India

Jun 18 2024, 20:05

यूरोपीय यूनियन चुनाव में राष्ट्रवादी दलों का दबदबा, जिन मुद्दों ने दिलाई जीत, क्या उनसे लोगों को मिलेगा निजात?

#european_union_right_wing

अगर आप यूरोप पर एक नज़र घुमा कर देखें, चाहे वो उत्तर, दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम- आप अलग-अलग किस्म की धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां देख सकते हैं। जिनका हाल के सालों में अच्छा ख़ासा उभार हुआ है। हालांकि, सच्चाई यह है कि 1980 के दशक से ही वे कुछ रुकावटों के साथ कमोबेश लगातार बढ़ रहे हैं। वे वास्तव में अब परिदृश्य का हिस्सा बन चुके हैं। हाल के यूरोपीय संसद चुनावों में, दक्षिणपंथी एवं धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों को बढ़त मिली, जबकि वामपंथी तथा उदारवादी पार्टियों को नुकसान का सामना करना पड़ा।

लगभग 25 साल पहले ऑस्ट्रिया में ही जब दक्षिणपंथी दल जीतकर आया, तो पूरा यूरोप नाराज हो उठा था। डिप्लोमेटिक रिश्ते तक तोड़ने की धमकियां दी गई थीं। अब ऑस्ट्रिया समेत फ्रांस और जर्मनी जैसे बड़े देशों में भी राइट विंग की तरफ रुझान बढ़ा है। इस बार यूरोपियन संसद के लिए 27 देशों में हुए चुनाव में दक्षिणपंथी मानी जाती पार्टियों को पहली बार भारी वोट मिले हैं। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी ब्रदर्स ऑफ इटली ईयू चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि यूरोप में पिछले कुछ समय से जैसे-जैसे शरणार्थियों द्वारा वहां के नागरिकों के प्रति अपराध और हिंसा बढ़ी है, वैसे-वैसे राष्ट्रवादी दलों का उभार भी हुआ है। यूरोप की बिगड़ी आर्थिक स्थिति और बढ़ते हुए आप्रवासन के कारण इन पार्टियों के सितारे बुलंद हुए हैं। पेरिस में एक राजनीतिक समीक्षक क्रिस्टोफ गिले कहते हैं, “इन दलों की सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण ये है कि कुछ साल पहले अमरीका की आर्थिक स्थिति यूरोप से कहीं ज़्यादा बदतर थी। लेकिन अब जहां अमरीका की हालत काफ़ी सुधर गई है, वहीं यूरोप बहुत मुश्किल दौर में हैं और फ्रांस की बेरोज़गारी अब रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंच गई है।”

ऐसा कई वर्षों से कहा जा रहा था कि यूरोप में कथित उदार राजनीति के दिन लद गए हैं, क्योंकि मानवता के नाम पर बुलाए गए शरणार्थियों ने देश की पहचान के साथ खिलवाड़ करना आरंभ कर दिया था। अस्सी के दशक के दौरान ईरान के धार्मिक नेताओं ने इस्लामिक जागरण की बात शुरू कर दी। वे अपील करते कि यूरोप जाकर खुद को यूरोपियन रंग-रूप में ढालने की बजाए मुसलमान खुद को मुस्लिम बनाए रखें। यहीं से सब बदलने लगा। मुस्लिम अपनी मजहबी पहचान को लेकर कट्टर होने लगे। पहले जो लोग फ्रांस या जर्मनी में आम लोगों के बीच घुलमिल रहे थे, वे एकदम से अलग होने लगे। इसके साथ ही उनकी बढ़ती आबादी भी यूरोप को अचानक दिखी।

प्यू रिसर्च सेंटर की मानें तो यूरोप में जितने भी शरणार्थी हैं, उनमें 86% मुसलमान हैं। यूरोप की कुल आबादी का 5% हिस्सा उनसे है। सबसे ज्यादा 9% लोग फ्रांस में जिसके बाद जर्मनी और स्वीडन का नंबर आता है। यूरोपियन यूनियन के तहत आने वाले साइप्रस में कुल आबादी का करीब 26 फीसदी मुस्लिम ही हैं। प्यू का ही डेटा कहता है कि साल 2050 से पहले ही यूरोप की पॉपुलेशन में 14% लोग शरणार्थी मुस्लिम होंगे। अगर ऐसा हुआ तो स्थानीय लोगों को अपने रिसोर्स बांटने होंगे। घर से लेकर नौकरियां बटेंगी।

यूरोप में फिलहाल सबसे ज्यादा गुस्सा शरणार्थियों को लेकर ही है। लोगों का मानना है कि सरकार अपनी इमेज के लिए मुस्लिम देशों के रिफ्यूजियों को आने दे रही है। इससे उनपर टैक्स का भी बोझ बढ़ा, साथ ही हिंसा की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। फ्रांस में बीते साल हिंसा और जबर्दस्त आगजनी हुई, जिसके पीछे शरणार्थियों का हाथ माना गया। जर्मनी और स्कैंडिनेविया में भी कुछ पार्टियां ऐसे आरोप लगा रही हैं।

इतने बड़े आप्रवासन से यूरोप का सामाजिक संतुलन बिगड़ गया है और इस बात को धुर दक्षिणपंथी पार्टियों ने एक राजनीतिक मुद्दा बनाया है और यूरोपीय नागरिकों में एक तरह से डर पैदा किया है। लंबे समय से आप्रवासन, इस्लाम और यूरोपीय संघ का विरोध ही यूरोप की दक्षिणपंथी पार्टियों को एकजुट करता रहा है। अब नए कारण भी सामने आए हैं: सांस्कृतिक युद्ध, अल्पसंख्यक अधिकार, जलवायु संकट और अनुचित बलिदान, जिनके बारे में सरकारें जोर देती हैं कि इससे निपटने के लिए इनकी आवश्यकता होगी।

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Jun 18 2024, 20:05

यूरोपीय यूनियन चुनाव में राष्ट्रवादी दलों का दबदबा, जिन मुद्दों ने दिलाई जीत, क्या उनसे लोगों को मिलेगा निजात?

#european_union_right_wing

अगर आप यूरोप पर एक नज़र घुमा कर देखें, चाहे वो उत्तर, दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम- आप अलग-अलग किस्म की धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां देख सकते हैं। जिनका हाल के सालों में अच्छा ख़ासा उभार हुआ है। हालांकि, सच्चाई यह है कि 1980 के दशक से ही वे कुछ रुकावटों के साथ कमोबेश लगातार बढ़ रहे हैं। वे वास्तव में अब परिदृश्य का हिस्सा बन चुके हैं। हाल के यूरोपीय संसद चुनावों में, दक्षिणपंथी एवं धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों को बढ़त मिली, जबकि वामपंथी तथा उदारवादी पार्टियों को नुकसान का सामना करना पड़ा।

लगभग 25 साल पहले ऑस्ट्रिया में ही जब दक्षिणपंथी दल जीतकर आया, तो पूरा यूरोप नाराज हो उठा था। डिप्लोमेटिक रिश्ते तक तोड़ने की धमकियां दी गई थीं। अब ऑस्ट्रिया समेत फ्रांस और जर्मनी जैसे बड़े देशों में भी राइट विंग की तरफ रुझान बढ़ा है। इस बार यूरोपियन संसद के लिए 27 देशों में हुए चुनाव में दक्षिणपंथी मानी जाती पार्टियों को पहली बार भारी वोट मिले हैं। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी ब्रदर्स ऑफ इटली ईयू चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि यूरोप में पिछले कुछ समय से जैसे-जैसे शरणार्थियों द्वारा वहां के नागरिकों के प्रति अपराध और हिंसा बढ़ी है, वैसे-वैसे राष्ट्रवादी दलों का उभार भी हुआ है। यूरोप की बिगड़ी आर्थिक स्थिति और बढ़ते हुए आप्रवासन के कारण इन पार्टियों के सितारे बुलंद हुए हैं। पेरिस में एक राजनीतिक समीक्षक क्रिस्टोफ गिले कहते हैं, “इन दलों की सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण ये है कि कुछ साल पहले अमरीका की आर्थिक स्थिति यूरोप से कहीं ज़्यादा बदतर थी। लेकिन अब जहां अमरीका की हालत काफ़ी सुधर गई है, वहीं यूरोप बहुत मुश्किल दौर में हैं और फ्रांस की बेरोज़गारी अब रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंच गई है।”

ऐसा कई वर्षों से कहा जा रहा था कि यूरोप में कथित उदार राजनीति के दिन लद गए हैं, क्योंकि मानवता के नाम पर बुलाए गए शरणार्थियों ने देश की पहचान के साथ खिलवाड़ करना आरंभ कर दिया था। अस्सी के दशक के दौरान ईरान के धार्मिक नेताओं ने इस्लामिक जागरण की बात शुरू कर दी। वे अपील करते कि यूरोप जाकर खुद को यूरोपियन रंग-रूप में ढालने की बजाए मुसलमान खुद को मुस्लिम बनाए रखें। यहीं से सब बदलने लगा। मुस्लिम अपनी मजहबी पहचान को लेकर कट्टर होने लगे। पहले जो लोग फ्रांस या जर्मनी में आम लोगों के बीच घुलमिल रहे थे, वे एकदम से अलग होने लगे। इसके साथ ही उनकी बढ़ती आबादी भी यूरोप को अचानक दिखी।

प्यू रिसर्च सेंटर की मानें तो यूरोप में जितने भी शरणार्थी हैं, उनमें 86% मुसलमान हैं। यूरोप की कुल आबादी का 5% हिस्सा उनसे है। सबसे ज्यादा 9% लोग फ्रांस में जिसके बाद जर्मनी और स्वीडन का नंबर आता है। यूरोपियन यूनियन के तहत आने वाले साइप्रस में कुल आबादी का करीब 26 फीसदी मुस्लिम ही हैं। प्यू का ही डेटा कहता है कि साल 2050 से पहले ही यूरोप की पॉपुलेशन में 14% लोग शरणार्थी मुस्लिम होंगे। अगर ऐसा हुआ तो स्थानीय लोगों को अपने रिसोर्स बांटने होंगे। घर से लेकर नौकरियां बटेंगी।

यूरोप में फिलहाल सबसे ज्यादा गुस्सा शरणार्थियों को लेकर ही है। लोगों का मानना है कि सरकार अपनी इमेज के लिए मुस्लिम देशों के रिफ्यूजियों को आने दे रही है। इससे उनपर टैक्स का भी बोझ बढ़ा, साथ ही हिंसा की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। फ्रांस में बीते साल हिंसा और जबर्दस्त आगजनी हुई, जिसके पीछे शरणार्थियों का हाथ माना गया। जर्मनी और स्कैंडिनेविया में भी कुछ पार्टियां ऐसे आरोप लगा रही हैं।

इतने बड़े आप्रवासन से यूरोप का सामाजिक संतुलन बिगड़ गया है और इस बात को धुर दक्षिणपंथी पार्टियों ने एक राजनीतिक मुद्दा बनाया है और यूरोपीय नागरिकों में एक तरह से डर पैदा किया है। लंबे समय से आप्रवासन, इस्लाम और यूरोपीय संघ का विरोध ही यूरोप की दक्षिणपंथी पार्टियों को एकजुट करता रहा है। अब नए कारण भी सामने आए हैं: सांस्कृतिक युद्ध, अल्पसंख्यक अधिकार, जलवायु संकट और अनुचित बलिदान, जिनके बारे में सरकारें जोर देती हैं कि इससे निपटने के लिए इनकी आवश्यकता होगी।

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Jun 18 2024, 20:05

यूरोपीय यूनियन चुनाव में राष्ट्रवादी दलों का दबदबा, जिन मुद्दों ने दिलाई जीत, क्या उनसे लोगों को मिलेगा निजात?

#european_union_right_wing

अगर आप यूरोप पर एक नज़र घुमा कर देखें, चाहे वो उत्तर, दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम- आप अलग-अलग किस्म की धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां देख सकते हैं। जिनका हाल के सालों में अच्छा ख़ासा उभार हुआ है। हालांकि, सच्चाई यह है कि 1980 के दशक से ही वे कुछ रुकावटों के साथ कमोबेश लगातार बढ़ रहे हैं। वे वास्तव में अब परिदृश्य का हिस्सा बन चुके हैं। हाल के यूरोपीय संसद चुनावों में, दक्षिणपंथी एवं धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों को बढ़त मिली, जबकि वामपंथी तथा उदारवादी पार्टियों को नुकसान का सामना करना पड़ा।

लगभग 25 साल पहले ऑस्ट्रिया में ही जब दक्षिणपंथी दल जीतकर आया, तो पूरा यूरोप नाराज हो उठा था। डिप्लोमेटिक रिश्ते तक तोड़ने की धमकियां दी गई थीं। अब ऑस्ट्रिया समेत फ्रांस और जर्मनी जैसे बड़े देशों में भी राइट विंग की तरफ रुझान बढ़ा है। इस बार यूरोपियन संसद के लिए 27 देशों में हुए चुनाव में दक्षिणपंथी मानी जाती पार्टियों को पहली बार भारी वोट मिले हैं। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी ब्रदर्स ऑफ इटली ईयू चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि यूरोप में पिछले कुछ समय से जैसे-जैसे शरणार्थियों द्वारा वहां के नागरिकों के प्रति अपराध और हिंसा बढ़ी है, वैसे-वैसे राष्ट्रवादी दलों का उभार भी हुआ है। यूरोप की बिगड़ी आर्थिक स्थिति और बढ़ते हुए आप्रवासन के कारण इन पार्टियों के सितारे बुलंद हुए हैं। पेरिस में एक राजनीतिक समीक्षक क्रिस्टोफ गिले कहते हैं, “इन दलों की सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण ये है कि कुछ साल पहले अमरीका की आर्थिक स्थिति यूरोप से कहीं ज़्यादा बदतर थी। लेकिन अब जहां अमरीका की हालत काफ़ी सुधर गई है, वहीं यूरोप बहुत मुश्किल दौर में हैं और फ्रांस की बेरोज़गारी अब रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंच गई है।”

ऐसा कई वर्षों से कहा जा रहा था कि यूरोप में कथित उदार राजनीति के दिन लद गए हैं, क्योंकि मानवता के नाम पर बुलाए गए शरणार्थियों ने देश की पहचान के साथ खिलवाड़ करना आरंभ कर दिया था। अस्सी के दशक के दौरान ईरान के धार्मिक नेताओं ने इस्लामिक जागरण की बात शुरू कर दी। वे अपील करते कि यूरोप जाकर खुद को यूरोपियन रंग-रूप में ढालने की बजाए मुसलमान खुद को मुस्लिम बनाए रखें। यहीं से सब बदलने लगा। मुस्लिम अपनी मजहबी पहचान को लेकर कट्टर होने लगे। पहले जो लोग फ्रांस या जर्मनी में आम लोगों के बीच घुलमिल रहे थे, वे एकदम से अलग होने लगे। इसके साथ ही उनकी बढ़ती आबादी भी यूरोप को अचानक दिखी।

प्यू रिसर्च सेंटर की मानें तो यूरोप में जितने भी शरणार्थी हैं, उनमें 86% मुसलमान हैं। यूरोप की कुल आबादी का 5% हिस्सा उनसे है। सबसे ज्यादा 9% लोग फ्रांस में जिसके बाद जर्मनी और स्वीडन का नंबर आता है। यूरोपियन यूनियन के तहत आने वाले साइप्रस में कुल आबादी का करीब 26 फीसदी मुस्लिम ही हैं। प्यू का ही डेटा कहता है कि साल 2050 से पहले ही यूरोप की पॉपुलेशन में 14% लोग शरणार्थी मुस्लिम होंगे। अगर ऐसा हुआ तो स्थानीय लोगों को अपने रिसोर्स बांटने होंगे। घर से लेकर नौकरियां बटेंगी।

यूरोप में फिलहाल सबसे ज्यादा गुस्सा शरणार्थियों को लेकर ही है। लोगों का मानना है कि सरकार अपनी इमेज के लिए मुस्लिम देशों के रिफ्यूजियों को आने दे रही है। इससे उनपर टैक्स का भी बोझ बढ़ा, साथ ही हिंसा की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। फ्रांस में बीते साल हिंसा और जबर्दस्त आगजनी हुई, जिसके पीछे शरणार्थियों का हाथ माना गया। जर्मनी और स्कैंडिनेविया में भी कुछ पार्टियां ऐसे आरोप लगा रही हैं।

इतने बड़े आप्रवासन से यूरोप का सामाजिक संतुलन बिगड़ गया है और इस बात को धुर दक्षिणपंथी पार्टियों ने एक राजनीतिक मुद्दा बनाया है और यूरोपीय नागरिकों में एक तरह से डर पैदा किया है। लंबे समय से आप्रवासन, इस्लाम और यूरोपीय संघ का विरोध ही यूरोप की दक्षिणपंथी पार्टियों को एकजुट करता रहा है। अब नए कारण भी सामने आए हैं: सांस्कृतिक युद्ध, अल्पसंख्यक अधिकार, जलवायु संकट और अनुचित बलिदान, जिनके बारे में सरकारें जोर देती हैं कि इससे निपटने के लिए इनकी आवश्यकता होगी।

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Jun 18 2024, 20:05

यूरोपीय यूनियन चुनाव में राष्ट्रवादी दलों का दबदबा, जिन मुद्दों ने दिलाई जीत, क्या उनसे लोगों को मिलेगा निजात?

#european_union_right_wing

अगर आप यूरोप पर एक नज़र घुमा कर देखें, चाहे वो उत्तर, दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम- आप अलग-अलग किस्म की धुर-दक्षिणपंथी पार्टियां देख सकते हैं। जिनका हाल के सालों में अच्छा ख़ासा उभार हुआ है। हालांकि, सच्चाई यह है कि 1980 के दशक से ही वे कुछ रुकावटों के साथ कमोबेश लगातार बढ़ रहे हैं। वे वास्तव में अब परिदृश्य का हिस्सा बन चुके हैं। हाल के यूरोपीय संसद चुनावों में, दक्षिणपंथी एवं धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों को बढ़त मिली, जबकि वामपंथी तथा उदारवादी पार्टियों को नुकसान का सामना करना पड़ा।

लगभग 25 साल पहले ऑस्ट्रिया में ही जब दक्षिणपंथी दल जीतकर आया, तो पूरा यूरोप नाराज हो उठा था। डिप्लोमेटिक रिश्ते तक तोड़ने की धमकियां दी गई थीं। अब ऑस्ट्रिया समेत फ्रांस और जर्मनी जैसे बड़े देशों में भी राइट विंग की तरफ रुझान बढ़ा है। इस बार यूरोपियन संसद के लिए 27 देशों में हुए चुनाव में दक्षिणपंथी मानी जाती पार्टियों को पहली बार भारी वोट मिले हैं। इटली की प्रधानमंत्री जॉर्जिया मेलोनी की धुर दक्षिणपंथी पार्टी ब्रदर्स ऑफ इटली ईयू चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी है।

ध्यान देने वाली बात यह है कि यूरोप में पिछले कुछ समय से जैसे-जैसे शरणार्थियों द्वारा वहां के नागरिकों के प्रति अपराध और हिंसा बढ़ी है, वैसे-वैसे राष्ट्रवादी दलों का उभार भी हुआ है। यूरोप की बिगड़ी आर्थिक स्थिति और बढ़ते हुए आप्रवासन के कारण इन पार्टियों के सितारे बुलंद हुए हैं। पेरिस में एक राजनीतिक समीक्षक क्रिस्टोफ गिले कहते हैं, “इन दलों की सफलता के पीछे सबसे बड़ा कारण ये है कि कुछ साल पहले अमरीका की आर्थिक स्थिति यूरोप से कहीं ज़्यादा बदतर थी। लेकिन अब जहां अमरीका की हालत काफ़ी सुधर गई है, वहीं यूरोप बहुत मुश्किल दौर में हैं और फ्रांस की बेरोज़गारी अब रिकॉर्ड ऊंचाई तक पहुंच गई है।”

ऐसा कई वर्षों से कहा जा रहा था कि यूरोप में कथित उदार राजनीति के दिन लद गए हैं, क्योंकि मानवता के नाम पर बुलाए गए शरणार्थियों ने देश की पहचान के साथ खिलवाड़ करना आरंभ कर दिया था। अस्सी के दशक के दौरान ईरान के धार्मिक नेताओं ने इस्लामिक जागरण की बात शुरू कर दी। वे अपील करते कि यूरोप जाकर खुद को यूरोपियन रंग-रूप में ढालने की बजाए मुसलमान खुद को मुस्लिम बनाए रखें। यहीं से सब बदलने लगा। मुस्लिम अपनी मजहबी पहचान को लेकर कट्टर होने लगे। पहले जो लोग फ्रांस या जर्मनी में आम लोगों के बीच घुलमिल रहे थे, वे एकदम से अलग होने लगे। इसके साथ ही उनकी बढ़ती आबादी भी यूरोप को अचानक दिखी।

प्यू रिसर्च सेंटर की मानें तो यूरोप में जितने भी शरणार्थी हैं, उनमें 86% मुसलमान हैं। यूरोप की कुल आबादी का 5% हिस्सा उनसे है। सबसे ज्यादा 9% लोग फ्रांस में जिसके बाद जर्मनी और स्वीडन का नंबर आता है। यूरोपियन यूनियन के तहत आने वाले साइप्रस में कुल आबादी का करीब 26 फीसदी मुस्लिम ही हैं। प्यू का ही डेटा कहता है कि साल 2050 से पहले ही यूरोप की पॉपुलेशन में 14% लोग शरणार्थी मुस्लिम होंगे। अगर ऐसा हुआ तो स्थानीय लोगों को अपने रिसोर्स बांटने होंगे। घर से लेकर नौकरियां बटेंगी।

यूरोप में फिलहाल सबसे ज्यादा गुस्सा शरणार्थियों को लेकर ही है। लोगों का मानना है कि सरकार अपनी इमेज के लिए मुस्लिम देशों के रिफ्यूजियों को आने दे रही है। इससे उनपर टैक्स का भी बोझ बढ़ा, साथ ही हिंसा की घटनाएं भी बढ़ रही हैं। फ्रांस में बीते साल हिंसा और जबर्दस्त आगजनी हुई, जिसके पीछे शरणार्थियों का हाथ माना गया। जर्मनी और स्कैंडिनेविया में भी कुछ पार्टियां ऐसे आरोप लगा रही हैं।

इतने बड़े आप्रवासन से यूरोप का सामाजिक संतुलन बिगड़ गया है और इस बात को धुर दक्षिणपंथी पार्टियों ने एक राजनीतिक मुद्दा बनाया है और यूरोपीय नागरिकों में एक तरह से डर पैदा किया है। लंबे समय से आप्रवासन, इस्लाम और यूरोपीय संघ का विरोध ही यूरोप की दक्षिणपंथी पार्टियों को एकजुट करता रहा है। अब नए कारण भी सामने आए हैं: सांस्कृतिक युद्ध, अल्पसंख्यक अधिकार, जलवायु संकट और अनुचित बलिदान, जिनके बारे में सरकारें जोर देती हैं कि इससे निपटने के लिए इनकी आवश्यकता होगी।