आज़ादी के बाद दिल्ली की राजनीति: विकास, चुनौतियाँ और 2025 के चुनाव
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दिल्ली, भारत की राजनीति का हृदय, आज़ादी के बाद से कई महत्वपूर्ण परिवर्तनों से गुज़री है। देश की राजधानी के रूप में, यह राजनीतिक आंदोलनों, सरकारी नीतियों और राष्ट्रीय चर्चाओं का केंद्र रही है। दिल्ली की राजनीति के परिवर्तनों को भारत की पूरी राजनीतिक यात्रा का आईना माना जा सकता है, जो एक नवगठित लोकतंत्र से लेकर दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र तक के सफर का गवाह रही है। दशकों में दिल्ली की राजनीति ने कांग्रेस पार्टी के शासन से लेकर क्षेत्रीय ताकतों के उदय, और हाल ही में आम आदमी पार्टी (AAP) के एक राजनीतिक विक्राल के रूप में उभरने तक कई महत्वपूर्ण परिवर्तन देखे हैं। यह लेख दिल्ली की राजनीतिक यात्रा का विवरण प्रस्तुत करता है और विशेष रूप से 2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव और उनके प्रभाव पर ध्यान केंद्रित करता है।
आज़ादी के बाद दिल्ली की राजनीतिक यात्रा
प्रारंभिक वर्ष (1947-1960 के दशक)
आज़ादी के बाद, दिल्ली भारत की नई राज्यव्यवस्था का केंद्र बन गई। यह शहर नीति-निर्माण और प्रशासन का प्रमुख केंद्र था। जवाहरलाल नेहरू, जो भारत के पहले प्रधानमंत्री थे, एक प्रमुख शख्सियत थे जिन्होंने भारत की लोकतांत्रिक और धर्मनिरपेक्ष प्रणाली की नींव रखी। नेहरू की कांग्रेस पार्टी ने पहले कुछ दशकों तक दिल्ली की राजनीति पर प्रभुत्व बनाए रखा, जो देश भर में कांग्रेस के प्रभाव को दर्शाता है। शुरुआती वर्षों में, भारतीय सरकार ने देश को पुनर्निर्माण करने, विभाजन, सांप्रदायिक तनाव और रियासतों के विलय जैसे मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया।
दिल्ली को 1956 में एक केंद्रीय शासित प्रदेश के रूप में स्थापित किया गया, बजाय एक पूर्ण राज्य के, जिससे यह सीधे केंद्र सरकार के अधीन रहा। इसका मतलब था कि दिल्ली को अन्य राज्यों द्वारा प्राप्त स्वायत्तता नहीं मिलती थी, जिससे यह राजनीतिक रूप से अद्वितीय हो गई। इस प्रकार, दिल्ली की राजनीति मुख्य रूप से केंद्रीय सरकार की नीतियों से प्रभावित थी और क्षेत्रीय राजनीतिक ताकतों को अपनी पहचान बनाने का अवसर बहुत कम था।
1970 का दशक: आपातकाल और राजनीतिक असंतोष
1970 का दशक भारतीय राजनीति में एक महत्वपूर्ण मोड़ था। इंदिरा गांधी द्वारा 1975 में आपातकाल की घोषणा ने भारत के लोकतंत्र में एक महत्वपूर्ण मोड़ पेश किया। आपातकाल, जिसे इंदिरा गांधी ने राजनीतिक अशांति और अपनी नेतृत्व क्षमता पर उठाए गए सवालों के जवाब में घोषित किया था, के परिणामस्वरूप व्यापक गिरफ्तारी, सेंसरशिप और नागरिक स्वतंत्रताओं का निलंबन हुआ। दिल्ली, जो केंद्र सरकार का मुख्यालय थी, इस दौरान राजनीतिक दमन का प्रमुख केंद्र बनी।
इस अवधि के दौरान जनता पार्टी का उदय हुआ, जो कांग्रेस के खिलाफ एक गठबंधन था और 1977 के चुनावों में कांग्रेस को हराकर सत्ता में आई। यह पहला मौका था जब कांग्रेस को भारत में अपनी समग्र प्रमुखता से वंचित किया गया था और दिल्ली में वैकल्पिक राजनीतिक आवाज़ें उभरने लगीं। जनता पार्टी का संक्षिप्त कार्यकाल समाप्त हुआ, और 1980 के दशक में इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने फिर से अपनी पकड़ बनाई।
1980 का दशक: कांग्रेस का पुनरुत्थान और सिख दंगे
1980 का दशक इंदिरा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस के पुनरुत्थान का दौर था। उनके 1984 में हत्या के बाद दिल्ली की राजनीति में एक त्रासद घटना घटी— 1984 के सिख दंगे। उनकी हत्या के बाद जो हिंसा हुई, उसने दिल्ली की राजनीतिक और सामाजिक संरचना को गहरे तरीके से प्रभावित किया। दंगों को लेकर कांग्रेस पार्टी पर आरोप लगे हैं और यह मामला आज भी एक विवादित मुद्दा बना हुआ है। हालांकि, इस समय कांग्रेस दिल्ली की राजनीति में फिर से मजबूत हुई और राजीव गांधी ने प्रधानमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला।
1980 का दशक शहरी राजनीति के स्वरूप में बदलाव लेकर आया। दिल्ली के एक महानगर के रूप में बढ़ते विकास और बढ़ती सामाजिक-आर्थिक विषमताओं ने राजनीतिक विमर्श को प्रभावित किया। जबकि कांग्रेस दिल्ली की राज्य राजनीति पर हावी थी, इस दशक में नए राजनीतिक बल उभरने लगे थे, जो 1990 के दशक में कांग्रेस की एकाधिकारवादी सत्ता को चुनौती देने लगे।
1990 का दशक: बीजेपी का उदय
1990 का दशक दिल्ली और भारत की राजनीति में एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकाल था। सोवियत संघ के पतन और 1991 में भारतीय अर्थव्यवस्था के उदारीकरण ने राष्ट्रीय राजनीति में एक नए दौर की शुरुआत की। इस दशक में भारतीय जनता पार्टी (BJP) का उदय हुआ, जो अपनी हिंदुत्व विचारधारा और बढ़ती राष्ट्रवाद की भावना से जुड़ी थी। बीजेपी ने दिल्ली में महत्वपूर्ण कदम उठाए और स्थानीय और राष्ट्रीय राजनीति में अपनी पकड़ मजबूत की। 1993 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में बीजेपी ने महत्वपूर्ण जीत हासिल की और 1990 के दशक के मध्य तक वह दिल्ली में एक मजबूत राजनीतिक शक्ति के रूप में उभरी। पार्टी, जिसका नेतृत्व अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे नेताओं ने किया, ने खुद को कांग्रेस के विकल्प के रूप में प्रस्तुत किया और राष्ट्रीय सुरक्षा, आर्थिक विकास और सांस्कृतिक राष्ट्रवाद को बढ़ावा दिया।
हालांकि, कांग्रेस पार्टी, जो 1980 के दशक में कई संकटों का सामना करने के बावजूद कमजोर पड़ी थी, फिर भी दिल्ली की राजनीति में अपना प्रभुत्व बनाए रखे हुए थी, और स्थानीय निकायों में उसकी पकड़ मजबूत रही।
2000 का दशक: AAP का उदय और क्षेत्रीय राजनीति
2000 के दशक में दिल्ली की राजनीति में आम आदमी पार्टी (AAP) का उदय हुआ। अरविंद केजरीवाल द्वारा 2012 में AAP की स्थापना के बाद, पार्टी ने भारतीय राजनीति में नया मोड़ दिया। केजरीवाल, जो पहले एक भ्रष्टाचार विरोधी कार्यकर्ता थे, ने स्थापित राजनीतिक दलों से बढ़ती निराशा का फायदा उठाया और आम जनता की आवाज़ के रूप में खुद को प्रस्तुत किया।
AAP ने 2013 में दिल्ली विधानसभा चुनावों में शानदार शुरुआत की और 70 में से 28 सीटों पर कब्जा किया। हालांकि AAP बहुमत नहीं प्राप्त कर पाई, लेकिन उसने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई, और यह दिल्ली की राजनीति में एक नई राजनीतिक ताकत के रूप में उभरी। केजरीवाल ने मुख्यमंत्री के रूप में कार्यभार संभाला, लेकिन 2014 में जन लोकपाल विधेयक पर असहमति के कारण उनकी सरकार ने इस्तीफा दे दिया।
2015 में AAP ने फिर से धमाकेदार वापसी की और 70 में से 67 सीटें जीतकर दिल्ली विधानसभा चुनावों में अभूतपूर्व सफलता हासिल की। यह जीत दिल्ली के मतदाताओं का एक बड़ा समर्थन था, और AAP ने अपनी राजनीति को शिक्षा, स्वास्थ्य और भ्रष्टाचार विरोधी नीतियों पर केंद्रित किया।
वर्तमान दिल्ली राजनीति (2020 का दशक)
वर्तमान में दिल्ली की राजनीति AAP और भारतीय जनता पार्टी (BJP) के बीच कड़ी प्रतिस्पर्धा से भरी हुई है। जहां AAP ने शहर के शहरी मध्यवर्ग के बीच अपनी मजबूत पकड़ बनाई है, वहीं बीजेपी राष्ट्रीय स्तर पर प्रभावी पार्टी बनी हुई है। दोनों पार्टियाँ दिल्ली के विकास और शासन को लेकर विभिन्न दृष्टिकोणों के साथ प्रतिस्पर्धा कर रही हैं। अरविंद केजरीवाल का नेतृत्व और AAP का शासन मॉडल शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर आधारित है। केजरीवाल के शासन में दिल्ली के सरकारी स्कूलों में सुधार हुआ है, और अस्पतालों में मुफ्त इलाज की व्यवस्था की गई है। पानी और बिजली जैसी बुनियादी सेवाओं में भी सुधार हुआ है।
दूसरी ओर, बीजेपी का अभियान राष्ट्रीय सुरक्षा, बुनियादी ढांचे के विकास और कानून-व्यवस्था पर केंद्रित है। पार्टी के समर्थक मध्यवर्ग और श्रमिक वर्ग के लोग हैं, जो बीजेपी के विकास और व्यापार समर्थक एजेंडे से प्रभावित होते हैं। बीजेपी हिंदू वोटरों के समर्थन को भी अपने पक्ष में करने की कोशिश कर रही है, क्योंकि यह पार्टी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) से जुड़ी हुई है।
2025 दिल्ली चुनाव: एक महत्वपूर्ण मोड़*
2025 के दिल्ली विधानसभा चुनाव विशेष रूप से महत्वपूर्ण हैं, क्योंकि इन्हें राष्ट्रीय राजनीति के रुझानों का संकेत माना जा रहा है। इन चुनावों का परिणाम न केवल दिल्ली के लिए, बल्कि पूरे देश की राजनीति के लिए भी प्रभावशाली हो सकता है। चुनाव के दौरान, दोनों पार्टियाँ अपने अभियानों को तेज कर चुकी हैं। बीजेपी ने AAP पर भ्रष्टाचार और शासन में अक्षम होने का आरोप लगाया है। भ्रष्टाचार के आरोप के खिलाफ अभियान AAP के खिलाफ बीजेपी की रणनीति का प्रमुख हिस्सा रहा है, जबकि AAP नेताओं ने इन आरोपों को राजनीतिक साजिश करार दिया है।
AAP ने अपनी नीतियों को केंद्रित किया है जो शिक्षा, स्वास्थ्य और सामाजिक कल्याण पर आधारित हैं। केजरीवाल ने खुद को एक नए राजनीतिक युग का प्रतीक बताया है जो भ्रष्टाचार के खिलाफ है और आम लोगों के कल्याण के लिए काम करता है।
2025 के चुनावों के लिए निकाले गए एग्जिट पोल मिश्रित परिणाम दिखा रहे हैं, जिसमें कुछ पोल बीजेपी की जीत की भविष्यवाणी कर रहे हैं, जबकि अन्य AAP की जीत की संभावना जता रहे हैं। चुनाव परिणाम निकट भविष्य में दिल्ली के राजनीतिक परिदृश्य को आकार देंगे।
दिल्ली की राजनीति ने कई दशकों में कई मोड़ लिए हैं, जिसमें कांग्रेस के एकछत्र शासन से लेकर AAP जैसे क्षेत्रीय दलों का उभार तक कई महत्वपूर्ण घटनाएँ शामिल हैं। 2025 का चुनाव दिल्ली के राजनीतिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण क्षण होगा। चुनावी परिणाम दिल्ली के विकास और पूरे देश की राजनीति के परिप्रेक्ष्य में एक महत्वपूर्ण संकेत हो सकते हैं।
जैसे-जैसे दिल्ली के मतदाता शासन, भ्रष्टाचार और विकास जैसे मुद्दों पर विचार करेंगे, इन चुनावों का परिणाम दिल्ली की राजनीति के भविष्य को तय करेगा। दिल्ली का भविष्य, राज्य का दर्जा और इसके राष्ट्रीय राजनीति में स्थान पर आगे आने वाले वर्षों में महत्वपूर्ण प्रभाव डालेगा।
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