देसी उपाय से जिंदगी मिली दोबारा संदर्भ : सकुशल बाहर आये उत्तराखंड के उत्तरकाशी में टनल में फंसे 41 मजदूर
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी , हिंदू हैं हम वतन है हिंदोस्तां हमारा। कोशिश करने से क्या नहीं हो सकता। सामने चाहे कितनी भी कठिनाइयां आयें , लगातार प्रयास करते रहने से सफलता अवश्य मिलती है । इसका प्रत्यक्ष उदाहरण उत्तराखंड के उत्तरकाशी में टनल के अंदर मलबा गिरने से टनल में 17 दिनों से फंसे 41 मजदूरों को सकुशल बाहर निकालना । इंसानी  इरादों के आगे पहाड़ भी नतमस्तक हो गया।
जब अत्याधुनिक मशीनें जवाब दे गयीं तो देसी उपाय से ही इन श्रमिकों की जान बच सकी। पुरातन काल में राजा- महाराजाओं द्वारा अपने राज्य और परिवार की सुरक्षा के लिए महल के नीचे कई - कई किलोमीटर लंबी सुरंगें  बनवायी जाती थीं। उस समय आधुनिक मशीनें तो थी नहीं इसलिए यह काम मनुष्य ही करते थे । जिस प्रकार चूहे अपना बिल बनाते हैं इस तरह यह रेट माइनर्स भी थोड़ी-थोड़ी मिट्टी काटकर सुरंग बनाते हैं।
महाभारत काल में दुर्योधन ने पांडवों की हत्या करने की नीयत से लाक्षागृह  का निर्माण कराया था। मगर भगवान कृष्ण की तत्परता से उन्होंने भी सुरंग के माध्यम से ही अपनी जान बचायी थी।
रेट माइनर्स किसी मशीन का इस्तेमाल नहीं करते । यह हाथ से काम आने वाले औजार ही इस्तेमाल करते हैं । वह धीरे-धीरे पतली सुरंग खोदते हैं और उसका मलबा बाहर निकालते जाते हैं । जैसे चूहे बिल बनाते वक्त करते हैं।  इसलिए इन्हें रैट होल माइनर्स कहा जाता है । ये भारत के उत्तर पूर्वी राज्यों में रहने वाली जनजाति के लोग हैं।  इनकी कद-काठी ऐसी होती है कि पतली से पतली सुरंग में भी आसानी से घुस जाते हैं।  उत्तर पूर्वी इलाकों की छोटी - छोटी-छोटी खदानों से खनिज निकालने के लिए ये लोग इस तकनीक का इस्तेमाल करते हैं। परंतु यह तकनीक काफी खतरनाक मानी जाती है क्योंकि इसमें सुरक्षा के कोई उपाय नहीं किया जा सकते । इसलिए इसे गैरकानूनी बताते हुए बैन कर दिया गया । क्योंकि बिना सुरक्षा उपाय किये बिना सुरंग खोदते समय मिट्टी धंसने से कई लोग  अपनी जान गंवा चुके हैं। परंतु उत्तराखंड के उत्तरकाशी में टनल में फंसे 41 मजदूरों को बाहर निकालने में अत्याधुनिक और विशाल मशीनें  जब कामयाब नहीं हो पा रही थीं तब इन्हीं रैट होल माइनर्स के अथक प्रयास से ही 17 दिनों बाद वे मजदूर टनल से बाहर निकल सके और अपने परिजनों से मिले सके।

चुनावी हवा कभी गरम कभी नरम संदर्भ : बिहार में 2024 की सरकारी छुट्टियों के कैलेंडर पर विपक्षी हमलावर
तुष्टिकरण की राजनीतिक देश के विकास में सबसे बड़ी बाधा मानी जाती है। बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने भी तुष्टिकरण को राष्ट्र विरोधी बताया था। भारत में यह शब्द अल्पसंख्यक वोट बैंक के चक्कर में समूहों को लुभाने वाले वादे एवं नीतियों के लिए प्रयुक्त किया जाता है। चुनाव नजदीक आते देख विभिन्न पार्टियां अपना वोट बैंक साधने के लिए एक विशेष वर्ग को खुश करने में जुट जाती हैं।
कुर्सी के खेल निराले होते हैं जो इससे दूर है वह इसे पाना चाहता है और जिसके पास है वह इसे ऐन- केन- प्रकारेण दूर जाने देना नहीं चाहता । इसके लिए चाहे जो कुछ भी करना पड़े , बस यहीं से शुरू होता है तुष्टिकरण का खेल। हालिया मामला जदयू - राजद के नेतृत्व वाली सरकार द्वारा सनातन धर्म से जुड़े पर्व - त्योहारों की घोषित छुट्टियों में कटौती करते हुए अल्पसंख्यकों के पर्व- त्योहारों में घोषित छुट्टियां बढ़ाने का है।
नीतीश कुमार का यह कदम हिंदुओं को जातियों में बांटने और अल्पसंख्यकों का हित साधने वाला दिखायी देता है। इससे पहले भी बिहार सरकार द्वारा इसी प्रकार का आदेश जारी किया गया था मगर बाद में इसको लेकर बढ़ते आक्रोश को देखते हुए आदेश को वापस ले लिया गया था।
वहीं बिहार मुसलमानों के लिए जुमे ( शुक्रवार)  को सरकारी साप्ताहिक अवकाश घोषित करने वाला संभवत देश का पहला राज्य बन गया है।
इस तुगलकी आदेश से क्या नीतीश कुमार अपना वोट बैंक बढ़ा पायेंगे या इससे राजद को फायदा होगा, यह तो वक्त ही बतायेगा , लेकिन कैलेंडर के  जारी होते ही सवाल उठने लगे हैं। नीतीश सरकार के एक मंत्री ने कहा कि इसमें सुधार किया जा सकता है।
12 मासों में सर्वश्रेष्ठ है कार्तिक माह संदर्भ : देव दीपावली के दिन देवता पृथ्वी का करते हैं भ्रमण
शास्त्रों में वेद , नदियों में गंगा और युगों में सतयुग श्रेष्ठ माने गये हैं। इसी तरह सभी मासों में कार्तिक मास सर्वश्रेष्ठ माना जाता है । इसे हम त्योहारों का महीना भी कह सकते हैं, क्योंकि करवा चौथ, अहोई अष्टमी, रमा एकादशी, धनतेरस, दीपावली , गोवर्धन पूजा , भैया दूज और छठ जैसे महापर्व इसी माह में मनाये जाते हैं । वहीं देवोत्थान एकादशी, जिसे हम देव उठनी एकादशी भी कहते हैं, मनायी जाती है ।
इस दिन भगवान विष्णु चातुर्मास के बाद योग निंदा से जगते हैं। इसके साथ ही एक और त्योहार कार्तिक पूर्णिमा के दिन मनाया जाता है । इसे देव दीपावली के नाम से जाना जाता है।
दीपावली क्यों मनायी जाती है , यह हर हिंदू जानता है लेकिन देव दीपावली का त्योहार क्यों मनाया जाता है , इसे बहुत कम ही लोग जानते हैं । देव दीपावली यानी ऐसी दीपावली जिस देवता ने मनाया था। मान्यता है कि कार्तिक पूर्णिमा के दिन 33 करोड़ देवी - देवता स्वर्ग से काशी आये थे और गंगा किनारे दीप दान कर पृथ्वी का भ्रमण किया था।
हमारे पुराणों में इस दीपावली का जिक्र है। तभी से देव दीपावली मनायी जाती है । मालूम हो कि दीपावली कार्तिक मास की अमावस्या और देव दीपावली कार्तिक मास की पूर्णिमा को मनायी जाती है । सनातन धर्म में देव दीपावली का बहुत ही महत्व है। धार्मिक मान्यता के अनुसार भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नामक राक्षस को पराजित किया था । इसी खुशी में देवताओं ने दीप मालाएं सजायी थीं। भगवान शिव की नगरी काशी में देव दीपावली भव्यता के साथ मनायी जाती है।
सेना के लिए हाथियों और घोड़ों की होती थी खरीदारी संदर्भ : सोनपुर मेले का समृद्ध इतिहास रहा है
बिहार का विश्व प्रसिद्ध सोनपुर मेला हर साल कार्तिक पूर्णिमा से शुरू होता है। इसे हरिहर क्षेत्र मेला या छतर मेला के नाम से भी जाना जाता है । इसे एशिया के सबसे बड़े पशु मेले के रूप में जाना जाता है। पुराने जमाने में यहां हाथी, घोड़े,गाय,बैल, बकरी, पालतू कुत्तों समेत अन्य पशु-पक्षियों की बिक्री की जाती थी। यह मेला सेना के लिए हाथियों की खरीद - बिक्री का सबसे बड़ा केंद्र माना जाता था।
हरिहर क्षेत्र में स्थापित बाबा हरिहरनाथ मंदिर विश्व का एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां स्थापित शिवलिंग में हरि ( भगवान विष्णु)  और हर ( भोलेनाथ ) की आकृति है । मान्यता है कि इसी क्षेत्र के कोनहरा घाट पर गज और ग्राह ( मगरमच्छ ) के बीच भयंकर युद्ध हुआ था और गज की करूण प्रार्थना ( हे गोविन्द राखौ शरण,अब तो जीवन हारे )   पर भगवान विष्णु ने आकर उसकी रक्षा की थी।
पर आज इस मेले का स्वरूप काफी बदल गया है। पशु-पक्षियों की खरीद- बिक्री पर रोक लगने से अब यहां पशु कम ही लाये जाते हैं। अब नयी- नयी कंपनियों के शोरूम और बिक्री केंद्र  ही ज्यादा दिखायी पड़ते हैं । पटना से गरीब 25 किलोमीटर दूर सोनपुर में गंडक नदी के किनारे लगभग एक माह  तक यह मेला चलता है ।
सोनपुर मेले का ऐतिहासिक महत्व भी बताया गया है। जब एक स्थान से दूसरे स्थान पर आने - जाने के आधुनिक साधन नहीं थे, उस समय  इस मेले में मध्य एशिया से पशुओं की खरीदारी करने के लिए बड़ी संख्या में कारोबारी आते थे। कारोबारियों के रात में ठहरने से लेकर उनके मनोरंजन के लिए नाच- गान का आयोजन किया जाता था। इसी परंपरा ने आधुनिक युग में थियेटर का स्वरूप अख्तियार कर लिया।
बताते हैं कि मौर्य वंश के संस्थापक चंद्र गुप्त मौर्य, मुगल सम्राट अकबर और 1857 के गदर के नायक वीर कुंवर सिंह भी इसी पशु मेले से अपनी  सेना के लिए हाथियों की खरीद करते थे ।
इस मेले में पालतू पशु - पक्षियों की बिक्री के अलावा ऊनी कपड़े, कंबल के स्टॉल झूले ,खेल - खिलौने , मौत का कुआं  आदि मेला घूमने आने वाले लोगों के आकर्षण का केंद्र रहते हैं। इस मेले का इतना क्रेज है कि विदेशी सैलानी भी बड़ी संख्या में भ्रमण करते नजर आते हैं। इनके लिए सरकारी व्यवस्था के तहत आधुनिक  सुविधाओं से लैस स्विस काटेज का निर्माण कराया जाता है, जहां वे ठहरते हैं।
पुराने जमाने में सोनपुर मेले में बड़ी-बड़ी  नौटंकी कंपनियां आया करती थीं। गीत- संगीत की महफिल सजती थी। लोग रात भर गायन का लुत्फ उठाते थे। 
पर आज सोनपुर मेले का मतलब थियेटर ही है, जहां गीत- संगीत की महफिल तो नहीं सजती, मगर आधुनिक गानों पर बालाएं अपनी अदाओं से लोगों का मनोरंजन करती हैं। बीच के कुछ साल अश्लील प्रदर्शन करने के कारण थियेटरों के लाइसेंस रद्द कर दिये गये थे। हालांकि बाद में प्रशासन  और स्थानीय लोगों के आश्वासन के बाद से फिर से थियेटर लगने शुरू हो गये।
शाम होते ही लोगों का हुजूम थियेटरों के टिकट काउंटर पर उमड़ने लगता है। आधुनिकता की अंधी दौड़ में न तो पहले जैसी गायन मंडलियां हैं और न लोगों को अपने वादन से झुमाने वाले वादक। आधुनिकता के नाम पर केवल भौंडे गीत ही थियेटरों में गूंजते हैं।
आज नौटंकी की सुसंस्कृत परंपरा समाप्त हो चुकी है। पर, अपने गौरवशाली इतिहास को समेटे इस मेले की रौनक और देखने की उमंग लोगों में आज भी मौजूद है।
पकड़ौआ विवाह : जबरदस्ती मांग भरना वैध विवाह नहीं संदर्भ : पवित्र अग्नि के समक्ष अपनी मर्जी से सात फेरे होना जरूरी : हाईकोर्ट
शादी को पाणिग्रहण या विवाह भी कहा जाता है । शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाह बताये गये हैं। ये हैं ब्रह्म, दैव आर्य, प्राजापत, असुर , गंधर्व,  राक्षस और पिशाच।  इनमें श्रेष्ठ ब्रह्म विवाह माना जाता है  । इसके बाद दैव और फिर आर्य विवाह को ही उत्तम माना गया है। अन्य प्रकार के विवाह अशुभ माने जाते हैं।
आज से कुछ दशक पहले बिहार में एक अन्य प्रकार के विवाह ने जोर पकड़ा था। इसका इतना खौफ पैदा हो गया था कि नाबालिग , कुंवारे लड़के और नौकरीपेशा लड़के घरों से बाहर नहीं निकलते थे। इसे पकड़ौआ विवाह  कहा जाता था। बिहार के कुछ जिलों में इस प्रकार का विवाह कराने वाले गिरोह सक्रिय हो गये थे और कुछ संपन्न गृहस्थ अपनी लड़की की शादी करने के लिए इन गिरोहों से संपर्क करते थे।
इन गिरोहों के पास मैट्रिक- इंटरमीडिएट पास, ग्रेजुएट और नौकरीपेशा लड़कों की लिस्ट रहती थी। अपनी पसंद बताने पर गिरोह  द्वारा उस लड़के का अपहरण कर उसका पकड़ौआ विवाह करा दिया जाता था। लड़का अगर ना-नुकुर करता था तो उसे डरा-धमकाकर, मारपीट कर जबरदस्ती आनन-फानन में शादी का मंडप तैयार कर लड़की की मांग अपह्वत कर लाये गये लड़के से भरवा दी जाती थी ।
इसकी एवज में में लड़की पक्ष द्वारा गिरोह को मुंह मांगी रकम दी जाती थी। परंतु ऐसे विवाह के लिए ना तो लड़का मानसिक रूप से तैयार होता है ना लड़की । कभी-कभी तो नाबालिगों की शादी भी इसी प्रकार करा दी जाती थी और दोनों को साथ निभाने की कसम खिला दी जाती थी । शादी के कुछ दिनों बाद लड़के को छोड़ दिया जाता था । लड़का घर पहुंच कर अपने साथ हुई घटना की जानकारी अपने परिजनों को देता था । परिजन थाने में इसकी शिकायत दर्ज कराते थे , तो गिरोह के सदस्य परिजनों को इतना डरा-धमका देते थे कि वह परिवार विवाह को स्वीकार कर लेता था।
परंतु आज पकड़ौआ विवाह बीते दिनों की बात हो गयी है । इस विषय पर टीवी सीरियल "भाग्य विधाता " और एक फिल्म "जबरिया जोड़ी " नाम से बन चुकी है ।
इस प्रकार के विवाह के पीछे कई कारण हो सकते हैं । सबसे बड़ा कारण दहेज प्रथा हो सकती है परंतु हो सकता है कि शिक्षा और जागरूकता के अभाव के कारण परिजन इस प्रकार के कृत्य करते थे । पर आज की युवा पीढ़ी जागरूक और समझदार है। वह अपना भला - बुरा समझती है।
इसी संदर्भ में 24 नवंबर , 2023 को पटना हाईकोर्ट ने एक महत्वपूर्ण फैसले में कहा कि जिस विवाह में पवित्र अग्नि के समक्ष लड़का-लड़की अपनी मर्जी से सात फेरे  ( सप्तपदी ) नहीं लेते , वह विवाह कानूनन वैध नहीं माना जा सकता । पटना हाईकोर्ट का यह फैसला फैमिली कोर्ट के द्वारा दिये गये एक फैसले के विपरित है । पीड़ित युवक ने फैमिली कोर्ट के फैसले के विरुद्ध पटना हाईकोर्ट में अपील की थी। इस पर कोर्ट ने  यह फैसला सुनाया।
आज तकिया के नीचे किताबें नहीं मोबाइल रहता है संदर्भ : आधुनिक युग में किताबें स्क्रिप्ट में बदली
पुस्तकों का हमारे जीवन में बहुत महत्व है । पुस्तकें ज्ञान का भंडार होती हैं। ये हमारे जीवन में सबसे अच्छे मित्र की भूमिका भी निभाती हैं । महान लोगों के कार्य , विचार , ज्ञान , संस्कृति पुस्तकों में हमेशा के लिए दर्ज रहते हैं। इसी कारण पुस्तकों का कभी भी महत्व कम नहीं हुआ।
दूसरी ओर आज कंप्यूटर युग में जहां हर कार्य इंटरनेट पर सुलभ है । नेट पर आज कोई भी पुस्तक पढ़ी जा सकती है। नयी पीढ़ी आज पुस्तकों से थोड़ी दूरी बना रही है। इस दूरी को कम करने के लिए साहित्यकारों और रचनाकारों को सृजन के साथ-साथ नयी पीढ़ी को जोड़े रखना होगा । पुस्तकें हमें अपने आसपास की दुनिया को समझने व सही और गलत का निर्णय लेने की समझ विकसित करती हैं।
पुस्तक मेले का उद्देश्य नवीनतम, दुर्लभ तथा महत्वपूर्ण पुस्तकों और उसके लेखक की विचारधाराओं से पाठक वर्ग और साहित्य प्रेमियों को परिचित करवाना होता है। पुस्तक मेले ज्ञान , संस्कृति और रचनात्मकता का भंडार होते हैं । यह कल्पना शीलता बढ़ाने और सीखने की जिज्ञासा पैदा करते हैं। पुस्तक क्यों पढ़नी चाहिए : पुस्तकें पढ़ना अच्छा होता है । यह हमारी एकाग्रता बढ़ती हैं और जानकारी में इजाफा करती हैं । किताबें आपके माननीय मूल्य के कोष को बढ़ाती हैं । आपको मानसिक रूप से मजबूत बनाने के साथ-साथ आपके सोचने और समझने के क्षेत्र को भी विकसित करती हैं।
आज पुस्तक मेले का स्वरूप बदल रहा है। ये सैर- सपाटे का माध्यम बनते जा रहे हैं। पुस्तक मेले में भीड़ तो होती है मगर लगता है पाठक नहीं होते। आज कुछ भी जानकारी हासिल करनी हो, नेट पर हाजिर है ।
एक क्लिक में इंटरनेट पर दूसरे देशों के ख्याति प्राप्त लेखकों  की विश्व प्रसिद्ध पुस्तकें आसानी से उपलब्ध हैं। आज प्रिंटिंग कॉस्ट अधिक होने के कारण पुस्तकों की कीमतें भी बढ़ जाती हैं, शायद यही कारण है कि युवा पीढ़ी पुस्तकों से दूर हो रही है ।
किताबें हमारा मनोरंजन भी करती थी पर आज लोगों के मनोरंजन का साधन मोबाइल फोन बन गया है । सब कुछ है इसमें । आधुनिक युग में तकिया के नीचे किताबें रखकर सोने की आदत अब नहीं रही । अब तकिया के नीचे किताबें नहीं मोबाइल दिखता है। आज साहित्य, प्रेम , रहस्य, विद्रोह आदि अब किताबों की बजाय स्क्रिप्ट के रूप में मोबाइल की स्क्रीन पर आसानी से उपलब्ध हो जाते हैं । आप जो चाहें वह पलक छपकते हाजिर हो जाता है।
अति महत्वाकांक्षाओं का बोझ कर देता है अकेला संदर्भ : पंचतत्व में विलीन हुए सहारा श्री
आधुनिकता और पश्चिमी सभ्यता की चकाचौंध  ने पुराने संस्कारों और परंपराओं को क्षीण कर दिया है । महत्वाकांक्षाएं इतनी प्रबल हो गयी हैं कि कोई भी इससे अछूता नहीं है , लेकिन "अति सर्वत्र वर्जते"। इस पर हमें सोचना होगा ।
आज हम अपनी महत्वाकांक्षाओं के कारण ही परिवार के बच्चों को उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजते हैं । पौधे को अपने से दूर लगाकर आते हैं। पौधा जहां लगेगा, वहीं पल्लवित और पुष्पित होगा और फिर पेड़ अकेला पड़ जाता है ।
आज सहारा श्री पंच तत्व में विलीन हो गये। इस मौके पर हजारों नामचीन हस्तियां तो मौजूद थीं मगर उनके अपने ( दो बेटे और पत्नी )  उपस्थित नहीं थे।। मुखाग्नि उनके पोते ने दी ।
हमें सोचना होगा, पौधे को अपने आसपास ही लगायें । वह आपकी छांव में पल्लवित और पुष्पित होगा। पेड़  के पास हरियाली होगी तो पेड़ भी स्वस्थ रहेगा। पुरानी कहावत है सांई इतना दीजिये जामें  कुटुंब समाय, मैं भी भूखा ना रहूं साधु ना भूखा जाये। हमें ठहरना होगा और युवा पीढ़ी को समझा ना होगा कि पैसा ही सब कुछ नहीं है , परिवार और समाज भी महत्व रखता है । जिसे अंगुली पड़कर चलना सिखाया वह बुढ़ापे का सहारा ना बने, तकलीफ तो होती है।
कलेक्ट्रेट घाट प्रवासी पक्षियों से हो रहा गुलजार संदर्भ : हजारों मील की यात्रा कर आते हैं ये प्रवासी पक्षी
14  मई  को विश्व प्रवासी पक्षी दिवस ( world Migratory Birds Day ) मनाया जाता है। शरद ऋतु के आरंभ होते ही हर साल लाखों की संख्या में प्रवासी पक्षी दुनिया भर के अलग-अलग क्षेत्र से उड़कर भारत आते हैं । यह पक्षी हजारों मील की यात्रा कर हमारे देश के अलग-अलग राज्यों में स्थित झील, नदी, नहर आदि के पास अपना आश्रय बना लेते हैं और बसंत ऋतु के आते ही वापस अपने घर की ओर निकल पड़ते हैं।
सर्दियों के शुरू होते ही दुनिया भर से प्रवासी पक्षियों की सैकड़ों प्रजातियां उड़ कर भारत पहुंचती हैं । प्रवासी पक्षी भोजन और आश्रय की तलाश में नदियां, समुद्रों और पहाड़ों को पार कर भारत आते हैं । ये पक्षी ऊंची उड़ान भरने वाले होते हैं और भोजन , प्रजनन और शीतकालीन प्रवास के लिए आते हैं। प्रवासी पक्षी जब भी प्रवास के लिए निकलते हैं तो अकेले नहीं बल्कि हजारों की संख्या में समूह बनाकर चलते हैं।
शीत ऋतु में इन प्रवासी पक्षियों के यहां बर्फ जम जाती है, ऐसी स्थिति में इनको आहार ढूंढना और जिंदा रहना मुश्किल हो जाता है । इसलिए ये पक्षी भारत जैसे गर्म देश में चले आते हैं। ठंड के मौसम में भारत के क्षेत्र इन पक्षियों के लिए स्वर्ग बन जाते हैं । गंगा किनारे बसे शहर बनारस , पटना , इलाहाबाद जैसे शहरों में प्रवासी पक्षियों की अच्छी - खासी संख्या रहती है ।
बिहार के बेगूसराय स्थित कावर झील प्रवासी पक्षियों के लिए काफी मशहूर थी। यह प्रवासी पक्षी हमारे मेहमान होते हैं, परंतु मनुष्य एक विचित्र प्राणी है। वह अपने स्वाद के लिए इन प्रवासी पक्षियों का शिकार करता है । भोजन की तलाश में जब ये पक्षी नदी किनारे आते हैं तो शिकारी इनका शिकार करते हैं। इसी कारण इनकी संख्या धीरे-धीरे कम होती जा रही है । जबकि वन्य जीव संरक्षण कानून 1972 की धारा 9 के तहत प्रवासी पक्षियों का शिकार करना कानूनन अपराध है । फिर भी इन पक्षियों का धड़ल्ले से शिकार किया जाता है। अपने शहर पटना के विभिन्न इलाकों में इन पक्षियों का दीदार किया जा सकता है।
सूप या थाली बजाकर जगाते हैं श्री हरि को संदर्भ : कार्तिक माह की देव उठनी एकादशी
दीपावली के बाद कार्तिक माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि का सनातन धर्म में बहुत महत्व है । मान्यता है कि भगवान विष्णु चार माह के शयन के बाद इसी दिन योग निंदा से जागते हैं । इसे देवउठनी एकादशी , देव प्रबोधिनी एकादशी या देवोत्थान एकादशी भी कहा जाता है ।
भगवान विष्णु के चार माह के शयन के वक्त कोई भी शुभ कार्य नहीं किये जाते । देवोत्थान एकादशी के बाद से शादी- ब्याह और अन्य कायों की शुरुआत हो जाती है । देव शयनी एकादशी को भगवान विष्णु क्षीरसागर में विश्राम करने जाते हैं और देव उठनी एकादशी को जागते हैं। इस अवधि को चातुर्मास भी कहा जाता है । इस दिन भगवान विष्णु के शालिग्राम रूप के साथ माता तुलसी के विवाह का आयोजन किया जाता है ।
थाली या सूप बजाकर जगाते हैं नारायण को : देव उठनी एकादशी को यूपी और राजस्थान के इलाकों में चौक और गेरू से घरों में विभिन्न प्रकार की आकृतियां बनायी जाती हैं। उनके सामने थाली या सूप बजा कर और गीत गाकर देवों को जगाया जाता है और रात्रि में गन्ने का मंडप बनाकर श्री हरि की पूजा - अर्चना और माता तुलसी के साथ विवाह का आयोजन किया जाता है। भगवान को सिंघाड़ा , गन्ना और फल - मिठाई आदि का भोग लगाया जाता है। हिमाचल और उत्तराखंड के पहाड़ी इलाकों में देव उठनी एकादशी पर दीपावली जैसी रौनक होती है।
भाई की दीर्घायु की बहनें करती हैं कामना संदर्भ : मिथिलांचल का पर्व सामा- चकेवा
रक्षाबंधन और भैया दूज ये दोनों त्योहार भाई-बहन के प्रगाढ़ और अटूट प्रेम को दर्शाते हैं । वहीं मिथिलांचल में भाई-बहन के कोमल और स्नेह भरे रिश्ते को अभिव्यक्त करने वाला एक और त्योहार मनाया जाता है वह है सामा - चकेवा।
महापर्व छठ के पारण वाले दिन से इसकी शुरुआत होती है और कार्तिक पूर्णिमा के दिन इस पर्व का समापन होता है । इस पर्व में बहनें अपने भाई की दीर्घायु और समृद्धि की कामना करती है । इस पर्व को मनाने की पौराणिक तो नहीं लेकिन एक प्राचीन लोक कथा सदियों से चली आ रही है और उसकी जड़ें भगवान कृष्ण से जुड़ी हुई हैं।
लोककथा के अनुसार श्यामा (सामा) और साम्ब भगवान कृष्ण के पुत्री और पुत्र थे। दोनों भाई - बहन में काफी प्रेम था । सामा प्रकृति प्रेमी थी। उसका ज्यादातर समय उपवन में ही बीतता था। एक दिन भगवान कृष्ण के एक मंत्री ने सामा के विरुद्ध कृष्ण के कान भर दिये।  इस पर भगवान कृष्ण ने सामा को पक्षी बन जाने का शाप दे दिया । सामा पक्षी बन कर उपवन में ही रहने लगी। दूसरी ओर सामा का पति चक्रवाक पत्नी के विरह में उदास रहने लगा और वह भी पक्षी बन गया।
उधर, सामा के भाई साम्ब को सारी बात पता चली तो उसने भगवान कृष्ण को समझाने का प्रयास किया लेकिन भगवान कृष्ण नहीं माने। तब साम्ब ने कठिन तपस्या कर भगवान कृष्ण को प्रसन्न किया। तब भगवान कृष्ण ने वचन दिया कि सामा हर साल कार्तिक माह में आठ दिनों के लिए चक्रवाक के पास आयेगी और कार्तिक पूर्णिमा को लौट जायेगी ।भाई साम्ब के प्रयास से कार्तिक माह में सामा और चकेवा का मिलन हुआ। उसी की याद में इस पर्व को मनाया जाता है ।
इस त्योहार में सामा - चकेवा की जोड़ी के साथ चुगला, पक्षियों आदि की छोटी-छोटी मूर्तियां बनायी जाती है , उन्हें बांस की रंग - बिरंगी टोकरियों में सजा कर उनकी पूजा की जाती है ।वहीं पूजा के बाद उनका खेतों में विसर्जन कर दिया जाता है।