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ऐतिहासिक प्रेम कहानियों में शामिल है, राजा मान सिंह और राजकुमारी गायत्री देवी…

बचपन में आप सब ने राजा-रानी की कहानियां तो खूब सुनी होंगी, हो सकता है फिल्मों में भी देखी भी हों। आज हम भी, वैलेंटाइन स्पेशल में आपको एक राजा और रानी की दिलचस्प प्रेम कहानी सुना रहे हैं। यह कहानी है जयपुर के राजा सवाई मान सिंह II और रानी गायत्री देवी की, जिन्हें 20वीं शताब्दी का गोल्डन कपल भी कहा जाता था। राजा और रानी की यह कहानी जितनी खूबसूरत है, उतनी ही मुश्किलों से भरी भी थी, लेकिन फिर भी सभी चुनौतियों को पार करते हुए, इन दोनों के प्यार ने इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बना ही ली।

राजकुमारी गायत्री का जन्म लंदन में, कूच बिहार के राजकुमार जितेंद्र नारायण और बड़ौदा की राजकुमारी इंद्रिरा राजे के घर, 1919 में हुआ था। राजा जितेंद्र अपने भाई के निधन के बाद कूच बिहार के राजा बने थे। राजकुमारी गायत्री देवी, जो अपने करीबियों में आयशा नाम से भी जानी जाती थीं, महज 12 वर्ष की थीं, जब वे जयपुर के राजा मान सिंह II पर अपना दिल हार बैठीं। राजा मान सिंह को पोलो खेलने का शौक था और वह इसी सिलसिले में एक मैच के लिए कलकत्ता पहुंचे थे।

जब गायत्री देवी ने पहली बार राजा मान सिंह को देखा था, तब वे 21 साल के थे और शादीशुदा भी थे। मान सिंह की तब दो पत्नियां थीं, महारानी मुराधर कंवर और महारानी किशोर कंवर। महारानी किशोर कंवर, राजा मान सिंह की पहली पत्नी की भतीजी भी थीं।

राजा मान सिंह की तरह राजकुमारी गायत्री देवी को भी पोलो खेलने और घुड़सवारी का बेहद शौक था और इसी वजह से इन दोनों के मिलने-जुलने की शुरुआत भी हुई। गायत्री देवी, राजा मान सिंह को प्यार से जय बुलाती थीं। इन्हीं मुलाकातों के बहाने दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा, लेकिन अब मुश्किलों ने भी इन्हें घेरना शुरू कर दिया।

शादी के लिए हो गई थी मनाही

जब राजा मान सिंह ने राजकुमारी गायत्री की मां रानी इंद्रीरा देवी से शादी का हाथ मांगा, तो उन्होंने साफ शब्दों में इंकार कर दिया। कारण साफ था, राजा मान सिंह की पहले से दो पत्नियां थीं और उनके यहां महिलाओं को पर्दा प्रथा को मानना पड़ता था। न सिर्फ राजकुमारी गायत्री की मां ने बल्कि, उनके भाई, जो राजा मान सिंह के दोस्त भी थे, उन्होंने भी उनकी शादी का विरोध किया था। मान सिंह से शादी करने की जिद्द को तोड़ने के लिए उन्होंने गायत्री देवी से यह तक कहा था कि इनसे शादी करना तुम्हारे लिए ठीक नहीं है, वे हमेशा महिलाओं से घिरे रहते हैं। लेकिन इसके बाद भी गायत्री देवी ने किसी की एक न सुनी।

ऐसे बनीं जयपुर की महारानी…

दोनों एक दूसरे के प्यार में ऐसे खोए थे कि घरवालों की परवाह न करते हुए, साल 1940 में, एक-दूसरे से शादी के बंधन में बंध गए। और इसी तरह राजकुमारी गायत्री बनीं जयपुर की महारानी गायत्री देवी। गायत्री देवी के परिवार के विरोध के बावजूद इनकी शादी उस जमाने की सबसे महंगी शादियों में से थी। शादी तो हो गई, लेकिन अब यहां महारानी गायत्री को पर्दा प्रथा का सामना करना पड़ रहा था, लेकिन हमेशा से सशक्त और खुले विचारों वाली महिलाओं के साथ रहने वाली गायत्री देवी भी अपनी मां की तरह ही, काफी दमदार थीं। उन्होंने ठान लिया था कि वे इस प्रथा को नहीं स्वीकारेंगी। ऐसे में भला कैसे उनसे कोई पर्दा करवा सकता था, लेकिन राजघराने को यह बात खटक रही थी। अंत में सबको मानना ही पड़ा और इस तरह धीरे-धीरे गायत्री देवी ने समाज सुधार के लिए कई काम किए।

राजा मान सिंह II की मृत्यु की बाद भी वह समाज सुधार के लिए काम करती रहीं। उन्होंने जयपुर में लड़कियों के लिए स्कूल भी खुलवाया। महारानी गायत्री देवी ने साल 2009 में 90 वर्ष की उम्र में जयपुर में अंतिम सांस ली। महारानी गायत्री देवी और राजा मान सिंह II की प्रेम कहानी कई उतार-चढ़ावों से भरी रही, लेकिन साथ ही बेहद खूबसूरत भी है, जिसके जिक्र आज भी लोग करते हैं।

ऐसे शुरु हुई थी सलीम और अनारकली की प्रेम,अकबर क्यू बना प्रेम कहानी के विलेन जाने

एक दिन अपने पिता और बादशाह के दरबार में सलीम की नजर एक लड़की पर पड़ी जिसका नाम अनारकली था। उसके रूप-रंग को देखकर शहजादे सलीम उसके दीवाने हो गए। यहीं से शुरू होती है दोनों के प्यार की कहानी। ऐसा कहा जाता है कि अनारकली की खूबसूरती के चर्चे पूरे लाहौर में थे। जब इस बात का अकबर को पता चला तो उन्होंने अनारकली को अपने दरबार में बुलाया। इसके बाद जब अनारकली को दरबार में बुलाया गया तो अनारकली ने बहुत अच्छा नृत्य किया जिसके बाद दरबार में मौजूद सभी लोग अनारकली का नृत्य और उसकी सुंदरता देख कर आश्चर्यचकित रह गए। अकबर अनारकली के नृत्य से इतने खुश हुए कि उन्होंने अनारकली को अपने दरबार की नृतिका घोषित कर दिया। उस दिन से अनारकली का काम था शाही दरबार में लोगों के आगे नृत्य कर उनका मनोरंजन करना।

शहजादे सलीम को ऐसे हुए प्यार अनारकली से

अकबर के दरबार में अनारकली को नृत्य करता देख शहजादे सलीम को अनारकली से प्यार हो गया। वहीं, अनारकली भी खुद को सलीम से प्यार करने से नहीं रोक पाईं। इसके बाद धीरे-धीरे दोनों का प्यार नया मोड़ लेता गया। यहां तक के दोनों एक दूसर से छुुप-छुपकर मिलने लगे। दोनों जितनी बार दोनों एक दूसरे से मिलते उतनी बार उनका प्यार परवान चढ़ता। लंबे समय तक दोनों के बीच सब कुछ अच्छा चल रहा था तभी एक दिन बादशाह अकबर की दासी नूरजहां की नजर उन पर पड़ी। ऐसा कहा जाता है कि दासी नूरजहां को शहजादे सलीम से प्यार हो गया था। इसलिए वह बस ये चाहती थी कि सलीम बस उसे प्यार करे लेकिन शहजादे सलीम तो अनारकली के प्यार में डूबे हुए थे। और यही बात नूरजहां बरदाश नहीं कर पाई। जिसके बाद नूरजहां ने बादशाह को जाकर शहजादे सलीम और अनारकली के बारे में सब कुछ बता दिया।

अकबर बने प्रेम कहानी के विलेन

अकबर और उनके बेटे सलीम के बीच दरार का कारण बनी सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी। 

अकबर नहीं चाहते थे कि एक नाचने वाली से उनका बेटा शादी करे। इसलिए अकबर दोनों की प्रेम कहाने के बिल्कुल खिलाफ थे। ये बात हर पल अकबर को बार-बार खटक रही थी। क्योंकि अगर ऐसा हो जाता तो ये मुगल सलतनत के लिए बहुत शर्मनाक बात होती। इसलिए अकबर ने सलीम और अनाकरली को अलग करने की ठान ली थी।

इसके बाद अकबर ने सलीम को अनारकली को कभी न देखने की सलाह दी मगर सलीम का दिल नहीं माना। सलीम अनारकली के लिए अपने ही पिता के खिलाफ हो गए। सलीम को लगने लगा कि उनके पिता ही उनके प्यार के असली दुश्मन हैं। बात इतनी बिगड़ गई कि शहजादे सलीम ने अपने पिता के खिलाफ ही जंग का ऐलान कर दिया। इसके बाद पिता और बेटे में घमासन युद्ध हुआ मगर आखिरी में शहजादे सलीम अकबर की सेना के सामने हार गए। इसके बाद अकबर ने अपने ही बेटे को बंदी बना लिया।

कहा जाता है कि अकबर ने इसके बाद सलीम के आगे दो सुझाव रखे। एक या तो वह अनारकली को छोड़ दें वरना मौत को गले लगा लें। सलीम भी अपने प्यार के लिए मरने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन इससे पहले ही अनारकली सलीम के प्यार के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान करने को राजी हो जाती हैं।

इसके बाद अकबर ने अनारकली को सलीम के दिल और दिमाग से दूर करने के लिए उसी की आखों के सामने एक दीवार में अनारकली को जिंदा दफना दिया। यहां अनारकली को दीवार में दफनाने से शहजादे सलीम और अनारकली अलग-अलग तो हो गए। लेकिन इनकी प्रेम कहानी हमेशा के लिए अमर हो गई।

जाने कारगिल के दो महान वीर योद्धा के कहानी, जिसने सीने में खाई थी 17 गोली

शहीद जवान योगेंद्र यादव

करगिल युद्ध' में जवान योगेंद्र यादव की बहादुरी को कोई कैसे भूल सकता है. अपने सीने पर एक, दो नहीं, बल्कि 17 गोली खाकर भारत माता की रक्षा करने वाले योगेंद्र यादव के शौर्य ही कहानी रोंगटे खड़े कर देनी वाली है. महज 19 साल की उम्र में उन्होंने दुश्मनों को चारों खाने चित्त कर दिया. योगेंद्र यादव का जन्म 1 मई 1980 को हुआ था और वो साल 1996 में 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए. 1999 में वो शांदी के बंधन में बंधे. शादी के पांच महीने बाद उन्हें सीमा पर करगिल युद्ध की वजह से जाना पड़ा. योगेंद्र यादव को 7 सदस्यीय घातक प्लाटून का कमांडर बनाया गया.

उन्हें 3 जुलाई 1999 की रात को टाइगर हिल फतेह करने का टास्क दिया गया था. टाइगर हिल पर खड़ी चढ़ाई थी, बर्फ से ढका और पथरीला पहाड़ था. इसी बीच पाकिस्तानी सेना की ओर फायरिंग की जाने लगी. पाकिस्तान की ओर से भारतीय जवानों पर ग्रेनेड और रॉकेट से हमला किया गया. इस हमले में छह भारतीय जवान शहीद हो गए. योगेंद्र यादव को एक या दो नहीं, बल्कि 17 गोलियां लगी थी. साथियों की शहादत देखते हुए प्लाटून जहां थी, वहीं रूक गई.

इसके बाद, योगेंद्र यादव ने दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए हमला बोल दिया. योगेंद्र यादव साहस दिखाते हुए टाइगर हिल की तरफ बढ़ते चले गए. दुश्मनों ने उन पर हमला करना शुरू कर दिया था. दुश्मनों ने अपना हमला जारी रखा. लेकिन, योगेंद्र यादव ने हार नहीं मानी और उन्होंने जवाबी हमला करते हुए आठ पाकिस्तानी आतंकियों को मार गिराया. इसके बाद, टाइगर हिल पर भारत का तिरंगा फहराया. 17 गोली लगने के बाद वो कई महीनों तक जिंदगी और मौत से जंग लड़ते रहे. कई महीनों तक अस्पताल में रहने के बाद उन्हें भारत सरकार की ओर से परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.

कैप्टन विक्रम बत्रा

करगिल युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा जैसा युद्धा भारत ने खो दिया. देश की रक्षा करते हुए कैप्टन विक्रम बत्रा शहीद हो गए और लेकिन इतिहास में अमर गए. परमवीर कैप्टम विक्रम बत्रा ने प्वाइंट 4875 में सेना को लीड किया और पांच दुश्मनों सैनिकों को मार गिराया. घायल होने के बाद भी उन्होंने दुश्मन पर ग्रेनेड फेंके. ये जंग तो भारत जीत गया लेकिन कैप्टन विक्रम बत्रा वीरगति को प्राप्त हो गए. उन्होंने आज भी लोगों ने दिलों में याद रखा है और देश का शेरशाह कहते हैं.

कब और कैसे हुआ महाकाल मंदिर का निर्माण,जाने यहां

उज्जैन. शिव पुराण के अनुसार उज्जैन में बाबा महाकाल का मंदिर अतिप्राचीन है।

 मंदिर की स्थापना द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के पालनहार नंदजी की आठ पीढ़ी पूर्व हुई थी। बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक इस मंदिर में बाबा महाकाल दक्षिणमुखी होकर विराजमान हैं। 

मंदिर के शिखर के ठीक ऊपर से कर्क रेखा गुजरी है, इसलिए इसे पृथ्वी का नाभिस्थल भी माना जाता है।

ईसवी पूर्व छठी शताब्दी से धर्म ग्रंथों में उज्जैन के महाकाल मंदिर का उल्लेख मिलता आ रहा है। उज्जैन के राजा प्रद्योत के काल से लेकर ईसवी पूर्व दूसरी शताब्दी तक महाकाल मंदिर के अवशेष प्राप्त होते हैं। 

महाकालेश्वर मंदिर के प्राप्त संदर्भों के अनुसार ईसवी पूर्व छठी सदी में उज्जैन के राजा चंद्रप्रद्योत ने महाकाल परिसर की व्यवस्था के लिए अपने पुत्र कुमार संभव को नियुक्त किया था। दसवीं सदी के अंतिम दशकों में संपूर्ण मालवा पर परमार राजाओं का आधिपत्य हो गया। इस काल में रचित काव्य ग्रंथों में महाकाल मंदिर का सुंदर वर्णन आया है। 

11वीं सदी के आठवें दशक में गजनी सेनापति द्वारा किए गए आघात के बाद 11वीं सदी के उत्तरार्ध व 12वीं सदी के पूर्वाद्र्ध में उदयादित्य एवं नरवर्मा के शासनकाल में मंदिर का पुनर्निमाण हुआ। 123४-35 में सुल्तान इल्तुमिश ने पुन: आक्रमण कर महाकालेश्वर मंदिर को ध्वस्त कर दिया किंतु मंदिर का धार्मिक महत्व बना रहा।

ग्रंथों में उल्लेख

14वीं व 15वीं सदी के ग्रंथों में महाकाल का उल्लेख मिलता है। 

18वीं सदी के चौथे दशक में मराठा राजाओं का मालवा पर आधिपत्य हो गया। पेशवा बाजीराव प्रथम ने उज्जैन का प्रशासन अपने विश्वस्त सरदार राणौजी शिंदे को सौंपा। राणौजी के दीवान थे सुखटंकर रामचंद्र बाबा शैणवी।

 इन्होंने ही 18वीं सदी के चौथे-पांचवें दशक में मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। वर्तमान में जो महाकाल मंदिर स्थित है उसका निर्माण राणौजी शिंदे ने ही करवाया है। वर्तमान में महाकाल ज्योतिर्लिंग मंदिर के सबसे नीचे के भाग में प्रतिष्ठित है।

 मध्य के भाग में ओंकारेश्वर का शिवलिंग है तथा सबसे ऊपर वाले भाग पर साल में सिर्फ एक बार नागपंचमी पर खुलने वाला नागचंद्रेश्वर मंदिर है। 

महाकाल का यह मंदिर भूमिज, चालुक्य एवं मराठा शैलियों का अद्भूत समन्वय है। मंदिर के 118 शिखर स्वर्ण मंडित हैं, जिससे महाकाल मंदिर का वैभव और अधिक बढ़ गया है।

आइए जानते है अकबर की जीवनी ,धार्मिक नीति,शासनकाल का इतिहास के बारे में

अकबर को भारत का सबसे महान मुगल सम्राट माना जाता है। अकबर का पूरा नाम अबू अल-फतह जलाल अल-दीन मुहम्मद अकबर है। उनका जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को उमरकोट में हुआ था, जो अब पाकिस्तान के सिंध प्रांत में है और उनकी मृत्यु 25 अक्टूबर, 1605 को आगरा, भारत में हुई थी। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में मुगल सत्ता का विस्तार किया और उन्होंने 1556 से 1605 तक शासन किया। उन्हें हमेशा लोगों का राजा माना जाता था क्योंकि वे अपने लोगों की बात सुनते थे। अपने साम्राज्य में एकता बनाए रखने के लिए, अकबर ने कई कार्यक्रम अपनाए जिससे उनके राज्य में गैर-मुस्लिम आबादी की वफादारी जीतने में मदद मिली। उन्होंने सुनिश्चित किया कि उनके राज्य के केंद्रीय प्रशासन में सुधार और मजबूती आए। 

अकबर ने अपनी वित्तीय प्रणाली के केंद्रीकरण पर भी ध्यान केंद्रित किया और कर-संग्रह प्रक्रिया को पुनर्गठित किया। अकबर ने इस्लाम को अपना धर्म माना लेकिन वह अन्य लोगों और उनके धर्मों के प्रति अत्यधिक सम्मान रखता था। वह अन्य धर्मों को समझने में गहरी दिलचस्पी लेता था और हिंदू, पारसी, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम जैसे धर्मों के विभिन्न धार्मिक विद्वानों से अपने सामने धार्मिक चर्चा करने के लिए कहता था। अकबर अनपढ़ था और उसने हमेशा कला को प्रोत्साहित किया और उन लोगों का सम्मान किया जो उसे नई चीजें सिखा सकते थे और यही कारण है कि उसके दरबार को संस्कृतियों का केंद्र माना जाता था क्योंकि वह विभिन्न विद्वानों, कवियों, कलाकारों आदि को अपने सामने अपनी कला दिखाने के लिए प्रोत्साहित करता था। 

अकबर का इतिहासअकबर महान को अबू अल-फतह जलाल अल-दीन मुहम्मद के नाम से भी जाना जाता है। अकबर तुर्क, ईरानी और मुगल वंश से थे। चंगेज खान और तैमूर लंग को अकबर का पूर्वज माना जाता है। हुमायूं अकबर के पिता थे, जो भारतीय उपमहाद्वीप में मुगल क्षेत्रों के शासक के रूप में दिल्ली की गद्दी पर बैठे थे। वह 22 साल की उम्र में सत्ता में आए और इस वजह से वह बहुत अनुभवहीन थे। 

दिसंबर 1530 में हुमायूं अपने पिता के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में मुगल क्षेत्रों के शासक के रूप में दिल्ली की गद्दी पर बैठे। हुमायूं जब 22 साल की उम्र में सत्ता में आए थे, तब वे एक अनुभवहीन शासक थे। शेर शाह सूरी ने हुमायूं को हराया और कई मुगल क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया। हुमायूं फारस चले गए और लगभग 10 साल तक राजनीतिक शरण ली और 15 साल बाद खोए हुए मुगल क्षेत्रों को वापस पाने के लिए वापस लौटे। 

हुमायूं ने 1555 में गद्दी फिर से हासिल की, लेकिन उसके राज्य में कोई अधिकार नहीं था। हुमायूं ने अपने मुग़ल क्षेत्रों का और विस्तार किया और फिर एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई और 1556 में वह अपने बेटे अकबर के लिए एक बड़ी विरासत छोड़ गया। 13 साल की उम्र में अकबर को पंजाब क्षेत्र का गवर्नर बनाया गया था। हुमायूं ने सम्राट के रूप में अपना अधिकार स्थापित किया ही था कि 1556 में उसकी मृत्यु हो गई, जिसके कारण कई अन्य शासकों ने इसे मुग़ल वंश पर कब्ज़ा करने की संभावना के रूप में देखा। जिसके परिणामस्वरूप मुग़ल साम्राज्य के कई राज्यपालों ने कई महत्वपूर्ण स्थान खो दिए। दिल्ली पर भी हेमू ने कब्ज़ा कर लिया, जो एक हिंदू मंत्री था और उसने खुद के लिए गद्दी का दावा किया। 

लेकिन युवा सम्राट के संरक्षक बैरम खान के मार्गदर्शन में, 5 नवंबर 1556 को मुगल सेना ने पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू को हरा दिया और दिल्ली पर पुनः कब्जा कर लिया, जिससे अकबर का उत्तराधिकार सुनिश्चित हो गया। 

अकबर की पत्नी: अकबर की छह पत्नियाँ थीं, उनकी पहली पत्नी का नाम राजकुमारी रुकैया सुल्तान बेगम था, जो उनकी चचेरी बहन भी थीं। उनकी दूसरी पत्नी अब्दुल्ला खान मुगल की बेटी बीबी खिएरा थीं। उनकी तीसरी पत्नी नूर-उद-दीन मुहम्मद मिर्ज़ा की बेटी सलीमा सुल्तान बेगम थीं। उनकी एक और पत्नी भक्करी बेगम थीं, जो भक्कर के सुल्तान महमूद की बेटी थीं। अकबर ने अजमेर के राजपूत शासक राजा भारमल की बेटी जोधा बाई से शादी की। उन्हें मरियम-उज़-ज़मानी के नाम से भी जाना जाता है। अरब शाह की बेटी कसीमा बानू बेगम भी अकर की पत्नी थीं। 

अकबर के बेटे : अकबर के अलग-अलग पत्नियों से पाँच बेटे थे। उनके पहले दो बेटे हसन और हुसैन थे और उनकी माँ बीबी आराम बख्श थी। दोनों की ही कम उम्र में किसी अज्ञात कारण से मृत्यु हो गई। अकबर के अन्य बेटे मुराद मिर्ज़ा, दानियाल मिर्ज़ा और जहाँगीर थे। अकबर का सबसे प्रिय बेटा दानियाल मिर्ज़ा था क्योंकि उसे भी अपने पिता की तरह कविता में गहरी रुचि थी। तीन बेटों में से, राजकुमार सलीम या जहाँगीर ने अकबर के बाद मुग़ल वंश के चौथे सम्राट के रूप में पदभार संभाला। 

अकबर की धार्मिक नीति

मुगल बादशाह अकबर अपनी धार्मिक नीतियों और उसके प्रति उदार विचारों के लिए जाने जाते थे। उन्होंने एक ऐसी नीति अपनाई जिससे विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच आपसी समझ बनाए रखने में मदद मिली। अकबर द्वारा शुरू की गई नीति में हर धर्म को सम्मान और समानता का दर्जा दिया गया। उन्होंने हमेशा विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच शांति और सद्भाव बनाए रखने की कोशिश की। उन्होंने 'दीन-ए-इलाही' नामक एक नए धर्म की भी स्थापना की जिसमें सभी धर्मों की सभी बातें समान थीं। अकबर के समय में धार्मिक सद्भाव के लिए उठाए गए मुख्य कदम सभी के साथ उनके धर्म की परवाह किए बिना समान व्यवहार करना था। 

अकबर ने अपने पूर्ववर्तियों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अन्याय को देखा और उन्होंने उन सभी को हल किया जैसे हिंदुओं पर करों को समाप्त करना, हिंदुओं को उच्च पदों पर नियुक्त करना, हिंदू परिवारों के साथ गठबंधन करना और सबसे महत्वपूर्ण रूप से सभी को पूजा की स्वतंत्रता देना। 

अकबर की धार्मिक नीतियों के कारण विभिन्न धर्मों के लोगों ने उस पर भरोसा किया और उसे सच्चे दिल से अपना राजा माना। धार्मिक नीतियों का प्रभाव बहुत बड़ा था और इसने साम्राज्य को मजबूत होने में मदद की। सांस्कृतिक एकता उभरी और विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच सद्भावना का माहौल विकसित हुआ। अकबर को सभी लोगों ने राष्ट्रीय राजा के रूप में भी मान्यता दी।

अकबर का शासनकाल

1560 में बयराम खान के सेवानिवृत्त होने के बाद, अकबर ने अपने दम पर शासन करना शुरू कर दिया। अकबर ने सबसे पहले मालवा पर हमला किया और 1561 में उस पर कब्ज़ा कर लिया। 1562 में, अजमेर के राजा बिहारी मल ने अकबर को अपनी बेटी की शादी का प्रस्ताव दिया और अकबर ने इसे स्वीकार कर लिया और इसे पूर्ण समर्पण का संकेत माना गया। अकबर ने अन्य राजपूत सरदारों की तरह ही सामंती व्यवस्था का पालन किया। उन्हें अपने पूर्वजों के क्षेत्रों को इस शर्त पर रखने की अनुमति थी कि वे अकबर को अपना सम्राट स्वीकार करेंगे।

अकबर ने राजपूतों के साथ अपने गठबंधन को मजबूत करने के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपने सैनिकों को युद्ध लड़ने के लिए आपूर्ति की और उन्हें श्रद्धांजलि दी। अकबर ने उन लोगों पर कोई दया नहीं दिखाई जिन्होंने उसे अपना सम्राट मानने से इनकार कर दिया और उसकी सर्वोच्चता को स्वीकार कर लिया। मेवाड़ से लड़ते हुए, 1568 में अकबर ने चित्तौड़ के किले पर कब्जा कर लिया और उसके निवासियों को मार डाला। चित्तौड़ के पतन ने कई राजपूत शासकों को अकबर की सर्वोच्चता के खिलाफ आत्मसमर्पण करने और 1570 में उसे अपना सम्राट स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया।

1573 में अकबर ने गुजरात पर विजय प्राप्त की। यह कई बंदरगाहों वाला क्षेत्र था जो पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार करने में बहुत सफल था। गुजरात पर विजय प्राप्त करने के बाद, अकबर की नज़र बंगाल पर थी, जो नदियों का जाल था। बंगाल के अफ़गान शासकों ने 1575 में अकबर के वर्चस्व के आगे आत्मसमर्पण करने का फैसला किया।

अपने शासनकाल के आखिरी दौर में अकबर ने 1586 में कश्मीर, 1591 में सिंध और 1595 में अफ़गानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया। उत्तर को पूरी तरह से जीतने के बाद, मुग़लों ने दक्षिण पर नज़रें गड़ा दीं। 1601 में खानदेश, अहमदनगर और बरार का कुछ हिस्सा अकबर के साम्राज्य में शामिल हो गया। अपने पूरे शासनकाल में अकबर ने भारतीय उपमहाद्वीप के दो-तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था। 

आखिर क्या है भारत में हीरे के खदानों का इतिहास, जानें यहां

हम सभी को हीरे बहुत पसंद होते हैं। लेकिन कभी सोचा है कि ये कहां से आए? इस खूबसूरत कीमती धातु की उत्पत्ति भारत में हुई है। हां, इतना ही नहीं, हमारा देश 17वीं शताब्दी तक इसका एकमात्र उत्पादक और 18वीं शताब्दी तक प्रमुख उत्पादक बना रहा।  

हीरे की उत्पत्ति 

सबसे पहले हीरे चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में पाए गए थे और सबसे पहले हीरे का उत्पादन करने वाली खदानें गोदावरी डेल्टा क्षेत्र में थीं (जैसा कि आज जाना जाता है)। आपको यह जानकर खुशी होगी कि 1730 के दशक तक, भारत दुनिया का हीरों का एकमात्र ज्ञात स्रोत था। हीरे को आभूषण के रूप में पहना जाता था, काटने के औजार के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, बुराई को दूर भगाने के लिए ताबीज के रूप में इस्तेमाल किया जाता था और यहाँ तक कि युद्ध में भी रक्षा करने वाला माना जाता था। 

हीरे यूरोप कैसे पहुंचे? 

हालांकि, पश्चिम को इस गुप्त कीमती धातु के बारे में पता चलने में बहुत देर नहीं हुई थी। जब प्राचीन यूनानी राजा सिकंदर महान ने 327 ईसा पूर्व में उत्तर भारत पर आक्रमण किया, तो वह कुछ हीरे वापस यूरोप ले गया। लेकिन फिर भी, भारत हीरे का दुनिया का प्रमुख स्रोत - और लगभग एकमात्र स्रोत - बना रहा जब तक कि 1726 में ब्राजील में और बाद में 1870 में अफ्रीका में हीरे की खोज नहीं हुई। फिर, जब इंग्लैंड ने 1850 के दशक में भारत को उपनिवेश बनाया, तो उन्होंने भारतीय मंदिरों और शाही राजवंशों को लूट लिया और भारी मात्रा में हीरे इंग्लैंड ले गए। इंग्लैंड से हीरे फ्रांस, स्पेन, इटली और अन्य यूरोपीय देशों को बेचे गए। वास्तव में, इतिहास के सबसे बड़े हीरों में से एक, कोहिनूर, जिसे 1304 में भारत में खनन किया गया था, अंग्रेजों द्वारा चुरा लिया गया था 

हीरा खनन आज  

आज, हीरे का खनन जारी है, हालांकि आपूर्ति बहुत ज़्यादा नहीं है। भंडार और खनन ज़्यादातर मध्य प्रदेश में मुख्य रूप से पन्ना क्षेत्र के आसपास केंद्रित है, इसके बाद आंध्र प्रदेश और छत्तीसगढ़ में बहुत कम है।  

लेकिन हीरे की कटाई और पॉलिशिंग में भारत का अभी भी एकाधिकार है। दरअसल, दुनिया के 92 प्रतिशत हीरे भारत में काटे और पॉलिश किए जाते हैं, जिनमें से ज़्यादातर गुजरात के सूरत शहर में काटे और पॉलिश किए जाते हैं।  

वर्तमान में उत्पादन के मामले में रूस और बोत्सवाना विश्व में सबसे आगे हैं, इसके बाद ऑस्ट्रेलिया, कांगो, कनाडा, अंगोला और दक्षिण अफ्रीका का स्थान है।  

हीरा खनन की प्रक्रिया 

लेकिन आपको बता दें कि हीरे की खुदाई करना वाकई बहुत मुश्किल है। हीरे को पाना बिल्कुल भी आसान नहीं है और एक व्यक्ति को हीरे का एक छोटा सा टुकड़ा भी खोजने में पूरी ज़िंदगी लग सकती है।  

इस प्रक्रिया को कठिन बनाने वाली बात यह है कि भारत में अधिकांश खदानें खुली खदानें हैं, जिनमें पारंपरिक तकनीक और हाथ के औजारों का इस्तेमाल होता है। भारत में पन्ना क्षेत्र में केवल कुछ खदानें ही मशीनीकृत हैं (मशीनों का उपयोग करके खनन)।  

छोटी खुली खदानों में प्रक्रिया में चार चरण शामिल हैं - खुदाई, छोटे पत्थरों के साथ मिश्रित मिट्टी को इकट्ठा करना, मिट्टी को बहुत सारे पानी से धोना और उन छोटे पत्थरों से हीरे ढूंढना। यह एक बहुत ही कठिन प्रक्रिया है और इसके बाद भी, सफलता की गारंटी नहीं है। 

साथ ही, ओपनकास्ट खदानें छोटे और बड़े गड्ढों से भरी हुई जगह हैं जहाँ कुछ गड्ढे इतने गहरे हैं कि अगर कोई उनमें गिर जाए तो घातक दुर्घटना या गंभीर चोट लग सकती है।

वह कौन महिला थी जिसने एक वार में बाघ को मार गिराया,जाने पुरी कहानी

मिजोरम के स्टेट म्यूजियम में आने वाले लोगों को सामने एक विशाल बाघ की ममी नजर आती है। इस बाघ की ममी देखने में बहुत भयावह लगती है। उसे एक नजर देखने पर लगता है, मानों बाघ जिंदा सामने खड़ा हो। हमेशा से यह बाघ लोगों के लिए आकर्षण का केंद्र रहा है। आपको जानकार हैरानी होगी कि इस बाघ का शिकार एक महिला ने 46 साल पहले किया था।

 लालजाडिंगी नाम की महिला के खूब चर्चे थे। उन्हें शौर्य चक्र भी दिया गया था। अब लालजाडिंगी ने 72 साल की उम्र में दम तोड़ दिया है। वह लंबे समय तक कैंसर से पीड़ित रहीं।

संग्रहालय के एक अधिकारी ने कहा कि संग्रहालय के बाघ ने हमेशा आगंतुकों, खासकर बच्चों का ध्यान खींचा है। लेकिन जिस व्यक्ति ने संग्रहालय में बाघ को शामिल किया, वह लोगों की यादों से ओझल हो गया।

तब 26 साल थी उम्र

लालजाडिंगी के परिवार में उनके पति, चार बच्चे और पोते-पोतियां हैं। वह सिर्फ 26 साल की थीं, जब उनके गांव से कुछ ही दूर जंगल में जंगली बिल्ली से उनकी अप्रत्याशित मुठभेड़ हुई। लालजाडिंगी ने उस घटना का जिक्र करते हुए बताया था, 'मैं लकड़ी चीर रही थी, तभी मैंने पास की झाड़ी के पीछे से एक असामान्य आवाज सुनी। मुझे लगा कि यह जंगली सूअर हो सकता है। मैंने अपने दोस्तों को धीमी आवाज में बुलाया, लेकिन किसी ने मेरी आवाज नहीं सुनी।'

बाघ आया सामने

लालजादिंगी को डर तब लगा जब अचानक झाड़ी के पीछे से एक बड़ा बाघ दिखाई दिया। 'बाघ मेरे करीब आ गया। मुझे सोचने का समय नहीं मिला। मैंने अपनी कुल्हाड़ी उठाई और जानवर के माथे पर वार किया। मैं भाग्यशाली थी कि बाघ एक ही वार में मर गया। अगर मैंने उसके शरीर के किसी दूसरे हिस्से पर वार किया होता, तो बाघ मुझे दूसरा मौका नहीं देता।'

बाघ को मारना ही था विकल्प

लालजाडिंगी ने कहा था कि जब वह जानवर के सामने आया तो उसके दिमाग में केवल अपने बच्चों की सुरक्षा थी। उन्होंने कहा, 'जब बाघ मेरे पास आया तो मेरे दिमाग में मेरे दो छोटे बच्चे, जिनमें से छोटा सिर्फ़ तीन महीने का था, आए। मेरे पास कोई विकल्प नहीं था। मुझे उसे मारना था, इससे पहले कि वह मुझे मार डाले।'

1980 में मिला शौर्य चक्र

बाघ के मारे जाने के बाद, उसे पता चला कि उसकी सहेलियां उसके पास आने की हिम्मत नहीं कर रही थीं क्योंकि वे बाघ के बारे में सुनकर डर से कांप रहे थे। लालजादिंगी को 1980 में भारत सरकार ने उनकी

 बहादुरी के लिए शौर्य चक्र से सम्मानित किया गया था। उन्हें नई दिल्ली में तत्कालीन राष्ट्रपति नीलम संजीव रेड्डी से यह पुरस्कार मिला। उस समय एक युवती के एक खूंखार जानवर को सिर्फ़ एक कुल्हाड़ी से मारना एक असाधारण कहानी थी, और यह मिज़ोरम की सीमाओं से बाहर भी पहुंची। वह एकमात्र मिज़ो महिला है, और शायद भारत की एकमात्र महिला है, जिसने बंगाल टाइगर को कुल्हाड़ी से मारा है।

कैसे शुरु हुई थी पृथ्वीराज चौहान और रानी संयोगिता की प्रेम कहानी, जानें यहां

कौन थीं रानी संयोगिता

पृथ्वी राज चौहान के बारे में तो ज्यादातर लोग जानते हैं, मगर संयोगिता के बार में इतिहास ज्यादा जानकारी नहीं दी गई है। आपको बता दें कि संयोगिता कन्नौज के राजा जयचंद की बेटी थीं, जिनकी खूबसूरती के चर्चे दूर-दूर तक हुआ करते थे। उन्हें बचपन में कान्तिमती और संजुक्ता जैसे नामों से भी बुलाया जाता था।

मोहब्बत की शुरुआत

माना जाता है कि एक बार राजा जयचंद के दरबार में नामी चित्रकार आया था। वह चित्रकार अपने साथ कई राजाओं और रानियों की तस्वीरें लेकर आया था। उन्हीं चित्रों में एक चित्र पृथ्वीराज चौहान का भी था। तस्वीर देखते ही संयोगिता अपना दिल हार बैठीं। इसके बाद जब उस चित्रकार ने संयोगिता का चित्र पृथ्वीराज चौहान को दिखाया, तो उन्हें भी संयोगिता से प्यार हो गाया। इस तरह मात्र एक तस्वीर देखकर दोनों एक-दूसरे को दिल दे बैठे

संयोगिता के पिता को पृथ्वीराज चौहान थे नापसंद

हर प्रेम कहानी में एक विलन जरूर होता है, इस कहानी के विलेन राजकुमारी के पिता राजा जयचंद थे। जहां संयोगिता पृथ्वीराज चौहान पर अपना दिल हार बैठीं थीं, वहीं राज जयचंद उनसे नफरत करते थे। जिस वक्त पृथ्वीराज चौहान दिल्ली में शासन कर रहे थे उस दौर में राजकुमारी संयोगिता का स्वयंवर आयोजित किया गया। इस स्वयंवर में अलग-अलग राज्यों के राजाओं और राजकुमारों को बुलाया गया।

पृथ्वी चौहान को यह निमंत्रण मिला, मगर उनके सामंतो को इस बात में गड़बड़ी महसूस हुई। जिस कारण पृथ्वीराज ने इस निमंत्रण को अस्वीकरा कर दिया। पृथ्वीराज के इस रावइए ने राजा को आग बबूला कर दिया, जिसके बाद जयचंद ने यज्ञ मंडप के दरवाजे पर पृथ्वीराज चौहान की मूर्ति बनावाई और उसे द्वारपाल के रूप में लगवा दिया। अपने इस फैसले के जरिए राजा जयचंद पृथ्वीराज को नीचा दिखाना चाहते हैं, लेकिन इसके वह हुआ जिसकी उम्मीद किसी को भी नहीं थी।

अफगान आक्रमणकारी की वजह से बनी यह प्रेम कहानी-

माना जाता है कि राजा जयचंद हमेशा से ही पृथ्वीराज चौहान से दुश्मनी रखते थे। जिस कारण उनसे बदला लेने के लिए राजा ने अफगान के मुस्लिम शासक मोहम्मद गोरी को पृथ्वीराज चौहान पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया था। इतिहास में हम पाते हैं कि मोहम्मद गौरी और पृथ्वीराज चौहान के बीच 17 युद्ध होते हैं। जिनमें 16 बार युद्ध में गोरी को हार का सामना करना पड़ता है, वहीं 17वें युद्ध में गोरी जीत जाता है और राजा पृथ्वीराज चौहान को बंदी बना लेता है। लेकिन अपनी सूझबूझ की मदद से पृथ्वीराज चौहान गोरी की हत्या करने में कामयाब होते हैं।तो यह थी पृथ्वीराज चौहान और संयोगिता की अमर प्रेम कहानी।

आइए जानते हैं मिर्जा और साहिबा की प्रेम कहानी और आख़िर साहिबा ने क्यों तोड़ी मिर्जा के तीर ?

दानाबाद गांव में पैदा हुए खरल कबीले के एक लड़के मिर्ज़ा और उसके मामा की बेटी साहिबा की. मिर्ज़ा बचपने से ही अपने मामा के यहां रहता था. मिर्ज़ा और साहिबा बचपन से एक दूसरे के साथ खेल कूद कर बड़े हुए. बचपन का ये साथ जवानी तक पहुंचते पहुंचते मोहब्बत में बदल गया था. 

शायद मिर्ज़ा साहिबा एक हो जाते अगर घर के बेटों का दखल इसमें ना बढ़ता तो. वंजल खान इस रिश्ते को अपना सकता था लेकिन साहिबा के भाई शमीर को ये रिश्ता किसी कीमत पर मंज़ूर नहीं था. एक तरफ जहां मिर्ज़ा को अपनी महब्बत सबसे बड़ी लगती थी वहीं दूसरी तरफ शमीर मानता था कि उसका अपनी बहन के लिए प्यार तथा परिवार की इज्जत मिर्ज़ा की मोहब्बत पर भारी पड़ेगी. 

शमीर ने जैसे तैसे मिर्ज़ा को उसके गांव दानाबाद भेज दिया और इधर साहिबा की शादी कहीं और तय कर दी. इस बात का पता जब मिर्ज़ा को लगा तो उसने जोश में आकर अपना घोड़ा तैयार कर लिया और निकल पड़ा साहिबा को अपनी बनाने. मिर्ज़ा साहिबा को भगाने में कामयाब हो गया. दोनों काफी दूर निकल आए थे. 

मिर्ज़ा रास्ते में एक जगह आराम करने के लिए रुका. एक पेड़ की छांव में साहिबा के साथ सुकून से बैठा मिर्ज़ा कुछ देर के लिए सो गया. इस बीच साहिबा ने अपने भाइयों को बचाने के लिए मिर्ज़ा के तीर तोड़ दिए. दरअसल वो मिर्ज़ा की ताकत को जानती थी. उसे पता है कि उसके तीरों के सामने उसके भाई नहीं टिकेंगे। दूसरी ओर उसे विश्वास था कि वो अपने भाइयों को मना लेगी।  

इतनी ही देर में मिर्जा को चारों तरफ से घेर लिया गया. मिर्ज़ा अपने तीर खोजता रहा मगर सारे तीर टूटे चुके थे. वो समझ गया कि ये साहिबा का किया है. इधर मिर्जा मौत के घाट उतार दिया गया. साहिबा उसकी मौत को बर्दाश्त नहीं कर सकी तथा उसने खुद को मार लिया. साहिबा बेवफा नहीं थी बस वो सही गलत तय ना कर पाई. उसे मिर्ज़ा और अपने भाइयों दोनों से प्यार था

आइए जानते हैं चन्द्रगुप्त मौर्य के इतिहास,और क्या था चन्द्रगुप्त मौर्य का प्रारंभिक जीवन

चंद्रगुप्त मौर्य को भारत का पहला सम्राट माना जाता है। उनका जन्म 340 ईसा पूर्व में हुआ था और वे अपने पिता बिंदुसार की मृत्यु के बाद 321 ईसा पूर्व में सिंहासन पर बैठे थे।

चंद्रगुप्त मौर्य (लगभग 340-297 ईसा पूर्व) ने मौर्य साम्राज्य का निर्माण किया, जो तेजी से पूरे भारत और आधुनिक पाकिस्तान में फैल गया। चंद्रगुप्त के जीवन और उपलब्धियों का वर्णन प्राचीन ग्रीक, हिंदू, बौद्ध और जैन स्रोतों में मिलता है, लेकिन उनमें बहुत अंतर है।

चंद्रगुप्त मौर्य भारतीय इतिहास में एक महत्वपूर्ण व्यक्ति थे, जिन्होंने देश के बहुसंख्यकों को एकजुट करने वाले पहले साम्राज्य की नींव रखी। चाणक्य के निर्देशन में, चंद्रगुप्त ने शासन कला के आदर्शों पर आधारित एक नया साम्राज्य बनाया, एक विशाल सेना बनाई और अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार करना जारी रखा, जब तक कि अपने अंतिम वर्षों में उन्होंने इसे त्याग कर एक कठोर जीवन नहीं अपना लिया।

चन्द्रगुप्त मौर्य इतिहास- प्रारंभिक जीवन

ऐसा माना जाता है कि चन्द्रगुप्त मौर्य का जन्म लगभग 340 ईसा पूर्व पटना (आधुनिक बिहार, भारत) में हुआ था। 

कुछ ग्रंथों से पता चलता है कि चंद्रगुप्त के माता-पिता दोनों क्षत्रिय (योद्धा या राजकुमार) जाति के सदस्य थे। इसके विपरीत, अन्य लोग दावा करते हैं कि उनके पिता एक राजा थे और उनकी माँ एक शूद्र (नंदा साम्राज्य की सेवा सर्वार्थसिद्धि) थीं, जो चंद्रगुप्त मौर्य के पिता थे। 

चन्द्रगुप्त के पौत्र अशोक महान ने अंततः सिद्धार्थ गौतम बुद्ध के साथ रक्त संबंध का दावा किया, लेकिन यह दावा कभी सिद्ध नहीं हुआ।

चन्द्रगुप्त मौर्य इतिहास- मौर्य साम्राज्य

चन्द्रगुप्त मौर्य ने नंद वंश को नष्ट कर दिया, 322 ईसा पूर्व में मौर्य साम्राज्य का गठन किया और चाणक्य के समर्थन से तेजी से मध्य और पश्चिमी भारत में अपना प्रभाव बढ़ाया। 

सिकंदर महान की सेना के पश्चिम की ओर पीछे हटने के कारण स्थानीय शक्ति में आई अशांति का फ़ायदा उठाते हुए उन्होंने आगे बढ़ना शुरू किया। 316 ईसा पूर्व तक, साम्राज्य ने उत्तर-पश्चिमी भारत पर पूरी तरह कब्ज़ा कर लिया था, सिकंदर के क्षत्रपों से युद्ध करके उन्हें जीत लिया था। 

सिकंदर की सेना में मेसीडोनियन जनरल सेल्यूकस प्रथम के नेतृत्व में अभियान को पीछे धकेल दिया गया, और चंद्रगुप्त ने सिंधु नदी के पश्चिम में अतिरिक्त भूमि हासिल कर ली।

मौर्य साम्राज्य विश्व के सबसे बड़े साम्राज्यों में से एक था।

उन्हें देश के छोटे-छोटे बिखरे हुए राज्यों को एकजुट कर एक विशाल साम्राज्य बनाने का श्रेय दिया जाता है। 

उनके शासन के दौरान, मौर्य साम्राज्य पूर्व में बंगाल और असम, पश्चिम में अफगानिस्तान और बलूचिस्तान, उत्तर में कश्मीर और नेपाल तथा दक्षिण में दक्कन के पठार तक फैला हुआ था।

चंद्रगुप्त मौर्य और उनके गुरु चाणक्य के कारण नंद साम्राज्य का अंत हो गया। 

चंद्रगुप्त मौर्य ने लगभग 23 साल के समृद्ध शासन के बाद सभी सांसारिक सुखों को त्याग दिया और जैन भिक्षु बन गए। कथित तौर पर उन्होंने 'सल्लेखना', यानी मृत्यु तक उपवास करने की प्रथा अपनाई और इसलिए स्वेच्छा से अपनी जान ले ली।

चन्द्रगुप्त मौर्य पत्नी

ज्ञात जैन ग्रंथों के अनुसार दुर्धरा चंद्रगुप्त मौर्य की पत्नी थी। जबकि दुर्धरा को लोकप्रिय संस्कृति में धना नंदा की बेटी के रूप में दर्शाया गया था, महावंश-टीका के अनुसार दुर्धरा चंद्रगुप्त की चचेरी बहन थी। वह चंद्रगुप्त के सबसे बड़े मामा की बेटी थी, जो चंद्रगुप्त की माँ के साथ पाटलियापुत्र की यात्रा पर गए थे। 

चंद्रगुप्त मौर्य की पत्नी दुर्धरा उनके इकलौते बेटे बिंदुसार की मां भी थीं, जो उनके उत्तराधिकारी और मौर्य साम्राज्य के दूसरे सम्राट बने। दूसरी ओर, दुर्धरा अपने बेटे को बड़ा होते देखने के लिए ज़्यादा समय तक जीवित नहीं रहीं, क्योंकि वह उसे देखने से पहले ही मर गईं।

परंपरा के अनुसार, प्रधानमंत्री चाणक्य को चिंता थी कि उनके विरोधी चंद्रगुप्त को ज़हर दे सकते हैं, इसलिए उन्होंने सहनशीलता बढ़ाने के लिए सम्राट के भोजन में थोड़ी मात्रा में ज़हर देना शुरू कर दिया। जब चंद्रगुप्त मौर्य की पत्नी दुर्धरा अपने पहले बच्चे के साथ गर्भवती थी, तो वह साजिश से अनजान था और उसने अपने भोजन का कुछ हिस्सा उसके साथ साझा किया। दुर्धरा की मृत्यु हो गई, लेकिन चाणक्य समय पर पहुंचे और पूर्ण अवधि के बच्चे को निकालने के लिए आपातकालीन ऑपरेशन किया। बिंदुसार बच गया, लेकिन उसकी माँ के ज़हरीले खून की एक बूंद उसके माथे पर गिर गई, जिससे एक नीला बिंदु बन गया - जो उसके नाम की प्रेरणा है।

चंद्रगुप्त मौर्य की पत्नी की मृत्यु हो गई, और वे अपने पीछे एक महान शासक छोड़ गए। उनकी बाद की पत्नियाँ और बच्चे शायद ही किसी से अनजान हों। चंद्रगुप्त के बेटे बिंदुसार को उनके शासन से ज़्यादा उनके बेटे के लिए याद किया जाएगा।

चन्द्रगुप्त मौर्य पुत्र

चन्द्रगुप्त मौर्य के पुत्र बिन्दुसार थे। बिन्दुसार, जिन्हें बिन्दुसार मौर्य के नाम से भी जाना जाता है, दूसरे मौर्य सम्राट थे जिन्होंने 297 ईसा पूर्व में गद्दी संभाली थी। वे एक यूनानी अमित्रोचेट्स (जन्म लगभग 320 ईसा पूर्व - मृत्यु 272/3 ईसा पूर्व) थे। यूनानी स्रोतों के अनुसार, उन्हें अमित्रोचेट्स के नाम से जाना जाता था, जो संस्कृत शब्द अमित्रघात से लिया गया है, जिसका अर्थ है "विरोधियों का नाश करने वाला।" दक्कन में उनके विजयी अभियान ने शायद इस नाम को प्रेरित किया हो। बिन्दुसार के पिता और मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चन्द्रगुप्त ने पहले ही उत्तरी भारत पर विजय प्राप्त कर ली थी। बिन्दुसार का अभियान वर्तमान कर्नाटक के आसपास समाप्त हुआ, संभवतः इसलिए क्योंकि सुदूर दक्षिण में शासन करने वाले चोल, पांड्य और चेर के मौर्यों के साथ मजबूत संबंध थे। बिन्दुसार की मृत्यु के बाद, उनके बेटों ने उत्तराधिकार युद्ध लड़ा, जिसमें कई वर्षों की लड़ाई के बाद अशोक विजयी हुए।

चंद्रगुप्त ने एक राजवंश की स्थापना की जिसने 185 ईसा पूर्व तक भारत और मध्य एशिया के दक्षिणी भाग पर शासन किया। कई पहलुओं में, चंद्रगुप्त मौर्य की पत्नी का उल्लेख किसी भी स्तंभ या उन स्थानों पर नहीं किया गया है जहाँ उन्होंने अपने परिवार का वर्णन किया है। बिंदुसार चंद्रगुप्त मौर्य का पुत्र था, जो दूसरा मौर्य सम्राट बना। निस्संदेह, वह उस युग का एक महान शासक था। चंद्रगुप्त मौर्य का इतिहास बहादुरी की कहानियों और सम्मान से भरा है।