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एक ऐसा बीच जो रात में जाने वाले कभी नहीं लौटते।

सूरत। गुजरात के सूरत के पास स्थित डुमस बीच की गिनती भुतहा जगहों में होती है। इस जगह पर हिन्दू अंतिम संस्कार करने भी आते हैं। कहा जाता है कि यहां आत्माओं का वास है। इसी डर के चलते लोग यहां शाम होने के बाद नहीं आते। बीच हमेशा वीरान पड़ा रहता है। स्थानीय लोग तो अकेले इस बीच पर दोपहर में भी जाने से डरते हैं। जो भी रात में गया, वापस नहीं लौटा...

शाम को अंधेरा होने के बाद से ही बीच पर चीखने-चिल्लाने की आवाजें आने लगती हैं। चीख-पुकार की आवाज काफी दूर से भी सुनी जा सकती है। स्थानीय लोगों की मानें तो इस बीच पर रात में जो भी गया है, वह वापस नहीं लौटा। यह बीच प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर है, लेकिन इस बीच को लेकर स्थानीय लोगों की बातें डरा देने वाली हैं।

काले रंग की है यहां की रेत

इस बीच की सबसे डुमस बीच का इतिहास अरब सागर से लगा हुआ यह बीच सूरत से 21 किलोमीटर की दूरी पर है। सबसे आश्चर्यजनक बात यह है कि यहां की रेत का रंग काला है। इस बीच का इतिहास किसी को नहीं पता। लेकिन, स्थानीय लोगों का कहना है कि सदियों पहले यहां पर आत्माओं ने अपना बसेरा कर लिया और इसी के चलते यहां की रेत काली हो गई। इसी बीच के पास लाशें भी जलाई जाती हैं।

लोगों का मनना है कि जिन लोगों को मोक्ष प्राप्त नहीं होता है, या जिनकी अकाल मृत्यु हो जाती है, उनकी रूह इस बीच पर बसेरा कर लेती है। यह फेमस लव स्पॉट भी है। कई कपल्स का कहना है कि दिन में खूबसूरत दिखाई देने वाला यह बीच शाम होने के बाद से ही डरावना नजर आने लगता है। बीच पर रोने और सिसकने की भी आवाजें सुनाई देती हैं।

कुत्तों की एबनॉर्मल एक्टिविटीज?

हालांकि, कुछ लोग यहां पर भूत-प्रेत होने की बात को सिरे से नकारते हैं। उनका कहना है कि रात में यहां कुत्ते मौजूद होते हैं। उन्हीं की आवाजें और दौड़भाग से लोग डर जाते हैं। दरअसल, यहां की रेत काली है, जिसके चलते डरावना माहौल नजर आता है। वहीं, स्थानीय लोगों का यह भी कहना है कि बीच पर आते ही कुत्ते रोने लगते हैं और इधर-उधर भागते हुए नजर आते हैं।

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असम का रहस्यमय जतिंगा गांव: जहां हर साल हजारों पक्षी करते हैं सुसाइड

असम के दिमा हासो जिले की पहाड़ी में स्थित जतिंगा घाटी पक्षियों का सुसाइड पॉइंट के तौर पर काफी मशहूर है। हर साल सितंबर महीने में जतिंगा गांव पक्षियों की आत्महत्या के कारण सुर्खियों में आ जाता है। इस जगह पर ना केवल स्थानीय पक्षी बल्कि प्रवासी पक्षी भी पहुंच कर सुसाइड कर लेते हैं। इस वजह से जतिंगा गांव काफी रहस्यमय माना जाता है।

आत्महत्या करने की प्रवृत्ति, तो इंसानों में आम है, लेकिन पक्षियों के मामले में ये बात एकदम अलग हो जाती है। जतिंगा गांव में पक्षी तेजी से उड़ते हुए किसी इमारत या पेड़ से टकरा जाते हैं, जिससे उनकी मौत हो जाती है। ऐसा इक्का-दुक्का नहीं, बल्कि हजारों पक्षियों के साथ होता है। सबसे अजीब बात, तो ये है कि ये पक्षी शाम 7 से रात 10 बजे के बीच ही ऐसा करते हैं, जबकि आम मौसम में इन पक्षियों की प्रवृति दिन में ही बाहर निकलने की होती है और रात में वे घोंसले में लौट जाते हैं।

आत्महत्या की इस दौड़ में स्थानीय और प्रवासी चिड़ियों की करीब 40 प्रजाति शामिल हैं। प्राकृतिक कारणों से जतिंगा गांव नौ महीने बाहरी दुनिया से अलग-थलग ही रहता है। इतना ही नहीं जतिंगा घाटी में रात में प्रवेश करना प्रतिबंधित है। पक्षी विशेषज्ञों का मानना है कि चुंबकीय ताकत इस रहस्यमय घटना की वजह है।

नम और कोहरे-भरे मौसम में हवाएं तेजी से बहती हैं, तो रात के अंधेरे में पक्षी रोशनी के आसपास उड़ने लगते हैं। रोशनी कम होने के कारण उन्हें साफ दिखाई नहीं देता है, जिसके कारण वे किसी इमारत या पेड़ या वाहनों से टकरा जाते हैं। ऐसे में जतिंगा गांव में शाम के समयगाड़ियां चलाने पर मनाही हो गई ताकि रोशनी न हो। हालांकि, इसके बावजूद भी पक्षियों की मौत का क्रम जारी रहा।

जतिंगा गांव के लोग इसके पीछे रहस्यमय ताकत का हाथ मानते हैं। गांव के लोगों का ऐसा कहना है कि हवाओं में कोई पारलौकिक ताकत आ जाती है, जो पक्षियों से ऐसा करवाती है। उनका ये भी मानना है कि इस दौरान इंसानी आबादी का भी बाहर आना खतरनाक हो सकता है। सितंबर-अक्तूबर के दौरान जतिंगा की सड़कें शाम के समय एकदम सुनसान हो जाती हैं।

कथित तौर पर पक्षियों की आत्महत्या का सिलसिला साल 1910 से ही चला आ रहा है, लेकिन बाहरी दुनिया को ये बात 1957 में पता चली। साल 1957 में पक्षी विज्ञानी E.P. Gee किसी काम से जतिंगा आए हुए थे। इस दौरान उन्होंने खुद इस घटना को देखा और इसका जिक्र अपनी किताब 'द वाइल्डलाइफ ऑफ इंडिया' में किया। देश-विदेश के कई वैज्ञानिक इस घटना पर रिसर्च कर चुके हैं, लेकिन अभी तक सही वजह का पता नहीं चल पाया है।

दिल्ली सल्तनत के अंतिम राजवंश का इतिहास: मां की मौत के बाद पैदा हुआ था दिल्ली का ये बादशाह

बहलोल लोदी दिल्ली सल्तनत के अंतिम राजवंश लोदी वंश का संस्थापक था। दिल्ली पर राज करने वाले अफगानों में लोदी वंश पहले अफगान थे। भारत में लोदी वंश की नींव रखने वाले बहलोल लोदी की दास्तान काफी दिलचस्प है। खुद को किसानों का सरदार बताने वाले बहलोल लोदी के मन में दूसरों के लिए काफी आदर और सम्मान था।

कहते हैं स्वयं राजा होने के बावजूद बहलोल अपने दरबार में दूसरों के बैठने के बाद बैठता था। बहलोल लोदी ने अपने जीवनकाल में कई ऐसे काम की किए जिसकी सालों तक नजीर पेश की जाती रही। खास तौर 'बहलोली सिक्कों' का चलन कई-कई शासकों ने अपनाया। बहलोल लोदी की तरफ से चलाया गया बहलोली सिक्का इतना मशहूर था कि अकबर तक के शासन काल में कहीं-कहीं इस सिक्के का चलन देखा गया है।

जन्म के वक्त हुई मां की मौत

बहलोल लोदी के पिता मलिक काला खिज्र खां एक राज्यपाल थे। बहलोल लोदी का जन्म दौराला में हुआ था। बहलोल की मां प्रसव की पीड़ा नहीं झेल पाई थी और उसके जन्म से पूर्व ही उसकी मां का देहांत हो गया था। ऐसी परिस्थिति में बच्चे की जान पर बन आई थी। इतिहास की किताबों में दर्ज है कि जिस दौरान बहलोल की मां उसे जन्म देने वाली थी, तभी उसे प्रसव की ऐसी असह्य पीड़ा हुई, जो उससे सहन नहीं हो पाई और उसने अपना दम तोड़ दिया। बहलोल की मां की मौत के बाद उसके परिजनों को बच्चे की चिंता हुई। ऐसा बताया जाता है प्रसव के दौरान मृत मां की कोख में फंसे बच्चों निकाला गया था।

चाचा ने पाला

मां की मौत के बाद बहलोल लोदी का पालन पोषण उसके चाचा इस्लाम खां ने किया और बाद में अपनी पुत्री का विवाह बहलोल लोदी से कर दिया। बहलोल लोदी बचपन से ही प्रतिभावान था। उसकी प्रतिभा को पहचान कर इस्लाम खां ने अपने पुत्र कुतुब खां के स्थान पर उस अपना उत्तराधिकारी घोषित किया। इस्लाम खां के मृत्यु के पश्चात सुल्तान मोहम्मद शाह ने बहलोल लोदी को सरहिन्द का सूबेदार नियुक्त किया। बाद में लाहौर भी उसके अधीन कर दिया गया। बहलोल लोदी ने आस-पास के क्षेत्रों को जीतकर अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली।

कैसे की लोदी साम्राज्य की स्थापना?

बहलोल लोदी ने दिल्ली पर महमूद खिलजी के आक्रमण को विफल कर सुल्तान मुहम्मद शाह की विशेष कृपा प्राप्त कर ली। उसकी सेवा से प्रसन्न होकर मुहम्मद शाह ने उसे पुत्र कहकर संबोधित किया और 'खान-ए-जहां' की उपाधि दी। सुल्तान अलाउद्दीन आलम शाह के समय में उसके वजीर हमीद से झगड़ा होने के कारण जब अलाउद्दीन दिल्ली की सत्ता छोड़ कर बदायूं चला गया तब दिल्ली की जनता ने बहलोल की आमंत्रित कर गद्दी पर बैठाया।

दो बार हुआ राज्याभिषेक

19 अप्रैल, 1451 ई. को बहलोल लोदी दिल्ली की गद्दी पर बैठा। गद्दी पर बैठने के बाद उसने वजीर हमीद खां की हत्या कर दी। किन्तु सुल्तान अलाउद्दीन आलम शाह अभी भी दिल्ली का वैधानिक शासक था।

बहलोल लोदी ने अलाउद्दीन आलम शाह को पत्र लिखा, "आपके महान पिता ने मेरा पालन पोषण किया। मैं खुतबा से आपका नाम हटाए बिना आपके प्रतिनिधि के रूप में कार्य कर रहा हूं।" सुल्तान ने उत्तर दिया- चूंकि मेरे पिता तुम्हें अपना पुत्र कहकर सम्बोधित करते थे। मैं तुम्हें बड़े भाई के रूप में देखता हूं और राजपद का तुम्हारे लिए परित्याग करता हूं।"

इतिहासकारों के अनुसार, बहलोल का दो बार राज्याभिषेक हुआ, एक सुल्तान अलाउद्दीन आलम के पत्र व्यवहार से पूर्व और एक पत्र के बाद।

सागर का नजरबाग पैलेस: महात्मा गांधी की यादों को संजोए हुए यह ऐतिहासिक इमारत क्यों है इतनी खास?

महात्मा गांधी 2 दिसंबर 1933 की सुबह दमोह पहुंचे थे और वहां से दोपहर तीन बजे सागर शहर के टाउनहॉल पहुंचे. टाउनहॉल से वे सागर के प्रसिद्ध नजरबाग पैलेस गए, जो उस समय एक आरामगाह की तरह इस्तेमाल होता था. नजरबाग पैलेस एक भव्य और ऐतिहासिक इमारत थी, जिसे मराठों ने बनवाया था. गांधीजी ने यहां केवल एक घंटे विश्राम किया. यह भवन सागर शहर के तालाब के किनारे स्थित था और अपने कलात्मक दरवाजों, रंगीन खिड़कियों, और भित्तिचित्रों के लिए जाना जाता था.

नजरबाग पैलेस, जो कभी मालगुजार गयाप्रसाद दुबे के भाई का निवास स्थान था, बाद में पुलिस ट्रेनिंग कॉलेज के अफसरों का निवास बन गया. हालांकि, अब यह इमारत खंडहर की स्थिति में पहुंच चुकी है. जिला प्रशासन ने कुछ समय पहले इसे तोड़ने की योजना बनाई थी, लेकिन इतिहासकारों के हस्तक्षेप के बाद इसे रोक दिया गया. हालांकि, हाल ही में स्मार्ट सिटी प्रोजेक्ट के तहत इसकी मरम्मत की गई है, लेकिन यह मरम्मत सिर्फ बाहरी सजावट तक सीमित रही. अगर इसे सही तरीके से पुनर्निर्मित किया जाए, तो यह सागर के सबसे खूबसूरत विश्राम गृहों में से एक हो सकता है, जो गांधीजी की यादों को संजोए हुए हो.

महात्मा गांधी का सागर से जुड़ा ऐतिहासिक महत्व:

महात्मा गांधी के इस दौरे ने सागर शहर को ऐतिहासिक रूप से समृद्ध बना दिया. चार बजे गांधीजी नजरबाग से निकले और शहर के अन्य कार्यक्रमों में शामिल हुए. उनके इस दौरे की यादें आज भी सागर के लोगों के दिलों में ताजा हैं. नजरबाग पैलेस न केवल सागर के इतिहास का हिस्सा है, बल्कि गांधीजी के विचारों और उनके योगदान की गवाह भी है.

यह ऐतिहासिक इमारत आज भी गांधीजी की स्मृतियों को संजोए हुए है, और अगर इसे सही तरीके से पुनर्निर्मित किया जाए, तो यह सागर के सांस्कृतिक धरोहर का प्रतीक बन सकता है.

आइए जानते हैं कैसे शुरू हुई सावन सोमवार की व्रत पूजा

सावन सोमवार के दिन पूजा करने और व्रत रखने वालों को इससे संबंधित व्रत कथा जरूर पढ़नी चाहिए. व्रत कथा पढ़े या सुने बिना व्रत संपन्न नहीं माना जाता है. आइये जानते हैं सावन सोमवार से जुड़ी व्रत कथा.

पौराणिक कथा के अनुसार, किसी नगर में एक साहूकार रहता था. उसे धन की कोई कमी नहीं थी. लेकिन कमी थी तो केवल संतान की. साहूकार भगवान शिव का भक्त था और प्रतिदिन उनका पूजन करता था. साहूकार की भक्ति देख एक दिन माता पर्वती ने भोलेनाथ से कहा, आपका यह भक्त दुखी है. 

इसलिए आपको इसकी इच्छा पूरी करनी चहिए. भोलेनाथ ने माता पार्वती से कहा कि, इसके दुख का कारण यह है कि इसे कोई संतान नहीं है.

लेकिन इसके भाग्य में पुत्र योग नहीं है. यदि उसे पुत्र प्राप्ति का वारदान मिल भी गया तो उसका पुत्र सिर्फ 12 वर्ष तक ही जीवित रहेगा. शिवजी की ये बातें साहूकार भी सुन रहा था. ऐसे में एक ओर जहां साहूकार को संतान प्राप्ति की खुशी हुई तो वहीं दूसरी ओर निराशा भी. लेकिन फिर भी वह पूजा-पाठ करता रहा.

एक दिन उसकी पत्नी गर्भवती हुई. उसने एक सुंदर बालक को जन्म दिया. देखते ही देखते बालक 11 वर्ष का हो गया और साहूकार ने शिक्षा प्राप्त करने के लिए उसे मामा के पास काशी भेज दिया. साथ ही साहूकार ने अपने साले से कहा कि, रास्ते में ब्राह्मण को भोज करा दें.

काशी के रास्‍ते में एक राजकुमारी का विवाह हो रहा था, जिसका दुल्हा एक आंख से काना था. उसके पिता ने जब अति सुंदर साहूकार के बेटे को देखा तो उनके मन में विचार आया कि क्‍यों न इसे घोड़ी पर बिठाकर शादी के सारे कार्य संपन्‍न करा लिया जाए. इस तरह से विवाह संपन्न हुआ. साहूकार के बेटे ने राजकुमारी की चुनरी पर लिखा कि, तुम्हारा विवाह मेरे साथ हो रहा है. 

लेकिन मैं असली राजकुमार नहीं हूं. जो असली दूल्हा है, वह एक आंख से काना है. लेकिन विवाह हो चुका था और इसलिए राजकुमारी की विदाई असली दूल्हे के साथ नहीं हुई. 

इसके बाद साहूकार का बेटा अपने मामा के साथ काशी आ गया. एक दिन काशी में यज्ञ के दौरान भांजा बहुत देर तक बाहर नहीं आया. जब उसके मामा ने कमरे के भीतर जाकर देखा तो भांजे को मृत पाया. सभी ने रोना-शुरू कर दिया. माता पार्वती ने शिवजी से पूछा हे, प्रभु ये कौन रो रहा है?  

तभी उसे पता चलता है कि यह भोलेनाथ के आर्शीवाद से जन्‍मा साहूकार का पुत्र है. तब माता पार्वती ने कहा स्‍वामी इसे जीवित कर दें अन्‍यथा रोते-रोते इसके माता-पिता के प्राण भी निकल जाएंगे. तब भोलेनाथ ने कहा कि हे पार्वती इसकी आयु इतनी ही थी जिसे वह भोग चुका है.

लेकिन माता पार्वती के बार-बार कहने पर भोलेनाथ ने उसे जीवित कर दिया. साहूकार का बेटा ऊं नम: शिवाय कहते हुए जीवित हो उठा और सभी ने शिवजी को धन्‍यवाद दिया. इसके बाद साहूकार ने अपने नगरी लौटने का फैसला किया. रास्‍ते में वही नगर पड़ा जहां राजकुमारी के साथ उसका विवाह हुआ था. राजकुमारी ने उसे पहचान लिया और राजा ने राजकुमारी को साहूकार के बेटे के साथ धन-धान्‍य देकर विदा किया.

साहूकार अपने बेटे और बहु को देखकर बहुत खुश हुआ. उसी रात साहूकार को सपने में शिवजी ने दर्शन देते हुए कहा कि तुम्‍हारी पूजा से मैं प्रसन्‍न हुआ. इसलिए तुम्हारे बेटे को दोबारा जीवन मिला है. इसलिए तब से ऐसी मान्यता है कि, जो व्‍यक्ति भगवान शिव की पूजा करेगा और इस कथा का पाठ या श्रवण करेगा उसके सभी दु:ख दूर होंगे और मनोवांछ‍ित फल की प्राप्ति होगी.

ऐतिहासिक प्रेम कहानियों में शामिल है, राजा मान सिंह और राजकुमारी गायत्री देवी…

बचपन में आप सब ने राजा-रानी की कहानियां तो खूब सुनी होंगी, हो सकता है फिल्मों में भी देखी भी हों। आज हम भी, वैलेंटाइन स्पेशल में आपको एक राजा और रानी की दिलचस्प प्रेम कहानी सुना रहे हैं। यह कहानी है जयपुर के राजा सवाई मान सिंह II और रानी गायत्री देवी की, जिन्हें 20वीं शताब्दी का गोल्डन कपल भी कहा जाता था। राजा और रानी की यह कहानी जितनी खूबसूरत है, उतनी ही मुश्किलों से भरी भी थी, लेकिन फिर भी सभी चुनौतियों को पार करते हुए, इन दोनों के प्यार ने इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बना ही ली।

राजकुमारी गायत्री का जन्म लंदन में, कूच बिहार के राजकुमार जितेंद्र नारायण और बड़ौदा की राजकुमारी इंद्रिरा राजे के घर, 1919 में हुआ था। राजा जितेंद्र अपने भाई के निधन के बाद कूच बिहार के राजा बने थे। राजकुमारी गायत्री देवी, जो अपने करीबियों में आयशा नाम से भी जानी जाती थीं, महज 12 वर्ष की थीं, जब वे जयपुर के राजा मान सिंह II पर अपना दिल हार बैठीं। राजा मान सिंह को पोलो खेलने का शौक था और वह इसी सिलसिले में एक मैच के लिए कलकत्ता पहुंचे थे।

जब गायत्री देवी ने पहली बार राजा मान सिंह को देखा था, तब वे 21 साल के थे और शादीशुदा भी थे। मान सिंह की तब दो पत्नियां थीं, महारानी मुराधर कंवर और महारानी किशोर कंवर। महारानी किशोर कंवर, राजा मान सिंह की पहली पत्नी की भतीजी भी थीं।

राजा मान सिंह की तरह राजकुमारी गायत्री देवी को भी पोलो खेलने और घुड़सवारी का बेहद शौक था और इसी वजह से इन दोनों के मिलने-जुलने की शुरुआत भी हुई। गायत्री देवी, राजा मान सिंह को प्यार से जय बुलाती थीं। इन्हीं मुलाकातों के बहाने दोनों का प्यार परवान चढ़ने लगा, लेकिन अब मुश्किलों ने भी इन्हें घेरना शुरू कर दिया।

शादी के लिए हो गई थी मनाही

जब राजा मान सिंह ने राजकुमारी गायत्री की मां रानी इंद्रीरा देवी से शादी का हाथ मांगा, तो उन्होंने साफ शब्दों में इंकार कर दिया। कारण साफ था, राजा मान सिंह की पहले से दो पत्नियां थीं और उनके यहां महिलाओं को पर्दा प्रथा को मानना पड़ता था। न सिर्फ राजकुमारी गायत्री की मां ने बल्कि, उनके भाई, जो राजा मान सिंह के दोस्त भी थे, उन्होंने भी उनकी शादी का विरोध किया था। मान सिंह से शादी करने की जिद्द को तोड़ने के लिए उन्होंने गायत्री देवी से यह तक कहा था कि इनसे शादी करना तुम्हारे लिए ठीक नहीं है, वे हमेशा महिलाओं से घिरे रहते हैं। लेकिन इसके बाद भी गायत्री देवी ने किसी की एक न सुनी।

ऐसे बनीं जयपुर की महारानी…

दोनों एक दूसरे के प्यार में ऐसे खोए थे कि घरवालों की परवाह न करते हुए, साल 1940 में, एक-दूसरे से शादी के बंधन में बंध गए। और इसी तरह राजकुमारी गायत्री बनीं जयपुर की महारानी गायत्री देवी। गायत्री देवी के परिवार के विरोध के बावजूद इनकी शादी उस जमाने की सबसे महंगी शादियों में से थी। शादी तो हो गई, लेकिन अब यहां महारानी गायत्री को पर्दा प्रथा का सामना करना पड़ रहा था, लेकिन हमेशा से सशक्त और खुले विचारों वाली महिलाओं के साथ रहने वाली गायत्री देवी भी अपनी मां की तरह ही, काफी दमदार थीं। उन्होंने ठान लिया था कि वे इस प्रथा को नहीं स्वीकारेंगी। ऐसे में भला कैसे उनसे कोई पर्दा करवा सकता था, लेकिन राजघराने को यह बात खटक रही थी। अंत में सबको मानना ही पड़ा और इस तरह धीरे-धीरे गायत्री देवी ने समाज सुधार के लिए कई काम किए।

राजा मान सिंह II की मृत्यु की बाद भी वह समाज सुधार के लिए काम करती रहीं। उन्होंने जयपुर में लड़कियों के लिए स्कूल भी खुलवाया। महारानी गायत्री देवी ने साल 2009 में 90 वर्ष की उम्र में जयपुर में अंतिम सांस ली। महारानी गायत्री देवी और राजा मान सिंह II की प्रेम कहानी कई उतार-चढ़ावों से भरी रही, लेकिन साथ ही बेहद खूबसूरत भी है, जिसके जिक्र आज भी लोग करते हैं।

ऐसे शुरु हुई थी सलीम और अनारकली की प्रेम,अकबर क्यू बना प्रेम कहानी के विलेन जाने

एक दिन अपने पिता और बादशाह के दरबार में सलीम की नजर एक लड़की पर पड़ी जिसका नाम अनारकली था। उसके रूप-रंग को देखकर शहजादे सलीम उसके दीवाने हो गए। यहीं से शुरू होती है दोनों के प्यार की कहानी। ऐसा कहा जाता है कि अनारकली की खूबसूरती के चर्चे पूरे लाहौर में थे। जब इस बात का अकबर को पता चला तो उन्होंने अनारकली को अपने दरबार में बुलाया। इसके बाद जब अनारकली को दरबार में बुलाया गया तो अनारकली ने बहुत अच्छा नृत्य किया जिसके बाद दरबार में मौजूद सभी लोग अनारकली का नृत्य और उसकी सुंदरता देख कर आश्चर्यचकित रह गए। अकबर अनारकली के नृत्य से इतने खुश हुए कि उन्होंने अनारकली को अपने दरबार की नृतिका घोषित कर दिया। उस दिन से अनारकली का काम था शाही दरबार में लोगों के आगे नृत्य कर उनका मनोरंजन करना।

शहजादे सलीम को ऐसे हुए प्यार अनारकली से

अकबर के दरबार में अनारकली को नृत्य करता देख शहजादे सलीम को अनारकली से प्यार हो गया। वहीं, अनारकली भी खुद को सलीम से प्यार करने से नहीं रोक पाईं। इसके बाद धीरे-धीरे दोनों का प्यार नया मोड़ लेता गया। यहां तक के दोनों एक दूसर से छुुप-छुपकर मिलने लगे। दोनों जितनी बार दोनों एक दूसरे से मिलते उतनी बार उनका प्यार परवान चढ़ता। लंबे समय तक दोनों के बीच सब कुछ अच्छा चल रहा था तभी एक दिन बादशाह अकबर की दासी नूरजहां की नजर उन पर पड़ी। ऐसा कहा जाता है कि दासी नूरजहां को शहजादे सलीम से प्यार हो गया था। इसलिए वह बस ये चाहती थी कि सलीम बस उसे प्यार करे लेकिन शहजादे सलीम तो अनारकली के प्यार में डूबे हुए थे। और यही बात नूरजहां बरदाश नहीं कर पाई। जिसके बाद नूरजहां ने बादशाह को जाकर शहजादे सलीम और अनारकली के बारे में सब कुछ बता दिया।

अकबर बने प्रेम कहानी के विलेन

अकबर और उनके बेटे सलीम के बीच दरार का कारण बनी सलीम और अनारकली की प्रेम कहानी। 

अकबर नहीं चाहते थे कि एक नाचने वाली से उनका बेटा शादी करे। इसलिए अकबर दोनों की प्रेम कहाने के बिल्कुल खिलाफ थे। ये बात हर पल अकबर को बार-बार खटक रही थी। क्योंकि अगर ऐसा हो जाता तो ये मुगल सलतनत के लिए बहुत शर्मनाक बात होती। इसलिए अकबर ने सलीम और अनाकरली को अलग करने की ठान ली थी।

इसके बाद अकबर ने सलीम को अनारकली को कभी न देखने की सलाह दी मगर सलीम का दिल नहीं माना। सलीम अनारकली के लिए अपने ही पिता के खिलाफ हो गए। सलीम को लगने लगा कि उनके पिता ही उनके प्यार के असली दुश्मन हैं। बात इतनी बिगड़ गई कि शहजादे सलीम ने अपने पिता के खिलाफ ही जंग का ऐलान कर दिया। इसके बाद पिता और बेटे में घमासन युद्ध हुआ मगर आखिरी में शहजादे सलीम अकबर की सेना के सामने हार गए। इसके बाद अकबर ने अपने ही बेटे को बंदी बना लिया।

कहा जाता है कि अकबर ने इसके बाद सलीम के आगे दो सुझाव रखे। एक या तो वह अनारकली को छोड़ दें वरना मौत को गले लगा लें। सलीम भी अपने प्यार के लिए मरने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन इससे पहले ही अनारकली सलीम के प्यार के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान करने को राजी हो जाती हैं।

इसके बाद अकबर ने अनारकली को सलीम के दिल और दिमाग से दूर करने के लिए उसी की आखों के सामने एक दीवार में अनारकली को जिंदा दफना दिया। यहां अनारकली को दीवार में दफनाने से शहजादे सलीम और अनारकली अलग-अलग तो हो गए। लेकिन इनकी प्रेम कहानी हमेशा के लिए अमर हो गई।

जाने कारगिल के दो महान वीर योद्धा के कहानी, जिसने सीने में खाई थी 17 गोली

शहीद जवान योगेंद्र यादव

करगिल युद्ध' में जवान योगेंद्र यादव की बहादुरी को कोई कैसे भूल सकता है. अपने सीने पर एक, दो नहीं, बल्कि 17 गोली खाकर भारत माता की रक्षा करने वाले योगेंद्र यादव के शौर्य ही कहानी रोंगटे खड़े कर देनी वाली है. महज 19 साल की उम्र में उन्होंने दुश्मनों को चारों खाने चित्त कर दिया. योगेंद्र यादव का जन्म 1 मई 1980 को हुआ था और वो साल 1996 में 18 ग्रेनेडियर बटालियन में भर्ती हुए. 1999 में वो शांदी के बंधन में बंधे. शादी के पांच महीने बाद उन्हें सीमा पर करगिल युद्ध की वजह से जाना पड़ा. योगेंद्र यादव को 7 सदस्यीय घातक प्लाटून का कमांडर बनाया गया.

उन्हें 3 जुलाई 1999 की रात को टाइगर हिल फतेह करने का टास्क दिया गया था. टाइगर हिल पर खड़ी चढ़ाई थी, बर्फ से ढका और पथरीला पहाड़ था. इसी बीच पाकिस्तानी सेना की ओर फायरिंग की जाने लगी. पाकिस्तान की ओर से भारतीय जवानों पर ग्रेनेड और रॉकेट से हमला किया गया. इस हमले में छह भारतीय जवान शहीद हो गए. योगेंद्र यादव को एक या दो नहीं, बल्कि 17 गोलियां लगी थी. साथियों की शहादत देखते हुए प्लाटून जहां थी, वहीं रूक गई.

इसके बाद, योगेंद्र यादव ने दुश्मनों को मुंहतोड़ जवाब देते हुए हमला बोल दिया. योगेंद्र यादव साहस दिखाते हुए टाइगर हिल की तरफ बढ़ते चले गए. दुश्मनों ने उन पर हमला करना शुरू कर दिया था. दुश्मनों ने अपना हमला जारी रखा. लेकिन, योगेंद्र यादव ने हार नहीं मानी और उन्होंने जवाबी हमला करते हुए आठ पाकिस्तानी आतंकियों को मार गिराया. इसके बाद, टाइगर हिल पर भारत का तिरंगा फहराया. 17 गोली लगने के बाद वो कई महीनों तक जिंदगी और मौत से जंग लड़ते रहे. कई महीनों तक अस्पताल में रहने के बाद उन्हें भारत सरकार की ओर से परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया.

कैप्टन विक्रम बत्रा

करगिल युद्ध में कैप्टन विक्रम बत्रा जैसा युद्धा भारत ने खो दिया. देश की रक्षा करते हुए कैप्टन विक्रम बत्रा शहीद हो गए और लेकिन इतिहास में अमर गए. परमवीर कैप्टम विक्रम बत्रा ने प्वाइंट 4875 में सेना को लीड किया और पांच दुश्मनों सैनिकों को मार गिराया. घायल होने के बाद भी उन्होंने दुश्मन पर ग्रेनेड फेंके. ये जंग तो भारत जीत गया लेकिन कैप्टन विक्रम बत्रा वीरगति को प्राप्त हो गए. उन्होंने आज भी लोगों ने दिलों में याद रखा है और देश का शेरशाह कहते हैं.

कब और कैसे हुआ महाकाल मंदिर का निर्माण,जाने यहां

उज्जैन. शिव पुराण के अनुसार उज्जैन में बाबा महाकाल का मंदिर अतिप्राचीन है।

 मंदिर की स्थापना द्वापर युग में भगवान श्रीकृष्ण के पालनहार नंदजी की आठ पीढ़ी पूर्व हुई थी। बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक इस मंदिर में बाबा महाकाल दक्षिणमुखी होकर विराजमान हैं। 

मंदिर के शिखर के ठीक ऊपर से कर्क रेखा गुजरी है, इसलिए इसे पृथ्वी का नाभिस्थल भी माना जाता है।

ईसवी पूर्व छठी शताब्दी से धर्म ग्रंथों में उज्जैन के महाकाल मंदिर का उल्लेख मिलता आ रहा है। उज्जैन के राजा प्रद्योत के काल से लेकर ईसवी पूर्व दूसरी शताब्दी तक महाकाल मंदिर के अवशेष प्राप्त होते हैं। 

महाकालेश्वर मंदिर के प्राप्त संदर्भों के अनुसार ईसवी पूर्व छठी सदी में उज्जैन के राजा चंद्रप्रद्योत ने महाकाल परिसर की व्यवस्था के लिए अपने पुत्र कुमार संभव को नियुक्त किया था। दसवीं सदी के अंतिम दशकों में संपूर्ण मालवा पर परमार राजाओं का आधिपत्य हो गया। इस काल में रचित काव्य ग्रंथों में महाकाल मंदिर का सुंदर वर्णन आया है। 

11वीं सदी के आठवें दशक में गजनी सेनापति द्वारा किए गए आघात के बाद 11वीं सदी के उत्तरार्ध व 12वीं सदी के पूर्वाद्र्ध में उदयादित्य एवं नरवर्मा के शासनकाल में मंदिर का पुनर्निमाण हुआ। 123४-35 में सुल्तान इल्तुमिश ने पुन: आक्रमण कर महाकालेश्वर मंदिर को ध्वस्त कर दिया किंतु मंदिर का धार्मिक महत्व बना रहा।

ग्रंथों में उल्लेख

14वीं व 15वीं सदी के ग्रंथों में महाकाल का उल्लेख मिलता है। 

18वीं सदी के चौथे दशक में मराठा राजाओं का मालवा पर आधिपत्य हो गया। पेशवा बाजीराव प्रथम ने उज्जैन का प्रशासन अपने विश्वस्त सरदार राणौजी शिंदे को सौंपा। राणौजी के दीवान थे सुखटंकर रामचंद्र बाबा शैणवी।

 इन्होंने ही 18वीं सदी के चौथे-पांचवें दशक में मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया। वर्तमान में जो महाकाल मंदिर स्थित है उसका निर्माण राणौजी शिंदे ने ही करवाया है। वर्तमान में महाकाल ज्योतिर्लिंग मंदिर के सबसे नीचे के भाग में प्रतिष्ठित है।

 मध्य के भाग में ओंकारेश्वर का शिवलिंग है तथा सबसे ऊपर वाले भाग पर साल में सिर्फ एक बार नागपंचमी पर खुलने वाला नागचंद्रेश्वर मंदिर है। 

महाकाल का यह मंदिर भूमिज, चालुक्य एवं मराठा शैलियों का अद्भूत समन्वय है। मंदिर के 118 शिखर स्वर्ण मंडित हैं, जिससे महाकाल मंदिर का वैभव और अधिक बढ़ गया है।

आइए जानते है अकबर की जीवनी ,धार्मिक नीति,शासनकाल का इतिहास के बारे में

अकबर को भारत का सबसे महान मुगल सम्राट माना जाता है। अकबर का पूरा नाम अबू अल-फतह जलाल अल-दीन मुहम्मद अकबर है। उनका जन्म 15 अक्टूबर, 1542 को उमरकोट में हुआ था, जो अब पाकिस्तान के सिंध प्रांत में है और उनकी मृत्यु 25 अक्टूबर, 1605 को आगरा, भारत में हुई थी। उन्होंने भारतीय उपमहाद्वीप के अधिकांश हिस्सों में मुगल सत्ता का विस्तार किया और उन्होंने 1556 से 1605 तक शासन किया। उन्हें हमेशा लोगों का राजा माना जाता था क्योंकि वे अपने लोगों की बात सुनते थे। अपने साम्राज्य में एकता बनाए रखने के लिए, अकबर ने कई कार्यक्रम अपनाए जिससे उनके राज्य में गैर-मुस्लिम आबादी की वफादारी जीतने में मदद मिली। उन्होंने सुनिश्चित किया कि उनके राज्य के केंद्रीय प्रशासन में सुधार और मजबूती आए। 

अकबर ने अपनी वित्तीय प्रणाली के केंद्रीकरण पर भी ध्यान केंद्रित किया और कर-संग्रह प्रक्रिया को पुनर्गठित किया। अकबर ने इस्लाम को अपना धर्म माना लेकिन वह अन्य लोगों और उनके धर्मों के प्रति अत्यधिक सम्मान रखता था। वह अन्य धर्मों को समझने में गहरी दिलचस्पी लेता था और हिंदू, पारसी, बौद्ध, ईसाई और इस्लाम जैसे धर्मों के विभिन्न धार्मिक विद्वानों से अपने सामने धार्मिक चर्चा करने के लिए कहता था। अकबर अनपढ़ था और उसने हमेशा कला को प्रोत्साहित किया और उन लोगों का सम्मान किया जो उसे नई चीजें सिखा सकते थे और यही कारण है कि उसके दरबार को संस्कृतियों का केंद्र माना जाता था क्योंकि वह विभिन्न विद्वानों, कवियों, कलाकारों आदि को अपने सामने अपनी कला दिखाने के लिए प्रोत्साहित करता था। 

अकबर का इतिहासअकबर महान को अबू अल-फतह जलाल अल-दीन मुहम्मद के नाम से भी जाना जाता है। अकबर तुर्क, ईरानी और मुगल वंश से थे। चंगेज खान और तैमूर लंग को अकबर का पूर्वज माना जाता है। हुमायूं अकबर के पिता थे, जो भारतीय उपमहाद्वीप में मुगल क्षेत्रों के शासक के रूप में दिल्ली की गद्दी पर बैठे थे। वह 22 साल की उम्र में सत्ता में आए और इस वजह से वह बहुत अनुभवहीन थे। 

दिसंबर 1530 में हुमायूं अपने पिता के बाद भारतीय उपमहाद्वीप में मुगल क्षेत्रों के शासक के रूप में दिल्ली की गद्दी पर बैठे। हुमायूं जब 22 साल की उम्र में सत्ता में आए थे, तब वे एक अनुभवहीन शासक थे। शेर शाह सूरी ने हुमायूं को हराया और कई मुगल क्षेत्रों पर कब्ज़ा कर लिया। हुमायूं फारस चले गए और लगभग 10 साल तक राजनीतिक शरण ली और 15 साल बाद खोए हुए मुगल क्षेत्रों को वापस पाने के लिए वापस लौटे। 

हुमायूं ने 1555 में गद्दी फिर से हासिल की, लेकिन उसके राज्य में कोई अधिकार नहीं था। हुमायूं ने अपने मुग़ल क्षेत्रों का और विस्तार किया और फिर एक दुर्घटना में उसकी मृत्यु हो गई और 1556 में वह अपने बेटे अकबर के लिए एक बड़ी विरासत छोड़ गया। 13 साल की उम्र में अकबर को पंजाब क्षेत्र का गवर्नर बनाया गया था। हुमायूं ने सम्राट के रूप में अपना अधिकार स्थापित किया ही था कि 1556 में उसकी मृत्यु हो गई, जिसके कारण कई अन्य शासकों ने इसे मुग़ल वंश पर कब्ज़ा करने की संभावना के रूप में देखा। जिसके परिणामस्वरूप मुग़ल साम्राज्य के कई राज्यपालों ने कई महत्वपूर्ण स्थान खो दिए। दिल्ली पर भी हेमू ने कब्ज़ा कर लिया, जो एक हिंदू मंत्री था और उसने खुद के लिए गद्दी का दावा किया। 

लेकिन युवा सम्राट के संरक्षक बैरम खान के मार्गदर्शन में, 5 नवंबर 1556 को मुगल सेना ने पानीपत की दूसरी लड़ाई में हेमू को हरा दिया और दिल्ली पर पुनः कब्जा कर लिया, जिससे अकबर का उत्तराधिकार सुनिश्चित हो गया। 

अकबर की पत्नी: अकबर की छह पत्नियाँ थीं, उनकी पहली पत्नी का नाम राजकुमारी रुकैया सुल्तान बेगम था, जो उनकी चचेरी बहन भी थीं। उनकी दूसरी पत्नी अब्दुल्ला खान मुगल की बेटी बीबी खिएरा थीं। उनकी तीसरी पत्नी नूर-उद-दीन मुहम्मद मिर्ज़ा की बेटी सलीमा सुल्तान बेगम थीं। उनकी एक और पत्नी भक्करी बेगम थीं, जो भक्कर के सुल्तान महमूद की बेटी थीं। अकबर ने अजमेर के राजपूत शासक राजा भारमल की बेटी जोधा बाई से शादी की। उन्हें मरियम-उज़-ज़मानी के नाम से भी जाना जाता है। अरब शाह की बेटी कसीमा बानू बेगम भी अकर की पत्नी थीं। 

अकबर के बेटे : अकबर के अलग-अलग पत्नियों से पाँच बेटे थे। उनके पहले दो बेटे हसन और हुसैन थे और उनकी माँ बीबी आराम बख्श थी। दोनों की ही कम उम्र में किसी अज्ञात कारण से मृत्यु हो गई। अकबर के अन्य बेटे मुराद मिर्ज़ा, दानियाल मिर्ज़ा और जहाँगीर थे। अकबर का सबसे प्रिय बेटा दानियाल मिर्ज़ा था क्योंकि उसे भी अपने पिता की तरह कविता में गहरी रुचि थी। तीन बेटों में से, राजकुमार सलीम या जहाँगीर ने अकबर के बाद मुग़ल वंश के चौथे सम्राट के रूप में पदभार संभाला। 

अकबर की धार्मिक नीति

मुगल बादशाह अकबर अपनी धार्मिक नीतियों और उसके प्रति उदार विचारों के लिए जाने जाते थे। उन्होंने एक ऐसी नीति अपनाई जिससे विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच आपसी समझ बनाए रखने में मदद मिली। अकबर द्वारा शुरू की गई नीति में हर धर्म को सम्मान और समानता का दर्जा दिया गया। उन्होंने हमेशा विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच शांति और सद्भाव बनाए रखने की कोशिश की। उन्होंने 'दीन-ए-इलाही' नामक एक नए धर्म की भी स्थापना की जिसमें सभी धर्मों की सभी बातें समान थीं। अकबर के समय में धार्मिक सद्भाव के लिए उठाए गए मुख्य कदम सभी के साथ उनके धर्म की परवाह किए बिना समान व्यवहार करना था। 

अकबर ने अपने पूर्ववर्तियों द्वारा हिंदुओं पर किए गए अन्याय को देखा और उन्होंने उन सभी को हल किया जैसे हिंदुओं पर करों को समाप्त करना, हिंदुओं को उच्च पदों पर नियुक्त करना, हिंदू परिवारों के साथ गठबंधन करना और सबसे महत्वपूर्ण रूप से सभी को पूजा की स्वतंत्रता देना। 

अकबर की धार्मिक नीतियों के कारण विभिन्न धर्मों के लोगों ने उस पर भरोसा किया और उसे सच्चे दिल से अपना राजा माना। धार्मिक नीतियों का प्रभाव बहुत बड़ा था और इसने साम्राज्य को मजबूत होने में मदद की। सांस्कृतिक एकता उभरी और विभिन्न धर्मों के लोगों के बीच सद्भावना का माहौल विकसित हुआ। अकबर को सभी लोगों ने राष्ट्रीय राजा के रूप में भी मान्यता दी।

अकबर का शासनकाल

1560 में बयराम खान के सेवानिवृत्त होने के बाद, अकबर ने अपने दम पर शासन करना शुरू कर दिया। अकबर ने सबसे पहले मालवा पर हमला किया और 1561 में उस पर कब्ज़ा कर लिया। 1562 में, अजमेर के राजा बिहारी मल ने अकबर को अपनी बेटी की शादी का प्रस्ताव दिया और अकबर ने इसे स्वीकार कर लिया और इसे पूर्ण समर्पण का संकेत माना गया। अकबर ने अन्य राजपूत सरदारों की तरह ही सामंती व्यवस्था का पालन किया। उन्हें अपने पूर्वजों के क्षेत्रों को इस शर्त पर रखने की अनुमति थी कि वे अकबर को अपना सम्राट स्वीकार करेंगे।

अकबर ने राजपूतों के साथ अपने गठबंधन को मजबूत करने के लिए आवश्यकता पड़ने पर अपने सैनिकों को युद्ध लड़ने के लिए आपूर्ति की और उन्हें श्रद्धांजलि दी। अकबर ने उन लोगों पर कोई दया नहीं दिखाई जिन्होंने उसे अपना सम्राट मानने से इनकार कर दिया और उसकी सर्वोच्चता को स्वीकार कर लिया। मेवाड़ से लड़ते हुए, 1568 में अकबर ने चित्तौड़ के किले पर कब्जा कर लिया और उसके निवासियों को मार डाला। चित्तौड़ के पतन ने कई राजपूत शासकों को अकबर की सर्वोच्चता के खिलाफ आत्मसमर्पण करने और 1570 में उसे अपना सम्राट स्वीकार करने के लिए मजबूर कर दिया।

1573 में अकबर ने गुजरात पर विजय प्राप्त की। यह कई बंदरगाहों वाला क्षेत्र था जो पश्चिमी एशिया के साथ व्यापार करने में बहुत सफल था। गुजरात पर विजय प्राप्त करने के बाद, अकबर की नज़र बंगाल पर थी, जो नदियों का जाल था। बंगाल के अफ़गान शासकों ने 1575 में अकबर के वर्चस्व के आगे आत्मसमर्पण करने का फैसला किया।

अपने शासनकाल के आखिरी दौर में अकबर ने 1586 में कश्मीर, 1591 में सिंध और 1595 में अफ़गानिस्तान पर कब्ज़ा कर लिया। उत्तर को पूरी तरह से जीतने के बाद, मुग़लों ने दक्षिण पर नज़रें गड़ा दीं। 1601 में खानदेश, अहमदनगर और बरार का कुछ हिस्सा अकबर के साम्राज्य में शामिल हो गया। अपने पूरे शासनकाल में अकबर ने भारतीय उपमहाद्वीप के दो-तिहाई हिस्से पर कब्ज़ा कर लिया था।