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16 सितंबर विश्व ओज़ोन दिवस आज, आईए जानते है इतिहास और महत्त्व


नयी दिल्ली : 16 सितंबर को मनाया जाने वाला प्रमुख दिवस विश्व ओज़ोन दिवस है। यह दिन ओजोन परत की सुरक्षा और उसके संरक्षण के महत्व को बढ़ावा देने के उद्देश्य से मनाया जाता है। तारीखों से जुड़े सामान्य ज्ञान से परिचित रहना बहुत जरूरी है क्योंकि कई प्रतियोगी परीक्षाओं में इससे संबंधित प्रश्न अक्सर पूछे जाते हैं। विश्व ओज़ोन दिवस की जानकारी भी उन परीक्षाओं में एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती है। 

कब और क्यों मनाया जाता है विश्व ओज़ोन दिवस?

हर साल दुनियाभर में 16 सितंबर को ओज़ोन परत के क्षय को रोकने के लिए और इससे निपटने के लिए किये जाने वाले वैश्विक प्रयासों के बारे में जागरूकता बढ़ाने के लिए ‘विश्व ओजोन दिवस’ मनाया जाता है।

ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल में एक सुरक्षात्मक परत है, जो सूर्य से आने वाली हानिकारक किरणों को पृथ्वी की सतह तक पहुंचने से रोकती है। अगर ओजोन परत क्षतिग्रस्त होती है, तो यह त्वचा कैंसर, मोतियाबिंद और पौधों और समुद्री जीवन पर प्रभाव डाल सकती है। 

आपको बता दें कि ओजोन परत पृथ्वी के वायुमंडल के समतापमंडल में पाया जाता है। यह परत पृथ्वी की सतह से लगभग 15 से 35 किलोमीटर (9 से 22 मील) की ऊँचाई पर होती है। 

विश्व ओज़ोन दिवस का इतिहास

विश्व ओज़ोन दिवस का इतिहास, ओजोन परत की सुरक्षा और इसके संरक्षण के लिए किये गए अंतरराष्ट्रीय प्रयासों से जुड़ा है। आपको बता दें कि इस दिन की स्थापना संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा 1994 में की गई थी, जब 16 सितंबर 1987 को मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल पर हस्ताक्षर किए गए थे। मॉन्ट्रियल प्रोटोकॉल एक वैश्विक समझौता जिसमें ओजोन की संरक्षण के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए थे। 

वहीं यह दिवस पहली बार 16 सितंबर, 1995 को मनाया गया था। तब से यह दिवस हर साल मनाया जा रहा है।

विश्व ओज़ोन दिवस का महत्व

यह दिवस हमें ओज़ोन परत के महत्व को समझने और इसके संरक्षण के लिए जागरूक होने का अवसर प्रदान करता है। 

यह दिन अंतरराष्ट्रीय समुदाय द्वारा ओज़ोन परत की सुरक्षा के लिए किए गए प्रयासों को याद करने और सराहने का अवसर देता है।

यह दिवस पर्यावरण संरक्षण के प्रति वैश्विक स्तर पर जागरूकता बढ़ाने का एक माध्यम है। 

इस दिवस का उद्देश्य न केवल वर्तमान पीढ़ी को, बल्कि भविष्य की पीढ़ियों के लिए सुरक्षित पर्यावरण प्रदान करना है।

दिल्ली के मशहूर पराठे जो बनते हैं शुद्ध देसी घी में रणवीर कपूर भी है इस दुकान के पराठे के दीवाने


दिल्ली का नाम लेते ही कई ऐतिहासिक स्थलों के साथ-साथ वहां का शानदार स्ट्रीट फूड भी याद आता है। खासकर पुरानी दिल्ली के पराठे, जो न केवल स्थानीय लोगों बल्कि देश-विदेश से आए पर्यटकों के बीच भी काफी मशहूर हैं। दिल्ली के पराठे शुद्ध देसी घी में बनाए जाते हैं, जो उन्हें एक अनोखा स्वाद और सुगंध देते हैं। 

दिल्ली में ऐसी कई दुकान हैं, जहां पर बड़े-बड़े राजनेता और सेलिब्रिटीज अक्सर कुछ ना कुछ खाने के लिए आते रहते हैं. लेकिन, पुरानी दिल्ली (Old Delhi) की पराठे वाली गली (Paranthe Wali Gali) में एक ऐसी दुकान है, जिसे राजनेताओं और सेलिब्रिटी के खाने का अड्डा माना जाता है. आइए इस दुकान के बारे में जानते हैं.

दरअसल, इस दुकान का नाम पंडित कन्हैया लाल दुर्गा प्रसाद दीक्षित पराठे वाले हैं. इसके मालिक गौरव तिवारी ने बताया कि वह अपने परिवार की पांचवीं पीढ़ी हैं, जो इस दुकान को चला रहे हैं. 

उन्होंने आगे कहा कि इस दुकान पर बाबू जगजीवन राम जी, रणबीर कपूर (Ranbir Kapoor), इम्तियाज अली, अक्षय कुमार और ऐसे ही कई बड़े राजनेता और सेलिब्रिटीज आ चुके हैं।

रणबीर भी खा चुके हैं यहां के पराठे

गौरव ने आगे बताया कि इस दुकान पर जब इम्तियाज अली और रणबीर कपूर पराठे खाने आए थे. तब रणबीर ने पराठे खाकर कहा था कि मजा आ गया. उन्होंने कहा कि इस दुकान पर पंडित जवाहरलाल नेहरू, इंदिरा गांधी, सोनिया गांधी, कपिल देव और जडेजा तक पराठे खाने आ चुके हैं.

मिलते हैं इतने प्रकार के पराठे

इस दुकान पर 30 प्रकार के पराठे बनाए जाते हैं, जिसमें आलू पराठा, गोभी पराठा, प्याज पराठा, मूली पराठा, मटर पराठा, पनीर पराठा और अन्य तरह के पराठे खाने के लिए मिल जाएंगे. 

दुकान की सबसे खास बात यह है कि यह सारे पराठे देसी घी में बनाए जाते है. इसके साथ पुदीना और कई तरह की चटनी भी मिलती है. यहां पर पराठे कीमत 90 रुपये से लेकर 150 रुपये तक है.

पराठे खाने हैं तो ऐसे पहुंचे

अगर आप भी पराठा खाने के शौकीन हैं, तो येलो मेट्रो लाइन से चांदनी चौक मेट्रो स्टेशन पहुंच जाइए. गेट नंबर-1 से बाहर निकलकर किसी भी रिक्शा से पराठे वाली गली में आसानी से पहुंच सकते हैं. पराठे वाली गली में थोड़ा अंदर जाते ही यह दुकान मिल जाएगी. यह दुकान हफ्ते में सातों दिन खुली रहती है. यहां पर सुबह 07:30 बजे से लेकर रात 10:30 बजे तक कभी भी आ सकते हैं।

खाटू श्याम जा रहे मध्यप्रदेश के 6 श्रद्धालुओं की मौत, राजस्थान के बूंदी में भीषण सड़क हादसा, सीएम मोहन यादव ने किया आर्थिक सहयोग देने का ऐलान


मध्य प्रदेश के देवास के रहने वाले 6 लोगों की राजस्थान में एक सड़क हादसे में दर्दनाक मौत हो गई है. यह हादसा राजस्थान के बूंदी में उस समय हुआ जब उनकी गाड़ी एक अज्ञात वाहन से टकरा गई. यह लोग दर्शन के लिए खाटू श्याम जी जा रहे थे.

मुख्यमंत्री मोहन यादव ने इस घटना पर दुख जताया है और मृतक के परिजनों को आर्थिक सहायता देने का ऐलान किया है. अपने ऑफिशियल एक्स (पहले ट्विटर) हैंडल पर पोस्ट संदेश में मुख्यमंत्री मोहन यादव ने लिखा, "मध्य प्रदेश के देवास जिले के 6 दर्शनार्थियों की खाटू श्याम जी के दर्शन के लिए जाते समय राजस्थान के बूंदी जिले में सड़क हादसे में असमय मृत्यु का दुखद समाचार मिल रहा है।

मुख्यमंत्री मोहन यादव ने आगे लिखा, "वे हादसे में घायलों के समुचित उपचार के लिए राजस्थान सरकार के संपर्क में हैं." उन्होंने लिखा, "बाबा महाकाल दिवंगतों की आत्मा को श्री चरणों में स्थान और शोकाकुल परिजनों को यह असीम दुख सहने की शक्ति प्रदान करें। 

सीएम ने किया आर्थिक सहायता का ऐलान

मृतक के परिजनों को मुख्यमंत्री मोहन यादव आर्थिक सहायता देने का भी ऐलान किया है. सीएम मोहन यादव ने इस पोस्ट में लिखा, "मध्य प्रदेश सरकार की ओर से मृतकों के परिवार को 2- 2 लाख रुपये की आर्थिक सहायता देने के निर्देश दिए हैं. दुख की इस घड़ी में शोकाकुल परिवारों के प्रति अपनी शोक संवेदना व्यक्त करता हूं."

क्या है पूरा मामला?

दरअसल, रविवार (15 सितंबर) की सुबह बूंदी जिले में जयपुर नेशनल हाईवे पर हिंडोली थाना क्षेत्र में गलत दिशा से आ रहे एक अज्ञात वाहन ने श्रद्धालुओं की कार को टक्कर मार दिया. यह टक्कर इतनी भीषण थी कि मौके पर ही 6 लोगों की मौत हो गई, जबकि तीन घायल हो गए. सूचना मिलने पर पहुंची पुलिस ने घायलों को इलाज के लिए अस्पताल में भर्ती कराया है. 

इस हादसे में सभी मृतक मध्य प्रदेश के देवास जिले के रहने वाले थे. यह खाटू श्याम जी की दर्शन के लिए गए थे, इसी दौरान यह सड़क हादसा हो गया. पुलिस ने सभी घायलों और मृतकों की पहचान कर ली है. बूंदी पुलिस और प्रशासन इस मामले में आगे की कार्रवाई में जुट गया है.

भारतीय साहित्य का 'आवारा मसीहा' शरतचंद्र चट्टोपाध्याय: एक युगप्रवर्तक लेखक, जिनसे प्रेम किए बिना नहीं रह सकेंगे


जब भी भारतीय साहित्य के महानतम लेखकों का ज़िक्र होता है, शरतचंद्र चट्टोपाध्याय का नाम प्रमुखता से लिया जाता है। उनका जीवन और साहित्यिक कृतियां आज भी पाठकों को गहराई से प्रभावित करती हैं। शरतचंद्र को उनके सरल, मार्मिक और यथार्थवादी लेखन के लिए जाना जाता है। उन्हें समाज के उस वर्ग की आवाज़ बनने का श्रेय जाता है जिसे अक्सर साहित्य में नज़रअंदाज़ किया जाता था।

आवारा मसीहा: शरतचंद्र का जीवन

शरतचंद्र का जन्म 15 सितंबर 1876 को बंगाल के देवानंदपुर में हुआ था। उनका बचपन बेहद संघर्षपूर्ण था, क्योंकि उनके पिता ज्यादातर समय साहित्य में ही व्यस्त रहते थे और परिवार की आर्थिक स्थिति कमजोर थी। इस कठिनाइयों से भरे जीवन ने शरतचंद्र के मन में समाज के पीड़ित और हाशिये पर खड़े लोगों के प्रति गहरी संवेदना पैदा की।

शरतचंद्र को 'आवारा मसीहा' का खिताब उनके जीवन और लेखन में दिखने वाली स्वतंत्र और बंधनहीन प्रवृत्ति के कारण दिया गया। उन्होंने अपने जीवन में कई कठिनाईयों का सामना किया, लेकिन उनका लेखन हमेशा समाज के निम्न वर्ग, महिलाओं और पीड़ितों की आवाज़ बना रहा।

शरतचंद्र की प्रसिद्ध कृतियां और उनका प्रभाव

उनकी सबसे प्रसिद्ध रचनाओं में देवदास, परिणीता, श्रीकांत, और चरित्रहीन शामिल हैं। शरतचंद्र का लेखन समाज की उन कुरीतियों पर तीखा प्रहार था, जिन्हें उस समय के लेखकों ने नजरअंदाज किया था। उनके उपन्यासों में प्रेम, दर्द, संघर्ष और समाज के अन्याय की झलक मिलती है।

शरतचंद्र की कृतियों में विशेषकर देवदास का नाम सबसे पहले आता है। देवदास न केवल एक उपन्यास था, बल्कि यह एक ऐसी कहानी थी जो आज भी लोगों के दिलों में बसी हुई है। इस उपन्यास पर कई बार फिल्में बनीं, और हर बार इसने दर्शकों का दिल जीता। सबसे प्रसिद्ध फिल्म निर्देशक बिमल रॉय की 1955 में बनी फिल्म देवदास और संजय लीला भंसाली की 2002 में बनी देवदास इस कहानी को एक नए आयाम पर ले गईं।

देवदास: एक अमर प्रेम कहानी

देवदास एक ऐसा चरित्र है जो न केवल भारतीय साहित्य में अमर है, बल्कि भारतीय सिनेमा में भी। देवदास की त्रासदी, उसकी विफल प्रेम कहानी और समाज के साथ उसका संघर्ष, आज भी पाठकों और दर्शकों के लिए उतना ही प्रासंगिक है जितना उस समय था जब इसे लिखा गया था। देवदास का चरित्र एक ओर प्रेम की गहराई दिखाता है, तो दूसरी ओर उसकी असमर्थता उसे एक दर्दनाक नायक बना देती है।

इस उपन्यास पर आधारित कई फिल्मों ने भारतीय सिनेमा में एक विशेष स्थान बनाया है। चाहे वह दिलीप कुमार द्वारा निभाई गई भूमिका हो, या शाहरुख खान द्वारा, हर अभिनेता ने इस चरित्र को अपनी अद्वितीय शैली में जीवंत किया है।

समाज और साहित्य के प्रति योगदान

शरतचंद्र ने अपने लेखन के माध्यम से समाज में व्याप्त कुरीतियों, विशेष रूप से महिलाओं के प्रति अन्याय और शोषण पर गहरी चोट की। उनका साहित्य समाज सुधार का एक महत्वपूर्ण माध्यम था, जिसमें उन्होंने समाज के पिछड़े वर्ग, महिलाओं और विधवाओं के जीवन को केंद्रीय भूमिका दी।

उनके साहित्य में न केवल समाज की बुराइयों का पर्दाफाश होता है, बल्कि उनके पात्रों के माध्यम से एक बेहतर, न्यायपूर्ण और स्वतंत्र समाज की कल्पना भी उभरती है। शरतचंद्र की कृतियों ने भारतीय साहित्य को एक नई दिशा दी और उनके योगदान को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता।

निष्कर्ष

शरतचंद्र चट्टोपाध्याय भारतीय साहित्य के उस युग के लेखक थे, जिन्होंने अपनी कृतियों से समाज की गहरी समस्याओं को उजागर किया। उनके उपन्यासों में व्यक्त उनकी संवेदना और समाज के प्रति उनका दृष्टिकोण उन्हें अपने समय से कहीं आगे का लेखक बनाता है। उनकी रचनाएं आज भी उतनी ही प्रभावशाली हैं और यह कहना गलत नहीं होगा कि उनके जीवन और साहित्य से परिचित होने के बाद कोई भी उनके व्यक्तित्व और उनके लेखन से प्यार कर बैठेगा।

शरतचंद्र का साहित्य आज भी उतना ही प्रासंगिक है, और उनके जीवन के संघर्षों और उनके विचारों से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि साहित्य एक सशक्त माध्यम है समाज में बदलाव लाने का।

भूख हड़ताल के माध्यम से जतींद्र नाथ दास ने ब्रिटिश सरकार को घुटने टेकने पर मजबूर किया, आईए जानते हैं उनके भूख हड़ताल और शहादत की कहानी


जतींद्र नाथ दास, भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक महत्वपूर्ण योद्धा, जिन्होंने अपनी भूख हड़ताल से ब्रिटिश सरकार को हिला कर रख दिया था। उनका यह संघर्ष आज़ादी के आंदोलन में एक प्रेरणादायक प्रतीक बन गया। उनका यह कदम न केवल व्यक्तिगत साहस का उदाहरण था, बल्कि उस समय की ब्रिटिश हुकूमत के क्रूर और अन्यायी रवैये के खिलाफ एक मजबूत विरोध भी था।

दिसंबर, 1928 में कांग्रेस सम्मेलन के दौरान जब भगत सिंह कलकत्ता गए थे, वहां फणींद्र घोष ने उनकी मुलाकात हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन आर्मी के कर्मठ क्रांतिकारी जतींद्र नाथ दास से करवाई थी.

ये मुलाकात कपिला टोला लेन के उत्तर में एक पार्क में करवाई गई थी. भगत सिंह उस ज़माने में एक ऐसे शख़्स की तलाश में थे जो उन्हें बम बनाना सिखा दे.

जतींद्र को बम बनाने में महारत हासिल थी. ये कला उन्होंने सचींद्र नाथ सान्याल से सीखी थी.

शुरुआत में जतींद्र, भगत सिंह को बम बनाना सिखाने के लिए राज़ी नहीं हुए. लेकिन भगत सिंह के ज़ोर देने पर वो इसके लिए राज़ी हो गए.

मलविंदरजीत सिंह वड़ैच अपनी किताब 'भगत सिंह द एटरनल रेबेल' में लिखते हैं, "भगत सिंह ने जतींद्र से कहा कि इसके लिए उन्हें आगरा आना होगा. जतींद्र ने कहा कि चूँकि इस समय आगरा में जाड़ा पड़ रहा होगा इसलिए बम बनाने के लिए ज़रूरी गन कॉटन के लिए बर्फ़ वहाँ नहीं मिल पाएगी."लेकिन कलकत्ता में ये आसानी से उपलब्ध होगी. इसलिए कलकत्ता में ही बम बनाना उपयुक्त होगा.

उन्होंने फणींद्र और भगत सिंह से कहा कि वो उन्हें कलकत्ता में एक जगह उपलब्ध करा दें.फणींद्र ने इसके लिए आर्य समाज मंदिर की सबसे ऊपरी मंज़िल का एक कमरा चुना. भगत सिंह ने उन्हें बम बनाने की सामग्री खरीदने के लिए 50 रुपए दिए.

उन्होंने कॉलेज स्क्वायर की पास की दुकानों से सारा सामान खरीद लिया. जब भगत सिंह, कलकत्ता से वापस लौटे तो जतींद्र ने उन्हें बमों के दो खोल दिए।राम प्रसाद बिस्मिल और उनके नौ साथियों ने काकोरी में कैसे लूटी थी ट्रेन आगरा पहुंच कर क्रांतिकारियों को बम बनाना सिखाया।फ़रवरी, 1929 में जतींद्र नाथ दास ट्रेन से क्रांतिकारियों के गढ़ आगरा पहुंचे, जहां भगत सिंह ने उन्हें स्टेशन पर रिसीव किया।

वहां जतींद्र का नया नाम ‘मास्टरजी’ रखा गया. आगरा में बम बनाने के लिए हींग की मंडी में एक घर किराए पर लिया, वहां उन्होंने क्राँतिकारियों के लिए कई बम बनाए और वहाँ मौजूद लोगों को बमों का कवर डिज़ाइन करना, गन कॉटन से फ़्यूज़ बनाने और विस्फोटक बनाने की ट्रेनिंग भी दी.

भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सदाशिव राव और फणींद्र ने झाँसी से 20 किलोमीटर दूर जाकर इस बम का परीक्षण भी किया.

जतींद्र नाथ दास के सम्मान में भारत सरकार की ओर से जारी किया गया डाक टिकट।

महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया

दिलचस्प बात ये है कि क्रांतिकारी बनने से पहले जतींद्र ने 1920-21 में गांधीजी के असहयोग आंदोलन में भाग लिया था और कई बार जेल भी गए थे.

उनको बंगाल की कई जेलों में रखा गया था और तरह-तरह की यातनाएं दी गई थीं.

तब वो जेल प्रशासन के खराब व्यवहार के विरोध में 23 दिनों तक भूख हड़ताल पर चले गए थे.

उसके बाद उनको बंगाल की जेल से शिफ़्ट कर मियांवाली जेल भेज दिया गया था. 

आंदोलन समाप्त होने के बाद उन्होंने अपनी कॉलेज की पढ़ाई फिर से शुरू कर दी थी लेकिन देश की आज़ादी के लिए लड़ने के अपने जज़्बे को उन्होंने कभी छोड़ा नहीं.

जब 7 नवंबर, 1926 में काकोरी ट्रेन एक्शन के बाद स्वतंत्रता सेनानियों की धरपकड़ शुरू हुई तो जतींद्र को भी गिरफ़्तार कर लिया गया.

जतींद्र गंभीर, कम बोलने वाले मृदुभाषी व्यक्ति थे. हालांकि, वो कम बोलते थे लेकिन उनके साथी उनकी तरफ़ खिंचे चले आते थे. उनको लाहौर कॉन्सपिरेसी केस के सिलसिले में एक बार फिर गिरफ़्तार किया गया. ये उनकी पांचवीं गिरफ़्तारी थी.

10 जुलाई, 1929 को शुरू की भूख हड़ताल

उन दिनों भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त भूख हड़ताल पर थे लेकिन सरकार उनकी मांग मानने के लिए तैयार नहीं थी.

तब ये तय किया गया कि सरकार को झुकाने के लिए कुछ और कॉमरेड भूख हड़ताल पर चले जाएं. उस समय सिर्फ़ जतींद्र दास को भूख हड़ताल का पूर्व अनुभव था.

लेकिन वो भावनात्मक कारणों से भूख हड़ताल करने के पक्ष में नहीं थे. उनका मानना था भूख हड़ताल रिवॉल्वर और पिस्टल की लड़ाई से कहीं कठिन लड़ाई है. लेकिन फिर भी उन्होंने 10 जुलाई 1929 को बेहतर जेल सुविधाओं की मांग को लेकर भूख हड़ताल शुरू कर दी.

ये भी तय हुआ कि हड़ताल के दौरान अगर वो बीमार पड़ते हैं तो वो दवाएं भी नहीं लेंगे और जहाँ तक संभव हो अफ़सरों को उन्हें ज़बरदस्ती दूध पिलाने के प्रयासों को कामयाब नहीं होने देंगे।

मशहूर स्वतंत्रता सेनानी शिव वर्मा अपनी किताब ‘रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ फेलो रिवोल्यूशनरीज़’ में लिखते हैं, ''शुरू में तो सभी कॉमरेडों ने चलना फिरना जारी रखा और सरकार ने भी इस उम्मीद में उनकी तरफ़ ध्यान नहीं दिया कि शरीर में कमज़ोरी आते ही वो अपनी हड़ताल तोड़ देंगे. 

जेल अधिकारी हमें लालच देने के लिए हमारी कोठरियों में खाने की चीज़ें रख देते. जैसे ही उनकी पीठ मुड़ती सारे कॉमरेड उन खाने की चीज़ों को नष्ट कर देते. जतींद्र दास अकेले शख़्स थे जिन्होंने उन खाने की चीज़ों की तरफ़ नज़र भी नहीं डाली.''।

मशहूर स्वतंत्रता सेनानी शिव वर्मा की किताब ‘रेमिनिसेंसेज़ ऑफ़ फेलो रिवोल्यूशनरीज़’

नाक के ज़रिए हड़तालियों को दूध पिलाने की कोशिश

दस दिन बाद जब कुछ कैदियों की हालत बिगड़नी शुरू हुई तो सरकार द्वारा बुलाए गए डॉक्टरों ने जबरदस्ती भूख हड़ताल पर बैठे कैदियों को दूध पिलाने का बीड़ा उठाया.

शिव वर्मा लिखते हैं, ''8 या 10 तगड़े लोग आगे आकर हममें से किसी एक को घेर लेते फिर वो उसे ज़बरदस्ती पकड़कर ज़मीन पर लिटा देते. जब तक उसकी ताकत रहती कैदी उसका विरोध करता लेकिन एक बनाम दस के मुकाबले में ये लोग कैदी पर भारी पड़ते और उसे गिरा देने में सफल हो जाते. फिर उसकी नाक के ज़रिए उसके पेट में एक लंबी ट्यूब डाल दी जाती. 

हड़ताली कैदी या तो ज़ोर से खाँसता या फिर ट्यूब के पेट में जाने में अवरोध खड़ा करता. कभी कभी वो ट्यूब नाक से फिसल कर मुंह में आ जाती और वो उसे अपने दांतों से दबा लेता. यहाँ पर डॉक्टर के धैर्य की परीक्षा होती. कभी कभी डॉक्टर अपना धैर्य खो देते और उस कैदी को उसी हाल में छोड़कर अगले कैदी की तरफ़ बढ़ जाते।

जतींद्र के फेफड़ों में एक सेर दूध उड़ेला गया

जतींद्र को इस पूरी कवायद का पहले से ही अंदाज़ा था इसलिए डॉक्टरों ने पहले दिन ही उनसे हार मान ली. जिस डॉक्टर का जतींद्र दास से वास्ता पड़ा था वो पहले लाहौर के एक मेंटल हॉस्पिटल का इंचार्ज था और उसे लोगों को ज़बरदस्ती दूध पिलाने में महारत हासिल थी.

दिमागी मरीज़ों के साथ लगातार रहने के कारण उसका अपना स्वभाव भी उन जैसा हो गया था.

जतींद्र के सामने दाल न गल पाने के कारण वो चिड़चिड़ा हो गया था. उसने सबके सामने दास को चुनौती देते हुए कहा था, ''देखता हूँ कल तुम कैसे मेरे काम में अड़ंगा डालते हो?''

26 जुलाई को सारे कैदियों को निपटा देने के बाद वो डॉक्टर जतींद्र दास के पास आया. जब ज़बरदस्ती दूध पिलाने का पहला चरण असफल हो गया तो उसने पहले जतींद्र की नाक के नथुने में पाइप डाला. दास ने उस पाइप को अपने दांतों से दबा लिया.

शिव वर्मा लिखते हैं, ''डॉक्टर ने फिर दूसरे नथुने से पाइप डालने की कोशिश की. दास को लगा जैसे उनका दम घुट रहा हो. तब भी उन्होंने अपना मुंह खोले बिना पाइप को पेट तक पहुंचने से रोकने की कोशिश की. पेट में जाने के बजाए दूसरा पाइप उनके फेफड़ों में चला गया. दर्द से उनकी आँखे पलटने लगीं लेकिन डॉक्टर ने उनके चेहरे की तरफ़ देखा भी नहीं और उनके फेफड़ों में एक सेर दूध उड़ेल दिया. सफल होने के संतोष में वो उन्हें वहीं तड़पता हुआ छोड़ कर अगले क़ैदी की तरफ़ बढ़ गया.''

दवा लेने और इंजेक्शन लगवाने से इनकार

ये घटना अस्पताल में हुई थी. दास की खराब हालत देख कर उनके करीब एक दर्जन साथी उनके पास पहुंच गए.

जतींद्र के शरीर का तापमान बढ़ता जा रहा था. उनको रह रह कर तेज़ खांसी उठ रही थी और उन्हें सांस लेनें में बहुत तकलीफ़ हो रही थी.

आधे घंटे बाद डॉक्टरों की पूरी टीम वहां पहुंच गई. उन्होंने जतींद्र को एक पलंग पर लिटा दिया. तब तक दास करीब-करीब बेहोशी की हालत में पहुंच चुके थे. जब डॉक्टरों ने उनके मुंह में दवा डालनी शुरू की, उनके शरीर मे पता नहीं कहां से इतनी ताकत आ गई और उन्होंने चिल्ला कर कहा, 'नहीं'. जब उनके साथियों ने ज़ोर दिया कि वो दवा ले लें तो वो उस दर्द में भी मुस्कराए.

अंत तक उन्होंने न तो खुद को कोई इंजेक्शन लगवाने दिया और न ही कोई दवा ली. थक हार कर जब डॉक्टर चले गए तब उन्होंने अपनी आँखें खोलीं. खुद को चारों ओर से अपने साथियों से घिरा देखकर वो एक बार फिर मुस्कराए और बहुत कमज़ोर आवाज़ में जितेंद्र सान्याल को संबोधित करते हुए बोले, ''अब वो मुझे कभी कुछ नहीं खिला पाएंगे.''

भगत सिंह के कहने पर अनीमा करवाया

उस दिन के बाद से वो धीरे-धीरे मौत के करीब जाते चले गए. कुछ दिनों में उनकी हालत बहुत बिगड़ गई. उनके सारे शरीर में ज़हर फैल गया.

उनकी आंखें आधी मुंदी रहने लगीं. डॉक्टर उन्हें अनीमा देना चाहते थे लेकिन दास इसके लिए राज़ी नहीं हुए.

शिव वर्मा लिखते हैं, ''किसी ने सरकार को सुझाया कि शायद जतींद्र दास, भगत सिंह की बात सुन लें. इस काम के लिए भगत सिंह को सेंट्रल जेल लाया गया. भगत सिंह के अनुरोध पर वो ऐसा करवाने के लिए तैयार हो गए. इस पर एक जेल अधिकारी ने उन्हें उलाहना दिया कि पहले तो आप अनीमा करवाने के लिए तैयार नहीं थे. भगत सिंह के कहने पर आप इसके लिए क्यों राज़ी हो गए?"

''जतींद्र का जवाब था, 'मिस्टर, आपको अंदाज़ा भी है कि भगत सिंह कितने महान हैं? मैं उनकी किसी बात को नहीं टाल सकता.’ इसी तरह एक बार जब भगत सिंह ने उनसे दवा लेने के लिए कहा तो उनका जवाब था, ‘देखो भगत सिंह. मुझे मालूम है कि मुझे अपनी प्रतिज्ञा नहीं तोड़नी चाहिए, लेकिन मैं तुम्हारी किसी बात से इनकार नहीं कर सकता. इसलिए भविष्य में मुझसे इस तरह का अनुरोध मत करना.'''

ज़मानत का प्रस्ताव ठुकराया

उनकी बिगड़ती हालत को देखते हुए सरकार उन्हें पहले मेयो अस्पताल भेजना चाहती थी लेकिन जब उन्होंने उनकी बात नहीं मानी तो सरकार उन्हें ज़मानत पर छोड़ने के लिए राज़ी हो गई.

इस बीच जेल कमेटी ने भी सिफ़ारिश की कि जतींद्र को बिना किसी शर्त के रिहा कर दिया जाए. लेकिन सरकार ने इसे अपनी इज़्ज़त का मामला बनाते हुए इस प्रस्ताव को नामंज़ूर कर दिया.

कुलदीप नैयर अपनी किताब ‘विदाउट फ़ियर द लाइफ़ एंड ट्रायल ऑफ़ भगत सिंह’ में लिखते हैं, ''सरकार ने उन्हें ज़मानत पर रिहा करने की पेशकश की लेकिन जतींद्र इसके लिए राज़ी नहीं हुए. किसी व्यापारी ने प्रशासन के कहने पर उनकी ज़मानत के लिए पैसे भी जमा करा दिए लेकिन जतींद्र ने इसे मानने से मना कर दिया. सरकार ने दावा किया कि वो उन सभी कैदियों की रिहाई की मांग कर रहे थे जो भूख हड़ताल पर थे. लेकिन ये सही नहीं था. उन्होंने इस मामले को जेल में मिल रही सुविधाओं पर हो रही लड़ाई से अलग रखा था.''

सभी साथियों को एक-एक बिस्किट खिलाया

कुछ दिनों के बाद जेल अधिकारियों ने जतींद्र दास को पूरी ताकत से जेल से बाहर फेंकने की कोशिश भी की. दास ने जेल सुपरिटेंडेंट को कहलवाया कि वो ज़मानत स्वीकार नहीं करेंगे.

इस पर अंग्रेज़ सुपरिटेंडेंट ने ईसा मसीह के नाम पर कसम खाई कि वो ज़बरदस्ती जतींद्र को उनकी इच्छा के ख़िलाफ़ जेल से हटाने की कोशिश नहीं करेगा.

शिव वर्मा लिखते हैं, ''करीब एक हफ़्ते बाद जतींद्र ने हम सब लोगों को इकट्ठा किया. उनके भाई किरन दास को उनके साथ रहने की इजाज़त दी गई थी. वो एक बिस्किट का पैकट लेकर आए. जतींद्र ने एक एक बिस्किट हम सबको देकर कहा, ‘हम अपनी भूख हड़ताल नहीं तोड़ रहे हैं. ये हमारा आपके साथ आखिरी खाना है. ये मेरे आपके प्रति प्रेम का प्रतीक है.’ हम सबने वो बिस्किट खाया."

''फिर उन्होंने नज़रुल इस्लाम का वो मशहूर गीत सुना, ‘बोलो वीर, चिर उन्नत माम शीर.’ वो देर रात तक अपनी कमज़ोर आवाज़ में हम सबसे बात करते रहे. वो उन लोगों के बारे में पूछते रहे तो उस समय हमारे साथ नहीं थे. ये सब बातें एक तरह से उस चिराग की तरह थीं जो बुझने से पहले फड़फड़ाता है. कुछ दिनों बाद उन्होंने बातें करना बंद कर दिया. उनके हाथ और पांव में सूजन आ गई और आंखें करीब-करीब बंद हो गईं. इस हालत में भी उन्होंने अपना सिर हिला कर हर सवाल का हां या ना में जवाब दिया.''

जतींद्र दास ने दम तोड़ा

भूख हड़ताल के 63वें दिन 13 सितंबर को जब उनकी हालत और गंभीर हो गई डॉक्टर उन्हें इंजेक्शन देना चाहते थे.

उनको गलतफ़हमी थी कि करीब-करीब बेहोश जतींद्र को पता नहीं चलेगा कि उन्हें इंजेक्शन लगाया जा रहा है. लेकिन जैसे ही उन्होंने उनकी बांह पर स्पिरिट लगाई, उन्होंने अपनी आंखें खोली और फटी हुई आवाज़ में चिल्लाए, 'नहीं.'

ये सुनते ही डॉक्टरों के बढ़ते कदम पीछे चले गए. कुछ देर बाद उनकी आंखें हमेशा के लिए मुंद गईं. उस दिन जेलों में बंद उनके साथियों को उनके अंतिम दर्शन के लिए अस्पताल ले जाया गया. उनके चारों ओर खड़े होकर उन्होंने उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि दी.

जतींद्र दास ने 63 दिनों के अनशन के बाद दम तोड़ा था. उस समय उनकी उम्र सिर्फ 25 साल थी.

डॉक्टरों ने भी एक पंक्ति में खड़े होकर उनके सम्मान में सिर झुकाया. जेल के अंग्रेज़ सुपरिटेंडेंट ने उनके सम्मान में अपनी टोपी उतार कर उन्हें सैनिक सैल्यूट किया. उसी दिन वायसराय ने लंदन संदेश भेजकर सूचित किया, ''कॉन्सपिरेसी केस के जतिन दास जो भूख हड़ताल पर थे आज दोपहर 1 बज कर 10 मिनट पर उनकी मौत हो गई. पिछली रात भूख हड़ताल कर रहे पांच लोगों ने अपनी हड़ताल तोड़ दी. अब भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ही हड़ताल पर हैं.''

हज़ारों लोगों ने पार्थिव शरीर के दर्शन किए*

जतींद्र दास की हालत बिगड़ने की ख़बर जंगल की आग की तरह पूरे लाहौर में फैल गई और अस्पताल के चारों ओर लोगों की भीड़ जमा हो गई.

उनके पार्थिव शरीर को कलकत्ता लाने के लिए सुभाषचंद्र बोस ने 600 रुपए भेजे. लाहौर से कलकत्ता के बीच हर स्टेशन पर हज़ारों लोगों ने उनके पार्थिव शरीर को श्रद्धांजलि दी. जेल से लाहौर स्टेशन तक उनकी शव यात्रा का नेतृत्व दुर्गा भाभी ने किया. उनके साथ पंजाब कांग्रेस के कई शीर्ष नेता चल रहे थे.

कानपुर स्टेशन पर गणेश शंकर विद्यार्थी ने पहुंच कर जतींद्र दास को श्रद्धांजलि दी. इलाहाबाद स्टेशन पर कमला नेहरू उनके अंतिम दर्शन के लिए मौजूद थीं. जब उनका पार्थिव शरीर हावड़ा पहुंचा तो सुभाषचंद्र बोस खुद उसे रिसीव करने पहुंचे. हुगली नदी के तट तक उसे पहुंचने में घंटों लग गए.

रास्ते भर जतींद्र दास के पार्थिव शरीर पर फूल बरसाए जाते रहे. सबसे मार्मिक श्रद्धांजलि आयरिश क्रांतिकारी टेरेंस मैक्स्वीनी की विधवा मैरी मैकस्वीनी की तरफ़ से आई. उनके पति ने सन 1921 में 74 दिनों की भूख हड़ताल के बाद दम तोड़ दिया था.

मैरी ने लिखा, ''हमारा परिवार जतींद्र दास की शहादत के दुख और गर्व में भारत के लोगों के साथ खड़ा है. आज़ादी ज़रूर आएगी.''

आईए जानते है कौन थे मोक्षगुंडम विश्वेश्वरैया जिनके जन्मदिन को अभियंता दिवस(इंजीनियर डे)के रूप में मनाया जाता है।


 नयी दिल्ली : भारत में प्रत्येक वर्ष 15 सितंबर के दिन अभियंता दिवस यानी इंजीनियर्स डे के रूप में मनाया जाता है। यही कारण है कि सोशल मीडिया में आज यानी रविवार के दिन ट्रेंड कर रहा है।

इंजीनियर्स डे एम विश्वेश्वरय्या के जन्मदिन के मौके पर मनाया जाता है। एम विश्वेश्वरय्या को सर की उपाधि भी दी गई थी। उन्हें भारत रत्न से भी सम्मानित किया गया था। विश्वेश्वरय्या को फादर ऑफ इंजीनियरिंग भी कहा जाता है।

एम विश्वेश्वरय्या का प्रारंभिक जीवन

एम विश्वेश्वरय्या का जन्म 15 सितंबर साल 1861 को कर्नाटक में हुआ था। जब वो 12 साल के थे तब उनके पिता का निधन हो गया। 

उनके पिता संस्कृत के जानकार थे। विश्वेश्वरय्या की प्रारंभिक शिक्षा चिकबल्लापुर में हुई उसके बाद वो 1881 में बीए की डिग्री बैंगलोर से की। 

उसके बाद उन्होंने पुणे के कॉलेज ऑफ़ इंजीनियरिंग में पढ़ाई की। विश्वेश्वरय्या ने बॉम्बे में पीडब्ल्यूडी से साथ काम किया और उसके बाद भारतीय सिंचाई आयोग के साथ काम करने लगे।

एम विश्वेश्वरय्या ने क्या - क्या काम किए?

एम विश्वेश्वरय्या ने भारत के लिए एक नहीं बल्कि अनेको बड़े काम किए। कृष्णराज सागर बांध, भद्रावती आयरन एंड स्टील व‌र्क्स, मैसूर संदल ऑयल एंड सोप फ़ैक्टरी, मैसूर विश्वविद्यालय, बैंक ऑफ़ मैसूर जैसे संस्थान उन्हीं के कोशिशों के नतीजे हैं। खासतौर दक्षिण भारत में उन्होंने एक से बढ़कर एक काम किए।

कर्नाटक का भगीरथ भी कहा जाता था। आज ज्यादातर बांध में पानी के बहाव को रोकने के लिए जो स्टील के दरवाजे लगाए जाते हैं उन्हीं की देन है।

रेल हादसे वाला किस्सा

एम विश्वेश्वरय्या मैसूर के 19वें दिवान थे जिनका कार्यकाल 1912 से 1918 के बीच रहा था। उन्हें 1955 में भारत रत्न के साथ - साथ जॉर्ज पंचम ने ब्रिटिश इंडियन एम्पायर के नाइट कमांडर के सम्मान से भी नवाज़ा था। उनसे जुड़ा हुआ एक रेल हादसे का किस्सा बेहद प्रसिध्द है।कहा जाता है कि एक बार वो रेल में सवार होकर कहीं जा रहे थे। उनकी वेश भूषा बिल्कूल सादी थी जिसे देखकर वहां बाकी बैठे अंग्रेजों ने उन्हें अनपढ़ गवार समझ लिया और खूब मजाक बनाया।

कुछ देर बाद अचानक उस सांवले रंग और मंझले कद के आदमी ने जंजीर खींचकर ट्रेन रोक दी। जब गार्ड ने पूछा तो बताया कि मुझे आभास हो रहा है कि कुछ दूर में पटरी उखड़ी हुई है। पहले तो सभी ने एम विश्वेश्वरय्या को खूब बुरा भला कहा लेकिन जब गार्ड लेकर पहुंचा तो सब देखकर दंग रह गए। सच में रेल की पटरी का जोड़ खुला था उसके सब नट बोल्ट उखड़े पड़े थे।

आज का इतिहास:1949 में 14 सितंबर को ही संविधान सभा ने हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया था

नयी दिल्ली : 14 सितंबर का इतिहास काफी महत्वपूर्ण माना जाता है क्योंकि 2001 में 14 सितंबर के दिन ही ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए अमेरिका में 40 अरब डॉलर मंजूर किए थे। 

2000 में आज ही के दिन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिकी सीनेट के दोनों सदनों की सुयंक्त बैठक को संबोधित किया था।

2000 में 14 सितंबर को ही माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज एम.ई. की लांचिंग की थी।

2016 में आज के दिन तक ही पैरा ओलंपिक में भारत के अब तक 4 पदक जीत लिए थे। 

2009 में 14 सितंबर के दिन ही भारत ने श्रीलंका को 46 रनों से हराकर त्रिकोणीय सीरीज का कॉम्पैक कप जीता था। 

2006 में आज ही के दिन परमाणु ऊर्जा में सहयोग बढ़ाने पर इब्सा में सहमति बनी थी। 

2003 में 14 सितंबर को ही एस्टोनिया यूरोपीय संघ में शामिल हुआ था।

2003 में आज ही के दिन गुयाना-बिसाउ में सेना ने राष्ट्रपति कुंबा माला सरकार का तख्ता पलट कर दिया था।

2001 में 14 सितंबर के दिन ही ओसामा बिन लादेन को पकड़ने के लिए अमेरिका में 40 अरब डॉलर मंजूर किए थे।

2000 में आज ही के दिन भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अमेरिकी सीनेट के दोनों सदनों की सुयंक्त बैठक को संबोधित किया था।

2000 में 14 सितंबर को ही माइक्रोसॉफ्ट ने विंडोज एम.ई. की लांचिंग की थी।

1999 में आज ही के दिन किरीबाती, नाउरू और टोंगा संयुक्त राष्ट्र में शामिल हुए थे।

1960 में 14 सितंबर को ही ऑर्गेनाइजेशन ऑफ द पेट्रोलियम एक्‍सपोर्टिंग कंट्रीज का गठन किया था।

1960 में आज ही के दिन खनिज तेल उत्पादक देशों ने मिलकर ओपेक की स्थापना की थी।

1949 में 14 सितंबर को ही संविधान सभा ने हिंदी को भारत की आधिकारिक भाषा का दर्जा दिया था।

1917 में आज ही के दिन रूस आधिकारिक तौर पर एक गणतंत्र घोषित हुआ था।

1911 में 14 सितंबर के दिन ही पीटर स्टॉलिपिन रूसी क्रांतिकारी शहीद हुए थे।

1833 में आज ही के दिन विलियम वेंटिक, भारत में पहला गवर्नर जनरल बनकर आया था।

1814 में 14 सितंबर को ही फ्रैंसिस कॉटकी द्वारा अमेरिका के राष्ट्रगान स्टार स्पैंगिल्ड बैनर लिखा गया था।

1770 में आज ही के दिन डेनमार्क में प्रेस की स्वतंत्रता को मान्यता मिली थी।

14 सितंबर को जन्में प्रसिद्ध व्यक्ति

1963 में आज ही के दिन भारतीय क्रिकेटर रॉबिन सिंह का जन्म हुआ था।

1932 में 14 सितंबर को ही प्रसिद्ध भारतीय स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिकारी दुर्गा भाभी का जन्म हुआ था।

1930 में आज ही के दिन फ़िल्मों के निर्माता राजकुमार कोहली का जन्म हुआ था।

1921 में 14 सितंबर को ही कथाकर मोहन थपलियाल का जन्म हुआ था।

14 सितंबर को हुए निधन

2008 में आज ही के दिन मिर्ज़ा ग़ालिब के विशेषज्ञ और उर्दू के विद्वान राल्फ रसेल का निधन हुआ था।

1992 में 14 सितंबर को ही आधुनिक राजस्थान के सर्वाधिक प्रसिद्ध प्रकृति प्रेमी कवि चंद्रसिंह बिरकाली का निधन हुआ था।

1985 में आज ही के दिन हिंदी सिनेमा के संगीतकार रामकृष्ण शिंदे का निधन हुआ था।

1971 में 14 सितंबर को ही ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित प्रसिद्ध बांग्ला साहित्यकार ताराशंकर बंद्योपाध्याय का निधन हुआ था।

14 सितंबर को प्रमुख उत्सव

हिंदी दिवस

हिंदी दिवस: 75 साल पहले हिन्दी राजभाषा बनी, 1953 से हर साल 14 सितंबर को मनाया जाता है हिन्दी दिवस


नयी दिल्ली : आज हिन्दी दिवस है। आज ही के दिन 1949 में हिन्दी को भारत की राजभाषा का दर्जा दिया गया था। दरअसल, साल 1947 में जब भारत आजाद हुआ तो आजाद भारत के सामने कई बड़ी समस्याएं थीं। जिसमें से एक समस्या भाषा को लेकर भी थी। 

भारत में सैकड़ों भाषाएं और बोलियां बोली जाती थीं। ऐसे में राजभाषा क्या होगी ये तय करना एक बड़ी चुनौती थी। हालांकि, हिन्दी भारत में सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। यही वजह है कि राष्‍ट्रपिता महात्‍मा गांधी ने हिंदी को जनमानस की भाषा कहा था।

संविधान सभा ने लंबी चर्चा के बाद 14 सितंबर को ये फैसला लिया कि हिन्दी ही भारत की राजभाषा होगी।

संविधान के अनुच्छेद 343 (1) में इसका उल्लेख है। इसके अनुसार भारत की राजभाषा ‘हिन्दी’ और लिपि ‘देवनागरी’ है। साल 1953 से हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए हर साल 14 सितंबर को हिन्दी दिवस मनाने की शुरुआत हुई।

हालांकि हिन्दी को आधिकारिक भाषा चुनने के बाद ही गैर-हिन्दी भाषी राज्यों का विरोध शुरू हो गया। सबसे ज्यादा विरोध दक्षिण भारत के राज्यों से हो रहा था। विरोध को देखते हुए संविधान लागू होने के अगले 15 वर्षों तक अंग्रेजी को भी भारत की राजभाषा बनाने का फैसला लिया गया, लेकिन जैसे ही ये तारीख नजदीक आने लगी दक्षिण भारतीय राज्यों का अंग्रेजी को लेकर आंदोलन फिर से जोर पकड़ने लगा। इसलिए सरकार को 1963 में राजभाषा अधिनियम लाना पड़ा। इसमें अंग्रेजी को 1965 के बाद भी कामकाज की भाषा बनाए रखना शामिल था। 

राज्यों को भी अधिकार दिए गए कि वे अपनी मर्जी के मुताबिक किसी भी भाषा में सरकारी कामकाज कर सकते हैं। फिलहाल देश में 22 भाषाओं को आधिकारिक भाषा का दर्जा मिला हुआ है।

आज, हिन्दी दुनिया की तीसरी सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषा है। हमारे देश में 77 प्रतिशत लोग हिन्दी बोलते, समझते और पढ़ते हैं।

जानते है झारखंड के प्रमुख ऐतिहासिक धरोहर के बारे में...

झारखंड, भारत का एक पूर्वी राज्य, न केवल अपनी प्राकृतिक सुंदरता के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यहां के ऐतिहासिक धरोहरों का भी एक महत्वपूर्ण स्थान है। झारखंड की ऐतिहासिक धरोहरें यहां की समृद्ध सांस्कृतिक और ऐतिहासिक विरासत को दर्शाती हैं। आइए, झारखंड के कुछ प्रमुख ऐतिहासिक धरोहरों के बारे में जानते हैं:

1. पालामऊ किला

पालामऊ किला, जिसे "रोहतास किला" के नाम से भी जाना जाता है, पलामू जिले में स्थित है। यह किला एक ऊँची पहाड़ी पर स्थित है और इसे पाल वंश के राजाओं ने बनवाया था। इस किले का निर्माण 16वीं शताब्दी में हुआ था और यह उस समय के स्थापत्य कला का उत्कृष्ट उदाहरण है। किले के अवशेष आज भी यहां की गौरवशाली इतिहास की कहानी बयां करते हैं।

2. मालूटी मंदिर

मालूटी, दुमका जिले में स्थित एक छोटा सा गांव है, जो अपने 72 प्राचीन मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। इन मंदिरों का निर्माण 17वीं और 18वीं शताब्दी के बीच हुआ था। इन मंदिरों में टेराकोटा कला का अद्भुत प्रयोग किया गया है, जो बंगाल की वास्तुकला को दर्शाता है। यह मंदिर समूह भारतीय पुरातात्विक सर्वेक्षण के संरक्षण में है और इसे देखने के लिए देश-विदेश से पर्यटक आते हैं।

3. बैद्यनाथ धाम (देवघर)

बैद्यनाथ धाम, जिसे बाबा बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग भी कहा जाता है, देवघर में स्थित है और यह 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। यह स्थल हिंदू धर्म के अनुयायियों के लिए अत्यधिक पवित्र माना जाता है। यहाँ की मान्यता है कि भगवान शिव ने अपने भक्त रावण को यहाँ दर्शन दिए थे। यहां का मंदिर वास्तुकला का अद्भुत नमूना है और इसकी पौराणिक कथा इसे और भी महत्वपूर्ण बनाती है।

4. नागफेनी मंदिर

नागफेनी मंदिर एक प्राचीन शिव मंदिर है, जो बोकारो जिले में स्थित है। यह मंदिर मुख्य रूप से नागवंशीय संस्कृति से जुड़ा हुआ है और इसे नाग देवता के लिए समर्पित माना जाता है। यहां पर प्रत्येक वर्ष नाग पंचमी के दिन एक विशाल मेला लगता है, जिसमें बड़ी संख्या में श्रद्धालु आते हैं।

5. राजमहल की पहाड़ियाँ

राजमहल की पहाड़ियाँ सैंथाल परगना क्षेत्र में स्थित हैं और यह क्षेत्र पुरापाषाण काल से संबंधित है। यहां के अवशेषों से पता चलता है कि यह क्षेत्र प्रागैतिहासिक काल में बसा हुआ था। यहां पर कई प्राचीन शिलालेख और चित्र भी पाए गए हैं, जो उस समय की सभ्यता और संस्कृति के बारे में जानकारी देते हैं।

निष्कर्ष:

झारखंड की ऐतिहासिक धरोहरें राज्य की समृद्ध और विविध सांस्कृतिक विरासत को दर्शाती हैं। ये धरोहरें न केवल भारतीय इतिहास के लिए महत्वपूर्ण हैं, बल्कि ये झारखंड की पहचान और गर्व का भी हिस्सा हैं। इन्हें संरक्षित करने और अगली पीढ़ी तक पहुंचाने की जिम्मेदारी हम सबकी है।

अगर आप झारखंड की यात्रा करते हैं, तो इन ऐतिहासिक स्थलों को देखने का मौका न चूकें। ये धरोहरें न केवल आपको अतीत की झलक देंगी, बल्कि आपको भारत की विविधता और समृद्धि का एहसास भी कराएंगी।

राजा नाहर सिंह का महल: ऐतिहासिक धरोहर, वास्तुकला की सुंदरता और बॉलीवुड का चहेता स्थल


राजा नाहर सिंह का महल, जिसे बल्ली बाग़ पैलेस भी कहा जाता है, हरियाणा के बल्लभगढ़ में स्थित एक ऐतिहासिक धरोहर है। यह महल अपनी खूबसूरती, वास्तुकला और इतिहास के लिए प्रसिद्ध है, और इसे भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के महान योद्धा राजा नाहर सिंह की याद में बनाया गया था। महल का निर्माण 18वीं शताब्दी में हुआ था और इसे ऐतिहासिक धरोहर के रूप में संरक्षित किया गया है।

महल की ऐतिहासिक महत्ता

राजा नाहर सिंह ने 1857 के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। उनके नेतृत्व में बल्लभगढ़ के लोगों ने अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह किया था। यह महल उस समय की राजनीतिक और सांस्कृतिक गतिविधियों का केंद्र था। महल में कई कक्ष, दरबार हॉल, और आंगन हैं, जो उस युग की भव्यता को दर्शाते हैं। यहाँ के दरबार हॉल की सजावट और आंतरिक वास्तुकला तत्कालीन राजसी जीवनशैली का प्रतीक है।

महल की वास्तुकला

राजा नाहर सिंह के महल की वास्तुकला में मुगल और राजपूत शैली का मिश्रण देखने को मिलता है। महल की भव्यता, खूबसूरत जालीदार खिड़कियाँ, और नक्काशीदार दरवाजे इसे एक अनूठी पहचान देते हैं। महल के आंगन और बगीचे भी अत्यंत आकर्षक हैं, जो इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में लोकप्रिय बनाते हैं।

बॉलीवुड में महल की लोकप्रियता

राजा नाहर सिंह का महल सिर्फ एक ऐतिहासिक स्थल ही नहीं है, बल्कि यह बॉलीवुड फिल्मों का भी एक लोकप्रिय शूटिंग स्थान है। इस महल की शाही खूबसूरती और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि ने इसे फिल्मों के लिए एक परफेक्ट लोकेशन बना दिया है। कई फिल्म निर्माताओं ने यहाँ पर अपने फिल्मों के दृश्य शूट किए हैं, जिससे इस महल की लोकप्रियता और भी बढ़ गई है। यहाँ के शांत और सुरम्य वातावरण में फिल्मों की शूटिंग करने का अनुभव अद्वितीय होता है।

पर्यटन और आयोजन स्थल

महल को अब एक हेरिटेज होटल के रूप में भी विकसित किया गया है, जहाँ लोग शादी, रिसेप्शन, और अन्य महत्वपूर्ण आयोजनों के लिए बुकिंग कर सकते हैं। यहाँ आकर पर्यटक इतिहास, संस्कृति और शाही जीवनशैली का अनुभव कर सकते हैं। महल का दौरा करने के लिए यह एक आदर्श स्थान है, खासकर उनके लिए जो ऐतिहासिक स्थलों और भारतीय संस्कृति में रुचि रखते हैं।

निष्कर्ष

राजा नाहर सिंह का महल अपने ऐतिहासिक महत्व, वास्तुकला, और बॉलीवुड में लोकप्रियता के कारण विशेष है। यह महल न केवल एक धरोहर है बल्कि इतिहास प्रेमियों और पर्यटकों के लिए आकर्षण का केंद्र भी है। अगर आप एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक यात्रा की योजना बना रहे हैं, तो यह महल आपकी सूची में अवश्य होना चाहिए।