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मान्यता : इस मंदिर में गये बगैर अयोध्या में श्रीराम के दर्शन रह जाते हैं अधूरे


अयोध्या : सावन का पवित्र महीना चल रहा है और सावन के इस पवित्र महीने में शिव भक्त प्राचीन मठ-मंदिरों में जाकर शिवलिंग पर जलाभिषेक कर रहे हैं. तो वहीं मंदिर और मूर्तियों की नगरी अयोध्या में भी प्रभु राम से जुड़ा एक ऐसा शिव मंदिर है जिसकी महिमा अपरंपार है .

भगवान राम की जन्मस्थली में कई ऐसे गुप्त दिव्य स्थान है जिसे अधिकतर लोग नहीं जानते हैं. उन्हीं में से एक स्थान है नागेश्वरनाथ मंदिर. यह अयोध्या के उन महत्वपूर्ण धार्मिक स्थलों में से एक है जो पर्यटकों और श्रद्धालुओं के बीच उतना प्रसिद्ध नहीं है, लेकिन इसका धार्मिक और ऐतिहासिक महत्व अत्यधिक है. यह मंदिर भगवान शिव को समर्पित है।

इस मंदिर का निर्माण प्रभु राम के पुत्र कुश ने कराया था

पंडित कल्कि राम बताते हैं कि धार्मिक ग्रंथो के अनुसार कहा जाता है कि नागेश्वरनाथ मंदिर का निर्माण त्रेता युग में भगवान राम के पुत्र कुश ने करवाया था. पौराणिक मान्यता है कि एक बार भगवान राम के पुत्र कुश सरयू में स्नान कर रहे थे। 

उस वक्त उनकी बांह से कड़ा निकलकर सरयू में गिर गया. कुश ने उसे खूब तलाशा, लेकिन वह नहीं मिला। वह कड़ा सरयू में ही रहने वाले नागराज कुमुद को मिल गया, जिसे उन्होंने अपनी बेटी को दे दिया. जब कुश को इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने कुमुद से अपना कड़ा मांगा, लेकिन नागराज ने वह कड़ा देने से यह कहते हुए इनकार कर दिया और कहा कि बेटी को दिया गया उपहार वापस नहीं लिया जाता है. 

इस तर्क पर क्रोध से तिलमिलाए कुश ने धनुष उठा लिया और पृथ्वी से संपूर्ण नाग जाति का संहार करने के लिए आगे बढ़ गए. तब कुमुद ने भगवान शिव से प्रार्थना की. भगवान शिव प्रकट हुए और कुश को शांत करवाया.

मान्यता : नागेश्वरनाथ मंदिर में गये बगैर अयोध्या में श्रीराम के दर्शन अधूरे रह जाते हैं

पंडित कल्कि राम बताते हैं कि यहां विधि विधान के साथ भगवान शिव की पूजा अर्चना की जाती है. सावन और शिवरात्रि के दिन इस मंदिर में काफी भीड़ होती है. लाखों की संख्या में श्रद्धालु जुटते हैं. इसके अलावा अयोध्या में मंदिरों के दर्शन के लिए आने वाले श्रद्धालु भी इस मंदिर में जाते हैं. मान्यता कि इस मंदिर में गए बिना अयोध्या में श्रीराम के दर्शन अधूरे रह जाते हैं.

जयंती विशेष : इकलौते एक्टर जो सरकार से जीत गए थे केस, शूटिंग के सामान और लाइट उठाने का मिला था काम, फिल्म क्रांति के लिए बेच दिया था अपना बंगला


दिल्ली : मनोज कुमार, बॉलीवुड के वो महानायक जिन्होंने हिन्दी फिल्मों को एक से बढ़कर एक शानदार फिल्में दीं। मनोज पर्दे पर अपनी फिल्मों के जरिए लोगों को देशभक्ति की भावना को गहराई से एहसास कराया। मनोज कुमार को हिन्दी फिल्मों में एक देशभक्त एक्टर के चेहरे के तौर पर जाना जाता है। 

बताया जाता है कि एक्टर भगत सिंह से बेहद प्रभावित हैं और उन्होंने 'शहीद' जैसी देशभक्ति फिल्म में एक्टिंग की और कइयों के लिए प्रेरणा बन गए। हिन्दी सिनेमा में मनोज कुमार कई देशभक्ति फिल्मों में नजर आए। मनोज कुमार 24 जुलाई को अपना 87वां जन्मदिन मना रहे हैं। आज यहां सुना रहे हैं एक्टर का वो किस्सा, जब मनोज कुमार के 2 माह के भाई ने अस्पताल में ही दम तोड़ दिया था और मां को बचाने के लिए एक्टर ने नर्स और डॉक्टरों की लाठी से पिटाई शुरू कर दी थी। वहीं मनोज भारत के इकलौते फिल्ममेकर कहे जाते हैं जिन्होंने सरकार से केस जीता था।

नैशनल अवॉर्ड, दादा साहेब फाल्के, पद्मश्री अवॉर्ड और 8 फिल्मफेयर अवॉर्ड से सम्मानित हो चुके मनोज कुमार की शुरुआती जिंदगी सितारों वाली नहीं थी बल्कि उन्हें तो एहसास भी नहीं था कि उनका ये रास्ता उन्हें कहां ले जा रहा। 

मनोज कुमार का जन्म 24 जुलाई 1937 को एबटाबाद , ब्रिटिश इंडिया (अब खैबर पख्तूनख्वा, पाकिस्तान) में हुआ था। उनका असली नाम हरिकिशन गिरि गोस्वामी था। बताया जाता है कि उस समय मनोज केवल 10 साल के थे जब अपने 2 महीने के भाई को तड़प-तड़प कर दम तोड़ते देखा था।

2 महीने भाई तपड़ कर मर गया, मां दर्द से चिल्लाती थीं

दरअसल हुआ यूं कि छोटे भाई कुक्कू के जन्म के बाद मां और भाई दोनों को हॉस्पिटलाइज कराया गया था। उसी दौरान दंगा भड़का और हॉस्पिटल के स्टाफ जान बचाने के लिए भागने लगे थे। कहते हैं कि उसी अफरा-तफरी में इलाज न मिलने की वजह से नन्हे भाई ने दम तोड़ दिया। 

वहीं मां की हालत भी काफी खराब थी और वो तकलीफ की वजह से चिल्लाती रहती थीं। वहां कोई डॉक्टर या नर्स उनका इलाज करने नहीं पहुंचता। छोटी सी उम्र में अपनी आंखों के सामने ये सब होते देख आखिरकार मनोज एकदम परेशान हो गए। वो अब अपनी मां को भाई की तरह खोना नहीं चाहते थे। 

कहते हैं कि एक दिन परेशान होकर उन्होंने लाठी उठा ली और छिपे हुए डॉक्टरों और नर्सों को पीटना शुरू किया। जैसे-तैसे पिता ने उन्हें रोका और फिर उन्होंने परिवार की जान बचाने के लिए पाकिस्तान छोड़ने का फैसला ले लिया।

पाकिस्तान से आकर 2 महीने रिफ्यूजी कैंप में बिताए

यहां दिल्ली पहुंचकर उन्होंने 2 महीने रिफ्यूजी कैंप में बिताए और वक्त के साथ जब दंगे कम होने लगे तो वो लोग दिल्ली में बस गए और फिर मनोज की पढ़ाई-लिखाई शुरू हुई। हिंदू कॉलेज से ग्रैजुएशन की पढ़ाई के बाद उन्होंने नौकरी की तलाश शुरू कर दी।

लाइट और फिल्म शूटिंग में लगने वाले समान उठाने का मिला था काम

फिल्मों में आने का किस्सा भी काफी मजेदार है। कहते हैं कि एक बार वह काम की तलाश में फिल्म स्टूडियो में टहल रहे थे। उन्होंने उन्हें बताया कि वो काम ढूंढ रहे हैं। उन्हें यहां काम मिला लेकिन लाइट और फिल्म शूटिंग में लगने वाले जरूरी सामानों को उठाकर इधर से उधर रखना होता था। वो काम दिल लगाकर करते और फिर उन्हें फिल्मों में सहायक के रूप में काम दिया जाने लगा।

सेट पर लाइट चेक करने के लिए हीरो की जगह किया जाता था खड़ा

कई बार फिल्मों के सेट पर बड़े-बड़े कलाकार जब शॉट शुरू होने से बस थोड़ी ही देर पहले पहुंचते। सेट पर हीरो के ऊपर लाइट कैसे पड़ेगी इन चीजों को चेक करने के लिए मनोज कुमार को हीरो की जगह खड़ा किया जाता। एक दिन ऐसे ही वो खड़े थे और लाइट में उनका चेहरा इतना आकर्षक दिख रहा था कि डायरेक्टर ने उन्हें (1957 में आई फिल्म फैशन में) एक छोटा रोल ही दे दिया। यहीं से फिल्मों में उनका सफर शुरू हो गया। इसके बाद तो मनोज कुमार को बैक टु बैक फिल्में मिलने लगीं और एक जाना-पहचाना चेहरा बन गए।

मनोज कुमार ने इमरजेंसी का किया विरोध तो हुआ बड़ा नुकसान

यूं तो मनोज कुमार और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के बीच सबकुछ सही था, लेकिन जब इमरजेंसी की घोषणा हुई तो एक्टर ने इसका विरोध किया। बताया जाता है कि उन दिनों इमरजेंसी का विरोध करने वाले कई फिल्मी कलाकारों को बैन कर दिया गया, जिनमें मनोज कुमार की फिल्में भी थीं। उनकी फिल्म 'दस नंबरी' को फिल्म सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने बैन कर दिया था। इतना ही नहीं उनकी फिल्म 'शोर' सिनेमाघरों में रिलीज हुई (जिसका निर्देशन और इसे प्रडयूस भी किया और एक्टिंग भी की थी) भी नहीं हुई कि पहले ही दूरदर्शन पर दिखा दी गई और नतीजा ये हुआ कि जब फिल्म सिनेमाघरों में लगी तो दर्शक देखने ही नहीं पहुंचे और फिल्म फ्लॉप हो गई।

भारत के इकलौते एक्टर, सरकार से जीत गए थे केस

बताया जाता है कि जब सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय ने फिल्म 'शोर' को बैन कर दिया तो मनोज कुमार कोर्ट तक जा पहुंचे। कई हफ्तों तक कोर्ट के उन्होंने चक्कर लगाया और फैसला उनके ही पक्ष में आया। इसलिए कहा भी जाता है कि ये वो देश के इकलौते ऐसे फिल्ममेकर हैं जिन्होंने सरकार से केस जीता।

अमृता प्रीतम से पूछा- क्या आप बिक चुकी हैं?

रिपोर्ट्स के मुताबिक एक बार मनोज कुमार के पास 'इन्फॉर्मेशन एंड ब्रॉडकास्ट' की तरफ से फोन आया और पूछा गया कि क्या वो 'इमरजेंसी' पर बन रही डॉक्यूमेंट्री का निर्देशन करना चाहेंगे? कहते हैं कि मनोज ने साफ इनकार कर दिया। इतना ही नहीं, जब उन्हें पता चला कि इस डॉक्यूमेंट्री को कोई और नहीं बल्कि मशहूर राइटर अमृता प्रीतम लिख रही हैं तो उन्होंने तुरंत उन्हें फोन लगाकर ये भी पूछा कि - क्या आप बिक चुकी हैं? और ये है सुनकर लेखिका भी उदास हो गईं। बताया जाता है कि आगे मनोज ने उनसे ये भी कहा था कि उन्हें इस डॉक्यूमेंट्री की स्क्रिप्ट फाड़ देनी चाहिए।

फिल्म क्रांति के लिए बेच दिया था अपना बंगला

ये फिल्म थी क्रांति, जो बॉक्स ऑफिस पर एक शानदार सफल साबित हुई. इस फिल्म में मनोज कुमार, दिलीप कुमार, शशि कपूर, हेमा मालिनी, शत्रुघ्न सिन्हा, प्रेम चोपड़ा, परवीन बॉबी, सारिका और निरूपा रॉय जैसे कई सितारे शामिल थे. क्रांति ने ब्रिटिश राज के खिलाफ़ एकजुट हुए क्रांतिकारी किसानों की कहानी को पेश किया. फिल्म ने अपने दमदार म्यूजिक और हार्ट टचिंग फीलिंग से आडियंस को खूब प्रभावित किया. क्रांति हिंदी सिनेमा की बेहतरीन फिल्मों में से एक मानी जाती है. मनोज कुमार की डायरेक्शन में बनी इस फिल्म का स्क्रीन प्ले जावेद अख्तर, सलीम खान और खुद मनोज कुमार ने लिखी है.

फिल्म ने जबरदस्त सफलता हासिल की

यह फिल्म 13 फरवरी, 1981 को रिलीज हुई थी और सिनेमाघरों में जबरदस्त ऑडियंस को आकर्षित किया था. यह जल्द ही अपने समय की सबसे तेजी से कमाई करने वाली फिल्म बन गई, जिसने मुंबई और दक्षिण भारत को छोड़कर अधिकांश सर्किट में कई रिकॉर्ड स्थापित किए. रिपोर्ट के अनुसार, क्रांति ने बॉक्स ऑफिस पर 16 करोड़ रुपये की कमाई की. फिल्म ने 26 अलग-अलग केंद्रों में सिल्वर जुबली मनाकर उपलब्धियां हासिल की, जिसमें मिर्जापुर और जूनागढ़ जैसे कम प्रसिद्ध स्थान शामिल हैं. सिनेमा के इतिहास में केवल सीमित संख्या में फिल्में ही 25 से अधिक केंद्रों में जयंती मनाने का मील का पत्थर हासिल कर पाई हैं.

उनकी भूमिका ने उन्हें स्टारडम तक पहुंचाया

मनोज कुमार हिंदी फिल्म उद्योग में अपने योगदान के लिए जाने जाते हैं. वह शहीद, रोटी कपड़ा और मकान, मैदान-ए-जंग, उपकार, पूरब और पश्चिम, शोर और मेरा नाम जोकर सहित कई सफल फिल्मों का हिस्सा रहे हैं. अभिनेता ने 1957 की फिल्म फैशन से अपने फिल्मी करियर की शुरुआत की, लेकिन 1961 की फिल्म कांच की गुड़िया में सईदा खान के साथ उनकी भूमिका ने उन्हें स्टारडम तक पहुंचाया.

आज का इतिहास: 2000 में आज ही के दिन शतरंज की पहली भारतीय महिला ग्रैंडमास्टर बनी थीं एस. विजयलक्ष्मी,जाने 24 जुलाई से संबंधित इतिहास


नयी दिल्ली : देश और दुनिया में 24 जुलाई का इतिहास कई महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी है और कई महत्वपूर्ण घटनाएं इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गई हैं।

24 जुलाई का इतिहास काफी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि 1793 में आज ही के दिन फ्रांस ने कॉपीराइट कानून बनाया था। 1870 में 24 जुलाई को ही अमेरिका में रेल सेवा की शुरुआत हुई थी।

1969 में आज ही के दिन अपोलो 11 अंतरिक्ष यान पृथ्वी पर लौटा था। 1999 में 24 जुलाई को ही अमेरिकी अंतरिक्ष यान कोलंबिया का सफल प्रक्षेपण हुआ था। 2000 में आज ही के दिन एस विजयलक्ष्मी शतरंज की पहली भारतीय महिला ग्रैंडमास्टर बनी थीं।

2004 मेें आज ही के दिन इटली ने भारतीय पर्यटकों के लिए 7 वीजा काॅल सेंटर शुरू करने का फैसला लिया था।

2000 में 24 जुलाई को ही एस. विजयलक्ष्मी शतरंज की पहली महिला ग्रैंडमास्टर बनीं थीं।

1999 में आज ही के दिन अमेरिकी अंतरिक्ष यान कोलंबिया का सफल प्रक्षेपण हुआ था।

1982 में 24 जुलाई को ही जापान के नागासाकी में भारी बारिश से पुल ढहने से 299 लोगों की जान चली गई थी।

1969 में 24 जुलाई को ही अपोलो 11 अंतरिक्ष यान पृथ्वी पर लौटा था।

1944 में आज ही के दिन 300 लड़ाकू विमानों ने जर्मनी पर बम गिराए थे।

1932 में 24 जुलाई को ही रामकृष्ण मिशन सेवा प्रतिष्ठान की स्थापना की गई थी।

1870 में आज ही के दिन अमेरिका में रेल सेवा की शुरुआत हुई थी।

1823 में 24 जुलाई को ही चिली में दास प्रथा को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया गया था।

1793 में आज ही के दिन फ्रांस ने कॉपीराइट कानून बनाया था।

1758 में आज ही के दिन अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जॉर्ज वॉशिंगटन उत्तरी अमेरिका की पहली असेंबली वर्जीनिया हाउस ऑफ बर्जेसेज में शामिल हुए थे।

1132 में आज ही के दिन एलीफ के रानफुल द्वितीय और सिसिली के रोजर द्वितीय के बीच नोसेरा की लड़ाई हुई थी।

24 जुलाई को जन्मे प्रसिद्ध व्यक्ति

1985 में आज ही के दिन प्रसिद्ध भारतीय बिलियर्ड्स और स्नूकर खिलाड़ी पंकज आडवाणी का जन्म हुआ था।

1945 में आज ही के दिन ‘विप्रो कॉर्पोरेशन’ के अध्यक्ष अज़ीम प्रेमजी का जन्म हुआ था।

1935 में 24 जुलाई के दिन ही 12वीं लोकसभा के सदस्य रामपाल उपाध्याय का जन्म हुआ था।

1928 में आज ही के दिन गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री केशुभाई पटेल का जन्म हुआ था।

1924 में 24 जुलाई के दिन ही उर्दू के सुप्रसिद्ध शायर व कवि नाजिश प्रतापगढ़ी का जन्म हुआ था।

1911 में आज ही के दिन भारत के प्रसिद्ध बांसुरी वादक पन्नालाल घोष का जन्म हुआ था।

1802 में 24 जुलाई के दिन ही फ्रांसीसी राइटर एलेक्जेन्डर डयूमा का जन्म हुआ था।

24 जुलाई को हुए निधन

2017 में आज ही के दिन भारत के मशहूर वैज्ञानिक और शिक्षाविद यशपाल का निधन हुआ था।

1939 में आज ही के दिन असम के सामाजिक कार्यकर्ता तरुण राम फुकन का निधन हुआ था।

24 जुलाई के प्रमुुख उत्सव

आयकर दिवस।

दुनिया के सबसे लंबे बालों वाली महिला यूपी की स्मिता श्रीवास्तव जिसने गिनीज बुक में बनाया स्थान,प्राकृतिक चीजों के प्रयोग से बढ़ाए 7.9 फुट लंबे


दिल्ली:- अध्यात्म और साधु-संतो की नगरी कहे जाने वाले प्रयागराज का नाम अब गिनीज बुक्स ऑफ वर्ल्ड रिकाॅर्ड में भी दर्ज हो गया है। उत्तर प्रदेश के प्रयागराज की स्मिता श्रीवास्तव अपने लंबे बालों के लिए खासी चर्चा में हैं। उन्हें अपने बालों से इतना प्यार है कि वे कभी इसे न कटवाने की बात करती हैं। उनके बालों की लंबाई 7 फीट 9 इंच है। स्मिता 14 साल की उम्र से ही अपने लंबे बालों की देखभाल कर रही हैं। अब 46 साल की उम्र में उन्हें जीवित व्यक्ति के सबसे लंबे बाल रखने का गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड मिला है। 

वह कहती हैं कि मैंने बालों को कभी नहीं कटवाने की कसम खाई है। स्मिता को अपने लंबे बालों की देखभाल में काफी मेहनत करनी होती है। बालों को धोने में 45 मिनट का समय लगता है। लंबे बालों को सुखाने के लिए वह तीन हेयर ड्रायर का इस्तेमाल करती हैं। 

स्मिता जब खड़ी होती हैं तो उससे पहले जमीन को साफ करती हैं। उनके बाल फर्श तक पहुंच जाते हैं। वह उन्हें उलझने से बचाने के लिए एक साधारण कंघी और अपने हाथों का इस्तेमाल करती हैं

बाल टूटने पर होती हैं भावुक

स्मिता कहती हैं कि मैंने हमेशा अपने बालों की देखभाल करती हैं। जब बाल टूटते हैं तो वह भावुक हो जाती हैं। स्मिता अपने बालों की देखभाल के प्राकृतिक हेयर केयर रूटीन को अपनाती हैं।

इस तरह करती है अपने बालो की देखभाल

स्मिता कहती हैं कि मैंने कृत्रिम शैंपू और कंडीशनर का उपयोग नहीं किया है। वह अपना हेयर केयर ट्रीटमेंट अपनाती हैं। इसके लिए वह अंडे, एलोवेरा और प्याज के रस जैसी सामग्री के साथ प्राकृतिक जड़ी-बूटियों का उपयोग करती हैं। गिनीज वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में नाम आने के बाद स्मिता ने कहा कि मुझे अपने बाल बहुत पसंद हैं। मैं विश्व रिकॉर्ड खिताब जीतने का सपना देखा करती थी। भगवान ने मेरी प्रार्थना सुन लीं। मैं चाहती हूं कि मेरे बालों को इस तरह से और पहचान मिले ताकि मैं और रिकॉर्ड बना सकूं।

मां और बहन से मिली प्रेरणा

स्मिता अपने लंबे बालों के प्रति जुनून के बारे में बात करते हुए कहती हैं कि मेरी पहली प्रेरणा मेरी मां और मेरी बहनें हैं। हमारे परिवार में सभी के बाल सुंदर हैं। मेरी दूसरी प्रेरणा 80 के दशक की हिंदी सिनेमा हैं। उस समय की अभिनेत्रियों के बाल सुंदर लंबे होते थे, जिसने मुझे अपने बाल खुद बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। 

उन्होंने कहा कि हमारे समाज में लंबे बालों को सुंदरता का प्रतीक माना जाता है। मुझे उम्मीद है कि जब तक मैं इन्हें संभाल सकती हूं। वह पूरे निश्चय के साथ कहती हैं कि मैं अपने बाल कभी नहीं कटवाऊंगी और उन्हें बढ़ाती रहूंगी। मेरा परिवार हमेशा से मेरा साथ देता रहा है।

बालों को करती हैं कलेक्ट

विश्व रिकॉर्ड धारी स्मिता ने बताया कि ब्रश करने या धोने से झड़े हुए बालों को कभी नहीं फेंकती हैं। वह उन्हें प्लास्टिक के कैरियर बैग में रखती हैं। उन्होंने कहा कि मैंने पिछले 20 सालों में कोई बाल नहीं फेंका है। मेरे पास उनका बहुत बड़ा संग्रह है। एक दिन मेरे बाल बहुत झड़ गए, लेकिन अपने बाल फेंकने के विचार ने मुझे दुखी कर दिया। मैं रोने लगी क्योंकि मेरे बहुत सारे बाल झड़ गए थे। वह कहती हैं कि मेरा रिकॉर्ड लोगों को सुंदरता बढ़ाने वाले बालों को बढ़ाने और प्राकृतिक उपायों को अपनाने के लिए प्रेरित कर सकता है।

सोशल मीडिया पर सराहना

स्मिता के बढ़े बालों को लेकर सोश

ल मीडिया पर यूजर्स ने उनके प्रयासों की सराहना की। एक यूजर ने लिखा, लगता है आपने जन्म के बाद से ही बाल नहीं कटवाए होंगे। यह शानदार है। एक अन्य यूजर ने टिप्पणी की, यह आश्चर्यजनक है कि उनके बाल कितने लंबे हैं, लेकिन फिर भी यह सुंदर दिखता है। लगभग एक राजसी पौराणिक चरित्र की तरह है। 

एक अन्य यूजर ने लिखा कि शायद मेरे बाल लंबे होते तो वह उलझ जाते। एक यूजर ने लिखा कि वाह अगर मेरे बाल ऐसे होते तो मैं कभी भी उनके साथ खेलना बंद नहीं करती। मेरे बाल पीठ के बीच तक पहुंचते हैं। उसने मुझे ऐसा महसूस कराया जैसे मेरे बाल बॉब स्टाइल में हैं।

दुनिया का सबसे ऊंचा शिव मंदिर, पांडवों ने बनाया था इसे, सावन में जरूर करें इसके दर्शन


नयी दिल्ली : सावन का पावन महीना शुरू हो चुका है. इस सावन आप भगवान शिव के एक ऐसे मंदिर के दर्शन करिए जो दुनिया में सबसे ज्यादा ऊंचाई पर है. इस शिव मंदिर का इतिहास पांच हजार साल पुराना है.

पौराणिक मान्यता है कि इस मंदिर में ही भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए पांडवों ने पूजा की थी और मंदिर का निर्माण करवाया था.

यह शिव मंदिर उत्तराखंड में है और इसका नाम तुंगनाथ मंदिर है. वैसे भी सावन के महीने में शिव मंदिरों में दर्शन औ पूजा-पाठ को सबसे ज्यादा पुण्य देने वाला माना जाता है. 

देश में भगवान शिव के ऐसे कई प्राचीन मंदिर हैं, जिनकी खूब मान्यता है. इन मंदिरों से पौराणिक मान्यता जुड़ी हुई है और देशभर के श्रद्धालु इन मंदिरों में भगवान शिव की पूजा अर्चना के लिए आते हैं. आइए पवित्र सावन में ऐसे ही शिव मंदिर तुंगनाथ के बारे में जानते हैं.

तुंगनाथ भगवान शिव का सबसे ऊंचाई पर स्थित शिव मंदिर है. यह मंदिर रूद्रप्रयाग जिले में है. तुंगनाथ मंदिर भी पंच केदार में शामिल है. यह मंदिर पहाड़ों की चोटी पर बसा है और समुद्र तल से 3680 मीटर की उंचाई पर स्थित है. 

इस मंदिर के कपाट दिवाली के बाद बंद हो जाते हैं.

तुंगनाथ मंदिर ग्रेनाइट पत्थरों से बना है. तुंगनाथ मंदिर केदारनाथ और बद्रीनाथ मंदिर के लगभग बीच में स्थित है. यह क्षेत्र गढ़वाल में पड़ता है. जनवरी और फरवरी में मंदिर बर्फ की चादर से ढक जाता है. इस मंदिर में भगवान शिव के हृदय और भुजाओं की पूजा होती है. 

मान्यता है कि भगवान राम ने जब रावण का वध किया था तब स्वयं को ब्रह्माहत्या के शाप से मुक्त करने के लिए इस मंदिर में भोलेनाथ की पूजा की थी. पौराणिक कथा है कि महाभारत युद्ध में नरसंहार से शिवजी पांडवों से रुष्ट हो गए थे और इसके बाद पांडवों ने भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए यहां तपस्या की और फिर इस शिव मंदिर का निर्माण कराया.

ऐसी भी मान्यता है कि माता पार्वती ने शिवजी को पति के रूप प्राप्त करने के लिए तुंगनाथ के पास ही तपस्या की थी. अगर आप इस शिव मंदिर के दर्शन के लिए जा रहे हैं तो चंद्रशिला के दर्शन जरूर करें क्योंकि ऐसा माना जाता है कि बिना इसके दर्शन किए तुंगनाथ मंदिर की यात्रा अधूरी मानी जाती है. चंद्रशिला मंदिर, तुंगनाथ मंदिर से कुछ ही दूरी पर है और यहां रावण शिला है. तुंगनाथ मंदिर की खोज ने आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी.

कौन है माया नीलकांतन जिसने 11 साल की उम्र दुनिया के सबसे बड़े टैलेंट शो में दी शानदार गिटार परफॉर्मेंस,आनंद महिंद्रा ने कहा - "वह एक रॉक देवी है


दिल्ली:- 10 वर्षीया माया नीलकांतन ने पापा रोच के लास्ट रिज़ॉर्ट के शानदार गायन से अमेरिका गॉट टैलेंट के जजों को आकर्षित किया , लेकिन इसमें भारतीय अंदाज़ भी था। घाघरा पहने नीलकांतन ने अंतरराष्ट्रीय शो में प्रस्तुति देते समय माथे पर चमकती हुई बिंदी भी लगाई हुई थी। उसने जज साइमन कॉवेल, हेदी क्लम, सोफिया वेरगारा और हॉवी मैंडेल से प्रशंसा प्राप्त की।

माया नीलकांतन कौन हैं?*

चेन्नई की रहने वाली माया नीलकांतन ने मेटालिका , टूल और अन्य मशहूर गानों के मेटल रॉक गायन से प्रसिद्धि पाई। उनका एक यूट्यूब चैनल भी है, जिसे उनके माता-पिता संभालते हैं।

2022 में, उन्होंने 7empest पर अपने गायन वीडियो से टूल के गिटारिस्ट एडम जोन्स को चौंका दिया।

इस साल मार्च में, उन्हें गैरी होल्ट से उनके निवास पर पहली मुलाकात के दौरान एक उपहार मिला। "देखो आज क्या हुआ! स्लेयर/एक्सोडस के गैरी होल्ट ने मुझे अपना सिग्नेचर गिटार उपहार में दिया!!!" उन्होंने एक्स पर लिखा।

2024 में नीलकंठन ने इंटरनेट पर कब्ज़ा कर लिया अमेरिकाज गॉट टैलेंट में अपनी उपस्थिति से तूफ़ान मचा दिया । उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने एक्स पर वीडियो शेयर करते हुए लिखा, "हे भगवान। माया नीलकांतन केवल 10 साल की है। 10! हाँ, साइमन, वह एक रॉक देवी है। देवियों की भूमि से। हमें उसे में अपना काम करने के लिए वापस यहाँ लाना होगा।"

महिंद्रा को जवाब देते हुए नीलकांतन ने लिखा, "बहुत-बहुत धन्यवाद जी! आपसे यह सुनना सम्मान की बात है! मुझे यह देखकर बहुत खुशी हुई कि लोगों को कर्नाटक संगीत और हेवी मेटल को मिलाने का मेरा तरीका पसंद आया, क्योंकि मुझे दोनों ही पसंद हैं। आपके प्यार और समर्थन के लिए धन्यवाद! यह वाकई बहुत मायने रखता है!"

प्रथा : भारत का एक ऐसा गांव जहां सावन में पांच दिनों तक कपड़े नहीं पहनतीं महिलाएं,वजह जानकार हैरान रह जाएंगे आप

नयी दिल्ली : सावन का महीना शुरू हो गया है. ऐसे में हिंदू धर्म को मानने वाले लोग इस पवित्र महीने में अपनी परंपराओं के अनुसार कई ऐसी चीजें करते हैं, जिनके बारे में जानकर आप हैरान हो जाएंगे. चलिए आज आपको भारत के एक ऐसे ही गांव की कहानी बताते हैं, जहां सावन के महीने में 5 दिनों तक महिलाएं कपड़े नहीं पहनती हैं.इसके साथ ही आपको ये भी बताएंगे कि आखिर वहां की महिलाएं ऐसा क्यों करती हैं और क्या पुरुषों के लिए भी इस गांव में कोई नियम लागू होते हैं.

कहां है ये गांव

हम जिस भारतीय गांव की बात कर रहे हैं वो हिमाचल प्रदेश के मणिकर्ण घाटी में स्थित है. इस गांव का नाम पिणी गांव है. यहां सदियों से ये परंपरा चली आ रही है. सावन के महीने में खास 5 दिनों तक यहां की महिलाएं कपड़े नहीं पहनतीं. यही वजह है कि इन पांच दिनों में बाहरी लोगों का गांव में प्रवेश पूरी तरह से बैन रहता है.

महिलाएं ऐसा क्यों करती हैं

हिमाचल प्रदेश के इस गांव का इतिहास सदियों पुराना है. इसलिए यहां कई ऐसी परंपराएं हैं जो कहीं और देखने को नहीं मिलतीं. सावन में पांच दिनों तक कपड़े ना पहनने की परंपरा भी सदियों पुरानी है. 

चलिए अब जानते हैं कि इसके पीछे की वजह क्या है.

दरअसल, एक समय में इस गांव में राक्षसों का इतना आतंक था कि गांव वालों का जीना मुश्किल हो गया था. जब राक्षसों का आतंक बहुत बढ़ा तो इस गांव में लाहुआ घोंड नाम के एक देवता आए और उन्होंने राक्षस का वध कर के गांव वालों को बचा लिया. बताया जाता था कि राक्षस जब गांव में आते थे तो वह सजी-धजी महिलाओं को उठा ले जाते थे. यही वजह है कि आज भी सावन के इन पांच दिनों में महिलाएं कपड़े नहीं पहनतीं.

तो फिर क्या पहनती हैं महिलाएं?

पिणी गांव में आज हर महिला इस परंपरा को नहीं निभाती. लेकिन जो महिलाएं अपनी इच्छ से ये परंपरा निभाती हैं वो इन पांच दिनों में ऊन से बना एक पटका पहनती हैं. परंपरा निभाने वाली महिलाएं इन पांच दिनों में घर से बाहर नहीं निकलीं. इस परंपरा को खासतौर से गांव की शादीशुदा महिलाएं ही निभाती हैं.

क्या पुरुषों के लिए भी कोई नियम है?

ऐसा नहीं है कि इस गांव में सिर्फ महिलाओं के लिए ही नियम है. पुरुषों के लिए नियम है कि वह सावन के महीने में शराब और मांस का सेवन नहीं करेंगे. इन खास पांच दिनों में तो इस परंपरा का पालन करना सबसे ज्यादा जरूरी है. वहीं इस परंपरा के अनुसार, इन पांच दिनों में पति पत्नी एक दूसरे को देख कर मुस्कुरा भी नहीं सकते. 

अगर आप घूमने के शौकीन हैं तो आप इस गांव में जा सकते हैं. हालांकि, सावन के इन पांच दिनों में आपको इस गांव में प्रवेश नहीं मिलेगा. गांव वाले लोग इन पांच दिनों को बेहद पवित्र मानते हैं और इसे त्योहार की तरह मनाते हैं. ऐसे में वह किसी बाहरी व्यक्ति को इन पांच दिनों में अपने गांव में प्रवेश नहीं देते.

जयंती विशेष:'मैं आजाद हूं', चंद्रशेखर तिवारी यूं बने थे 'आजाद',15 कोड़े खाए लेकिन वंदे मातरम बोलना नहीं छोड़ा


नयी दिल्ली:- भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महानायक चंद्रशेखर आजाद की आज जयंती है। चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई 1906 को मध्य प्रदेश में हुआ था। उन्होंने बहुत कम उम्र में ही अंग्रेजों के खिलाफ बगावत शुरू कर दी थी। जलियांवाला बाग कांड ने चंद्रशेखर आजाद को बचपन में झकझोर कर रख दिया और इसी दौरान आजाद को समझ आ गया था कि अंग्रेजों से छुटकारा पाने के लिए बातों की नहीं बल्कि बंदूकों की जरूरत होगी।

भारत को आजाद कराने के लिए कई स्वतंत्रता सेनानियों ने अपनी जिंदगी कुर्बान कर दी थी। उन्हीं महान स्वतंत्रता सेनानियों में एक नाम 'चंद्रशेखर आजाद' का है। हालांकि, इनका असली नाम चंद्रशेखर तिवारी था, लेकिन आजाद इनकी पहचान कैसे बनी इसके पीछे भी एक कहानी है। आजाद कहते थे 'दुश्मन की गोलियों का हम सामना करेंगे, हम आजाद हैं और आजाद ही रहेंगे।'

आज देश के महान क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्मदिन है। यह एक ऐसे युवा क्रांतिकारी थे, जिन्होंने अपने देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपनी जान दे दी। 

उन्होंने ठान लिया था कि वे कभी भी अंग्रेजों के हाथ नहीं आएंगे और अंग्रेजों की गुलामी की हुकूमत से खुद को आखिरी सांस तक आजाद रखा। उन्होंने बेहद कम उम्र में ही अपनी जिंदगी को देश के नाम कर दिया था। आज उनके जन्मदिन के मौके पर हम आपको उनकी जिंदगी से जुड़ी कुछ बेहद रोचक बातों के बारे में बताएंगे।

चंद्रशेखर आजाद की जीवनी

चंद्रशेखर आजाद का जन्म 23 जुलाई, 1906 को मध्यप्रदेश के भाबरा गांव में हुआ था। मूल रूप से उनका परिवार उत्तर प्रदेश के उन्नाव जिले के बदरका गांव से था, लेकिन पिता सीताराम तिवारी की नौकरी चली जाने के कारण उन्हें अपने पैतृक गांव को छोड़कर मध्यप्रदेश के भाबरा जाना पड़ा था। चंद्रशेखर आजाद का नाम चंद्रशेखर तिवारी था। वह बचपन से ही काफी जिद्दी और विद्रोही स्वभाव के थे।

चंद्रशेखर का पूरा बचपन

आदिवासी बाहुल्य क्षेत्र झाबरा में ही बीता था। यहां पर उन्होंने बचपन से ही निशानेबाजी और धनुर्विद्या सिखी। लगातार मौका मिलते ही वो इसकी अभ्यास करने लगे, जिसके बाद यह धीरे-धीरे उनका शौक बन गया।

कम उम्र में ही देश के लिए नाम कर दी जिंदगी

पढ़ाई से ज्यादा चंद्रशेखर का मन खेल-कूद और अन्य गतिविधियों में लगता था। जलियांवाला बाग कांड के दौरान आजाद बनारस में पढ़ाई कर रहे थे। इस घटना ने बचपन में ही चंद्रशेखर को अंदर से झकझोर दिया था। उसी दौरान उन्होंने ठान ली थी कि वह ईंट का जवाब पत्थर से देंगे। इसके बाद उन्होंने यह तय कर लिया कि वह भी आजादी के आंदोलन में उतरेंगे और फिर महात्मा गांधी के आंदोलन से जुड़ गए।

चंद्रशेखर तिवारी को मिला आजाद का नाम

1921 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन से जुड़ने के बाद उनकी गिरफ्तारी हुई। उस दौरान जब उन्हें जज के सामने पेश किया गया, तो उनके जवाब ने सबके होश उड़ा दिए थे। जब उनसे उनका नाम पूछा गया, तो उन्होंने अपना नाम आजाद और अपने पिता का नाम स्वतंत्रता बताया। इस बात से जज काफी नाराज हो गया और चंद्रशेखर को 15 कोड़े मारने की सजा सुनाई।

सुनाई गई 15 बेंत की सजा

आदेश के बाद, बालक चंद्रशेखर को 15 बेंत लगाई गई, लेकिन उन्होंने उफ्फ तक नहीं की थी और हर बेंत के साथ उन्होंने 'भारत माता की जय' का नारा लगाया। आखिर में सजा भुगतने के एवज में उन्हें तीन आने दिए गए, जो वह जेलर के मुंह पर फेंक आए थे। इस घटना के बाद से ही चंद्रशेखर तिवारी को दुनिया चंद्रशेखर आजाद के नाम से जानने लगी। आज भी कोई यह नाम लेता है, तो मूंछ पर ताव देने वाले एक पुरुष की छवि आंखों के सामने आ जाती है।

चौरा-चौरी कांड के बाद कांग्रेस से हुआ मोहभंग

जलियांवाला बाग कांड के बाद चंद्रशेखर को समझ आ चुका था कि अंग्रेजी हुकूमत से आजादी बात से नहीं, बल्कि बंदूक से मिलेगी। शुरुआत में गांधी के अहिंसात्मक गतिविधियों में शामिल हुए, लेकिन चौरा-चौरी कांड के बाद जब आंदोलन वापस ले लिया गया तो, आजाद का कांग्रेस से मोहभंग हो गया और फिर उन्होंने बनारस का रुख किया।

बनारस था क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र

दरअसल, बनारस उन दिनों भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों का केंद्र था। बनारस में वह देश के महान क्रांतिकारी मन्मथनाथ गुप्त और प्रणवेश चटर्जी के संपर्क में आए और क्रांतिकारी दल 'हिन्दुस्तान प्रजातंत्र संघ' के सदस्य बन गए। हालांकि, शुरुआत में यह दल गरीब लोगों को लूटते और अपनी जरूरतों को पूरा करते थे, लेकिन धीरे-धीरे उन्हें समझ आने लगा कि अपने लोगों को दुख पहुंचाकर वे कभी भी उनका समर्थन हासिल नहीं कर पाएंगे। इसके बाद इस दल का उद्देश्य केवल सरकारी प्रतिष्ठानों को नुकसान पहुंचा कर अपनी क्रांति के लक्ष्यों को प्राप्त करना बन गया।

इतिहास के अमर पन्नों में सुनहरे हर्फों में दर्ज है काकोरी कांड

दल ने पूरे देश को अपना उद्देश्य बताने के लिए अपना मशहूर पैम्फलेट 'द रिवोल्यूशनरी' प्रकाशित किया। इसके बाद उस घटना को अंजाम दिया गया, जो भारतीय क्रांति के इतिहास के अमर पन्नों में सुनहरे हर्फों में दर्ज काकोरी कांड है। काकोरी कांड से शायद ही कोई अनजान होगा। दरअसल, इस दौरान दल के दस सदस्यों ने काकोरी ट्रेन लूट को अंजाम दिया था और अंग्रेजों को खुली चुनौती दे दी। इस कांड के लिए देश के महान क्रांतिकारियों रामप्रसाद बिस्मिल, अशफाक उल्‍ला खां, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी और ठाकुर रोशन सिंह को फांसी की सजा सुनाई गई थी।

भगत सिंह के साथ मिलकर बनाया नया दल

इस घटना के बाद दल के ज्यादातर सदस्य गिरफ्तार कर लिए गए और दल बिखर गया। इसके बाद आजाद के सामने एक बार फिर दल खड़ा करने का संकट आ गया। हालांकि, अंग्रेज सरकार आजाद को पकड़ने की कोशिश में लगी हुई थी, लेकिन वह छिपते-छिपाते दिल्ली पहुंच गए।

दिल्ली के फिरोजशाह कोटला मैदान में सभी बचे हुए क्रांतिकारियों की गुप्त सभा आयोजित की गई। इस सभा में आजाद के साथ ही महान क्रांतिकारी भगत सिंह भी शामिल हुए थे। इस सभा में तय किया कि दल में नए सदस्य जोड़े जाएंगे और इसे एक नया नाम दिया जाएगा। इस दल का नया नाम 'हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन' रखा गया। आजाद को इस दल का कमांडर-इन-चीफ बनाया गया।

सांडर्स की हत्या और असेंबली में बम के बाद फिर बिखर गया दल

इस दल ने गठन के बाद कई ऐसी गतिविधियां की, जिससे अंग्रेजी हुकूमत इनके पीछे पड़ गई। 1928 में साइमन कमीशन के खिलाफ प्रदर्शन के दौरान लाला लाजपत राय की मौत हो गई. इसके बाद भगत सिंह, सुखदेव ,राजगुरु ने उनकी मौत का बदला लेने का फैसला किया। इन लोगों ने 17 दिसंबर, 1928 को लाहौर के पुलिस अधीक्षक जेपी सांडर्स के दफ्तर को घेर लिया और राजगुरु ने सांडर्स पर गोली चला दी, जिससे उसकी मौत हो गई।

दिल्ली असेंबली मामले में सुनाई गई फांसी की सजा

इसके बाद आयरिश क्रांति से प्रभावित भगत सिंह ने दिल्ली असेंबली में बम फोड़ने का निश्चय किया, जिसमें आजाद ने उनका साथ दिया। इन घटनाओं के बाद अंग्रेज सरकार ने इन क्रांतिकारियों को पकड़ने में पूरी ताकत लगा दी और आरोप में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव को फांसी की सजा सुनाई गई।

इससे आजाद काफी आहत हुए और उन्होंने भगत सिंह को छुड़ाने की कोशिश की, लेकिन वे सफल नहीं हो सके। दल के लगभग सभी लोग गिरफ्तार हो चुके थे, लेकिन फिर भी काफी समय तक चंद्रशेखर आजाद ब्रिटिश सरकार को चकमा देते रहे। आजाद ने ठान ली थी कि वो जीते जी अंग्रेजों के हाथ नहीं लगेंगे।

चंद्रशेखर आजाद कैसे शहीद हुए?

अंग्रेज सरकार ने राजगुरु, भगतसिंह और सुखदेव की सजा को किसी तरह कम या उम्रकैद में बदलने के लिए वे इलाहाबाद पहुंचे। उस दौरान अंग्रेजी हुकूमत को इसकी भनक लग गई कि आजाद अल्फ्रेड पार्क में छुपे हैं। उस पार्क को हजारों पुलिस वालों ने घेर लिया और उन्हें आत्मसमर्पण के लिए कहा, लेकिन उस दौरान वह अंग्रेजों से अकेले लोहा लेने लगे।

इस लड़ाई में 20 मिनट तक अकेले अंग्रेजों का सामना करने के दौरान वह बुरी तरह से घायल हो गए। आजाद ने लड़ते हुए शहीद हो जाना ठीक समझा। इसके बाद आजाद ने अपनी बंदूक से ही अपनी जान ले ली और वाकई में आखिरी सांस तक वह अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे।

27 फरवरी, 1931 को वह अंग्रेजों के साथ लड़ाई करते हुए हमेशा के लिए अपना नाम इतिहास में अमर कर गए। चंद्रशेखर आजाद का अंतिम संस्कार भी अंग्रेज सरकार ने बिना किसी सूचना के कर दिया। जब लोगों की इस बात की एनएफ। जानकारी मिली, तो सड़कों पर लोगों का जमावड़ा लग गया और हर कोई शोक की लहर में डूब गया। लोगों ने उस पेड़ की पूजा शुरू कर दी, जहां इस महान क्रांतिकारी ने अपनी आखिरी सांस ली थी।

आज लोक मान्य गंगाधर तिलक की 168वीं जयंती पर विशेष : जिन्हें अंग्रेजों ने भारतीय अशांति का जनक कहा था


नयी दिल्ली : भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान नेताओं में से एक बाल गंगाधर तिलक, जिन्हें लोकमान्य तिलक भी कहा जाता है, उन्होने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को नई दिशा देने में अहम योगदान दिया और लोगों में देश प्रेम और आत्मनिर्भरता की भावना जागृत की. उनके जीवन में कई महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं और उनके व्यक्तित्व में समर्थन, साहस, और स्वतंत्रता के प्रति अटूट समर्पण की अनुभूति दिखती थी. केशव गंगाधर तिलक, अंग्रेजों द्वारा उन्हें ‘भारतीय अशांति के जनक’ कहा जाता था. 

वह उन नेताओं में से एक हैं जो भारत में स्वराज या स्व-शासन के लिए हमेशा खड़े हुए. महात्मा गांधी ने उन्हें ‘आधुनिक भारत का निर्माता’ भी कहा था. उन्हें “लोकमान्य” की उपाधि मिली थी, जिसका अर्थ होता है “लोक के आदरणीय” या “जनप्रिय”. यह उपाधि उन्हें उनके लोकप्रिय व्यक्तित्व और लोकों के बीच उनके उच्च सम्मान का प्रतीक बनाता है. 

उनका जन्म 23 जुलाई, 1856 को महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश (रत्नागिरी) के चिखली गांव में हुआ था. जबकि, उनकी मृत्यु 1 अगस्त, 1920 को उन्होंने दुनिया को अलविदा कहा. उनकी पुण्यतिथि पर आइये जानते हैं उनके जीवन से जुड़ी कुछ बाते.  

उनकी पढ़ाई- लिखाई

बाल गंगाधर तिलक पढ़ाई में शुरू से ही काफी तेज थे. उन्होंने प्राथमिक शिक्षा रत्नागिरी के विद्यालय में पूरी की. इसके बाद पिता का रत्नागिरि से पुणे स्थानांतरण हुआ तो उनका दाखिला भी पुणे के एंग्लो वर्नाकुलर स्कूल में करा दिया गया. 1877 में तिलक ने पुणे के डेक्कन कॉलेज से संस्कृत और गणित विषय की डिग्री हासिल की. उसके बाद मुंबई के सरकारी लॉ कॉलेज से एलएलबी पास किया पढ़ाई पूरी करने के बाद तिलक पुणे के एक निजी स्कूल में गणित और अंग्रेजी की शिक्षक बन गए. 

हालांकि स्कूल के अन्य शिक्षकों से मतभेद के बाद 1880 में उन्होंने पढ़ाना छोड़ दिया. तिलक अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली के आलोचक थे. स्कूलों में ब्रिटिश विद्यार्थियों की तुलना में भारतीय विद्यार्थियों के साथ हो रहे दोगले व्यवहार का वे विरोध करते थे.

स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है

लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक एक उदार और समर्पित व्यक्ति थे. उनकी विचारधारा में स्वतंत्रता, सामर्थ्य, और एकता के लिए गहरा विश्वास था. उन्होंने जनता को अपने देशप्रेम और स्वाधीनता के प्रति प्रेरित किया और उनके समर्थन में लाखों लोग उनके पीछे खड़े हो गए. उन्होंने नारा दिया था कि स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है और इसे हम लेकर रहेंगे. इसने भारतीय जनमानस में नई उर्जा भर दी थी. उनकी वाणी और विचारधारा ने जनता को आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता के लिए प्रोत्साहित किया. उनके आंदोलनकारी सोच और करिश्माई व्यक्तित्व ने उन्हें एक विशिष्ट स्थान प्रदान किया और उन्हें आज भी भारतीय इतिहास में एक महान नेता के रूप में याद किया जाता है.

स्वतंत्रता संग्राम में उनका योगदान

बाल गंगाधर तिलक का स्वतंत्रता संग्राम में बहुत बड़ा योगदान था. वे अपने जीवन में कई महत्वपूर्ण घटनाओं के साक्षी रहे. तिलक ने एक मराठी और एक अंग्रेजी में दो अखबार ‘मराठा दर्पण और केसरी’ की शुरुआत की. इन दोनों ही अखबारों में तिलक ने अंग्रेजी शासन की क्रूरता के खिलाफ अपनी आवाज उठाई. इन अखबारों को लोगों द्वारा काफी पसंद किया जाने लगा था. उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में अपने संघर्षपूर्ण भाषणों से लोगों को प्रेरित किया और उनके देशभक्ति भाव से भरे व्यक्तित्व ने लोगों के दिलों में अपार सम्मान प्राप्त किया. 

उन्होंने स्वराज्य प्राप्त करने के लिए लोगों को सकारात्मक बदलाव के लिए प्रोत्साहित किया. उन्होंने संघर्षपूर्ण दिनों में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख पद पर रहकर अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. 3 जुलाई, 1908 को क्रांतिकारियों के पक्ष में लिखने के लिये तिलक को गिरफ्तार कर लिया, और उन्हें 6 साल की सजा सुनाने के साथ ही 1000 रुपये का जुर्माना लगाया. जेल में रहने के दौरान ही तिलक ने 400 पन्नों की किताब गीता रहस्य लिखी थी.

स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नेता

बाल गंगाधर तिलक स्वतंत्रता संग्राम के एक महान नेता थे, जिनके व्यक्तित्व में समर्थन, साहस, और स्वतंत्रता के प्रति अटूट समर्पण की अनुभूति दिखती थी. उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया और भारत की आजादी में महत्वपूर्ण योगदान दिया. उनकी विचारधारा और कार्यों ने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को प्रेरित किया और उन्हें लोकमान्य के रूप में सम्मानित किया गया. उनके योगदान की स्मृति आज भी हमारे देश के लिए एक प्रेरणा स्रोत है. 1 अगस्त, 1920 को उन्होंने मुंबई में आखिरी सांस ली. ऐसे में उनकी पुण्यतिथि पर उन्हें शत् शत् नमन.

आज का इतिहास: 1927 में आज ही के दिन भारत में मुंबई से हुई थी नियमित रेडियो प्रसारण की शुरुआत,जाने 23 जुलाई से संबंधित इतिहास

नयी दिल्ली : देश और दुनिया में 23 जुलाई का इतिहास कई महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी है और कई महत्वपूर्ण घटनाएं इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो गये है। 23 जुलाई का इतिहास काफी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि 1927 में आज ही के दिन भारत में नियमित रेडियो प्रसारण की शुरुआत मुंबई से हुई थी। 1903 में आज ही के दिन मोटर कंपनी फोर्ड ने अपनी पहली कार बेची थी।

23 जुलाई का इतिहास इस प्रकार है :

2008 में आज ही के दिन नेपाल के प्रधानमंत्री गिरिजा प्रसाद कोइराला ने नव निर्वाचित राष्ट्रपति रामबरन यादव को अपना इस्तीफा सौंपा था।

2001 में 23 जुलाई के दिन ही मेघावती सुकर्णोपुत्री इंडोनेशिया की राष्ट्रपति बनीं थी।

2000 में आज ही के दिन व्यापक घोषणाओं के साथ नागो में हुए समूह-8 का 26वां शिखर सम्मेलन हुआ था।

1944 में आज ही के दिन अमेरिकी की सेना ने इटली के पीसा पर कब्जा किया था।

1929 में 23 जुलाई के दिन ही इटली में फासीवादी सरकार ने विदेशी शब्दों के प्रयोग पर पूर्ण प्रतिबंध लगा दिया था।

1927 में आज ही के दिन भारत में नियमित रेडियो प्रसारण की शुरुआत मुंबई से हुई थी।

1903 में आज ही के दिन मोटर कंपनी फोर्ड ने अपनी पहली कार बेची थी।

1881 में 23 जुलाई के दिन ही अंतर्राष्ट्रीय जिम्नास्टिक संघ ने खेल 

परिसंघ की स्थापना की थी और यह विश्व का सबसे पुराना खेल परिसंघ है।

1877 में आज ही के दिन हवाई में पहली टेलीफोन और टेलीग्राफ लाइन बिछाई गई थी।

1829 में 23 जुलाई के दिन ही अमेरिका के विलियम ऑस्टिन बर्ट ने टाइपोग्राफ का पेटेंट कराया था, जिसने टाइपराइटर की नींव रखी।

23 जुलाई को जन्मे प्रसिद्ध व्यक्ति

1973 में आज ही के दिन हिंदी फिल्मों के निर्माता, अभिनेता और गायक हिमेश रेशमिया का जन्म हुआ था।

1953 में आज ही के दिन इंग्लिश क्रिकेट खिलाड़ी ग्रेन ऐलेन गूज का जन्म हुआ था।

1916 में 23 जुलाई के दिन इथोपियाई सम्राट हेल सलासी-1 का जन्म हुआ था।

1906 में 23 जुलाई के दिन प्रसिद्ध क्रांतिकारी चंद्रशेखर आजाद का जन्म हुआ था।

1898 में आज ही के दिन ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय का जन्म हुआ था।

1856 में 23 जुलाई के दिन ही गणितज्ञ, दार्शनिक और स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक का जन्म हुआ था।

23 जुलाई को हुए निधन

2016 में आज ही के दिन प्रसिद्ध चित्रकार एसएच. रजा का निधन हुआ था।

2012 में 23 जुलाई के दिन ही स्वतंत्रता सेनानी और समाजसेविका लक्ष्मी सहगल का निधन हुआ था।

2004 में आज ही के दिन कॉमेडी के बादशाह महमूद अली का निधन हुआ था।

1993 में 23 जुलाई के दिन ही छत्तीसगढ़ के स्वतंत्रता सेनानी लक्ष्मण प्रसाद दुबे का निधन हुआ था।