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अयोध्या विवाद आजादी के बादः केंद्र से लेकर राज्यों तक की राजनीति दशा और दिशा कैसी बदल http://bit.ly/
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अयोध्या और सियासतःएक ऐसा मुद्दा था जिसे बीजेपी ने सालों साल भुनाया
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राजनीति मुद्दों पर लड़ी जाती है और अयोध्या एक ऐसा मुद्दा था जिसे बीजेपी ने सालों साल भुनाया। अब तो राम मंदिर के प्राण प्रतिष्ठा का समय नजदीक है, लेकिन लगता नहीं है कि इसपर सियासत कम होने वाली है। राम मंदिर को बीजेपी अपनी सबसे बड़ी सफलता के तौर पर दर्शाती है और माना जा रहा है कि 2024 के चुनाव में यही राम मंदिर बीजेपी की सियासी नैया को पार करने का सबसे बड़ा माध्यम बन सकता है। हो सकता है बीजेपी राम मंदिर को आधार बनाकर जनता के सामने वोट मांगने जाए क्योंकि ये उनके मेनिफेस्टो के सबसे बड़े मुद्दों में से एक है। और संकेत भी कुछ इस प्रकार के मिलने लगे हैं।
भारत की राजनीति को तरह-तरह से तोड़ने मरोड़ने का काम अगर किसी मुद्दे ने सबसे ज़्यादा किया तो वह है अयोध्या मंदिर का मुद्दा। इस रेस में बीजेपी हमेशा से आगे रही। हालांकि इस मुद्दे के सहारे बीजेपी को आगे बढ़ता देख कांग्रेस भी मैदान में कूद पड़ी। तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी ने अयोध्या में राम मंदिर का 'शिलान्यास' करवा डाला। उन्हें उम्मीद थी कि मंदिर पर हो रही राजनीतिक रेस में कांग्रेस बीजेपी को पछाड़ देगी। लेकिन, इस खेल में महारत हासिल कर चुकी बीजेपी को हरवाना मुमकिन कांग्रेस के वश में नहीं था।
अयोध्या मुद्दे ने एक नया तूल पकड़ा जब छह दिसंबर 1992 को बाबरी मस्जिद कारसेवा के नाम पर ध्वस्त कर दी गई। बीजेपी के वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती, इत्यादि, इत्यादि सभी की मौजूदगी में इमारत ध्वस्त हुई और सारी ज़िम्मेदारी मुख्यमंत्री होने के नाते कल्याण सिंह पर आई क्योंकि उसी से कुछ समय पहले वो सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष हलफ़नामा पेश कर चुके थे कि वो मस्जिद के स्टेटस को मेंटेन करवाएंगे और उसे किसी प्रकार का नुकसान नहीं होने देंगे। इस बार राम मंदिर के नाम पर कल्याण सिंह की बारी थी कुर्सी से हाथ धोने की।
बीजेपी ने यदि कुर्सी गवाईं तो राम मंदिर के ही नाम पर कुर्सी वापस भी पाई और समय के साथ बीजेपी की शक्ति बढ़ी। करीब 75 सालों तक इसपर राजनीतिक होती रही और सियासी सरगर्मियों जारी रही। उधर अदालत में सुनवाईयों का दौर भी चलता रहा। आखिरकार 9 नवंबर, 2019 को, मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट ने पिछले फैसले को हटा दिया और कहा कि भूमि सरकार के कर रिकॉर्ड के अनुसार है। इसने हिंदू मंदिर के निर्माण के लिए भूमि को एक ट्रस्ट को सौंपने का आदेश दिया। इसने सरकार को मस्जिद बनाने के लिए सुन्नी वक्फ बोर्ड को वैकल्पिक 5 एकड़ जमीन देने का भी आदेश दिया। 6 अगस्त से 16 अक्टूबर तक इस मामले पर 40 दिनसुनवाई के बाद सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। जिसके बाद 9 नवंबर को 45 मिनट तक पढ़े गए 1045 पन्नों के फैसले ने देश के इतिहास के सबसे अहम और एक सदी से ज्यादा पुराने विवाद का अंत कर दिया।
कोर्ट ने तो जो फैसला सुनाना था वो सुना दिया, लेकिन शायद जनता ने अपना फैसला पहले ही ले लिया था। कई शताब्दी पुराने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को देश ने शांतिपूर्ण और विवेकसम्मत अंदाज में ग्रहण किया। फैसला आने से पहले सबकी सांसें थमी हुई थीं। खून खराबे का इतिहास कहीं दोहराया ना जाए, लेकिन ऐसा बिल्कुल नहीं हुआ। दरअसल जब भी कोई विवाद एक हद से ज्यादा लंबा खिंच जाता है तो समय के साथ उसकी शिथिलता बढ़ती चली जाती है।कुल मिला कर एक देश के रूप में हमने जिस कुशलता, शांतिप्रियता और समझदारी का परिचय देते हुए इस विवाद से अपना पीछा छुड़ाया है वह बताता है कि एक लोकतांत्रिक समाज के रूप में हम पहले से ज्यादा परिपक्व हुए हैं।
वैसे आम लोग चाहे जितनी परिवक्वता दिखा दे, लेकिन आम लोगों का नेतृत्व करने वाली जो संस्थाएं हैं, वे कहां परिपक्व बन सकी हैं। मंदिर के भूमि पूजन के साथ विवाद का अंकुर फूटता नजर आया, जो आज रामलला के प्राण प्रतिष्ठा तक चला आ रहा है। विपक्ष ने राम मंदिर की प्राण प्रतिष्ठा से किनारा कर लिया है। और इसे बीजेपी और आरएसएस का कार्यक्रम बताया है।कांग्रेस का कहना है कि आरएसएस और बीजेपी ने 22 जनवरी के कार्यक्रम को पूरी तरह से राजनीतिक, नरेंद्र मोदी फंक्शन' बना दिया है। यही कारण है कि कांग्रेस इस कार्यक्रम में शिरकत नहीं करेगी।
Jan 21 2024, 11:33