अमेरिका-यूरोप में बढ़ी भारत की अहमियत, क्या पड़ोसियों के साथ रिश्तों में होगा सुधार
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नरेंद्र मोदी तीसरी बार भारत के प्रधानमंत्री बने हैं।2014 में जब नरेंद्र दामोदरदास मोदी पहली बार भारत के प्रधानमंत्री बने, उनके शपथ ग्रहण समारोह में भारत के सभी पड़ोसी देशों के प्रतिनिधियों को आमंत्रित किया गया था। संदेश स्पष्ट था भारत अच्छा पड़ोसी बनना चाहता है। अपने तीसरे कार्यकाल के शपथ ग्रहण समारोह में भी भारत के सात पड़ोसी देशों के राष्ट्राध्यक्षों को न्योता भेजा गया।पड़ोसी देशों के प्रमुखों को शपथ ग्रहण में बुलाने का फैसला उन देशों के साथ संबंधों को मजबूत करने के लिए किया गया है, जो दिल्ली की 'पड़ोसी प्रथम' पॉलिसी के केंद्र में हैं। हालांकि मोदी सरकार के लिए पड़ोसी देशों के साथ रिश्तों को मधुर बनाना किसी बड़ी चुनौती से कम नहीं है।
दरअसल, प्रधानमंत्री पद संभालने के तुरंत बाद नरेन्द्र मोदी ने जी 7 शिखर बैठक में शामिल होने के साथ वैश्विक रंगमंच पर शानदार आगाज किया। इसके तीन सप्ताह बाद वह शांघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की अस्ताना, कजाकस्तान में 3-4 जुलाई को आयोजित हो रही शिखर बैठक में शामिल होंगे। अमेरिकी खेमे के संगठन जी7 में भाग लेने के एक महीने के भीतर अमेरिका विरोधी चीन और रूस की अगुआई वाले एससीओ में उनकी भागीदारी रोचक होगी।
प्रधानमंत्री मोदी का दो विरोधी गुटों की शिखर बैठक में शामिल होना साफ बताता है कि वैश्विक स्तर पर भारत की अहमियत बढ़ी है। हालांकि इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि मोदी के लिए पड़ोसी देशों के साथ सामान्य रिश्ते बनाए रखना बड़ी चुनौती है। तीसरा कार्यकाल संभालने से पहले जिस तरह अमेरिका, रूस और कई यूरोपीय नेताओं ने मोदी को फोन कर बधाई दी और जिस तरह चीन और पाकिस्तान के नेताओं ने उन्हें नजरअंदाज किया, उससे पता चलता है कि जहां भारत को बड़ी ताकतें अपनी ओर आकर्षित करना चाहती हैं, वहीं कुछ पड़ोसी देशों के लिए मोदी सरकार में संबंध को सुधारना मुश्किल होगा।
भारत में मौजूदा सरकार के सत्ता में आने के बाद से कई सार्क देशों के साथ भारत के संबंध बिग़ड़ते चले गए हैं। पहले पाकिस्तान, नेपाल और अब बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान के साथ रिश्तों की गर्माहट कम हो रही है।
नेपाल के साथ भारत के रिश्ते
नेपाल और भारत 1750 किलोमीटर से अधिक की सीमा साझा करते हैं। कहा जाता है कि दोनों के बीच न केवल रोज़ी-रोटी का बल्कि रोटी-बेटी का संबंध रहा है। लेकिन 2015 में दोनों पड़ोसियों के बीच रिश्तों में तनाव आना शुरू हुआ। मामला जुड़ा था नेपाल के नए संविधान से। 2015 में जब वहां नया संविधान बनने वाला था, उस वक्त तराई के इलाके में रहने वाले मधेशी इसका विरोध कर रहे थे। उनका दावा था कि सरकार में उनकी भागीदारी नहीं है। विरोध बढ़ा और नेपाल ने भारत पर आर्थिक नाकेबंदी का आरोप लगाया। इस बीच नेपाल की चीन के साथ बढ़ती नजदीकियों ने भारत के सामने चुनौती पेश की है।ऐसे में भारत को नेपाली लोगों का विश्वास दोबारा हासिल करने के लिए कड़ी मेहनत करनी होगी।
पाकिस्तान के साथ बिगड़े रिश्ते
रही पाकिस्तान और भारत के संबंधों की बात तो 2014 में अपने शपथ ग्रहण में पीएम मोदी ने पाकिस्तान के प्रधानमंत्री नवाज शरीफ को आमंत्रित किया था। यही नहीं 2015 दिसंबर में क़ाबुल से दिल्ली लौटते हुए अचानक प्रधानमंत्री मोदी लाहौर पहुंच गए। खुद पहल करते हुए मोदी पाकिस्तानी प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ से मुलाक़ात करने पहुंचे तो माना गया कि उन्होंने दोस्ती का हाथ बढ़ाया है, लेकिन भविष्य कुछ और ही था।पहले पठानकोट, फिर उरी, पुलवामा और फिर बालाकोट को लेकर दोनों पड़ोसियों के बीच तनाव बढ़ा दिया। यही नहीं, जम्मू कश्मीर को ख़ास दर्जा देने वाले संविधान के अनुच्छेद 370 को ख़त्म करने के भारत सरकार के फ़ैसले ने दोनों देशों के रिश्ते को और तल्ख कर दिया।
अफगानिस्तान को किया नजरअंदाज
अफ़ग़ानिस्तान के साथ भारत के क़रीबी रिश्ते रहे हैं और ये संबंध कूटनीतिक तौर पर भी अहम माने जाते हैं। भारत आर्थिक तौर पर भी अफ़ग़ानिस्तान की काफ़ी मदद करता रहा है। लेकिन दशकों से हिंसा से जूझ रहे अफ़ग़ानिस्तान से जब अमरीका ने बाहर निकलने का ऐलान किया तो भारत शांत ही रहा। न तो वो शांति प्रक्रिया में ही शामिल हुआ और न ही किसी और मामले में।2021 में तालिबान के सत्ता पर कब्जा जमाने के बाद से भारत और अफगानिस्तान के बीच कोई राजनयिक संबंध नहीं है।
बांग्लादेश के साथ मधुर संबंध कटु होने की राह पर!
1971 में पश्चिमी पाकिस्तान से पूर्वी पाकिस्तान अलग हुआ और बांग्लादेश नाम का एक नया राष्ट्र बना। चूंकि इसके गठन में भारत की भूमिका अहम रही इस कारण भारत के साथ इसके रिश्ते भी शुरुआत से मधुर रहे। लेकिन अब आगे ऐसा होता दिख नहीं रहा।घुसपैठ ने दोनों देशों के रिश्तों में खटास पैदा कर दी है। वहीं, 2011 में पश्चिम बंगाल के विरोध के कारण हम तीस्ता समझौते पर दस्तख़त नहीं कर पाए। जो दोनों देशों के रिश्तों के बीच एक नकारात्मक संदेश था। हालांकि, हाल ही एक महीने के अंदर दो बार बांग्लादेशी प्रधानमंत्री शेख हसीना का भारत दौरा दूरीयों को मिटाता नजर आ रहा है।
भूटान के साथ संबंध
भूटान भारत के लिए भी बेहद जरूरी पड़ोसी देश है। यही कारण है कि भारत अपनी पंचवर्षीय योजना, वित्तीय प्रोत्साहन पैकेज और गेलेफू माइंडफुलनेस सिटी परियोजना में सहायता के साथ भूटान का समर्थन करने को तैयार है।खासकर तब जब चीन अपनी शर्तों पर भूटान के साथ सीमा पर बातचीत करने को तैयार है।
दरअसल,चीन आर्थिक साझेदारी का चोला पहनकर हिंद महासागर के कई तटीय देशों के साथ संबंध बनाने की कोशिश कर रहा है। भूटान इसका ही एक उदाहरण है। चीन ने भूटान के इलाकों पर हमले करके वहां के पहाड़ों को काट डाला। चीन ने वहां की जमीन पर अपने कस्बे बसा लिए। भूटान के बास सैन्य बल न होने के कारण, वह चीन द्वारा उसके भू-भाग को काटे जाने की मूकदर्शक बना हुआ है, जो सीमा वार्ता जारी रहने के बावजूद जारी है।
मालदीव के साथ तनाव के बीत संबंध जारी
मालदीव ने मोदी 3.0 के शपथ ग्रहण का न्योता स्वीकार करके साफ कर दिया कि वो भारत से बातचीत करना चाहता है। जबकि हाल ही में मालदीव से भारतीय सैनिकों को वापस बुलाने के बाद दोनों देशों के संबंधों में खटास आ गई थी। पिछले साल भी मालदीव के कुछ मंत्रियों ने पीएम मोदी को लेकर आपत्तिजनक टिप्पणी की थी, जिसके बाद दोनों देशों के बीच विवाद खड़ा हो गया था। हालांकि मालदीव ने उन मंत्रियों को पद से हटा दिया था।मालदीव के राष्ट्रपति मुइज्जू 'भारत को बाहर करो' के नारे के साथ सत्ता में आए थे।हालांकि, तनाव के बाद भी भारत की ओर से बरती गई या फिर कहें आर्थिक तौर पर चोट कानेके बाद मालदीव की सरकार भी झुकती नजर आ रही है।
श्रीलंका में भी चीन की पकड़ होगी कमजोर
श्रीलंका भारत के पड़ोसी देशों में से एक है। दोनों देशों के बीच एक ऐसा रिश्ता है जिसे 2500 साल पुराना कहा जा सकता है। भारत श्रीलंका ने आंतरिक रूप से विस्थापित व्यक्तियों (आईडीपी) के लिए विकास सहायता परियोजनाओं में सहयोग की प्रगति दिखाई है, जिसने भारत श्रीलंका के बीच मैत्री बंधन को और मजबूत किया है। हाल में श्रीलंका के वित्तीय संकट से निपटने में भारत ने काफी मदद की है। भारत की कंपनियां अब श्रीलंका के बुनियादी ढांचे को डेवलेप करने में बड़ी भूमिका निभा रही हैं। इन योजनाओं के लिए अमेरिका भी मदद कर रहा है, जो भारत का प्रमुख रणनीतिक साझेदार है। इसे इस तरह समझ सकते हैं कि पिछले साल कोलंबो पोर्ट के एक प्रोजेक्ट के लिए अमेरिकी कंपनी ने 4,600 करोड़ रुपये देने का वादा किया था। इस टर्मिनल में भारत के अडाणी ग्रुप की 51% हिस्सेदारी है।
हालांकि, हाल ही में संपन्न हुए लोकसभा चुनाव में कच्चातिवू द्वीप को लेकर दोनों देश आमने-सामने आते दिखे।
Jun 27 2024, 09:16