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एक ऐसा अनोखा मंदिर जहां लोग किसी मूर्ति की नहीं, बल्कि एक बुलेट मोटरसाइकिल की पूजा करते है,जाने इनकी पूरी कहानी

भारत में लोगों की अपनी आस्था है. कोई पत्थर में भगवान ढूंढ लेता है तो कोई पोधे या जानवर के आगे सिर झुकाता है. लेकिन, राजस्थान में एक ऐसी जगह है, जहां लोग किसी मूर्ति की नहीं, बल्कि मोटरसाइकिल की पूजा करते हैं. आप भी सोच कर हैरान हो गए होंगे, लेकिन यह बाच सच है. यहां बाइक की ही पूजा होती है और इस मान्यता है बाइक की पूजा से उनकी रक्षा होती है और मनोकामनाएं भी पूरी होती है. बाइक का यह मंदिर ना सिर्फ आस्था का केंद्र है, बल्कि कई लोग इस अजीबोगरीब मंदिर को देखने भी आते हैं.

ऐसे में जानते हैं कि इस बाइक में ऐसा क्या है और इसके पीछे की क्या कहानी है, जिसकी वजह से लोग एक कई साल पुरानी बाइक में भगवान खोज रहे हैं. यह मंदिर सिर्फ राजस्थान में ही नहीं, बल्कि पूरे उत्तर भारत में फेमस है. यहां बड़ी संख्या में भक्त आते हैं, पूजा करते हैं, आरती करते हैं और मनोकामना मांगते हैं. आइए जानते हैं क्या है बाइक की पूजा की कहानी है और यह बाइक किसकी है…

कहां है ये मंदिर?

यह मंदिर राजस्थान के जोधपुर-पाली हाइवे से 20 किलोमीटर दूर है. यह पाली शहर के पास स्थित चोटिला गांव में है. पहले भले ही लोग इसे नहीं जानते थे, लेकिन अब इस हाइवे पर गुजरने वाले हर शख्स के लिए यह जाना पहचाना स्थान है.

क्या है बाइक पूजा की कहानी?

बात साल 1988 की है, जब पाली के रहने वाले ओम बन्ना (राजस्थान में राजपूत परिवार के युवा लोगों के लिए बन्ना शब्द का इस्तेमाल करते हैं) अपनी बुलेट बाइक से जा रहे थे और रास्ते में दुर्घटना हो गई और उनकी मृत्यु हो गई. ये कहानी है कि एक्सीडेंट के बाद इस बाइक को थाने ले जाया गया, लेकिन ये बाइक वहां से गायब हो गई. इसके बाद वो बाइक दुर्घटनास्थल पर मिली, जहां ओम बन्ना का एक्सीडेंट हुआ था.

फिर इसके बाद इसे थाने ले जाया गया और फिर ये बाइक वापस उसी स्थान पर आ गई. ऐसा कई बार हुआ. कहा जाता है कि इस बाइक को पुलिस ने चेन से बांध कर भी रखा था, लेकिन फिर भी यह बाइक थाने से गायब हो गई. इसके बाद इसे चमत्कार माना गया और उस बाइक को उसी स्थान पर स्थापित कर दिया गया. इसके बाद लोग इसकी पूजा करने लगे और लोगों की आस्था बढ़ गई. इसके बाद लोगों का मानना है कि ओम बन्ना और बाइक उनकी रक्षा करते हैं और मनोकामना पूरी करते हैं.

कहा जाता है कि जब से बाइक का मंदिर बनाया गया है, तब से यहां कोई एक्सीडेंट हुआ. इसके बाद लोग दूर दराज से पूजा करने आते है. अब राजस्थान में एक बड़ा वर्ग ओम बन्ना की पूजा करते हैं और उनकी आरती, भजन भी काफी गाए जाते हैं.

कब बना पुष्कर के ब्रह्मा मंदिर ?, जाने इस मंदिर की पौराणिक इतिहास

हमारा देश भारत कई विविधताओं का संग्रह है। यहां कई अलग देवी देवताओं की पूजा की जाती है और विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। हिन्दुओं के प्रमुख देवताओं में से हैं ब्रह्मा ,विष्णु और महेश यानी शिव। वैसे तो मुख्य रूप से विष्णु और शिव की पूजा करने का विधान है। लेकिन कभी आपने सोचा है कि सृष्टि के रचयिता ब्रह्म देव की पूजा क्यों नहीं की जाती है?

ब्रह्म देव के नाम पर पूरे विश्व में कुछ ही मंदिरों का निर्माण किया गया है। जिनमें से सबसे पुराना मंदिर है पुष्कर का ब्रह्मा मंदिर। आइए जानें इस मंदिर से जुड़ी कुछ ख़ास बातों और ब्रह्मा की पूजा न करने के कारणों के बारे में।

कब हुआ था मंदिर निर्माण

भगवान ब्रह्मा को समर्पित कुछ मंदिरों में से एक, इस पुष्कर मंदिर का निर्माण 14 वीं शताब्दी में किया गया था। इसमें एक सुंदर नक्काशीदार चांदी का कछुआ है, जो विभिन्न आगंतुकों द्वारा दान किए गए चांदी के सिक्कों के साथ संगमरमर के फर्श पर स्थापित किया गया है। मंदिर के गर्भगृह में उनकी दुल्हन, गायत्री के साथ ब्रह्मा जी की चार मुखी मूर्ति है। पुष्कर में कई मंदिर हैं जो अन्य देवताओं को समर्पित हैं। वराह मंदिर एक जंगली सूअर (वराह) के अवतार में विष्णु को समर्पित है। आप्टेश्वर मंदिर एक भूमिगत शिव मंदिर है जिसमें एक लिंगम है। अंत में, ब्रह्मा की पत्नी सावित्री को समर्पित सावित्री मंदिर, ब्रह्मा मंदिर के पीछे एक पहाड़ी पर स्थित है, और झील के सुंदर दृश्य प्रस्तुत करता है।

मंदिर की पौराणिक कथा

एक पौराणिक कथा के अनुसार एक बार ब्रह्मा जी ने पृथ्वी पर भक्तों की भलाई के लिए यज्ञ का विचार किया। यज्ञ की जगह का चुनाव करने के लिए उन्होंने अपने एक कमल को पृथ्वी लोक भेजा और जिस स्थान पर कमल गिरा उसी जगह को ब्रह्मा ने यज्ञ के लिए चुना। ये जगह राजस्थान का पुष्कर शहर था, जहां उस पुष्प का एक अंश गिरने से तालाब बन गया था। उसके बाद ब्रह्मा जी ने यज्ञ करने के लिए पुश्कर पहुंचे, लेकिन उनकी पत्नी सावित्री ठीक पर नहीं पहुंची। 

यज्ञ का शुभ मुहूर्त बीतता जा रहा था, लेकिन सावित्री का कुछ पता नहीं था। सभी देवी-देवता यज्ञ स्थल पर पहुंच चुके थे। ऐसे में ब्रह्मा जी ने नंदिनी गाय के मुख से गायत्री को प्रकट किया और उनसे विवाह कर अपना यज्ञ शुभ समय पर शुरू किया। कुछ देर बाद सावित्री यज्ञ स्थल पर पहुंची और ब्रह्मा जी के बगल में किसी और स्त्री को देख क्रोधित हो गई। सावित्री ने ब्रह्मा जी को श्राप दिया कि इस पृथ्वी लोक में आपकी कहीं पूजा नहीं होगी। इस श्राप को देखते हुए सभी देवी -देवताओं ने जब सावित्री से आग्रह किया तब उन्होंने श्राप वापस लिया और कहा कि, धरती पर सिर्फ पुष्कर में ही ब्रह्मा जी की पूजा होगी। तब से इस मंदिर का निर्माण किया गया।

पुष्कर झील के किनारे स्थित

यह मंदिर पुष्कर लेक के किनारे स्थित है और ब्रह्म देव के सबसे पुराने मंदिरों में से एक है। यह मंदिर हर साल पर्यटकों और श्रद्धालुओं को अपनी ओर आकर्षित करता है। कहा जाता है कि पुष्कर की खूबसूरती देखते हुए ब्रह्म देव ने स्वयं ही इस मंदिर को चुना था। प्राचीन ग्रंथों के मुताबिक, पुष्कर दुनिया की इकलौती जगह है, जहां ब्रह्मा का मंदिर स्थापित है और इस जगह को हिंदुओं के पवित्र स्थानों के राजा के रूप में वर्णित किया गया है।

कैसी है मंदिर की संरचना

पुराणों के अनुसार इस मंदिर का निर्माण करीबन 2000 वर्ष पूर्व सम्पन्न हुआ था । लेकिन मंदिर की मौजूदा वास्तुकला के मुताबिक इस मंदिर का निर्माण 14वीं शताब्दी में हुआ माना जाता है। पुष्कर को मंदिर की नगरी भी कहा जाता है, लेकिन औरंगजेब के शासन के दौरान यहां अमूमन हिन्दू मन्दिरों को नष्ट कर दिया गया, लेकिन आज भी पुष्कर झील के किनारे ब्रह्मा मंदिर और अन्य मन्दिर ज्यों के त्यों स्थित हैं। ऐसा माना जाता है कि पुष्कर झील ब्रह्मा जी के कमल की एक पत्ती से बनी है, जो हिन्दुओं के लिए अत्यंत पवित्र झील है।

कई विशेषताओं को अपने आप में समेटे हुए ये मंदिर वास्तव में बेहद खूबसूरत है और आप सभी को इस मंदिर के दर्शन हेतु अवश्य जाना चाहिए।

जानिए ओडिशा के लिंगराज मंदिर का इतिहास,और रहस्य

दसवीं-ग्यारहवीं सदी में बना ओडिशा का लिंगराज मंदिर भारत के विशाल और प्रसिद्ध मंदिरों में से एक है। आस्था और पर्यटन दोनों ही दृष्टियों से यह इस राज्य की राजधानी भुवनेश्वर का एक सबसे बड़ा आकर्षण है।

भारत के कुछ बेहतरीन हिंदू मंदिरों में से एक यह मंदिर लगभग 55 मीटर ऊंचा है, जिस पर बेहद सुंदर नक्काशी की गई है। बाहर से देखने पर यह चारों ओर से फूलों का गजरा पहना हुआ-सा दिखता है।

भगवान हरिहर को समर्पित है यह मंदिर

लिंगराज का अर्थ होता है ‘शिव’, लेकिन लिंगराज मंदिर में प्रतिष्ठित देवता ‘हरिहर’ के रूप में पूजित हैं। इस रूप में ‘हरि’ यानी भगवान विष्णु और ‘हर’ यानी भगवान शिव की पूजा-अर्चना एकसाथ होती है।

बता दें, भगवान हरिहर का एक सबसे प्रसिद्ध मंदिर बिहार के सोनपुर में गंगा और गंडक नदी के संगम पर स्थित है, जहां कार्तिक मास में भारत का एक सबसे प्रसिद्ध पशुमेला लगता है।

भुवनेश्वर है भगवान लिंगराज

लिंगराज मंदिर ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर में स्थापित है। ‘भुवनेश्वर’ भगवान लिंगराज का ही एक नाम है। भुवनेश्वर का अर्थ है ‘संसार के स्वामी’।

भगवान लिंगराज के रूप में भगवान शिव की उपस्थिति यहां होने के कारण भुवनेश्वर को ‘भगवान शिव का शहर’ कहा जाता है।

मां पार्वती ने किया था राक्षसों का वध

पौराणिक मान्यता के अनुसार, लिट्टी और वसा नामक दो राक्षसों ने लिंगराज क्षेत्र में अपने अत्याचारों से जनता को आतंकित और त्रस्त कर रखा था।

इन दोनों दुर्दांत राक्षसों के नाश के लिए लोगों ने मां पार्वती का आह्वान किया। भक्तों की पुकार से द्रवित होकर मां पार्वती ने लिट्टी और वसा का वध यहीं पर किया था।

बिन्दुसागर सरोवर में है पवित्र नदियों का जल

मान्यता के अनुसार, लडाई के बाद मां पार्वती को जब प्यास लगी, तो भगवान शिव ने यहां पर एक जलाशय का निर्माण कर सभी नदियों का आह्वान किया। उनके आह्वान पर जलाशय में भारत की सभी पवित्र नदियों का जल भर गया था।

बताया जाता है कि यहां स्थित बिन्दुसागर या बिन्दुसार सरोवर उसी दिव्य जलाशय का अंश है, जिसमें आज भी पवित्र नदियों का जल भरा है। लिंगराज का विशालकाय मंदिर इसके निकट ही स्थित है।

लिंगराज मंदिर का इतिहास

लिंगराज मंदिर ‘कलिंग वास्तुकला’ की उत्कृष्टता का सर्वोच्च प्रतिनिधि है। इस भव्य और विशाल मंदिर के निर्माण का श्रेय सोमवंशी राजवंश के राजा ययाति प्रथम को दिया जाता है।

जिसे बाद में जजाति केशरी ने और विकसित और पूरी तरह से स्थापित किया। मंदिर के विकास और साज-सज्जा में गंगवंश के राजाओं ने काफी योगदान दिया।

प्राचीन ‘एकाम्र क्षेत्र‘ में बना है यह मंदिर

ब्रह्म पुराण में ओडिशा के लिंगराज क्षेत्र को “एकाम्र क्षेत्र” के रूप में वर्णित किया गया है। कहते हैं, भगवान लिंगराज का विग्रह एक आम (एकआम्र/एकाम्र) वृक्ष के नीचे स्थापित था।

यहां के प्रथम मंदिर का उल्लेख सातवीं शताब्दी के कुछ संस्कृत ग्रंथों में मिलता है। इन ग्रंथों के अनुसार, लिंगराज मंदिर का एक भाग छठी शताब्दी ईस्वी के दौरान बनाया गया था। एक सोमवंशी रानी ने मंदिर के लिए एक गाँव दान में दिया था और मंदिर से जुड़े ब्राह्मणों को भी काफी अनुदान मिला था।

लिंगराज मंदिर का रहस्य

हजारों सालों से भुवनेश्वर पूर्वोत्तर भारत में ‘शैव सम्प्रदाय’ का मुख्य केन्द्र है। मध्यकाल में यहां सात हजार से अधिक मंदिर और पूजास्थल थे, जिनमें से अब लगभग पांच सौ ही शेष बचे हैं।

लिंगराज मंदिर का संबध ‘शैव सम्प्रदाय’ के कापालिकों से भी रहा है, जो अनेक रहस्यमय अनुष्ठानों के जाने जाते हैं।

संतान से जुड़ी परेशानियां होती हैं दूर

लिंगराज मंदिर की दायीं ओर एक छोटा-सा कुंड है। इसे मरीची कुंड कहते हैं। स्‍थानीय लोगों के अनुसार, इस कुंड के जल से स्‍नान करने से महिलाओं की संतान से जुड़ी परेशानियां दूर हो जाती हैं।

मंदिर से होकर गुजरती है नदी

मान्यताओं के अनुसार, लिंगराज मंदिर से होकर एक नदी गुजरती है। मंदिर का बिन्दुसागर सरोवर में इसी नदी का जल आता है। यही कारण है कि यह सरोवर कभी सूखता नहीं है।

दूर होती हैं शारीरिक और मानसिक बीमारियां

बिन्दुसागर सरोवर के जल में चमत्कारिक औषधीय गुण होने की बात की जाती है। कहते हैं, इस सरोवर के जल में स्नान करने से मनुष्य की शारीरिक और मानसिक बीमारियां दूर हो जाती हैं।

धार्मिक मान्यता के अनुसार, इस जल से स्नान करने पर मनुष्य के सभी पापों का नाश (पापमोचन) हो जाता है।

आज भी यहां मौजूद है भगवान परशुराम का फरसा,जाने इनकी पूरी कहानी

भगवान परशुराम के क्रोध, रौद्र रूप और उनके विशाल फरसे का विशेष तौर पर रामायण, महाभारत, भागवत पुराण आदि ग्रंथों में जिक्र है। 

भगवान राम की तरह भगवान परशुराम भी विष्णु के अवतार हैं। राजा जनक की बेटी सीता के स्वयंवर के दौरान रखी गई शर्त के मुताबिक, जब भगवान राम ने महादेव के धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाने के दौरान तोड़ दिया था। इसके बाद महादेव के परम भक्त भगवान परशुराम रोधित होकर भगवान राम को सजा देने के लिए उस स्वयंबर में पहुंचते हैं।

हालांकि, जब भगवान परशुराम को यह ज्ञात हो जाता है कि उनके समक्ष खड़े भगवान राम भी विष्णु के एक अवतार है, तो वह लज्जित हो जाते हैं। इसके बाद वह अपना विशाल फरसा लेकर लुचुतपाट जंगल के एक पर्वत पर अपने विशाल फरसे को जमीन में गाड़ कर भगवान भोलेनाथ की भक्ति में लीन हो जाते हैं और आराधना करने लगते हैं।

जिस स्थान पर भगवान परशुराम ने त्रिशूल रूपी विशाल फरसे को जमीन में गाड़ा था। वह स्थान झारखंड के गुमला जिले के डुमरी प्रखंड में पड़ता है

इसे टांगीनाथ धाम के नाम से जाना जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, भगवान परशुराम का फरसा आज भी धरती पर मौजूद है, जिस स्थान पर फरसा जमीन में गड़ा हुआ है। वह स्थान टांगीनाथ धाम है।

झारखंड की स्थानीय जनजातीय भाषा में फरसे को टांगी कहा जाता है।

इसीलिए इस स्थान का नाम टांगीनाथ धाम पड़ा है। यह गुमला जिले के बीहड़ जंगल में मौजूद है। टांगीनाथ धाम में पत्थरों से निर्मित एक प्राचीन मंदिर है। इसके साथ ही खुले आसमान के नीचे भोलेनाथ के 108 शिवलिंग के साथ-साथ देवी देवताओं की प्राचीन पत्थरों से निर्मित मूर्तियां मौजूद हैं।

टांगीनाथ धाम और भगवान परशुराम से जुड़ी एक दूसरी पौराणिक कथाओं के मुताबिक, भगवान परशुराम ने अपने पिता के कहने पर अपने विशाल फरसे से प्रहार कर अपनी माता रेणुका का सिर धड़ से अलग कर दिया था। हालांकि, पिता जमदग्नि से मिले वरदान से उन्होंने दोबारा अपनी माता रेणुका को जीवित कर दिया था।

इस घटना के बाद भगवान परशुराम पर मातृ हत्या का दोष लग गया था। मातृ हत्या का दोष से मुक्ति के लिए भगवान परशुराम ने इसी टांगीनाथ धाम में अपने विशाल त्रिशूल की आकृति वाले फरसे को जमीन में गाड़ कर भगवान भोलेनाथ की कठोर तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था। परशुराम की तपस्या के उपरांत भगवान भोलेनाथ साक्षात टांगीनाथ धाम पर प्रकट होकर भगवान परशुराम पर लगे मातृ हत्या के दोष से मुक्ति किया था। पौराणिक शास्त्रों के मुताबिक, टांगीनाथ धाम में जो त्रिशूल की आकृति वाला फरसा (टांगी) गड़ा है। वह भगवान भोलेनाथ का दिव्या त्रिशूल है, जिसे उन्होंने प्रसन्न होकर अपने प्रिय भक्त परशुराम को भेंट स्वरूप दिया था।

साल 1984 में टांगीनाथ धाम में गड़े त्रिशूल रूपी फरसा (टांगी ) के रहस्य को जानने के लिए खुदाई की गई थी। 15 फीट से ज्यादा मिट्टी के अंदर खुदाई करने के बाद भी जमीन में गड़े फरसे का आखरी हिस्सा नहीं मिल पाया था। जमीन के ऊपर लगभग 5 फीट का त्रिशूल की आकृति वाला फरसा मौजूद है। हजारों सालों से खुले आसमान के नीचे सर्दी, गर्मी, बरसात के बावजूद लोहे के त्रिशूल की आकृति वाले फरसे (टांगी ) में आज तक जंग नहीं लगा है।

इन्ही कारणों से कहा जाता है कि टांगीनाथ धाम में साक्षात भगवान शिव मौजूद हैं। सावन के पवित्र महीने में न सिर्फ झारखंड बल्कि बिहार ,उड़ीसा , छत्तीसगढ़ ,बंगाल ,मध्य प्रदेश सहित देश के दूसरे अन्य राज्यों से प्रतिदिन हजारों की संख्या में श्रद्धालु यहां महादेव की पूजा के लिए आते हैं। सावन में विशेष तौर पर यहां पूजा अर्चना की जाती है।

झारखंड की राजधानी रांची से तकरीबन 150 किलोमीटर की दूरी पर झारखंड के गुमला जिले के डुमरी प्रखंड के लुचुटपाट की पहाड़ियों पर टांगीनाथ धाम है। टांगीनाथ धाम पहुंचने के लिए गुमला जिला मुख्यालय से बस, टेंपो या प्राइवेट गाड़ियों की मदद से आसानी से पहुंचा जा सकता है।

कैसे हुई थी बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना,जाने रावण से क्या नाता है?

सावन में शिव जी पूजा अर्चना भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. वैसे तो भगवान शिव की पूजा हर सोमवार को होती है. सावन में भगवान शिव की पूजा को बहुत ही महत्वपूर्ण माना जाता है. सावन में लोग भगवान शिव के ज्योतिर्लिंगों के दर्शन भी करते हैं. मान्यता है कि ज्योतिर्लिंगों के दर्शन करने से व्यक्ति के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं. लेकिन आपको पता है कि भगवान शिव बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की स्थापना कैसे हुई थी और इसका लंकापति रावण से क्या नाता है?

बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग की कथा

पौराणिक कथा के अनुसार, भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए लंकापति रावण कठोर तपस्या कर रहा था. रावण भगवान शिव का ध्यान आकर्षित करने के लिए और उन्हें प्रसन्न करने के लिए अपना एक-एक सिर काटकर शिवलिंग पर अर्पित करने लगा. जब वह अपना दसवां और अंतिम सिर काटने जा रहा था, तभी भगवान शिव प्रकट हुए और रावण की तपस्या से प्रसन्न होकर, उन्होंने सभी धड़ों को पहले की भांति ठीक कर दिया और रावण से वर मंगने के लिए कहा

रावण ने मांगा यह वरदान

भगवान शिव को अपने सामने देख रावण ने उन्हें अपने साथ चलने का वर मांगा और वहीं स्थापित होने की प्रार्थना की. रावण की बात सुन भगवान शिव उनके साथ चलने के लिए तैयार हो गए और उन्होंने शिवलिंग का रूप धारण कर लिया.

शिवजी ने रखी शर्त

शिवलिंग का रूप धारण करने के साथ भगवान शिव ने रावण के आगे यह शर्त रखी कि यदि रावण उन्हें बीच रास्ते में भूमि पर रख देगा तो वह उसके साथ लंका नहीं जाएंगे. रावण ने इस शर्त को स्वीकार किया और शिवलिंग को अपने कंधे पर उठाकर लंका की ओर बढ़ने लगा. रावण जब शिवलिंग को लेकर आगे बढ़ रहा था तभी बीच में उसे लघुशंका की अनुभूति हुई.

रावण ने लघुशंका के लिए जाने से पहले रास्ते में जा रहे एक अहीर को शिवलिंग पकड़ा दिया और उसे आदेश दिया कि वह इस शिवलिंग को भूमि पर न रखें. जिसके बाद महादेव ने लीला रची और शिवलिंग का वजन धीरे-धीरे बढ़ने लगा. जब उस अहीर को यह वजन सहन नहीं हुआ, तब उसने विवश होकर शिवलिंग को जमीन पर रख दिया और रावण द्वारा मारे जाने के भय से वहां से भाग गया.

शिवलिंग हुआ स्थापित

जब रावण वापस वहां आया तब शिवलिंग को भूमि पर रखा देख स्तब्ध हो गया और अहीर की इस हरकत पर बहुत क्रोधित हुआ, लेकिन उसने क्रोध को दबाकर फिर से शिवलिंग को पूरे बल से उठाने की कोशिश करता रहा, लेकिन महादेव वहां से टस से मस नहीं हुए जिसके बाद रावण निराश होकर वहां से चला गया. जाने से पहले उसने शिवलिंग पर अंगूठा गाड़ दिया. तब से यहां बैद्यनाथ महादेव वास करने लगे और इसी रूप में उन्हें पूजा जाने लगा.

कहां है बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग

वैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग झारखण्ड राज्य के संथाल परगना के पास स्थित है. भगवान शिव के इस बैद्यनाथ धाम को चिताभूमि कहा गया है. भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को नौवां स्थान प्राप्त है. बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग को कामना लिंग भी कहा जाता है. बैद्यनाथ धाम शक्तिपीठ को लेकर भी प्रसिद्ध है क्योंकि यहां माता का हृदय गिरा था. यही कारण है कि इस स्थान को हार्दपीठ के नाम से भी जाना जाता है.

जानें उंडावल्ली गुफाओं में कौन से भगवान है बिरजमान और क्या महत्व है? और इसमें कितनी प्रतिमाएं है स्थापित

भारत के कई स्थानों पर विशाल अखंड चट्टानों को काटकर बनायी गयी कई गुफाएं हैं। आंध्र प्रदेश के गुंटूर नगर में स्थित उंदावल्ली गुफाएं उन्ही में से एक है। इसी प्रकार बनायी गयी कई प्रसिद्ध गुफाओं की जानकारी हमें पहले से ही है, जैसे महाराष्ट्र में स्थित अजंता, एलोरा तथा एलिफेंटा गुफाएं। कुछ अन्य गुफाएं, जिनके विषय में कम लोग जानते हैं, वे हैं मध्यप्रदेश के धार जिले में स्थित बाघ गुफाएं, मुंबई की कान्हेरी गुफाएं, उड़ीसा के उदयगिरी तथा खंडगिरी गुफाएं, कर्नाटक स्थित बदामी गुफाएं तथा मध्य प्रदेश के विदिशा में स्थित उदयगिरी गुफाएं। मध्य प्रदेश के भोपाल स्थित भीमबेटिका गुफाएं, जहां चट्टानों पर प्राचीन चित्रकारियाँ हैं तथा छतीसगढ़ की कुछ अन्य गुफाएं प्रागैतिहासिक गुफाएं हैं।

कुछ समय पहले मैं एक विश्व नृत्य एवं संगीत उत्सव का आनंद उठाने आंध्र प्रदेश स्थित अमरावती गयी थी। साथ ही कुछ हवाई रोमांचक खेलों में भाग लेने का भी अवसर मिला, जैसे गुब्बारे द्वारा हवाई सैर, पैराग्लाइडिंग इत्यादि। परन्तु विरासती धरोहरों से जुड़े ह्रदय के संकेतों को अनदेखा ना कर सकी। अतः समयाभाव के होते हुए भी मैंने कुचिपुड़ी गाँव, कोंडपल्ली नगरी तथा उंदावल्ली गुफाओं के भी दर्शन करने के लिए समय निकाल ही लिया।

यद्यपि उंदावल्ली गुफाएं भारत में स्थित अन्य गुफाओं के सामान ही हैं, तथापि इसमें विशेष अनूठापन भी है। कृष्णा नदी के तीर पर स्थित यह कई लघु गुफाओं का एक समूह है। ये गुफाएं गुंटूर नगर के अंतर्गत होते हुए भी विजयवाड़ा नगर एवं आंध्र प्रदेश की नई नवेली राजधानी अमरावती के समीप स्थित है।

उंदावल्ली गुफाओं का उत्खनन युग

ऐसा अनुमान है कि उंदावल्ली गुफाओं का उत्खनन राजा विश्नुकुंदी के राज में ४वी से ५वी. शताब्दी के मध्य कभी हुआ था। इन गुफाओं को १६वीं. शताब्दी तक राजसी संरक्षण प्राप्त था। किन्तु इसके पश्चात ये अधिकतर अनुपयोगी ही रही। स्वतंत्रता के पश्चात भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग ने इसे अपने संरक्षण में ले लिया और इसे राष्ट्रीय विरासत घोषित किया।

अखंड उंदावल्ली गुफाएं

उंदावल्ली पहुँचने से पूर्व मुझे जानकारी प्राप्त हुई कि उंदावल्ली गुफाओं को अखंड चट्टान से उत्खनित किया गया है जो चारों ओर हरियाली से घिरा हुआ है। इन गुफाओं के समूह में एक मुख्य गुफा है जो चार मंजिली है। इसके भीतर सुव्यवस्थित प्रकार से उत्खनित कई कक्ष तथा स्तंभ हैं। पर्यटक भी अधिकतर इसी गुफा पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हैं।

स्तरित उंदावल्ली गुफाएं

उंदावल्ली की स्तरित गुफाएं कुल मिलाकर अत्यंत आकर्षक प्रतीत हो रहे थे। प्रत्येक स्तर स्पष्ट रूप से दृश्यमान थे। निचला स्तर सम्पूर्ण नहीं है। इसकी अपूर्णता हमारे लिए सहायक सिद्ध होती है। इससे उत्खनन की तकनिकी जानकारी प्राप्त होती है। यह ज्ञात नहीं हो पाया कि स्तरित गुफाएं किसी वास्तुविद की पूर्व कल्पना थी अथवा स्तरों को क्रमशः भिन्न भिन्न काल में उत्खनित किया था। गुफाओं की छत पर कहीं कहीं रंगरोगन के चिन्ह थे। अर्थात् किसी काल में इन गुफाओं में रंगरोगन भी किया गया था।

गुफाओं में उपस्थित स्तंभ विजयनगर शैली का आभास कराते हैं। किन्तु कहा जाता है कि उंदावल्ली गुफाओं के उत्खनन के पश्चात ही महाबलीपुरम गुफाओं के उत्खनन की प्रेरणा प्राप्त हुई थी।

उंदावल्ली गुफाओं की प्रतिमाएं

1.शेषशायी विष्णु

शेषशायी विष्णु की प्रतिमा उंदावल्ली गुफाओं की मुख्य एवं मौलिक प्रतिमा है। इससे यह सिद्ध होता है कि यह वैष्णव गुफा मंदिर है। इस शेषशायी विष्णू की प्रतिमा के ऊपर एक गरुड़ की मनमोहक आकृति उत्कीर्णित है। इस शिल्प में गरुड़ भगवान् विष्णु को ऐसे निहार रहे हैं मानो भगवान् विष्णू की निद्रा भंग ना हो इसका ध्यान रख रहे हों। 

विशाल शेषनाग ने उनके शीश को आधार दिया है तथा फन उनके शीश के ऊपर फैला कर उन्हें छाँव प्रदान कर रहे हैं। वहीं अन्य देवी देवता आकाश से उन्हें निहार रहे हैं

वृक्ष उन्मूलन करता गज

उंदावल्ली गुफाओं के कई शिल्पों में एक आकृति मुख्यतः दिखाई दी, वह थी गज की आकृतियाँ। उनमें मुख्यतः वृक्ष उन्मूलन करते गज को दर्शाया गया है।

आसनस्थ गणेश की प्रतिमा

आसन ग्रहण किये गणेशजी की स्फटिक में बनी प्रतिमा पर हल्दी, सिंदूर व पुष्प अर्पित किये हुए थे। इसका अर्थ है कि इस प्रतिमा की पूजा अर्चना आज भी होती है।

नरसिंह अवतार

उंदावल्ली गुफा में नरसिंह अवतार की कई प्रतिमाएं हैं। इसमें कोई आश्चर्य नहीं। आँध्रप्रदेश में नरसिंह उपासना की प्रथा है। उंदावल्ली गुफा में नरसिंह की एक प्रतिमा खड़ी अवस्था में है। स्तंभों पर कई गोलाकार पदकों पर नरसिंह की आकृतियाँ देखने को मिलती हैं। आँध्र प्रदेश में भगवान् विष्णु को नरसिंह अवतार में पूजने की प्रथा आपको यहाँ के कई बड़े मंदिरों में दिखाई देगी जैसे विशाखापट्टनम के निकट सिंहाचलम मंदिर। आँध्रप्रदेश के अलावा मुझे केवल हिमाचल प्रदेश के कुछ स्थानों पर नरसिंह आराधना की जानकारी है। उनमें से एक है सराहन।

हनुमान

उंदावल्ली गुफा में हनुमान की भी कई प्रतिमाएं हैं। यहाँ तक कि रामायण महाकाव्य के भी वही दृश्य चित्रित हैं जिसमें हनुमानजी की भूमिका है।

महाकाव्य रामायण के दृश्य

महाकाव्य रामायण के कई दृश्य गुफा के स्तंभों पर उत्कीर्णित हैं। उपरोक्त दृश्य में श्रीलंका के अशोक वाटिका में हनुमानजी देवी सीता से भेंट करते दर्शाए गए हैं।

एक मंदिर ऐसा भी है जहां भोग-प्रसाद के तौर पर दिया जाता है नूडल्स और मोमोज,जाने

हमारे देश में एक ऐसा प्रमुख शहर है जो अपनी पूजा और व्यजंन के लिए पूरे दुनिया में विख्यात है. जी हां! आपने सही अंदाजा लगाया यह शहर है कोलकाता. इसे सिटी ऑफ जॉय के नाम से भी जाना जाता है. कोलकाता के स्ट्रीट फूड्स की तो बात ही अलग है. यहां चाइनीज फूड्स का तकड़ा खूब लगता है और तो और इस शहर में एक मंदिर ऐसा भी है जहां काली मां को भोग-प्रसाद के तौर पर नूडल्स और मोमोज जैसे चटपटे व्यंजन मिलते हैं.

कहां है यह मंदिर?

कोलकाता का यह छोटा मंदिर अपने आप में भारत-चीनी विरासत को समेटे हुए है. यह मंदिर तंगरा में स्थित है, इसे चीनी काली मंदिर के नाम से जाना जाता है.

एक चमत्कार से मंदिर बनने की हुई थी शुरुआत

स्थानीय लोगों का कहना है कि काफी समय पहले एक बड़े पेड़ के पास दो पत्थर थे. लोग उन पर लाल पाउडर लगाते थे और हर दिन प्रार्थना करते थे. बाद में कुछ असाधारण घटना घटित हुई, उस दौर में एक चीनी लड़का बहुत बीमार पड़ गया और उसके इलाज में कोई दवा असर नहीं कर रही थी. ऐसे में परेशान माता-पिता ने उन पत्थरों पर देवी काली से प्रार्थना की, तब चमत्कारिक ढंग से उनका लड़का बेहतर हो गया.

इस मंदिर में शनिवार का दिन विशेष रूप से महत्वपूर्ण होता है, जिसमें देवी के सम्मान में बड़े समारोह आयोजित किए जाते हैं. दिवाली के दौरान यह मंदिर मोमबत्तियों से जगमगा उठता है, लेकिन मान्याताओं के अनुसार यहां बुरी आत्माओं को दूर रखने के लिए भक्त विशेष धूप और कागज भी जलाते हैं.

क्या आप जानते हैं भारत ही नहीं बल्कि इंडोनेशिया में भी 700 सालों से विराजमान हैं गणेश जी की मूर्ति

 लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत ही नहीं बल्कि इंडोनेशिया में भी कई गणेश मंदिर हैं और इंडोनेशिया में एक ज्वालामुखी के मुहाने पर 700 सालों से गणेश जी विराजमान हैं।

इंडोनेशिया में 141 ज्वालामुखियों में से 130 अभी भी सक्रिय हैं और उनमें से एक माउंट ब्रोमो है। यह पूर्वी जावा प्रांत के ब्रोमो टेंगर सेमेरू राष्ट्रीय उद्यान में स्थित है। इंडोनेशिया के सक्रिय ज्वालामुखी माउंट ब्रोमो पर गणपति की एक मूर्ति के बारे में कहा जा रहा है। हालाँकि यह एक लोक कथा है, लेकिन स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि यह मूर्ति 700 सालों से वहाँ है।

यहां मौजूद गणेश मूर्ति की क्या खासियत है?

ब्रोमो का मतलब जावा भाषा में ब्रह्मा होता है, लेकिन इस ज्वालामुखी में गणेश जी का विशेष स्थान है। स्थानीय लोगों का मानना ​​है कि ज्वालामुखी के मुहाने पर जो मूर्ति है, वह यहां के लोगों की रक्षा करती है। इंडोनेशिया में हिंदू आबादी बहुत ज़्यादा है और यहां मंदिरों की कोई कमी नहीं है। यहां गणेश मंदिर से लेकर शिव मंदिर तक कई भगवान मिल जाएंगे।

जावा प्रांत में जावानीस लोग रहते हैं। उनका मानना ​​है कि उनके पूर्वजों ने इस मूर्ति की स्थापना की थी। यहां गणपति की पूजा कभी बंद नहीं होती। भले ही यहां विस्फोट हो जाए। दरअसल, यह एक परंपरा है, 'यदनया कसाडा' नाम की यह परंपरा साल में एक खास दिन मनाई जाती है। यह 15 दिनों का त्योहार है जो अपनी शुरुआत से ही चला आ रहा है।

ऊपर गणेश जी की मूर्ति में पूजा के साथ बकरे की बलि दी जाती है और प्रसाद के रूप में फल, फूल आदि चढ़ाए जाते हैं। मान्यता है कि अगर ऐसा न किया जाए तो ज्वालामुखी का प्रकोप यहां के लोगों को लील जाएगा।

जानें हल्देश्वर महादेव मंदिर की क्या है कहानी,और भगवान भोलनाथ क्यू प्रकट हुए थे पीपल के पेड़ के नीचे

सावन के पहले सोमवार को देशभर के शिव मंदिरों में भक्तों का तांता लगा हुआ है. वहीं बालोतरा के सिवाना में छप्पन पहाड़ियों के बीच स्थित पौराणिक हल्देश्वर महादेव के दर्शन के लिए श्रद्धालु पहुंचने लगे हैं.

 मिनी माउंट के नाम से मशहूर 7 पहाड़ियों के बीच बना यह मंदिर अपनी खास पहचान रखता है. सावन के महीने में यहां बड़ी संख्या में भक्त महादेव के दर्शन के लिए पहुंचते हैं. यहां दर्शन करने के बाद भक्त अपने परिवार की खुशहाली की कामना करते हैं.

हल्दिया राक्षस के वध के लिए यहां प्रकट हुए थे भोलेनाथ

पौराणिक मान्यता के अनुसार इन छप्पन पहाड़ियों में हल्दिया नामक राक्षस का आतंक था. राक्षस के आतंक से मुक्ति के लिए ग्रामीणों ने भोलेनाथ से प्रार्थना की. 

परिणामस्वरूप भगवान शिव एक पीपल के पेड़ के नीचे प्रकट हुए और राक्षस का वध कर ग्रामीणों को उसके भय से मुक्ति दिलाई. तभी से यह स्थान हल्देश्वर महादेव के नाम से जाना जाता है. इस स्थान पर एक पहाड़ी भी है

 जहां गुरु गोरखनाथ की गुफा और धूनी है. गुरु गोरखनाथ ने यहां कई वर्षों तक तपस्या की थी. इसके अलावा महाभारत काल में पांडवों ने अपना अज्ञातवास भी यहीं बिताया था. पास में ही ऊंची पहाड़ी पर मां भवानी का मंदिर भी है लेकिन वहां पहुंचना काफी कठिन है.

हल्देश्वर के रास्ते मे वीर दुर्गादास प्रोल का भी अनूठा इतिहास

हल्देश्वर के रास्ते में पहाड़ियों पर वीर दुर्गादास के जरिए बनवाई गई प्रोल का भी अपना इतिहास है.

 ऐसा माना जाता है कि सत्रहवीं शताब्दी में औरंगजेब के आक्रमण के दौरान जोधपुर राज्य के राजा जसवंत सिंह की मृत्यु के बाद उनके बेटे अजीत सिंह को राजा मानने से इनकार कर दिया गया 

और षड्यंत्र रचने लगे. ऐसे में वीर दुर्गादास ने नन्हे बालक अजीत सिंह को औरंगजेब से बचाने के लिए इन पहाड़ियों में एक प्रोल बनवाई और अजीत सिंह को वहीं रखा. बाद में उन्हें मेवाड़ भेज दिया गया. दुर्गादास ने इसी प्रोल में औरंगजेब के पोते और पोती को भी छिपाया था, जिन्हें बाद में उन्हें वापस सौंप दिया गया. हालांकि यह प्रोल अब बदहाल स्थिति में है.

कैसे पहुंचे हल्देश्वर महादेव

हल्देश्वर महादेव तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को सिवाना जाना पड़ता है वहां से पिपलून गांव की तलहटी से करीब 7 किलोमीटर की दुगर्म पहाड़ियों के रास्तों से होकर गुजरना पड़ता है.

पद्मनाभस्वामी मंदिर से करीब एक लाख करोड़ रुपए मूल्य का निकाला गया था खजाना, जाने इस मंदिर की कहानी

केरल की राजधानी तिरुअनंतपुरम के प्राचीन पद्मनाभस्वामी मंदिर में मौजूद खजाने और इसके तहखानों का केस सुप्रीम कोर्ट के पास है। जिसमें कोर्ट ने कहा है कि भगवान को किस श्लोक से जगाया जाए, यह आस्था का सवाल है। हम इसे कैसे तय कर सकते हैं। मंदिर के सबसे बड़े पुजारी परमेश्वरन नंबूदरी इसका फैसला करें। बता दें कि 2 हजार साल पुराने इस मंदिर की निगरानी सुप्रीम कोर्ट कर रहा है। 2011 में कैग की निगरानी में पद्मनाभस्वामी मंदिर से करीब एक लाख करोड़ रुपए मूल्य का खजाना निकाला गया था। इसे भारत का सबसे अमीर मंदिर भी कहा जाता है।

क्यों खास है यह मंदिर

गौरतलब है कि पद्मनाभस्वामी मंदिर के पांच तहखानों को खोलने के बाद एक लाख करोड़ रुपए का खजाना मिला था। यह सभी तहखाने सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर खोले गए थे। मगर छठे तहखाने के संबंध में मंदिर प्रशासन का कहना है कि भगवान नहीं चाहते कि छठा तहखाना खुले और मंदिर की संपत्ति बाहर जाए।

 मंदिर प्रशासन ने संपत्ति और तहखाने को लेकर दैवीय इच्‍छा जानने के लिए देव प्रश्‍नम आयोजित किया था। कुछ लोगों का कहना है कि अगर छठे तहखाने को खोला गया तो प्राकृतिक आपदा आ सकती है।

क्या है मंदिर की कहानी

भगवान विष्णु को समर्पित पद्मनाभस्वामी मंदिर को त्रावणकोर के राजाओं ने बनाया। इसका जिक्र 9 सदी के ग्रंथों में मिलता है, लेकिन मंदिर के मौजूदा स्वरूप को 18वीं शताब्दी में बनाया गया। मान्यता है कि इस जगह भगवान विष्णु की मूर्ति मिली थी, इसके बाद राजा मार्तण्ड ने यहां मंदिर बनवाया। 

सन् 1750 में महाराज मार्तण्ड ने खुद को पद्मनाभ दास बताया। इसके बाद त्रावणकोर शाही परिवार ने खुद को भगवान के लिए समर्पित कर दिया। माना जाता है कि इसी वजह से त्रावणकोर के राजाओं ने अपनी सारी दौलत पद्मनाभ मंदिर को सौंप दी।

 हालांकि त्रावणकोर के राजाओं ने 1947 तक राज किया। आजादी के बाद इसे भारत में मिला लिया, लेकिन पद्मनाभस्वामी मंदिर को सरकार ने कब्जे में नहीं लिया। इसे त्रावणकोर के शाही परिवार के पास ही रहने दिया। तब से मंदिर का कामकाज शाही परिवार के अधीन एक प्राइवेट ट्रस्ट चलाता आ रहा है।

मंदिर में जाने के नियम

तिरुअनंतपुरम में मौजूद भगवान विष्णु का मंदिर काफी फेमस है। भारत के वैष्णव मंदिरों में शामिल यह ऐतिहासिक मंदिर केरल के पर्यटन और धर्मिक आस्था का केंद्र है। मंदिर के गर्भगृह में भगवान विष्णु की बड़ी मूर्ति रखी है। इसमें भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन मुद्रा में विराजे हुए हैं। भगवान विष्णु की विश्राम अवस्था को 'पद्मनाभ' कहा जाता है। इसी वजह से मंदिर को पद्मनाभस्वामी और भगवान के 'अनंत' नाग के नाम शहर को तिरुअनंतपुरम नाम मिला था। अपनी भव्यता के लिए मशहूर मंदिर में जाने के लिए पुरुषों को धोती और महिलाओं को साड़ी पहनना जरूरी है।