चैत्र नवरात्रि का पहला दिन, कलश स्थापना के साथ मां शैलपुत्री स्वरूप की हो रही पूजा अर्चना
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मां दुर्गा को कई नामों से जाना जाता है और मां के नौ रूपों की पूजा नवरात्रि के दौरान होती है। आज से चैत्र नवरात्रि का प्रारंभ हो गया है। ऐसे में मां के भक्त पूरी श्रद्धा के साथ देवी दुर्गा और उनके अलग अलग स्वरूपों की पूजा करेंगे। प्राचीन ग्रंथों के अनुसार दुर्गा के नौ रूपों की पूजा होती आ रही है। इसमें महाकाली, महालक्ष्मी, महासरस्वती, योगमाया, रक्तदंतिका, शाकुंभरी देवी, दुर्गा, भ्रामरी देवी व चंडिका प्रमुख हैं। इन नौ रूपों को शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कुष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी, सिद्धिदात्री नामों से जाना जाता है।
नवरात्रि हिंदू धर्म का विशेष पर्व है। नवरात्रि शब्द संस्कृत भाषा से लिया गया है जिसका अर्थ है नौ रातें। नवरात्रि में नौ दिनों तक देवी दुर्गा के नौ रूपों की पूजा की जाती है। चैत्र नवरात्रि की शुरुआत घटस्थापना के साथ होती है। नवरात्रि के पहले दिन शुभ मुहूर्त और सही तरीके से ही घटस्थापना करनी चाहिए। इसके लिए पूजा स्थल को पहले अच्छे से साफ कर लें। वहां पर मिट्टी की वेदी बनाकर या मिट्टी के बड़े पात्र में जौ बोएं। अब कलश या मिट्टी का पात्र लें और उसकी गर्दन पर मौली बांध लें। फिर कलश पर तिलक लगाएं और उसमें जल भर दें। जल के साथ ही कलश में अक्षत, सुपारी, सिक्का आदि चीजें भी डाल दें। अब एक नारियल लें और उसे लाल कपड़े में लपेट लें। नारियल और लाल कपड़े या चुन्नी को रक्षा सूत्र में बांध लें। इसके बाद जमीन को साफ करके सबसे पहले जौ वाला पात्र रखें, उसके बाद उस पर पानी से भरा कलश रखें, फिर कलश के ढक्कन पर नारियल रख दें। अब कलश पर स्वास्तिक का चिह्न बनाएं और दुर्गा जी की प्रतीमा के पास में कलश स्थापित कर दें। इस दिन मां दुर्गा के पहले स्वरूप मां शैलपुत्री की पूजा की जाती है।
ऐसा है मां शैलपुत्री का स्वरूप
शैलपुत्री का संस्कृत में अर्थ होता है ‘पर्वत की बेटी’। मां शैलपुत्री के स्वरूप की बात करें तो मां के माथे पर अर्ध चंद्र स्थापित है। मां के दाहिने हाथ में त्रिशूल है और बाएं हाथ में कमल का फूल है। वे नंदी बैल की सवारी करती हैं।
मां शैलपुत्री से जुड़ी पौराणिक कथा
मां दुर्गा अपने पहले स्वरुप में 'शैलपुत्री' के नाम से पूजी जाती हैं। पर्वतराज हिमालय की पुत्री होने के कारण इनका नाम शैलपुत्री पड़ा। अपने पूर्व जन्म में ये प्रजापति दक्ष की कन्या के रूप में उत्पन्न हुई थीं तब इनका नाम सती था। इनका विवाह भगवान शंकर जी से हुआ था। एक बार प्रजापति दक्ष ने बहुत बड़ा यज्ञ किया जिसमें उन्होंने सारे देवताओं को अपना-अपना यज्ञ भाग प्राप्त करने के लिए निमंत्रित किया किन्तु शंकर जी को उन्होंने इस यज्ञ में आमंत्रित नहीं किया।
देवी सती ने जब सुना कि हमारे पिता एक अत्यंत विशाल यज्ञ का अनुष्ठान कर रहे हैं,तब वहां जाने के लिए उनका मन विकल हो उठा। अपनी यह इच्छा उन्होंने भगवान शिव को बताई। भगवान शिव ने कहा-''प्रजापति दक्ष किसी कारणवश हमसे रुष्ट हैं,अपने यज्ञ में उन्होंने सारे देवताओं को निमंत्रित किया है किन्तु हमें जान-बूझकर नहीं बुलाया है। ऐसी स्थिति में तुम्हारा वहां जाना किसी प्रकार भी श्रेयस्कर नहीं होगा।'' शंकर जी के इस उपदेश से देवी सती का मन बहुत दुखी हुआ। पिता का यज्ञ देखने वहां जाकर माता और बहनों से मिलने की उनकी व्यग्रता किसी प्रकार भी कम न हो सकी। उनका प्रबल आग्रह देखकर शिवजी ने उन्हें वहां जाने की अनुमति दे दी।
सती ने खुद को योगाग्नि में खुद को भस्म कर दिया
सती ने पिता के घर पहुंचकर देखा कि कोई भी उनसे आदर और प्रेम से बातचीत नहीं कर रहा है। केवल उनकी माता ने ही स्नेह से उन्हें गले लगाया। परिजनों के इस व्यवहार से देवी सती को बहुत क्लेश पहुंचा। उन्होंने यह भी देखा कि वहां भगवान शिव के प्रति तिरस्कार का भाव भरा हुआ है,दक्ष ने उनके प्रति कुछ अपमानजनक वचन भी कहे। यह सब देखकर सती का ह्रदय ग्लानि और क्रोध से संतप्त हो उठा। उन्होंने सोचा कि भगवान शंकर जी की बात न मानकर यहाँ आकर मैंने बहुत बड़ी गलती की है।वह अपने पति भगवान शिव के इस अपमान को सहन न कर सकीं, उन्होंने अपने उस रूप को तत्काल वहीं योगाग्नि द्वारा जलाकर भस्म कर दिया।
शैलपुत्री के रूप में फिर शिवजी की अर्द्धांगिनी बनीं
इस दारुणं-दुखद घटना को सुनकर शंकर जी ने क्रुद्ध हो अपने गणों को भेजकर दक्ष के उस यज्ञ का पूर्णतः विध्वंस करा दिया। सती ने योगाग्नि द्वारा अपने शरीर को भस्म कर अगले जन्म में शैलराज हिमालय की पुत्री के रूप में जन्म लिया। इस बार वह शैलपुत्री नाम से विख्यात हुईं। पार्वती,हेमवती भी उन्हीं के नाम हैं। इस जन्म में भी शैलपुत्री देवी का विवाह भी शंकर जी से ही हुआ।
Mar 22 2023, 11:20