों सफेद हो जाएंगे, तो उन सभी के पाप मांफ हो जाएंगे। इसके बाद भगवान कृष्ण ने उन्हें भगवान शिव से क्षमा मांगने के लिए भी कहा।

पांडवों ने गाय का हर जगह पीछा किया जहां भी गाय उन्हें ले गई और कई वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर ध्वज को मान्यता दी, फिर भी रंग नहीं बदला।

अंत में, जब वे कोलियाक समुद्र तट पर पहुंचे, तो दोनों सफेद हो गए। वहां पांडवों ने भगवान शिव का ध्यान किया और अपने द्वारा किए गए पापों के लिए क्षमा मांगी। उनकी प्रार्थनाओं से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने प्रत्येक भाई को शिवलिंग रूप में दर्शन दिए।

कहा जाता है कि यह पांचों शिवलिंग स्वयंभू हैं। इस सभी शिवलिंग के सामने नंदी की मूर्ति भी थी। पांडवों ने अमावस्या की रात को इन पांचों लिंगम को चौकोर स्थल पर स्थापित किया और इसे निष्कलंक महादेव नाम दिया जिसका अर्थ होता है बेदाग, स्वच्छ और निर्दोष होना।

हर साल लगता है मेला

इस स्थान पर 'भादरवी' नाम से प्रसिद्ध मेला श्रावण माह की अमावस्या की रात को आयोजित किया जाता है। मंदिर उत्सव की शुरुआत भावनगर के महाराजाओं द्वारा झंडा फहराकर की जाती है। जहां यह झंडा 364 दिनों तक खुला रहता है और अगले मंदिर उत्सव के दौरान बदला जाता है

कब किए जाते हैं दर्शन

श्रद्धालु निम्न ज्वार के दौरान तट से नंगे पैर चलकर मंदिर के दर्शन करते हैं। मंदिर पहुंचने पर भक्त सबसे पहले एक तालाब में अपने हाथ-पैर धोते हैं, जिसे पांडव तालाब कहा जाता है, उसके बाद मंदिर के दर्शन करते हैं। ज्वार विशेष रूप से अमावस्या और पूर्णिमा के दिनों में सक्रिय होते हैं और भक्त इन दिनों ज्वार के गायब होने का बेसब्री से इंतजार करते हैं।

एक ऐसा रहस्यमयी मंदिर जहां सिर्फ महिलाएं होती है पुजारी,जाने

दुनिया में रहस्य व अजूबों की कमी नहीं है। लेकिन कुछ ऐसी मान्यताएं व परंपराएं समाज में विकसित है जो तारीख बन जाती है। इसी में एक है सहोदरा (सुभद्रा) शक्तिपीठ।

भारत नेपाल की सीमा पर गौनाहा प्रखंड के उत्तरी छोर पर अवस्थित है सुभद्रा स्थान। जो भारत सहित नेपाल के लाखों श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र है। जिसकी गिनती शक्तिपीठों में होती है।

सहोदरा शक्तिपीठ का इतिहास

सैंकड़ों वर्ष पुराना है।

यहां के लोग इसे महाभारत काल से जोड़ते है। इस मंदिर का सबसे अजूबा इतिहास यह है कि मंदिर के आरंभ से लेकर आजतक इस मंदिर में पुजारी के रूप में सिर्फ महिलाएं ही नियुक्त हुई है।

साथ ही यहां विराजमान माता सुभद्रा को प्रतिदिन स्नान कराकर नयी साड़ी पहनाने व खोइछा भरने की परंपरा काफी पुरानी है।

यहां के लोग माता को बेटी मानकर प्रतिदिन नया वस्त्र व खोइछा प्रदान करते है। वर्तमान में शंभू गुरो की पत्नी आशा देवी इस मंदिर की प्रधान पुजारी है।

रहस्यमयी है माता का इतिहास

वैसे तो शक्तिपीठ सुभद्रा के संबंध में यहां कई कथाएं प्रचलित है। लेकिन जो माता प्रतिमा की प्रमाणिकता सिद्ध करता है, उसके अनुसार प्राचीन काल में दिव्य आभूषण से सुसज्जित एक ग्वालन स्त्री अपने नवजात शिशु के साथ दही बेचकर जंगल के रास्ते वापस जा रही थी। शाम का अंधेरा गहराने लगा था। इतने में कुछ बदमाश उन्हें घेर लिए। स्त्री की आबरू से खिलवाड़ करने के लिए उन्हें निर्वस्त्र करना शुरू कर दिया।

स्त्री रक्षा के लिए भगवान को पुकारने लगी। इतने में एक दिव्य तेज प्रकाशित हुआ और गोद में बच्चे के साथ स्त्री प्रतिमा बन गई। वहां एक नीम का पेड़ उत्पन्न हो गया। सभी बदमाश मौत को प्राप्त हुए। दूसरी ओर बिहार लोक कथाएंज् के लेखक डा. सीआर प्रसाद के अनुसार हिमालय में जाते समय पाडुओं से सुभद्रा इसी जंगल में बिछड़ गई थी और कुछ बदमाशों ने उन्हें घेर लिया।

जिस कारण उन्हें सती हो जाना पड़ा। इसका वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक में भी किया है। यहां के लोग भी इसे सत्य कथा बताते है। वैसे प्रतिमा के एक हाथ में कमल व दूसरे हाथ में कलश मौजूद है। गोद में एक नवजात बच्चा भी है।बू

महारानी को आया था स्वप्न

करीब तीन सौ वर्ष पूर्व रामनगर इस्टेट की तत्कालीन महारानी छत्रकुमारी देवी को रात में माता का स्वप्न आया। माता ने आदेश दिया कि तुम सहोदरा के जंगलों में मेरी मंदिर बनवाओं। दूसरे दिन जब महारानी अपने सैनिकों के साथ यहां पहुंची तो उन्हें स्वप्न में आए निर्धारित स्थान पर एक नीम का पेड़ दिखा।

महारानी ने कुल्हाड़ी से नीम के पेड़ पर पांच बार प्रहार किया। इसके बाद सैनिकों ने नीम के पेड़ को काटकर उसे साफ किया तो वहां से वर्तमान प्रतिमा निकली। इसके बाद महारानी ने यहां मंदिर की स्थापना करवाई। बाद में स्थानीय प्रसाद महतो ने उस मंदिर को विकसित कर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। जहां आज दो देशों के आस्था का जनसैलाव उमड़ता दिखाई पड़ता है।

यहां दफन है दसवीं शताब्दी के पूर्व का इतिहास

सहोदरा मंदिर निर्माण के समय जब यहां की खुदाई हुई तो उसमें से अष्टकोणीक कुंआ एवं देवी देवताओं की असंख्य मुर्तियां निकली। कई सिक्के भी मिले। जो अवशेष के रूप में आज भी मंदिर परिसर में विद्यमान है।

इन अवशेषों को पुरातत्व विभाग दसवीं शताब्दी का मान रहा है। इसी माह कला एंव संस्कृति मंत्री विनय बिहारी के साथ सहोदरा पहुंचे पुरातत्व विभाग के संरक्षण पदाधिकारी सत्येंद्र झा ने जब इन अवशेषों को देखा तो मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने बताया कि ये समस्त प्रतिमाएं दसवीं शताब्दी की प्रतीत हो रही है। इसका इतिहास जानने के लिए तह में जाना होगा।

करीब एक साल पूर्व तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने चार दिनों के प्रवास पर दोन आए थे। प्रवास के पहले दिन पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सबसे पहले सहोदरा शक्तिपीठ एवं सोफा मंदिर का दर्शन किया। यहां के इतिहास जान अह्लादित हुए और इसे पर्यटक स्थल बनाने की घोषणा की।

साल में दो बार लगता है मेला

वैसे तो यहां हर रोज मेला का नजारा रहता है। नेपाल व भारत के सुदुरवर्ती इलाकों के सैंकड़ों श्रद्धालु प्रतिदिन माता के दर्शन को आते है। लेकिन शारदीय नवरात्र एवं चैत्र नवरात्र में यहां एक एक माह का मेला लगता है। जिला पुलिस व एसएसबी की चौकसी के बीच लगने वाले इन मेलों में लाखों श्रद्धालु माता के दर्शन और उनसे मनोवांछित फल की प्राप्ति की कामना से प्रतिदिन पहुंचते है।

सप्तमी से भीड़ अधिक बढ़ने के कारण श्रद्धालुओं को माता के दर्शन के लिए घंटों लाइन में लगना पड़ता है।