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धीमी पड़ रही है पृथ्वी के आंतरिक कोर के घूमने की रफ्तार, जानिए किन चीजों पर पड़ेगा असर

एक नई रिसर्च से पता चला है कि पृथ्वी के आंतरिक कोर के घूमने की रफ्तार उसकी सतह की तुलना में धीमी पड़ रही है। रिसर्च में इस बात के स्पष्ट प्रमाण मिले है कि आंतरिक कोर की रफ्तार 2010 के आसपास कम होनी शुरू हो गई थी।

ऐसे में आप में से बहुत से लोगों के मन में यह सवाल होगा कि आंतरिक कोर के घूमने की रफ्तार में होने वाला बदलाव इंसानों को कैसे प्रभावित करेगा। बता दें कि वैज्ञानिकों ने अंदेशा जताया है कि इसकी वजह से आने वाले समय में दिन की अवधि पर असर पड़ सकता है। हालांकि साथ ही उन्होंने इस बात की भी पुष्टि की है कि दिन के समय पर पड़ने वाला यह प्रभाव एक सेकंड से भी कम होगा।

मतलब साफ है यह बदलाव आम लोगों द्वारा महसूस नहीं किया जाएगा। दक्षिणी कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय से जुड़े शोधकर्ताओं के नेतृत्व में किए इस अध्ययन के नतीजे 12 जून 2024 कजर्नल नेचर में प्रकाशित हुए हैं।

पृथ्वी की संरचना में नजर डालें तो यह मुख्य रूप से तीन परतों में बनी है, जिसकी सबसे ऊपरी परत को क्रस्ट कहते हैं। पृथ्वी का यह वो हिस्सा है जिसपर हम इंसान और जैवविविधता बसती है। इसके बाद मेंटल है और तीसरी एवं सबसे अंदरूनी परत को कोर कहा जाता है। यह कोर दो हिस्सों आंतरिक और बाह्य में बंटा है। शोधकर्ताओं के मुताबिक पृथ्वी का यह आंतरिक कोर लोहे और निकल से बना एक ठोस गोला है, जो गुरुत्वाकर्षण की वजह से अपने स्थान पर स्थिर बना रहता है।

यदि इसके आकार की बात करें तो यह करीब-करीब चंद्रमा के बराबर है। इसकी गहराई के बारे में वैज्ञानिकों का कहना है कि यह पृथ्वी की ऊपरी सतह से करीब 4,828 किलोमीटर से भी ज्यादा नीचे स्थित है। चूंकि इतनी गहराई में होने की वजह से सीधे तौर पर इसे देखा या उस तक पहुंचा नहीं जा सकता। ऐसे में वैज्ञानिक इसके अध्ययन के लिए भूकंपीय तरंगों की मदद लेते हैं।

देखा जाए तो वैज्ञानिकों के बीच इस आंतरिक कोर की गति को लेकर पिछले दो दशकों से बहस चल रही है। कुछ शोधों का मानना है कि यह आंतरिक कोर पृथ्वी की सतह से भी ज्यादा तेजी से घूमता है। लेकिन अपने इस नए अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पुष्टि की है कि 2010 के आसपास इसकी गति धीमी होनी शुरू हो गई और यह पृथ्वी की सतह से धीमी रफ्तार में घूम रहा है।

इस बारे में अध्ययन से जुड़े शोधकर्ता प्रोफेसर जॉन विडेल ने प्रेस विज्ञप्ति में कहा है कि, "जब मैंने पहली बार इस बदलाव को दर्शाने वाले सीस्मोग्राम देखे, तो मैं हैरान रह गया।" "लेकिन इसी पैटर्न का संकेत देने वाले दो दर्जन से अधिक अवलोकन मिलने के बाद, यह स्पष्ट हो गया कि दशकों में पहली बार आंतरिक कोर धीमा हो गया है।"किन कारणों से हो रहा है यह बदलाव

शोध के मुताबिक आंतरिक कोर अब पृथ्वी की सतह की तुलना में धीमी गति से आगे बढ़ रहा है, जैसे की यह पीछे की ओर जा रहा हो। ऐसा करीब 40 वर्षों में पहली बार हुआ है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने बार-बार आने वाले भूकंपों और भूकम्पीय तरंगों का उपयोग किया है। यह भूकंप एक ही स्थान पर बार-बार आते हैं और समान सीस्मोग्राम बनाते हैं।

अपने इस अध्ययन में शोधकर्ताओं ने 1991 से 2023 के बीच दक्षिण सैंडविच द्वीप समूह के पास 121 बार आने वाले भूकंपों के भूकंपीय आंकड़ों का विश्लेषण किया है। इसके साथ ही उन्होंने 1971 और 1974 के बीच सोवियत परमाणु परीक्षणों और आंतरिक कोर के अन्य अध्ययनों से दोहराए गए फ्रांसीसी और अमेरिकी परमाणु परीक्षणों के आंकड़ों का भी मदद ली है।

विडेल ने इसके कारणों पर प्रकाश डालते हुए प्रेस से साझा की जानकारी में कहा है कि आंतरिक कोर की धीमी होती गति, उसके चारों और बाहरी कोर में घूमते तरल लोहे के मंथन की वजह से है, जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र का निर्माण करता है। इसके ऊपर चट्टानी मेंटल के घने क्षेत्रों से गुरुत्वाकर्षण उत्पन्न होता है। विडेल के मुताबिक कोर की धीमी होती गति के लिए उसके चारों ओर घूमते तरल लोहा की वजह से है जो पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र को पैदा करता है। इसके साथ ही गुरुत्वाकर्षण खिंचाव की भी इसमें भूमिका है।

इसके प्रभावों पर प्रकाश डालते हुए शोधकर्ताओं ने जानकारी दी है कि आंतरिक कोर की गति में परिवर्तन से दिन की अवधि पर मामूली प्रभाव पड़ सकता है, लेकिन आम लोगों द्वारा इसे नोटिस करना बहुत कठिन है। भविष्य में वैज्ञानिक आंतरिक कोर का अधिक बारीकी से अध्ययन करना चाहते हैं ताकि यह समझा जा सके कि इसमें यह बदलाव क्यों आ रहे हैं। विडेल को लगता है कि आंतरिक कोर की हलचलें हमारी कल्पना से कहीं अधिक दिलचस्प हो सकती हैं।

गौरतलब है कि इसी साल मार्च 2024 में जर्नल नेचर में प्रकाशित एक अन्य अध्ययन में सामने आया था कि ध्रुवों पर जमा बर्फ के तेजी से पिघलने के कारण पृथ्वी की घूर्णन की रफ्तार धीमी हो रही है। इसकी वजह से पृथ्वी का संतुलन बिगड़ रहा है। वैज्ञानिकों के अनुसार इसकी वजह से हमे कुछ वर्षों के भीतर पहली बार लीप सेकंड को घटाने की आवश्यकता पड़ सकती है।

पर्यावरण पर पर्यटन गतिविधियों के प्रतिकूल प्रभावों को दूर करने के लिए किए जा रहे हैं उपाय

असम के शहरी स्थानीय निकायों (यूएलबी) में पर्यटन स्थलों में स्वच्छता बनाए रखने के बारे में जागरूकता बढ़ाने के प्रयास किए गए हैं। हर साल 27 सितंबर को शहरी स्थानीय निकायों में विश्व पर्यटन दिवस मनाया जाता है, जिसमें विभिन्न स्वच्छता गतिविधियां की जाती हैं। हालांकि अधिकांश पर्यटक स्थल या तो वन क्षेत्र में या प्रतिबंधित क्षेत्रों में स्थित हैं। ऐसे में उनका प्रबंधन और देखरेख संबंधित विभाग करते हैं।

इसके अतिरिक्त, असम में महत्वपूर्ण पर्यटन स्थल जैसे काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान, मानस राष्ट्रीय उद्यान और पोबितोरा वन्यजीव अभयारण्य शहरी क्षेत्रों में स्थित नहीं हैं। इसलिए, स्वच्छ भारत मिशन - शहरी की असम के इन महत्वपूर्ण पर्यटन स्थलों में कोई भागीदारी नहीं है।

रिपोर्ट में पर्यावरण पर पर्यटन गतिविधियों के नकारात्मक प्रभावों को दूर करने के लिए काजीरंगा राष्ट्रीय उद्यान में उठाए जा रहे कदमों पर भी चर्चा की गई है। साथ ही इसमें पर्यटन के कारण मानस टाइगर रिजर्व में पारिस्थितिक गिरावट को संबोधित करने वाली एक कार्य योजना भी शामिल है।

गौरतलब है कि मानस राष्ट्रीय उद्यान में, राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा अनुमोदित बाघ संरक्षण योजना के अनुसार पर्यटन को सख्ती से विनियमित किया जाता है। पार्क का केवल एक छोटा सा हिस्सा, जो मुख्य क्षेत्र का करीब 20 फीसदी है, वो सीमित मार्गों के माध्यम से पर्यटकों की आवाजाही के लिए सुलभ है। इसके वजह से पर्यटन के कारण महत्वपूर्ण पर्यावरणीय क्षति का जोखिम कम हो जाता है।

कुल मिलकर सतत पर्यटन के लिए विशेष रूप से मानस राष्ट्रीय उद्यान के भीतर अनुमति दी गई है। इसके साथ ही पर्यावरण को नुकसान न हो इसके लिए मानस राष्ट्रीय उद्यान में पर्यटन का सावधानीपूर्वक प्रबंधन किया जाता है।

इस क्षेत्र में पार्क अधिकारियों द्वारा नियमित निगरानी की जाती है। साथ ही वन्यजीव के लिए उचित आवास का प्रबंधन करने के अधिकतम प्रयास सुनिश्चित किए जाते हैं। इसके लिए राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण द्वारा निर्धारित दिशानिर्देशों को भी ध्यान में रखा जाता है।
एक गलत फैसले के कारण चली गई थी लाखों टाइगर की जान? वीडियो देख नहीं होगा यकीन


सन 1955 में बने सरिस्का टाइगर रिजर्व को 1978 में प्रोजेक्ट टाइगर में शामिल किया गया। जो भारत सरकार की एक पहल है, जिसका उद्देश्य बाघों की घटती संख्या को रोकना और उनके प्राकृतिक आवास को संरक्षित करना है। दिल्ली से 240 से दूर स्थित सरिस्का टाइगर रिज़र्व अरावली के शुष्क वन क्षेत्र में स्थित है, यह अभ्यारण्य 866 वर्ग किलोमीटर के क्षेत्र में फैला हुआ है और इसे मुख्यतः तीन क्षेत्रों में बांटा गया है - कोर ज़ोन, बफर ज़ोन और टूरिज़्म ज़ोन। कोर ज़ोन में पर्यटकों का प्रवेश सीमित होता है, जबकि बफर और टूरिज़्म ज़ोन में सफारी और पर्यटन की अनुमति है। यहाँ की प्राकृतिक सुंदरता, घने जंगल, पहाड़ियाँ और जल स्रोत पर्यटकों को आकर्षित करते हैं।

सरिस्का में वनस्पति और जीवों की शानदार विविधता देखने को मिलती है। यहाँ धोक, खैर, बेर, टर्मिनलिया और कई अन्य पौधों की प्रजातियाँ हैं। यह क्षेत्र मुख्यतः शुष्क पर्णपाती जंगलों में फैला हुआ है, जो यहां के वन्यजीवों के लिए एक उपयुक्त आवास प्रदान करता है। सरिस्का में पाए जाने वाले वन्यजीवों में बाघ, तेंदुआ, हिरण, जंगली सूअर, नीलगाय और कई प्रकार के पक्षी शामिल हैं। यह रिज़र्व पक्षी प्रेमियों के लिए भी एक स्वर्ग है, क्योंकि यह पेन्टेड स्टॉर्क, गूलर, ग्रीन बी-ईटर और कई अन्य दुर्लभ प्रजातियों के पक्षियों का घर है।

सरिस्का रिजर्व टाइगर अपने राजसी रॉयल बंगाल टाइगर्स के लिए प्रसिद्ध है, ये रणथंभौर से बाघों को सफलतापूर्वक स्थानांतरित करने वाला दुनिया का पहला बाघ अभयारण्य है। वर्तमान में यहां लगभग 33 बाघ हैं, जिनमें 11 वयस्क बाघ, 14 वयस्क बाघिन एवं 8 शावक शामिल हैं। हालाँकि, सरिस्का में बाघों की स्थिति हमेशा से ऐसी नहीं थी, साल 2004 को सरिस्का का सबसे बुरा समय माना जाता है। उस साल में रिजर्व के सभी बाघों का या तो शिकार कर लिया गया था, या फिर मार कर बेच दिया गया था। जिसके बाद साल 2005 में राजस्थान सरकार ने अवैध शिकार और वन्यजीव आपातकाल के खिलाफ रेड अलर्ट घोषित किया था। फिर प्रोजेक्ट टाइगर के तहत 4 साल बाद यानि साल 2008 में सरिस्का में एक बार फिर बाघ पुनर्वास कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसके तहत रणथंभौर राष्ट्रीय उद्यान से एक बाघ और दो बाघिनों को यहां स्थानांतरित किया गया। इन बाघों के जोड़ों से सभी अनिश्चितताओं को पीछे छोड़ते हुए साल 2012 में अपना बेबी बूम शुरू किया। जिससे साल 2012 और 2013 में यहां 2-2 शावकों का जन्म हुआ, इनकी संख्या साल दर साल बढ़ती गयी जो अब लगभग 33 तक पहुंच चुकी है। हर टाइगर रिजर्व में हर बाघ को एक खास नाम से पहचान दी जाती है। सरिस्का में मशहूर टाइगर को कृष्ण, सुंदरी, रिद्धि, सीता, नल्ला, वीरू और सुल्ताना जैसे नामों से भी जाना जाता है। वहीँ,सरिस्का के सभी बाघों को एसटी और नंबर के आधार पर मुख्य रूप से रिकॉर्ड के हिसाब से जाना जाता है।

सरिस्का में बाघों के अलावा तेंदुआ, चीता, जंगली सूअर, चीतल, सांभर, नीलगाय, चौसिंगा, और हाइना जैसे विभिन्न जानवर देखने को मिलते हैं। इसके अलावा यहाँ भालू, जंगली बिल्ली, और सियार भी पाए जाते हैं। सरिस्का के वनस्पति में आपको विभिन्न प्रकार के पेड़-पौधे, झाड़ियाँ, और घास के मैदान मिलेंगे। यहाँ की प्रमुख वनस्पतियों में धोक, खैर, बेर, टर्मिनलिया, पलाश, और सालार शामिल हैं। यहाँ के जंगलों में विभिन्न प्रकार की जड़ी-बूटियाँ और औषधीय पौधे भी पाए जाते हैं, जो यहां की जैव विविधता को और भी समृद्ध बनाते हैं।

सरिस्का टाइगर रिजर्व घूमने का सबसे अच्छा समय अक्टूबर से मार्च के बीच होता है, जब मौसम सुहाना रहता है और वन्यजीवों को देखने का अधिक मौका मिलता है। इस समय के दौरान तापमान मध्यम रहता है, जो सफारी के लिए आदर्श है। गर्मियों में भी यहाँ आ सकते हैं, क्योंकि इस समय बाघों को जल स्रोतों के पास देखना आसान होता है। मॉनसून के दौरान पार्क बंद रहता है, ताकि वन्यजीवों को प्रजनन का समय मिल सके। इसलिए, अपनी यात्रा की योजना बनाते समय इन बातों का ध्यान रखें।

अलवर सरिस्का अभयारण्य गर्मी के मौसम में सुबह 6.00 बजे से 10.00 बजे तक और दोपहर में 02.30 से 6.30 तक खुला रहता है और ठंड के मौसम में सुबह 6.30 से 10.30 और दोपहर में 02.30 से 05.30 तक पर्यटकों के घूमने के लिए खुला रहता है। यह पार्क हर साल मानसून के मौसम में यानी जुलाई, अगस्त और सितंबर में बंद रहता है। हालाँकि, टाइगर रिजर्व सरिस्का के कुछ जोन के अलावा अलवर बफर जोन के रूट मानसून के दौरान पर्यटकों के लिए खुले रहते हैं। एंट्री फीस भारतीय पर्यटकों के लिए 80 रुपये और विदेशी पर्यटकों के लिए 470 रुपये है। इसके अलावा सफारी के लिए अलग से शुल्क लिया जाता है। यहाँ आप जीप सफारी या केंटर सफारी का आनंद ले सकते हैं। जीप सफारी का शुल्क 4,200 रुपये है, जिसमें 6 लोग शामिल हो सकते हैं, जबकि केंटर सफारी का शुल्क 12,000 रुपये है, जिसमें 20 लोग शामिल हो सकते हैं।

सरिस्का टाइगर रिजर्व के पास रुकने के लिए रेस्ट हाउस, लॉज और रिसॉर्ट्स उपलब्ध हैं। यहां रुकने के लिए आपको 3 से 6 हजार और शहर के इलाके में ठहरने के लिए 2 से 4 हजार तक खर्च करने पड़ सकते हैं।

सरिस्का नेशनल पार्क दिल्ली से 165 किलोमीटर और जयपुर से 110 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है जहाँ आप फ्लाइट, ट्रेन और सड़क मार्ग में से किसी से भी यात्रा करके सरिस्का नेशनल पार्क जा सकते है। अगर आप फ्लाइट से यात्रा करके सरिस्का नेशनल पार्क जाने का प्लान बना रहे है तो बता दे की सरिस्का नेशनल पार्क का निकटतम हवाई अड्डा जयपुर हवाई अड्डा है, जो सरिस्का नेशनल पार्क से लगभग 110  किलोमीटर दूर है। आप जयपुर तक किसी भी प्रमुख शहर से उड़ान भरकर पहुच सकते है, और फिर वहा से सरिस्का नेशनल पार्क पहुंचने के लिए बस या एक टैक्सी किराए पर ले सकते है। राज्य के विभिन्न शहरों से अलवर के लिए नियमित बस सेवाएं उपलब्ध हैं। चाहे दिन हो या रात इस रूट पर नियमित बसे उपलब्ध रहती हैं। सरिस्का नेशनल पार्क का सबसे निकटम रेलवे स्टेशन अलवर जंक्शन है जो शहर का प्रमुख रेलवे स्टेशन है जहां के लिए भारत और राज्य के कई प्रमुख शहरों से नियमित ट्रेन संचालित हैं। आप ट्रेन से यात्रा करके अलवर पहुच सकते है और वहा से बस से या टैक्सी किराये पर ले कर सरिस्का नेशनल पार्क पहुच सकते हैं।
परागणकों की रक्षा करें—और हमारी खाद्य आपूर्ति की भी

मधुमक्खियां, तितलियाँ, पक्षी और चमगादड़ जो हमारे कई फलों, सब्जियों, मेवों और अधिकांश जंगली पौधों को परागित करते हैं, रिकॉर्ड संख्या में मर रहे हैं। यदि ये नुकसान जारी रहा, तो पूरे पारिस्थितिकी तंत्र को नुकसान होगा। हमारे कई स्वास्थ्यप्रद (और सबसे स्वादिष्ट) खाद्य पदार्थ दुर्लभ हो जाएंगे, और लागत बढ़ जाएगी - जिसका सबसे ज्यादा असर निम्न-आय वाले समुदायों और रंगीन समुदायों पर पड़ेगा।

हम परागणकर्ताओं के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक पर नकेल कसने के लिए काम कर रहे हैं: अनियंत्रित और लापरवाह कीटनाशक का उपयोग। विशेष रूप से, हम  निओनिक्स के उपयोग पर लगाम लगाने का प्रयास कर रहे हैं , जो संयुक्त राज्य अमेरिका में सबसे व्यापक रूप से इस्तेमाल किया जाने वाला कीटनाशक है और डीडीटी के बाद से सबसे अधिक पारिस्थितिक रूप से विनाशकारी कीटनाशक है।

हम  पुनर्योजी कृषि प्रथाओं का विस्तार करने के प्रयासों का भी समर्थन कर रहे हैं, जैसे कि विविध फसल चक्र और अन्य तकनीकें
प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में डूबे इंसान को अंदाजा ही नहीं कि वह अपने साथ-साथ लाखों वन्य जीवों के लिए इस धरती पर रहना कितना दूभर कर दिया



अपने स्वार्थ के लिए प्रकृति का अंधाधुंध दोहन करने में डूबे इंसान को अब यह अंदाजा ही नहीं रह गया है कि वह अपने साथ-साथ लाखों वन्य जीवों के लिए इस धरती पर रहना कितना दूभर कर दिया है। तथाकथित विकास एवं स्वार्थ के नाम पर धरती पर मौजूद संसाधनों का प्रबंधन और दोहन इस तरह से किया जा रहा है कि वन्य जीवों का अस्तित्व ही समाप्त हो रहा हैं। कितने ही पशु-पक्षियों की प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं, तो कितनी विलुप्ती कगार पर हैं।

दुनियाभर में तेजी से विलुप्त हो रहे वन्य पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं के संरक्षण के प्रति लोगों को जागरूक करने एवं वन्यजीवों की अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तस्करी आदि अन्य खतरों पर नियंत्रण के उद्देश्य से विश्व वन्य जीव दिवस हर साल 3 मार्च को मनाया जाता है। इस दिन लोगों को जंगली वनस्पतियों और जीवों की विभिन्न प्रजातियों के संरक्षण के फायदे बताकर जागरूक किया जाता है और वन्यजीव अपराध और वनों की कटाई के कारण वनस्पतियों और जीवों को होने वाले नुकसान को रोकने के लिए आह्वान किया जाता है।

संयुक्त राष्ट्र महासभा ने 20 दिसंबर 2013 को, अपने 68वें अधिवेशन में वन्यजीवों की सुरक्षा के प्रति लोगों को जागरूक करने एवं वनस्पति के लुप्तप्राय प्रजाति के प्रति जागरूकता बढ़ाने के लिए हर साल विश्व वन्यजीव दिवस मनाने की घोषणा की थी। महासभा ने वन्यजीवों के पारिस्थितिकी, आनुवांशिकी, वैज्ञानिक, सौंदर्य सहित विभिन्न प्रकार से अध्ययन अध्यापन को बढ़ावा देने को प्रेरित किया। विभिन्न जीवों और वनस्पतियों की प्रजातियों के अस्तित्व की रक्षा भी इसका उद्देश्य कहा जा सकता है। इस दिवस की शुरुआत थाईलैंड में हुई थी।

विश्व वन्यजीव दिवस मनाये जाने का मुख्य उद्देश्य वन्यजीवों से हमें भोजन तथा औषधियों के अलावा और भी कई प्रकार के लाभ मिलते हैं। इसमें से एक है वन्यजीव जलवायु संतुलित बनाए रखने में मदद करते हैं। वन्यजीव मानसून को नियमित रखने तथा प्राकृतिक संसाधनों की पुनःप्राप्ति में सहयोग करते हैं। पर्यावरण में जीव-जंतु तथा पेड़-पौधों के योगदान को पहचानकर तथा धरती पर जीवन के लिए वन्यजीवों के अस्तित्व का महत्व समझते हुए हर साल विश्व वन्यजीव दिवस अथवा वर्ल्ड वाइल्ड लाइफ डे मनाया जाता है। वन्य जीवों के सामने तस्करी के अलावा अन्य अनेक खतरे हैं। अब इन वन्य जीवों में ‘फॉरएवर केमिकल्स’ पाये जाने से इनका जीवन लुप्त होने की कगार पर पहुंच गया है।  वैज्ञानिकों को ध्रुवीय भालू से लेकर बाघ, बंदर और डॉलफिन जैसी मछलियों की 330 वन्यजीव प्रजातियों में ‘फॉरएवर केमिकल्स’ के पाए जाने के सबूत मिले हैं। जो दर्शाते हैं कि इंसानों द्वारा बनाया यह केमिकल न केवल पर्यावरण बल्कि उसमें रहने वाले अनगिनत जीवों के शरीर में पहुंच चुका है और उन्हें नुकसान पहुंचा रहा है। इनमें से कई प्रजातियां पहले ही खतरे में हैं।

पृथ्वी पर जीवन का विकास पर्यावरण के अनुकूल ऐसे माहौल में हुआ है, जिसमें जल, जंगल, जमीन और जीव-जंतु सभी आपस में एक-दूसरे से परस्पर जुड़े हुए हैं। प्रकृति ने धरती से लेकर वायुमंडल तक विस्तृत जैवविविधता को इतनी खूबसूरती से विकसित एवं संचालित किया है कि अगर उसमें से एक भी प्रजाति का वजूद खतरे में पड़ जाए तो सम्पूर्ण जीव-जगत का संतुलन बिगड़ जाता है। प्राकृतिक संतुलन के लिए सभी वन्य प्राणियों का सरंक्षण बेहद जरूरी है, अन्यथा किसी भी एक वन्य प्राणी के विलुप्त होने पर पूरी संरचना धीरे-धीरे बिखरने लगती है। चूंकि पारिस्थितिकी तंत्र में विभिन्न जीव एक दूसरे पर निर्भर हैं, इसलिए अन्य प्राणियों की विलुप्ति से हम इंसानों पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ेगा। नए वैज्ञानिक अध्ययन चेताते हैं कि इंसान जानवर को महज जानवर न समझे, बल्कि अपना वजूद बनाए रखने का सहारा समझे। दो या तीन दशकों के भीतर इंसान अगर वन्य जीवों की संख्या में हो रहे गिरावट को नहीं रोक पाया, तो मानव अस्तित्व के लिए एक बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा।
प्रकृति मानव जीवन का एक अभिन्न अंग

प्रकृति मानव जीवन का एक अभिन्न अंग है। यह हमें हवा, पानी, भोजन और अन्य संसाधन प्रदान करती है, जिन पर हमारी जीविका निर्भर करती है। प्रकृति की गोद में पेड़-पौधे, पशु-पक्षी, नदियाँ, पहाड़ और वनस्पतियाँ शामिल हैं। ये सभी मिलकर एक संतुलित पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण करते हैं, जो हमारे पर्यावरण को सुरक्षित और स्वस्थ बनाए रखने में मदद करता है।

आज के समय में मानव गतिविधियों के कारण प्रकृति पर गंभीर खतरे मंडरा रहे हैं। वनों की कटाई, प्रदूषण, जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता की हानि जैसी समस्याओं ने प्रकृति के संतुलन को बिगाड़ दिया है। इन समस्याओं का समाधान करने के लिए हमें सामूहिक प्रयास करने की आवश्यकता है। हमें अपने संसाधनों का सतत उपयोग करना चाहिए, पेड़ लगाने चाहिए, और पर्यावरण को संरक्षित करने के उपाय अपनाने चाहिए।

प्रकृति का संरक्षण न केवल हमारी जिम्मेदारी है, बल्कि यह हमारे अस्तित्व के लिए भी आवश्यक है। अगर हम अपनी आने वाली पीढ़ियों के लिए एक स्वस्थ और सुरक्षित पर्यावरण छोड़ना चाहते हैं, तो हमें अभी से कदम उठाने होंगे और प्रकृति के साथ सामंजस्य में रहना सीखना होगा।
क्या शेर को भी किसी जीव से डर लगता है?


शेर, यानी जंगल का राजा, जंगल का सबसे खूंखार शिकारी, जिसके सामने हर कोई गीदड़ बन जाता है…पर क्या शेर भी किसी के सामने गीदड़ बनता है? क्या शेर को भी किसी जीव से डर लगता है? आपने शेर को डलते हुए कम ही देखा होगा, पर इन दिनों एक वीडियो वायरल हो रहा है, जिसमें एक शेर की दादागिरी हिप्पो के सामने गायब होती दिख रही है. वो पानी में हिप्पो से इतना ज्यादा डर जाता है कि जान बचाकर भागने पर मजबूर हो जाता है.

हाल ही में एक वीडियो शेयर किया गया है जिसमें एक शेर और हिप्पो के बीच लड़ाई होती दिख रही है. पर ये लड़ाई पूरी तरह एक तरफा ही नजर आ रही है. वो इसलिए क्योंकि शेर हिप्पो के घर में, यानी तालाब में घुस गया है. पानी में हिप्पो कितना शक्तिशाली होता है, ये तो सब जानते ही हैं.

*हिप्पो ने कर दिया शेर पर हमला*

इस वीडियो में 3 शेर नजर आ रहे हैं जो तालाब में मौजूद हैं. तभी पीछे से एक हिप्पो तेजी से एक शेर की तरफ आता है और उसे अपने विशाल मुंह से काटने चलता है. तभी शेर बचकर भागने लगता है. शेर बार-बार खुद को उस दरियाई घोड़े से बचाने की कोशिश में लगा हुआ है. बाकी दोनों शेर भी वहां से भाग निकलता है. कुछ देर बचने के बाद शेर पानी से बाहर भागने में ही समझदारी समझता है और दरियाई घोड़ा आखिरकार जीत जाता है.

काला भालू आकस्मिक रूप से एक पारिवारिक पिकनिक में हुया शामिल

घुमक्कड़ी के शौकीन लोग अक्सर अपने बिजी शेड्यूल से वक्त निकालकर अपने फेवरेट डेस्टिनेशन्स पर घूमने के लिए निकल जाते हैं. खासकर, अगर बात करें एनिमल लवर्स  की तो वो घूमने के लिए जंगल का रुख कर लेते हैं. इस बीच सोशल मीडिया  पर एक वीडियो तेजी से वायरल  हो रहा है, जिसमें एक फैमिली जंगल में पिकनिक  मनाने पहुंचते हैं, जहां वो साथ मिलकर खाने के लिए बैठते हैं और तभी वहां भालू पहुंच जाता है. जंगली काला भालू  इस परिवार के साथ पिकनिक पार्टी को एन्जॉय करते हुए खाने का लुत्फ उठाने लगता है.
गोताखोरों ने ताइवान के तट पर विशालकाय ओरफिश की खोज की


गोताखोरों ने ताइवान के उत्तरी तट पर विशालकाय ओरफिश की खोज की छह फुट से अधिक लंबे इस प्राणी को "समुद्र देवता के महल का दूत" कहा जाता है।
गोताखोरों को ताइवान के उत्तर-पूर्वी तट के पास एक अद्भुत खोज मिली: एक विशाल गहरे समुद्र की ओरफिश।

जून के अंत में लिए गए वीडियो में छह फुट से अधिक लंबे इस जीव को दिखाया गया है, जिसके शरीर पर बड़े-बड़े काटने के निशान दिखाई दे रहे हैं।

ओरफिश गहरे समुद्र में रहने वाली प्रजाति है, जो समुद्र की सतह से 200 से 1,000 मीटर नीचे मेसोपेलाजिक क्षेत्र में अपना घर बनाती है, इसलिए इनका दिखना दुर्लभ है।

नेशनल ज्योग्राफिक के अनुसार, जापानी लोककथाओं में, ओरफिश को "समुद्र देवता के महल से आए दूत" के रूप में जाना जाता है और इसे एक प्रकार से प्रलय के अग्रदूत के रूप में ख्याति प्राप्त है ।

स्थानीय किंवदंती का दावा है कि ओरफ़िश सुनामी या भूकंप जैसी प्राकृतिक आपदाओं से ठीक पहले दिखाई देती है। वास्तव में, दक्षिणी फिलीपींस में 2017 में आए घातक भूकंप से कुछ दिन पहले छह ओरफ़िश देखी गई थीं , नेटजीओ ने बताया।

लेकिन विशेषज्ञों का कहना है कि विज्ञान कहता है कि यह किंवदंती सत्य नहीं है।

लुइसियाना स्टेट यूनिवर्सिटी के समुद्र विज्ञानी और पारिस्थितिकीविद् मार्क बेनफील्ड ने नेटजीओ को बताया, "यह कल्पना करना कठिन है कि भूकंप से पहले किस प्रकार की घटना घटेगी, जिसके कारण ये ओर्फिश  छोड़कर किनारे की ओर चले जाएंगे।"

ओरफिश समुद्र तल के पास नहीं रहती जहां गहरे समुद्र में भूकंपीय गतिविधियां होती हैं, और यदि यह सिद्धांत सत्य होता, तो ओरफिश भूकंप से पहले देखी जाने वाली एकमात्र प्रजाति नहीं होती।

कैटालिना द्वीप समुद्री संस्थान के अनुसार, ओरफिश 50 फीट से अधिक तक बढ़ सकती है, जिससे यह दुनिया की सबसे लम्बी हड्डीदार मछली बन जाती है।

संभवतः वे पूरे इतिहास में समुद्री सर्पों से संबंधित किंवदंतियों के लिए जिम्मेदार हैं।
प्राकृतिक वनस्पति एवं वन्य जीवन तथा उसका संरक्षण

कुंवारी वनस्पति जो बिना किसी मानवीय सहायता के अस्तित्व में है, जिसमें प्राकृतिक वृद्धि प्रक्रिया है और जो मनुष्यों द्वारा बिना किसी व्यवधान के बनी हुई है, उसे प्राकृतिक वनस्पति कहते हैं। मनुष्यों द्वारा लगाई गई फसलें और फल वनस्पति का हिस्सा होते हैं, लेकिन उन्हें प्राकृतिक वनस्पति नहीं माना जाता है। भारत में, पौधों की एक विविध श्रेणी है, जिसमें 47,000 प्रजातियाँ हैं।

भारत में जानवरों की 90,000 प्रजातियाँ और पक्षियों की 2,000 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। इसके अलावा, यहाँ मछलियों की 2,546 प्रजातियाँ पाई जाती हैं। देश के जीव-जंतुओं में भी काफ़ी विविधता है।

प्राकृतिक वनस्पति और वन्य जीवन की विविधता को संरक्षित करने के लिए सरकार द्वारा विभिन्न कदम उठाए गए हैं, जिनकी चर्चा नीचे की गई है:

जीवमंडल: जीवमंडल स्थलमंडल, जलमंडल और वायु के बीच संपर्क का सघन क्षेत्र है जहां सामान्य वनस्पति और अदम्य जीवन मौजूद है

पारिस्थितिकी तंत्र: जीवमंडल में जीवित प्राणी आपस में जुड़े हुए हैं और जीवित रहने के लिए एक दूसरे पर निर्भर हैं। इस जीवन-सहायक ढांचे को पारिस्थितिकी तंत्र के रूप में जाना जाता है

वनस्पति का महत्व/महत्व: वनस्पति एक मूल्यवान संसाधन है। पौधे हमें लकड़ी प्रदान करते हैं, जीवों को आश्रय देते हैं, हमारे द्वारा साँस में ली जाने वाली ऑक्सीजन का उत्पादन करते हैं, और मिट्टी को सुरक्षित रखते हैं। इसके अतिरिक्त, हमें जैविक उत्पाद, मेवे, लेटेक्स, तारपीन का तेल, गोंद, औषधीय पौधे आदि प्रदान करते हैं

वन्यजीवों का महत्व/महत्व: वन्यजीवों में समुद्री जीवों की तरह ही जीव, पक्षी और कीड़े शामिल हैं। वे हमें दूध, मांस, छिपने की जगह और ऊन देते हैं। मधुमक्खियों जैसे खौफनाक जीव हमें शहद देते हैं, फूलों के निषेचन में मदद करते हैं और पर्यावरण में अपघटक के रूप में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं। मृत जानवरों से लाभ उठाने की उनकी क्षमता के कारण, गिद्ध एक चारागाह हैं और उन्हें जलवायु के एक आवश्यक सफाई एजेंट के रूप में माना जाता है।