न मंत्री...न सीएम...सीधे प्रधानमंत्री बने थे चंद्रशेखर:कांग्रेस में शामिल हुए तो इंदिरा से कहा- पार्टी को तोड़ने के लिए पार्टी में शामिल हुआ हूं
नयी दिल्ली : साल 1991...दिल्ली के दस जनपथ पर राजीव गांधी के घर के बाहर दो लोग चाय पीते नजर आए। ये दोनों हरियाणा सीआईडी के सिपाही थे। कांग्रेस ने आरोप लगाया कि प्रधानमंत्री चंद्रशेखर राजीव गांधी की जासूसी करवा रहे हैं। 6 मार्च को कांग्रेस ने सदन में हंगामा कर दिया। चंद्रशेखर अपनी सीट पर खड़े हुए और पीएम पद से इस्तीफे का ऐलान करके घर चले गए।
चंद्रशेखर ऐसे ही साफ मिजाज के थे। जो मन में आया वह किया। कभी होटल खोलने का विचार किया तो 3 रुपए की किताब खरीदकर आइडिया ढूंढने लगे तो कभी कांग्रेस में शामिल होने पर इंदिरा गांधी से कह दिया कि कांग्रेस तोड़ने के लिए ही पार्टी में शामिल हुआ हूं।
कल 8 जुलाई को पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर की पुण्यतिथि तिथि थी। वह न कभी किसी सरकार में मंत्री रहे, न किसी राज्य के मुख्यमंत्री, सीधे प्रधानमंत्री बने थे। उनके जीवन की कुछ ऐसी कहानियां हैं जिसे लोग सुनते हैं तो यकीन नहीं कर पाते। आइए आज उन्हीं कहानियों को जानते हैं...
पढ़ने यूनिवर्सिटी आए फिर नेता बनने बलिया लौट गए
21 साल की उम्र में चंद्रशेखर बलिया के इब्राहिम पट्टी गांव से 1948 में इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ने आए। अब इलाहाबाद प्रयागराज हो गया है। चंद्रशेखर जब बलिया से यहां आ रहे थे तभी बलिया में सतीश चंद्र कॉलेज खुल गया। इनके दोस्त गौरीशंकर राय ने वहीं बीए में एडमिशन ले लिया। गौरीशंकर ने चंद्रशेखर से कहा, "राजनीति में पूरा हिस्सा लेना है तो बलिया वापस आ जाओ।" चंद्रशेखर को बात अच्छी लगी इसलिए वह वापस चले गए।
चंद्रशेखर साफ बोलने वाले नेताओं में थे। यही कारण है कि युवा उन्हें उस वक्त सबसे ज्यादा पसंद करते थे।
रामबहादुर राय की किताब 'रहबरी के सवाल' में चंद्रशेखर बताते हैं, 1951 में राजनीति शास्त्र से एमए करने के लिए हम फिर से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी पहुंचे। हिन्दू हॉस्टल को ठिकाना बनाया। शुरू में थोड़ी दिक्कत हुई, लेकिन जल्द ही वहां के माहौल में रम गए। इसी साल सोशलिस्ट पार्टी में जुड़ गए और समाजवाद के लिए काम करने लगे।
अच्छी कमाई चाहिए थी इसलिए होटल खोलना चाहते थे
चंद्रशेखर का मन पढ़ाई में नहीं लगा। उन्होंने तय किया कि अब फुल टाइम पॉलिटिक्स करनी है। पॉलिटिक्स के लिए पैसे भी चाहिए थे, इसलिए उन्होंने होटल खोलने का मन बनाया। होटल खोलने का मन उन्हें बलिया के ही विश्वनाथ तिवारी को देखकर आया था। विश्वनाथ जिला बोर्ड में क्लर्क थे। सिविल लाइंस इलाके में होटल खोल रखा था। आंदोलनकारी नेताओं की वजह से बढ़िया चलता था।
चंद्रशेखर हिन्दू हॉस्टल से निकले और कटरा मार्केट में टहल रहे थे तभी उन्हें सड़क किनारे केन पार्कर की लिखी "हाउ टु रन ए स्माल होटल" किताब दिखी।
कीमत तीन रुपए की थी, इसलिए चंद्रशेखर ने उसे खरीद लिया। हॉस्टल पहुंचे और पढ़ना शुरू किया। चंद्रशेखर बताते हैं, "किताब बहुत दिलचस्प थी। हालांकि, पढ़ने के बाद पता चला कि छोटा होटल खोलने के लिए 1 मिलियन डॉलर चाहिए।
उस वक्त यह 10 लाख रुपए के बराबर थी। इतने पैसे नहीं थे, इसलिए होटल खोलने का इरादा छोड़ दिया।"
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए उन्हें सबसे बड़ी चुनौती खाने को लेकर ही थी। इसलिए वह होटल खोलने का मन बना रहे थे।
इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ते हुए उन्हें सबसे बड़ी चुनौती खाने को लेकर ही थी। इसलिए वह होटल खोलने का मन बना रहे थे।
1964 तक प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में रहने के बाद उन्होंने पार्टी छोड़ी और कांग्रेस से जुड़ गए। कांग्रेस में जुड़ने का किस्सा बहुत रोचक था।
इंदिरा से कहा, कांग्रेस तोड़ने के लिए पार्टी में आया हूं
1964 में चंद्रशेखर ने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी छोड़ दी। तब वह राज्यसभा सांसद थे। कांग्रेस में शामिल होने के लिए गुजरात पहुंचे। वहां महुला क्षेत्र में सभा हुई। उस मंच पर पहली बार इंदिरा गांधी से मुलाकात हुई। मंच पर एक व्यक्ति ने इंदिरा जी से कहा, "ये चंद्रशेखर हैं।" इंदिरा ने जवाब दिया- "नाम तो बहुत सुना है।" चंद्रशेखर ने कहा- "मैंने भी आपका बहुत नाम सुना था, लेकिन कभी मुलाकात का अवसर नहीं मिला।" मंच पर दोनों ने अपने-अपने भाषण दिए और कार्यक्रम समाप्त करके घर चले गए। उन दिनों कांग्रेस के नेता हर शाम महुआ में इकट्ठा होते थे। एक दिन चंद्रशेखर भी पहुंचे।
अपनी आत्मकथा 'जीवन जैसा जिया' में चंद्रशेखर लिखते हैं- इंदिरा गांधी के अलावा वहां इंद्र कुमार गुजराल, अशोक मेहता, गुरुपदस्वामी मौजूद थे। लॉन में सभी बैठे थे, तभी इंदिरा गांधी ने मुझसे पूछा, "क्या आप कांग्रेस को समाजवादी मानते हैं?" मैने जवाब दिया, "मैं नहीं मानता कि कांग्रेस समाजवादी संस्था है, पर लोग ऐसा मानते हैं।"
इंदिरा ने पूछा, "फिर आप कांग्रेस में क्यों आए?"
"क्या आप सही उत्तर जानना चाहती हैं?"
"हां, मैं यही चाहती हूं।"
चंद्रशेखर जब भी इंदिरा गांधी से मिलते, लोग नए समीकरण बनाने में लग जाते थे।
चंद्रशेखर ने कहा, "मैंने प्रजा सोशलिस्ट पार्टी में 13 साल ईमानदारी और पूरी क्षमता के साथ काम किया। काफी समय काम करने के बाद पता चला कि पार्टी कुंठित हो गई है। अब यहां कुछ होने वाला नहीं है। फिर मैंने सोचा कि कांग्रेस बड़ी पार्टी है, चलते हैं इसमें कुछ करते हैं।"
इंदिरा ने फिर पूछा, "आखिर आप करना क्या चाहते हैं?" चंद्रशेखर ने जवाब दिया, "मैं कांग्रेस को सोशलिस्ट बनाने की कोशिश करूंगा।" इंदिरा बोलीं- "अगर न बनी तो?"
चंद्रशेखर ने हैरान करने वाला जवाब दिया। उन्होंने कहा, "कांग्रेस को तोड़ने का प्रयास करूंगा, क्योंकि यह जब तक टूटेगी नहीं, देश में कोई नई राजनीति नहीं आएगी।
पहले तो मैं समाजवादी ही बनाने का प्रयास करूंगा, लेकिन अगर नहीं बन पाई तो तोड़ने के अलावा कोई रास्ता नहीं बचेगा।"
चंद्रशेखर के जवाब को सुनकर इंदिरा हैरान थीं। उन्होंने कुछ नहीं बोला सिर्फ देखती रहीं।
चंद्रशेखर को लगता सदन में हमेशा गंभीर चर्चा होती है
चंद्रशेखर पहली बार सांसद बने तो उन्हें सदन के अंदर होने वाली हर गतिविधि को जानने की उत्सुकता थी।
उन्हें लगता था कि जब सांसद लोग आपस में मिलते होंगे तो हमेशा गंभीर मुद्दों पर चर्चा करते होंगे। लेकिन तीन महीने के अंदर वह बहुत सारे सांसदों के घर गए, लेकिन वहां होने वाली चर्चा से उनका भ्रम टूट गया।
चंद्रशेखर कहते हैं, "सांसदों ने घर की सुंदरता पर अधिक जोर दिया था। दीवार और सोफे का कलर मैच करता रहता था। पर्दे भी इस हिसाब से लगते थे कि वह अलग न लगे।
पार्टी के दौरान किसी मुद्दे पर बात नहीं होती थी। एक बार तो मैंने कह दिया कि आपके सामने और कोई विषय नहीं है क्या? क्या जीवन में यही उद्देश्य है? कला और सौंदर्य का अपना महत्व है, लेकिन राजनीति यही है क्या? असल में मैं जिस जमीन से आया था वहां इसका कोई महत्व नहीं था।"
बाकी पार्टियों के नेताओं के बीच चंद्रशेखर की ऐसी छवि थी कि हर कोई उनका सम्मान करता था।
अब बात चंद्रशेखर के पीएम बनने और सरकार गिरने की करते हैं...
साल 1989. भारतीय राजनीति के सबसे चर्चित साल में से एक था। लोकसभा के चुनाव हुए, लेकिन किसी दल को बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस 207 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी पर सरकार नहीं बना सकी। 143 सीटें जीतने वाली जनता दल को 85 सीट वाली बीजेपी और 52 सीट वाली लेफ्ट पार्टियों ने समर्थन दिया और जनता दल की सरकार बन गई। विश्वनाथ प्रताप सिंह पीएम बने। लालकृष्ण आडवाणी का रथ रोका तो बीजेपी ने समर्थन वापस लिया और सरकार गिर गई। जनता दल भी टूट गया।
नई सरकार के लिए राजीव ने चंद्रशेखर को रात 11 बजे बुलाया
चंद्रशेखर अपनी आत्मकथा जीवन जैसा जिया में लिखते हैं, "हमारी राजीव से पहले कोई बात नहीं हुई। लेकिन सरकार गिरने के बाद यह तय किया जाने लगा, कहां मुलाकात हो। पहले राजेश पायलट के घर, फिर बूटा सिंह के घर, फिर सीताराम केसरी के घर मिलने की बात हुई पर मुलाकात नहीं हो सकी।"
एक दिन रात 11 बजे रोमेश भंडारी ने फोन करके चंद्रशेखर से कहा, क्या आप इस वक्त मेरे घर कॉफी पीने आ सकते हैं?"
चंद्रशेखर इतनी रात कॉफी पीने का मतलब समझ गए थे। रोमेश के घर हौज खास पहुंचे तो वहां राजीव गांधी पहले से बैठे थे।
राजीव ने कहा, देश की हालत बहुत खराब है। दंगे हो रहे हैं। कुछ हल निकालना होगा। चंद्रशेखर ने हां में सिर हिला दिया।
रोमेश भंडारी के घर हुई मुलाकात के बाद चंद्रशेखर और राजीव की मुलाकात आरके धवन के घर हुई। यहां राजीव ने चंद्रशेखर से कहा, इस वक्त चुनाव करवाना देशहित में नहीं है।
आप सरकार बनाइए हम आपको समर्थन देंगे। चंद्रशेखर पहले तो पीछे हटे, लेकिन राजीव के दोबारा कहने पर मान गए और 10 नवंबर 1991 को देश के 9वें प्रधानमंत्री बन गए। खास ये कि इस सरकार में कांग्रेस के सांसद मंत्री नहीं बने। ताऊ देवीलाल उस वक्त चंद्रशेखर के सबसे खास थे।
पीएम बनते ही चंद्रशेखर ने अफसरों को छूट दे दी
चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने तो अफसरों को अपनी समझ के आधार पर फैसला लेने की छूट दे दी। उन्होंने विभागों की बैठकों में कहा, "छोटी-छोटी बातों पर फाइल लेकर मेरे पास न आया करें।" जिन अफसरों को छूट दी गई उसमें ED और CBI के अफसर भी थे। वह अपने लेवल पर कार्रवाई करने लगे।
चंद्रशेखर बताते हैं, "सीमा सुरक्षा बल के वार्षिक समारोह में गया था। वहां एक अफसर ने बताया कि पंजाब और राजस्थान सीमा पर ड्यूटी कर रहे जवानों के लिए गर्म कोट की व्यवस्था नहीं है। ठंड में वह कंबल या चद्दर ओढ़कर ड्यूटी करते हैं। मैंने वित्त मंत्रालय को तुरंत आदेश दिया और अगले दिन सैनिकों को जैकेट मिल गई।"
मैं राजीव गांधी नहीं हूं जो एक दिन में तीन बार फैसला बदलूं
6 मार्च 1991 की सुबह चंद्रशेखर को पता चला कि कांग्रेस सरकार पर राजीव गांधी की जासूसी करने का आरोप लगाकर संसद का बहिष्कार करेगी। चंद्रशेखर वहां पहुंचे तो हैरान रह गए। कांग्रेस के सभी सांसद सदन का बहिष्कार कर चुके थे। उस वक्त देवीलाल ने चंद्रशेखर से कहा, "मुझे राजीव जी बुला रहे हैं, मैं जाऊं?" चंद्रशेखर ने कहा, जरूर जाइए और अपनी प्राइम मिनिस्टरशिप की बात करके आइएगा। मेरे दिन इस पद पर पूरे हो गए हैं।
लोकसभा में अपना भाषण खत्म करने के बाद चंद्रशेखर ने अपने इस्तीफे का ऐलान कर दिया। कांग्रेस सांसदों को भनक तक नहीं लगी थी कि जासूसी के इस आरोप पर चंद्रशेखर इस्तीफा दे देंगे। इस्तीफा देने के बाद घर पहुंचे तो रात में चंद्रशेखर के पास कांग्रेस की तरफ से इस्तीफा वापस लेने का प्रस्ताव आया। चंद्रशेखर ने जवाब दिया, "मैं राजीव गांधी नहीं हूं जो एक दिन में तीन बार फैसला बदलूं।"
10 नवंबर 1990 को बनी सरकार 116 दिन में ही गिर गई। तुरंत चुनाव नहीं करवा जा सकते थे, इसलिए चंद्रशेखर प्रधानमंत्री बने रहे। देश में चुनाव हुए, नई सरकार बनी और उसके बाद 21 जून को चंद्रशेखर ने इस्तीफा दे दिया।
चंद्रशेखर के इस्तीफे के 75 दिन बाद राजीव गांधी की हत्या हो गई। 21 मई 1991 को राजीव गांधी तमिलनाडु के श्रीपेरंबदूर में एक चुनावी सभा को संबोधित करने गए थे।
वहां लिट्टे की एक महिला अपने शरीर में बम बांधकर राजीव के पास पहुंची और ब्लास्ट हो गया। राजीव नहीं रहे। इस हत्या के बाद जासूसी कांड में क्या हुआ? कौन दोषी निकला? क्या सच में जासूसी थी या नहीं! जैसी चीजें भी दफन हो गई।
Jul 09 2023, 14:01