एंटीबायोटिक दवाओं को लेकर जरूरत है स्वास्थ्य विभाग को सजग होने और ठोस नियम बनाने की,नही तो यह बनेगा तबाही का कारण
-:विनोद आनंद
चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में आनेवाले दिनों में एक बहुत बड़ी संकट आनेवाली है। अगर हम आज सजग नही हुए,सरकार और चिकित्सक इस मामले को लेकर गंभीर नही हुए, और जनता को भी जागरूक नही किया गया, तो इस संकट से बहुत बड़ी तबाही हो सकती है।
क्योंकि जिस तरह लोगों के शरीर में एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस विकसित हो रहा है उससे साधारण इंफेक्टशन से भी लोगों की मौत हो सकती है। क्योंकि इससे शरीर में प्रवेश किये हुए बैक्टेरिया इतना मजबूत हो जाएगा कि ।एंटिवयेटिक दवाएं बेअसर हो जाएगी । साधारण इंफेक्शन से भी लोगों की मौत हो जाएगी।इस लिए इन दवाओं के उपयोग और डोज को लेकर ठोस नियम बनाने की जरुरत है। आज हम विज्ञान की खोज और नवीन तकनीकी से आगे बढ़ने की कवायद में जितना व्यस्त हो जाएं लेकिन प्रकृति के कुछ ठोस सिद्धान्त है उसका उलघन नही किया जा सकता है। मानव शरीर की सरंचना भी प्रकृति ने अपने अनुकूल किया है।उसके अंदर भी अपनी इम्युनिटी है किसी बीमारी और बैक्टेरिया से लड़ने का। लेकिन आज जैसे चिकित्सक अंधाधुंध एन्टीवायोटिक् का उपयोग कर रहे हैं और जरूरत से ज्यादा एन्टीवायोटिक किसी मर्ज में दे रहे हैं, केमिस्ट के लिए भी कोई ठोस नियम नही है, बिना प्रिस्क्रिप्शन के धड़ल्ले से एन्टीवायोटिक बेचा जा रहा है। लोग भी बिना चिकित्सक के सलाह के एंटीवायोटिक का उपयोग कर रहे हैं। यह प्रकृति द्वारा प्रदत मानव शरीर पर भी प्रतिकूल प्रभाव डाल रहा है।और इसका असर दिखना शुरू हो गया है। इसके साथ हीं साथ चिकन या अन्य फशुओं के खाद्य पदार्थों में एन्टीवायोटिक मोल्युकूल का उपयोग किया जा रहा है,और हम उस मीट, दूध का उपयोग धड़ल्ले से कर रहे हैं इसके प्ररिणाम स्वरूप हमारे शरीर में सुपरबग्ग डेवलप हो रहा है और हमारे शरीर के अंदर जाने वाले कोई भी वायरस इतना मजबूत हो रहा है कि कोई भी एन्टीवायोटिक दवा किसी वायरस से लड़ने के लिए बेअसर हो जाएगी। इस संदर्भ में विश्व स्वास्थ्य संघठन का चौकाने वाला रिपोर्ट भी सामने आया है। एक अनुमान के मुताबिक एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस यानी दवाओं के बेअसर होने की वजह से हर साल दुनिया में 10 लाख से ज्यादा लोग मारे जा रहे हैं। दक्षिण एशियाई देशों में 4 लाखx लोगों की मौत ऐसे खतरनाक इंफेक्शन से हो रही है जिन पर कोई दवा असर नहीं कर रही है। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने आंकलन किया है कि जिस स्तर पर आज समस्या नजर आ रही है। अगर इन परिस्थियों को हल नहीं किया गया तो 2050 तक दुनिया में एक करोड़ लोग इस वजह से मारे जाएंगे क्योंकि उन पर दवाएं असर नहीं कर रही होंगी। आज एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस इंसान की जान पर बने दस सबसे बड़े खतरों में शामिल है। वर्ल्ड बैंक की ताजा रिपोर्ट के अनुसार एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होने की वजह से अगले पच्चीस सालों में ग्लोबल एक्सपोर्ट में 3.8% की कमी आ सकती है, हर साल पैदा होने वाला लाइव स्टॉक जैसे मीट और डेयरी प्रॉडक्टस सालाना 7.5% की दर से कम हो सकते हैं और स्वास्थ्य पर आने वाले खर्च में 1 ट्रिलियन डॉलर की बढ़त हो जाएगी। एंटीमाइक्रोबियल रेजिसेस्टेंस का मतलब है इंफेक्शन से लड़ने वाली ज़रुरी दवाओं का बेअसर हो जाना है। इन दवाओं को बेअसर होने के पीछे जो कारण है वह यह है कि सर्जरी के दौरान होने वाले इंफेक्शन, कैंसर के इलाज के दौरान चल रही कीमोथेरेपी से होने वाले इंफेक्शन को रोकने के लिए एंटीबायोटिक दवाओं की एक तय डोज दी जाती है लेकिन लंबे समय तक बार बार इन दवाओं को इस्तेमाल करते रहने से इन दवाओं का असर कम होने लगता है। इस मामले में भारत के बड़े चिकित्सा संस्थान एम्स ने भी एनालिसिस किया है जिसके अनुसार देश भर के आईसीयू में भर्ती गंभीर इंफेक्शन के शिकार कई मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही है। ऐसे मरीजों के बेमौत मारे जाने का खतरा बढ़ गया है। एंटीबायोटिक दवाओं के बेअसर होते चले जाने का हाल ये हो गया है कि सबसे लेटेस्ट दवा जिसे विश्व स्वास्थय संगठन ने रिजर्व कैटेगरी में रखा है वो भी अब कई बार काम नहीं कर रही। रिजर्व कैटेगरी की दवा का मतलब होता है कि इसे चुनिंदा मौकों पर ही इस्तेमाल किया जाए। लेकिन देखा गया कि सबसे असरदार एंटीबायोटिक भी केवल 20 परसेंट मामलों में ही कारगर पाए जा रहे हैं। यानी बाकी बचे 60 से 80 परसेंट मरीज खतरे में हैं और उनकी जान जा सकती है। इसकी वजह धड़ल्ले से मरीजों और डॉक्टरों का मनमर्जी से एंटीबायोटिक्स का इस्तेमाल करना है। भारत की सबसे बड़ी मेडिकल रिसर्च संस्था आईसीएमआर ने पिछले वर्ष जनवरी से लेकर दिसंबर तक देश के 21 अस्पतालों से डाटा इकट्ठा किया। इन अस्पतालों में आईसीयू में भर्ती मरीजों के 1 लाख सैंपल्स इकट्ठे किए गए। इस जांच में 1747 तरह के इंफेक्शन वाले बैक्टीरिया मिले। इन सभी में दो बैक्टीरिया - ई कोलाई बैक्टीरिया और क्लैबसेला निमोनिया के बैक्टीरिया सबसे ज्यादा जिद्दी हो चुके हैं। इन बैक्टीरिया के शिकार मरीजों पर कोई भी एंटीबायोटिक दवा काम नहीं कर रही थी। 2017 में ई कोलाई बैक्टीरिया के शिकार 10 में से 8 मरीजों पर दवाओं ने काम किया था लेकिन 2022 में 10 में से केवल 6 मरीजों पर दवाओं ने काम किया। 2017 में क्लैबसेला निमोनिया इंफेक्शन के शिकार 10 में से 6 मरीजों पर दवाओं ने काम किया लेकिन 2022 में 10 में से केवल 4 मरीजों पर दवाएं काम कर रही थी। इंफेक्शन मरीजों के ब्लड तक पहुंच कर उन्हें बीमार से और बीमार कर रहा है। एंटीबायोटिक दवाओं के काम ना करने की समस्या केवल अस्पताल में भर्ती गंभीर मरीजों तक सीमित नहीं है। पेट खराब होने के मामलों में ली जाने वाली कॉमन एंटीबायोटिक दवाएं भी मरीजों पर बेअसर साबित हो रही हैं। स्थिति तो यह पैदा हो गयी है कि बैक्टेरिया फैलने के मामले में अस्पताल भी कमजोर इम्युनिटी वालों के लिए सुरक्षित नही है। आईसीयू में, मरीज को लगाए जाने वाले कैथेटर, कैन्युला और दूसरे डिवाइस में भी कई बैक्टीरिया और जीवाणु पनपते रहते हैं। ये इंफेक्शन पहले से बीमार और कमजोर इम्युनिटी वाले मरीजों को और बीमार करने लगते हैं। लंबे समय तक आईसीयू में भर्ती मरीजों को ऐसे इंफेक्शन का खतरा बढ़ जाता है। अब ये इंफेक्शन खून में पहुंच रहे हैं। खून में पहुंचने का मतलब है कि पूरे शरीर में सेप्सिस होने का खतरा - इस कंडीशन के गंभीर होने पर धीरे धीरे मरीज के अंग काम करना बंद करने लगते हैं। जिसे मल्टी ऑर्गन फेल्यर कहा जाता है। कैसे हो सकता है एंटीबायोटिक रेजिसटेंस की समस्या का हल? अस्पतालों और डॉक्टरों के लिए आईसीएमआर की गाइडलाइंस हैं कि किन मामलों में एंटीबायोटिक दवाएं इस्तेमाल की जाएं और किन मामलों में नहीं, लेकिन इनका पालन नहीं किया जाता। पोल्ट्री यानी मुर्गे, बकरे और गाय भैंस से मिलने वाले मीट, दूध और अंडों के जरिए एंटीबायोटिक अंजाने में लोगों को मिल जाते हैं। अस्पताल और इंडस्ट्री के वेस्ट के जरिए ग्राउंड वॉटर में एंटीबायोटिक घुलने की पुष्टि भी कई रिसर्च में हो चुकी है। खुद मरीजों के केमिस्ट से सीधे एंटीबायोटिक दवाएं लेकर खा लेने और आधा कोर्स करके उसे छोड़ देने की वजह से भी ये दवाएं बेअसर हो रही हैं। अस्पतालों में इंफेक्शन वाले बैक्टीरिया जिन्हें सुपरबग्स का नाम भी दिया गया है, उन पर लगाम लगाने के लिए इंफेक्शन कंट्रोल पर भी काम किया जा रहा है। हालांकि पूरे देश के छोटे बड़े अस्पतालों में उस नेटवर्क को तैयार होने और पूरी तरह से काम करने में कई साल लग सकते हैं। इसी प्रत्येक देश की सरकार और विश्व स्वास्थ्य संगठन को इस मामले में कुछ ठोस नियम और गाइड लाइन जारी करने की जरूरत है।
Jan 01 2024, 14:26