सम्पादकीय:- क्यों दो बक्त के रोटी के लिए बिहार के लोगों को राज्य से बाहर करना पड़ता है पलायन...?
- विनोद आनंद
पिछले कुछ दिनों से उत्तरकाशी के टनल में फंसे 41 मज़दूरों को लेकर चर्चा हो रही है। ये जिंदगी मौत के बीच कई दिनों से झूल रहे हैं।इन 41 मज़दूरों में 5 बिहार के और 15 झारखंड के भी मज़दूर हैं।
इस बीच एक खबर गुजरात के सूरत से आयी जहां 5 बिहारी मज़दूर कपड़ा रंगाई करने वाले फैक्टरी में रंग के टंकी में काम करने के लिए उतरे और उसमें जहरीली गैस के कारण मौत के आगोश में चले गए। यह मात्र एक छोटा सा उदहारण है।
इस तरह की घटना सिर्फ गुजरात और उत्तरकाशी से हीं नही देश के विभिन्न भागों से आती रहती है जहां बिहारी मज़दूर दो बक्त के रोटी और अपने परिवार के पालन पोषण के लिए जोखिम उठाकर मज़दूरी करते हैं। और अपने जिंदगी से हाथ भी धो बैठते हैं।
जो बच रहे हैं वे अपने परिवार और बच्चों से दूर.....। जिंदगी के जद्दोजहद से संघर्ष करते....बंजारा सा जिंदगी जीते हैं। ये महज़ 15 से 20 हज़ार की नौकरी के लिए जिस हालात और परिस्थियों से गुजरते हैं अगर उसे देखकर रूह कांप जाता है। ये बिहार के लोग अपनी मेहनत और श्रम से महानगरों के विकासके लिए तकदीर जरूर गढ़ते हैं लेकिन इसके वाबजूद इन्हें जिस प्रताड़ना, उपेक्षा ,हेय दृष्टि से महानगर के अभिजात्य वर्गों द्वारा देखा जाता है।जिन नामों से इन्हें सम्बोधित किया जाता है यह देखकर आत्मग्लानि होने लगता है।
गुजरात हो या तमिलनाडु, दिल्ली हो या मुम्बई कश्मीर हो या असम देश का कोई हिस्सा नही है जहां बिहारी मज़दूर आप को नही मिल जाएंगे।इन सभी जगह गाहे बगाहे ऐसी घटनाएं भी आती हैं जहां बिहार के लोग बेमौत मारे जाते हैं।
इन सारे परिस्थियों में एक सवाल तो बनता है कि - क्यों यह परिस्थिति पैदा हुई कि बिहार के लोगों को अपने राज्य अपने घर और क्षेत्र से बाहर जाकर, घर परिवार से दूर होकर पलायन करना पड़ता है...?
क्यों बिहार में बिहार सरकार पिछले 70 सालों में इस तरह का कोई इंफ्रास्ट्रक्टर खड़ा नही कर पाई कि इन मज़दूरों को अपने राज्यों से बाहर जाने की जरूरत ना हो , इन्हें अपने राज्य में ही रोजगार मिल जाये ताकी अपने बच्चे और परिवार के साथ ये रहकर दो बक्त का रोटी जुटा पाए।
कोरोना त्रासदी के समय जब लॉकडाउन लगा तो बिहार के मज़दूरों का क्या हालत हुए, किस तरह बिहार सरकार ने हाथ पर हाथ धर कर बैठ गयी और मज़दूर दिल्ली मुम्बई और देश के सुदूरवर्ती इलाकों से पैदल चलने को विवश हुए।
रास्ते में कहीं पुलिस की लाठी तो कहीं किसी राज्य में नही घुसने देने की कवायद,कहीं रेल के पटरी पर लाश के चीथड़ों में तब्दील होते तो कहीं भूख और अभाव में बच्चे समेत पूरा परिवार फांसी के फंदे पर झूलते नज़र आये।
उस समय पूरी दुनिया के सामने बिहारी मज़दूरों की हकीकत, बिहार सरकार के विकासनीति और पिछले 70 सालों में भारत किस मुकाम पर है इसकी पोल खुल गयी।
जब प्रवासी बिहारी मज़दूरों ने कसम खायी थी कि भूखे मर जायेंगे लेकिन बिहार से बाहर नही जाएंगे।तत्काल बिहार सरकार ने भी यह दिखाने का प्रयास किया कि बाहर से आये मज़दूरों के स्किल के हिसाब से कुटीर उधोग के लिए उन्हें आर्थिक सहयोग कर अपने क्षेत्र में हीं उसे रोजगार दिलाया जाएगा।कुछ जगहों पर जहां के अधिकारी ईमानदार थे इसके सार्थक परिणाम भी सामने आए।
उस समय बड़ी बड़ी बातें की गई।मखाना का ब्रांडिंग कर उसे देश भर में बेचा जाएगा।उसका निर्यात भी किया जाएगा। फ़ूड प्रोसेसिंग के जरिये कृषि उत्पाद को उधोग के रूप में डेवेलोप किया जाएगा। लेकिन बिहार सरकार कुछ दिन में हीं शिथिल हो गयी।मज़दूरों का पलायन फिर शुरू हो गया।
इतने दिनों में मैने जो महसूस किया कि बिहार सरकार के पास नही तो कोई इक्क्षा शक्ति है और नही यहां उधमी को निवेश कराकर रोजगार सृजन कराने के लिए कोई योजना है।बस सत्ता में बने रहना सत्ता का सुख भोगना, जाति धर्म की राजनीति करना। यही उधेश्य है।
अगर बिहार को आगे बढ़ना है ,आर्थिक रूप से मजबूत करना है तो सरकार को ठोस उधोगनीति बंनानी होगी। ईमानदारी से राज्य में निवेश और रोजगार सृजन के लिए अनुकूल बनाना होगा।राज्य में अफसरशाही खत्म करनी होगी।भरस्टाचार पर अंकुश लगाना होगा।और राज्य में गुंडातंत्र पर अंकुश लगाना होगा। और अगर सरकार इस पर ठोस नीति नही बनाती है तो जनता को सोचना होगा कि हम किसे अपने राज्य का दायित्व सौंपे जो इस दिशा में पहल करे।
Nov 24 2023, 14:51