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ओडिशा का अनोखा मंदिर: साल में सिर्फ 9 दिन नवरात्र में ही खुलता है माता रानी का ये दरबार

शारदीय नवरात्र का पावन पर्व आज से शुरू हो चुका है। यह हिंदू धर्म के प्रमुख त्योहारों में से एक है, जिसे हर साल आश्विन माह में मनाया जाता है। इस दौरान मां दुर्गा के नौ स्वरूपों की पूजा-अर्चना की जाती है और व्रत-उपवास भी किया जाता है। इसके अलावा इन दिनों देवी मां के दर्शन के लिए मंदिरों में भक्तों का तांता लगा रहता है। भारत मंदिरों का देश है। यहां हर कदम पर कई छोटे-बड़े मंदिर मिलते हैं, जिनका अपना सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व होता है।

ऐसा ही एक मंदिर ओडिशा में स्थित है, जो कई वजहों से अनोखा मंदिर माना जाता है। आमतौर पर ओडिशा का नाम सुनते ही सबसे पहले मन में जगन्नाथ मंदिर का ख्याल आता है, लेकिन ओडिशा में माता रानी का एक अनोखा मंदिर भी है, जो सिर्फ नवरात्र के दौरान ही खुलता है। यहां गजपति जिले के परलाखेमुंडी में एक छोटा- सा दुर्गा मंदिर है, जिसके बारे में बेहद कम लोग ही जानते हैं। ऐसे में नवरात्र के अवसर पर आज हम आपको बताएंगे इस अनोखे मंदिर के बारे में-

सालभर बंद रहता है कपाट

बेहद कम प्रसिद्ध यह मंदिर साल में सिर्फ नौ दिन नवरात्र के दौरान खुला रहता है। उड़िया में इस मंदिर को दांडू मां के नाम से जाना जाती है। यह काफी पुराना मंदिर है, जहां नवरात्र के दौरान ओडिशा और आंध्र प्रदेश से बड़ी संख्या में लोग आते हैं। खास बात यह है कि अन्य मंदिरों के विपरीत में यह मंदिर साल के बाकी दिनों बंद रहता है और सिर्फ नवरात्र के नौ दिनों में ही खुला रहता है। साल में सिर्फ नौ दिन मंदिर खुलने की यह परंपरा अज्ञात समय से चली आ रही है और इसका कारण भी अज्ञात है।

सिर्फ नौ दिन खुलता है मंदिर

इस मंदिर के कपाट नवरात्र के पहले दिन ही खोले जाते हैं। इसके बाद यहां कई अनुष्ठान होते हैं, जो नवरात्र के आखिरी दिन की आधी रात तक जारी रहते हैं। इसके बाद एक मिट्टी के बर्तन में नारियल के प्रसाद के साथ मंदिर का दरवाजा अगले साल तक के लिए बंद कर दिया जाता है। खास बात यह है कि जब अगले साल मंदिर का दरवाजा खोला जाता है, तो यह जैसे का तैसा रखा रहता है, जिसे बाद में नवरात्र के दौरान मंदिर आने वाले भक्तों को दिया जाता है।

दूर-दूर से आते हैं लोग

शहर के कई प्राचीन मंदिरों में से एक यह दुर्गा का मंदिर शहर की सांस्कृतिक सुंदरता में एक विशेष स्थान रखता है। नवरात्र के पवित्र अवधि के दौरान यहां दूर-दूर से लोग आते हैं। यह साल का एकमात्र ऐसा समय होता है, जब भक्त देवी मां की एक झलक पा सकते हैं, जिन्हें तेलुगु में दंडमरम्मा और उड़िया में दंडु मां के नाम से जाना जाता है। बात करें इस शहर की, तो परलाखेमुंडी या पराला ओडिशा में 1885 में स्थापित सबसे पुरानी नगर पालिकाओं में से एक है। इस शहर के लोग ज्यादातर तेलुगु और उड़िया बोलते हैं और इस जगह की सीमाएं आंध्र प्रदेश से लगती हैं।

केदारनाथ से जुड़ी डोलेश्वर महादेव मंदिर की कहानी,जाने मंदिर की पौराणिक मान्यता

आत्म-चिंतन, भक्ति और परमात्मा के साथ गहरे संबंध के लिए एक पवित्र वातावरण आपको पहाड़ों के बीच ही मिलता है। नेपाल देश की सुंदरता किसी से नहीं छिपी है। यहां की पहाड़ियां वास्तुक सब अलौकिक हैं। इस अलौकिकता में चार चांद लगाता है हिन्दू मान्यताओं से धनी पशुपतिनाथ और डोलेश्वर महादेव मंदिर। जहां इन मंदिरों का अत्यधिक सांस्कृतिक और धार्मिक महत्व है, जो हिंदू धर्म की परंपराओं और स्थानीय संस्कृति से जुड़ा हुआ है। इसका महत्व इसकी स्थापत्य सुंदरता से कहीं ज्यादा है, जो इसे आध्यात्मिक और सांस्कृतिक भक्ति दोनों के लिए एक प्रसिद्ध स्थल बनाता है।

केदारनाथ की यात्रा नेपाल से होती है पूरी

डोलेश्वर महादेव मंदिर नेपाल में स्थित है और यह पौराणिक महत्व के साथ जाना जाता है। यह शिवालय कोशी नदी के किनारे स्थित है और यहाँ का पूजा-अर्चना का वातावरण बहुत ही शांतिपूर्ण है। मंदिर का निर्माण पुरातात्विक रूप से बहुत पुराना माना जाता है और यहाँ की सुंदरता को देखकर लोगों को शिवालय दर्शन का अद्भुत अनुभव होता है। हरे-भरे जंगल के बीच एक विशाल चट्टान को भगवान केदारनाथ के प्रतीक के रूप में पूजा जाता है। ऐसा कहा जाता है कि पशुपतिनाथ और डोलेश्वर की यात्रा के बिना केदारनाथ की यात्रा पूरी नहीं होती है।

डोलेश्वर महादेव मंदिर का अवलोकन करने के लिए यात्री नेपाल के भक्तपुर जिले के तांखेल गाँव में जाते हैं। यहाँ पहुँचने के लिए प्राकृतिक और शांतिपूर्ण मार्ग हैं। जो यात्रा को और भी आनंदमय बना देते हैं। मंदिर के आसपास के क्षेत्र में विभिन्न धार्मिक और पौराणिक स्थल हैं। जो यात्रियों का ध्यान आकर्षित करते हैं। यहाँ पर आने वाले लोगअद्भुत वातावरण में शिव पूजा का आनंद लेते हैं और आत्मिक शांति का अनुभव करते हैं।

मंदिर की पौराणिक मान्यता

4000 वर्षों से लोग पंच केदार मंदिरों के प्रमुख बैल की खोज कर रहे हैं, जो वास्तव में शिव थे, जिन्होंने महाभारत के नायकों, पांच पांडव भाइयों से बचने के लिए बैल का रूप धारण किया था। यह किंवदंती पांच पांडव भाइयों और उनके चचेरे भाइयों, कौरव भाइयों के बीच लड़े गए कुरुक्षेत्र के प्रसिद्ध युद्ध से जुड़ी है। ऐसा कहा जाता है कि जब पांडव भाइयों ने बैल को पकड़ने की कोशिश की, तो वे केवल पूंछ ही पकड़ सके, जबकि बैल का सिर शरीर के बाकी हिस्सों से अलग हो गया। हिंदू धर्मग्रंथों के अनुसार शेष शरीर भारत के केदारनाथ में है, जबकि माना जाता है कि डोलेश्वर उसका सिर वाला भाग है। वहीं पंच केदार में उनके अन्य शरीर के भाग है, जैसे केदारनाथ में पीछे का का भाग, तुंगनाथ में भुजा, कल्पेश्वर में जटा, मध्यमहेश्वर में मध्य भाग और रुद्रनाथ में चेहरा (मुख) की पूजा की जाती है।

मंदिर की भव्य वास्तुकला

डोलेश्वर महादेव मंदिर पारंपरिक नेवारी वास्तुकला का एक सुंदर उदाहरण है, जिसमें बढ़िया लकड़ी का काम और पगोडा-शैली का डिज़ाइन है। मंदिर का वास्तुशिल्प वैभव नेपाल की काठमांडू घाटी की समृद्ध विरासत का एक स्मारक है। मंदिर की पैगोडा-शैली की संरचना में कई स्तर हैं, जिनमें से प्रत्येक को जटिल नक्काशीदार लकड़ी के तत्वों से सजाया गया है। लकड़ी की नक्काशी पौराणिक डिजाइनों, धार्मिक प्रतीकों और नेवारी कलात्मकता के विशिष्ट पैटर्न को चित्रित करती है। ये मूर्तियां गहन आध्यात्मिक और सांस्कृतिक संदेश देने के साथ-साथ सजावटी होने के साथ एक प्रतीकात्मक कार्य भी करती हैं। लकड़ी का प्रचुर उपयोग, नेवारी निर्माण का एक ट्रेडमार्क, डोलेश्वर महादेव मंदिर की वास्तुकला की एक उल्लेखनीय विशेषता है।

मंदिर की मान्यता पर शोध

डोलेश्वर महादेव नेपाल के भक्तपुर जिले के दक्षिण पूर्वी भाग सूर्यबिनायक में स्थित भगवान शिव का एक हिंदू मंदिर है। हिंदू कार्यकर्ता भरत जंगम केदारनाथ और डोलेश्वर के बीच आश्चर्यजनक संबंधों के आधार पर शोध का दावा करते है कि डोलेश्वर महादेव केदारनाथ का प्रमुख हिस्सा है। दोनों मंदिरों में पाई गई शिव की मूर्तियां 4,000 साल पुरानी हैं। यहां तक कि डोलेश्वर में पाया गया एक पत्थर का ग्रंथ भी संस्कृत और पुरानी नेपाली में लिखा गया था। दोनों तीर्थस्थलों में पुजारी भारत के दक्षिणी राज्यों कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, केरल और तमिलनाडु से चुने जाते हैं।

पांडवों से जुड़ा है निष्कलंक महादेव का मंदिर, जानते हैं इस मंदिर का रोचक इतिहास

निष्कलंक महादेव मंदिर में एक चौकोर मंच पर 5 अलग-अलग स्वयंभू शिवलिंग हैं और प्रत्येक के सामने एक नंदी की मूर्ति विराजमान है। यह मंदिर समुद्र में उच्च ज्वार के दौरान डूब जाता है और कम ज्वार के दौरान खुद को भव्यता से प्रकट करने के लिए उभर आता है।

उच्च ज्वार के दौरान, शिवलिंग जलमग्न हो जाते हैं। इस दौरान केवल ध्वज और एक स्तंभ दिखाई देता है। आइए जानते हैं इस मंदिर का रोचक इतिहास।

पांडवों से जुड़ा है मंदिर का इतिहास

ऐसा माना जाता है कि इस मंदिर को पांडवों द्वारा बनवाया गया है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, इसे बनवाने के कारण यह था कि पांडवों द्वारा कुरुक्षेत्र युद्ध में सभी कौरवों को मारने के बाद, उन्हें अपने पापों के लिए दोषी महसूस होने लगा।

अपने पापों का प्रायश्चित करने के लिए, पांडवों ने भगवान श्री कृष्ण से परामर्श किया, जिन्होंने उन्हें एक काला झंडा और एक काली गाय सौंपी और उनसे पीछा करने को कहा और कहा कि जब ध्वज और गाय दोनों सफेद हो जाएंगे, तो उन सभी के पाप मांफ हो जाएंगे। इसके बाद भगवान कृष्ण ने उन्हें भगवान शिव से क्षमा मांगने के लिए भी कहा।

पांडवों ने गाय का हर जगह पीछा किया जहां भी गाय उन्हें ले गई और कई वर्षों तक विभिन्न स्थानों पर ध्वज को मान्यता दी, फिर भी रंग नहीं बदला।

अंत में, जब वे कोलियाक समुद्र तट पर पहुंचे, तो दोनों सफेद हो गए। वहां पांडवों ने भगवान शिव का ध्यान किया और अपने द्वारा किए गए पापों के लिए क्षमा मांगी। उनकी प्रार्थनाओं से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने प्रत्येक भाई को शिवलिंग रूप में दर्शन दिए।

कहा जाता है कि यह पांचों शिवलिंग स्वयंभू हैं। इस सभी शिवलिंग के सामने नंदी की मूर्ति भी थी। पांडवों ने अमावस्या की रात को इन पांचों लिंगम को चौकोर स्थल पर स्थापित किया और इसे निष्कलंक महादेव नाम दिया जिसका अर्थ होता है बेदाग, स्वच्छ और निर्दोष होना।

हर साल लगता है मेला

इस स्थान पर 'भादरवी' नाम से प्रसिद्ध मेला श्रावण माह की अमावस्या की रात को आयोजित किया जाता है। मंदिर उत्सव की शुरुआत भावनगर के महाराजाओं द्वारा झंडा फहराकर की जाती है। जहां यह झंडा 364 दिनों तक खुला रहता है और अगले मंदिर उत्सव के दौरान बदला जाता है

कब किए जाते हैं दर्शन

श्रद्धालु निम्न ज्वार के दौरान तट से नंगे पैर चलकर मंदिर के दर्शन करते हैं। मंदिर पहुंचने पर भक्त सबसे पहले एक तालाब में अपने हाथ-पैर धोते हैं, जिसे पांडव तालाब कहा जाता है, उसके बाद मंदिर के दर्शन करते हैं। ज्वार विशेष रूप से अमावस्या और पूर्णिमा के दिनों में सक्रिय होते हैं और भक्त इन दिनों ज्वार के गायब होने का बेसब्री से इंतजार करते हैं।

एक ऐसा रहस्यमयी मंदिर जहां सिर्फ महिलाएं होती है पुजारी,जाने

दुनिया में रहस्य व अजूबों की कमी नहीं है। लेकिन कुछ ऐसी मान्यताएं व परंपराएं समाज में विकसित है जो तारीख बन जाती है। इसी में एक है सहोदरा (सुभद्रा) शक्तिपीठ।

भारत नेपाल की सीमा पर गौनाहा प्रखंड के उत्तरी छोर पर अवस्थित है सुभद्रा स्थान। जो भारत सहित नेपाल के लाखों श्रद्धालुओं के आस्था का केंद्र है। जिसकी गिनती शक्तिपीठों में होती है।

सहोदरा शक्तिपीठ का इतिहास

सैंकड़ों वर्ष पुराना है।

यहां के लोग इसे महाभारत काल से जोड़ते है। इस मंदिर का सबसे अजूबा इतिहास यह है कि मंदिर के आरंभ से लेकर आजतक इस मंदिर में पुजारी के रूप में सिर्फ महिलाएं ही नियुक्त हुई है।

साथ ही यहां विराजमान माता सुभद्रा को प्रतिदिन स्नान कराकर नयी साड़ी पहनाने व खोइछा भरने की परंपरा काफी पुरानी है।

यहां के लोग माता को बेटी मानकर प्रतिदिन नया वस्त्र व खोइछा प्रदान करते है। वर्तमान में शंभू गुरो की पत्नी आशा देवी इस मंदिर की प्रधान पुजारी है।

रहस्यमयी है माता का इतिहास

वैसे तो शक्तिपीठ सुभद्रा के संबंध में यहां कई कथाएं प्रचलित है। लेकिन जो माता प्रतिमा की प्रमाणिकता सिद्ध करता है, उसके अनुसार प्राचीन काल में दिव्य आभूषण से सुसज्जित एक ग्वालन स्त्री अपने नवजात शिशु के साथ दही बेचकर जंगल के रास्ते वापस जा रही थी। शाम का अंधेरा गहराने लगा था। इतने में कुछ बदमाश उन्हें घेर लिए। स्त्री की आबरू से खिलवाड़ करने के लिए उन्हें निर्वस्त्र करना शुरू कर दिया।

स्त्री रक्षा के लिए भगवान को पुकारने लगी। इतने में एक दिव्य तेज प्रकाशित हुआ और गोद में बच्चे के साथ स्त्री प्रतिमा बन गई। वहां एक नीम का पेड़ उत्पन्न हो गया। सभी बदमाश मौत को प्राप्त हुए। दूसरी ओर बिहार लोक कथाएंज् के लेखक डा. सीआर प्रसाद के अनुसार हिमालय में जाते समय पाडुओं से सुभद्रा इसी जंगल में बिछड़ गई थी और कुछ बदमाशों ने उन्हें घेर लिया।

जिस कारण उन्हें सती हो जाना पड़ा। इसका वर्णन उन्होंने अपनी पुस्तक में भी किया है। यहां के लोग भी इसे सत्य कथा बताते है। वैसे प्रतिमा के एक हाथ में कमल व दूसरे हाथ में कलश मौजूद है। गोद में एक नवजात बच्चा भी है।बू

महारानी को आया था स्वप्न

करीब तीन सौ वर्ष पूर्व रामनगर इस्टेट की तत्कालीन महारानी छत्रकुमारी देवी को रात में माता का स्वप्न आया। माता ने आदेश दिया कि तुम सहोदरा के जंगलों में मेरी मंदिर बनवाओं। दूसरे दिन जब महारानी अपने सैनिकों के साथ यहां पहुंची तो उन्हें स्वप्न में आए निर्धारित स्थान पर एक नीम का पेड़ दिखा।

महारानी ने कुल्हाड़ी से नीम के पेड़ पर पांच बार प्रहार किया। इसके बाद सैनिकों ने नीम के पेड़ को काटकर उसे साफ किया तो वहां से वर्तमान प्रतिमा निकली। इसके बाद महारानी ने यहां मंदिर की स्थापना करवाई। बाद में स्थानीय प्रसाद महतो ने उस मंदिर को विकसित कर एक भव्य मंदिर का निर्माण करवाया। जहां आज दो देशों के आस्था का जनसैलाव उमड़ता दिखाई पड़ता है।

यहां दफन है दसवीं शताब्दी के पूर्व का इतिहास

सहोदरा मंदिर निर्माण के समय जब यहां की खुदाई हुई तो उसमें से अष्टकोणीक कुंआ एवं देवी देवताओं की असंख्य मुर्तियां निकली। कई सिक्के भी मिले। जो अवशेष के रूप में आज भी मंदिर परिसर में विद्यमान है।

इन अवशेषों को पुरातत्व विभाग दसवीं शताब्दी का मान रहा है। इसी माह कला एंव संस्कृति मंत्री विनय बिहारी के साथ सहोदरा पहुंचे पुरातत्व विभाग के संरक्षण पदाधिकारी सत्येंद्र झा ने जब इन अवशेषों को देखा तो मंत्रमुग्ध हो गए। उन्होंने बताया कि ये समस्त प्रतिमाएं दसवीं शताब्दी की प्रतीत हो रही है। इसका इतिहास जानने के लिए तह में जाना होगा।

करीब एक साल पूर्व तत्कालीन मुख्यमंत्री नीतीश कुमार अपने चार दिनों के प्रवास पर दोन आए थे। प्रवास के पहले दिन पूर्व मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने सबसे पहले सहोदरा शक्तिपीठ एवं सोफा मंदिर का दर्शन किया। यहां के इतिहास जान अह्लादित हुए और इसे पर्यटक स्थल बनाने की घोषणा की।

साल में दो बार लगता है मेला

वैसे तो यहां हर रोज मेला का नजारा रहता है। नेपाल व भारत के सुदुरवर्ती इलाकों के सैंकड़ों श्रद्धालु प्रतिदिन माता के दर्शन को आते है। लेकिन शारदीय नवरात्र एवं चैत्र नवरात्र में यहां एक एक माह का मेला लगता है। जिला पुलिस व एसएसबी की चौकसी के बीच लगने वाले इन मेलों में लाखों श्रद्धालु माता के दर्शन और उनसे मनोवांछित फल की प्राप्ति की कामना से प्रतिदिन पहुंचते है।

सप्तमी से भीड़ अधिक बढ़ने के कारण श्रद्धालुओं को माता के दर्शन के लिए घंटों लाइन में लगना पड़ता है।

बिहार के इस मंदिर में बकरे की बलि की है परंपरा, लेकिन यहां का चमत्कार आपको कर देगा हैरान,जाने क्या है इस मंदिर का इतिहास?

भारत के प्राचीन मंदिरों मे शुमार यह मंदिर कैमूर पर्वत की पवरा पहाड़ी पर 608 फीट ऊंचाई पर स्थित है। इस मंदिर में बलि की प्रकिया थोड़ी अलग है। मुंडेश्वरी मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि यहां पशु बलि की सात्विक परंपरा है। यहां बलि में बकरा चढ़ाया जाता है, लेकिन उसका जीवन नहीं लिया जाता।

हर मनोकामना होती है पूरी

बताया जाता है कि इस मंदिर में केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि अन्य धर्मों के लोग भी बलि देने आते हैं और आंखों के सामने चमत्कार होते देखते हैं। श्रद्धालुओं की मान्यता है कि मां मुंडेश्वरी सच्चे मन से मांगी हर मनोकामना को पूरी करती हैं।

मंदिर का इतिहास

भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण अनुसार, यह मंदिर 108 ई. में बनाया गया था और 1915 के बाद से एक संरक्षित स्मारक है। मुंड़ेश्वरी मंदिर नागर शैली वास्तुकला में बने मंदिरों का सबसे पुराना प्रतिरुप है। रामनवमी और शिवरात्रि का त्योहार मुंड़ेश्वरी मंदिर के विशेष आकर्षण हैं।

कहते हैं कि औरंगजेब के शासनकाल में इस मंदिर को तोड़वाने का प्रयास किया गया। मजदूरों को मंदिर तोडऩे के काम में भी लगाया गया। लेकिन इस काम में लगे मजदूरों के साथ अनहोनी होने लगी। तब वे काम छोड़ कर भाग गये। भग्न मूर्तियां इस घटना की गवाही देती हैं। तब से इस मंदिर की चर्चा होने लगी। यह देश के सबसे प्राचीन मंदिरों में शुमार होता है।

चमत्कार देख भक्त हो जाते हैं हैरान

बताया जाता है कि जब बकरे को माता के सामने लाया जाता है तो पुजारी मूर्ति को स्पर्श कराकर चावल और फूल बकरे पर फेंकता है। बताया जाता है कि अक्षत की मार से बकरा उसी क्षण अचेत या मृतप्राय सा हो जाता है। हालांकि देर के बाद फिर से पुजारी द्वारा अक्षत फेंका जाता है। अक्षत से बकरा उठ खड़ा होता है।

माता ने किया था मुंड का वध

कहा जाता है कि यहां पर चंड-मुंड नामक दो राक्षसों का वध करने के लिए माता आईं थी। मान्यता है कि जब माता ने चंड का वध कर दिया तो मुंड इसी पहाड़ी में छिप गया था। माता ने यहीं पर मुंड के साथ युद्ध करते हुए वध किया था। यही कारण है कि यह धाम को मुंडेश्वरी देवी के नाम से प्रसिद्ध है।

यहां बदलता है शिवलिंग

मां मुंडेश्वरी धाम में भगवान शिव का एक पंचमुखी शिवलिंग है। कहा जाता है कि यह शिवलिंग समय-समय पर रंग बदलता है। इसका रंग सुबह, दोपहर और शाम को अलग-अलग दिखाई देता है। देखते ही देखते कब पंचमुखी शिवलिंग का रंग बदल जाता है, पता भी नहीं चलता है।

खजराना गणेश मंदिर: जहां पूरी होती हैं भक्तों की मनोकामनाएं,जानिए इनकी इतिहास*

मध्य प्रदेश अपनी प्राकृतिक सुंदरता और ऐतिहासिक मंदिरों के लिए जाना जाता है. ऐसा ही एक मंदिर इंदौर के खरजाना में स्थित है. ये प्रसिद्ध मंदिर भगवान गणेश को समर्पित है. खजराना का गणेश मंदिर अपने चमत्कारों के लिए भक्तों के बीच काफी लोकप्रिय हैं. इस गणेश मंदिर से जुड़ी मान्यता है कि यहां भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है. मन्नत पूरी होने के बाद भक्त जन भगवान गणेश की प्रतिमा की पीठ पर उल्टा स्वास्तिक बनाते हैं और गणेश जी को मोदक और लड्डू का भोग लगाते हैं

मान्यताओं के अनुसार, खरजाना के एक स्थानीय पंडित मंगल भट्ट को सपने में भगवान गणेश ने दर्शन देकर उन्हें मंदिर निर्माण के लिए कहा था. उस समय होलकर वंश की महारानी अहिल्या बाई का राज था. पंडित ने अपने स्वप्न की बात रानी अहिल्या बाई को बताई. जिसके बाद रानी अहिल्या बाई होलकर ने इस सपने की बात को बेहद गंभीरता से लिया और स्वप्न के अनुसार उस जगह खुदाई करवाई. खुदाई करवाने पर ठीक वैसी ही भगवान गणेश की मूर्ति प्राप्त हुई जैसा पंडित ने बताया था. इसके बाद यहां मंदिर का निर्माण करवाया गया. आज भक्तों की हर मनोकामना पूर्ण होने से इस मंदिर को विश्व स्तर की ख्याति प्राप्त हो चुकी है.

होलकर वंश की महारानी ने बनवाया था मंदिर:

इंदौर का खजराना स्थित गणेश मंदिर का निर्माण 1735 में होलकर वंश की महारानी अहिल्या बाई ने करवाया था. मान्यताओं के अनुसार, श्रद्धालु इस मंदिर की तीन परिक्रमा लगाते हैं और मंदिर की दीवार पर धागा बांधते हैं. वैसे तो भगवान गणेश की पूजा-अर्चना हर शुभ कार्य करने से पहले की जाती है, लेकिन खजराना गणेश मंदिर में भक्तों की सबसे अधिक भीड़ बुधवार के दिन होती है. बुधवार को भगवान गणेश की पूजा करने के लिए भक्त दूर-दूर से यहां आते हैं. इस दिन यहां विशेष आरती आयोजित की जाती है

टीम इंडिया के सुपर सिलेक्टर हैं बप्पा:

टीम इंडिया के क्रिकेटर जब भी इंदौर आते हैं, वे खजराना स्थित गणेश मंदिर में बप्पा का आशीर्वाद लेने जरूर जाते हैं. अंजिक्य रहाणे ने एक बार दर्शन के समय मंदिर परिसर में कहा था कि टीम इंडिया के सभी खिलाड़ी खजराना भगवान गणेश को टीम इंडिया के सुपर सिलेक्टर मानते हैं. बप्पा का आशीर्वाद मिलने के बाद ही टीम में सिलेक्ट होते हैं और अच्छा प्रदर्शन करते हैं

परिसर में हैं 33 मंदिर:

खजराना गणेश मंदिर परिसर में 33 छोटे-बड़े मंदिर बने हुए हैं. यहां भगवान राम, शिव, मां दुर्गा, साईं बाबा, हनुमान जी सहित अनेक देवी-देवताओं के मंदिर हैं. मंदिर परिसर में पीपल का एक प्राचीन पेड़ भी है. इस पीपल के पेड़ के बारे में मान्यता है कि ये मनोकामना पूर्ण करने वाला पेड़ है.

भगवान श्री गणेश को पहला निमंत्रण:

भगवान गणेश के मंदिर में हर शुभ कार्य का पहला निमंत्रण दिया जाता है. परंपरा है कि विवाह, जन्मदिन समारोह आदि शुभ कामों के लिए भक्त सबसे पहला निमंत्रण भगवान गणेश के मंदिर में देते हैं. इंदौर और आसपास के भक्त अपने आराध्य को सबसे पहला निमंत्रण भेजकर भगवान गणेश को आमंत्रित करते हैं. वहीं नया वाहन, जमीन या मकान खरीदने पर भक्त भगवान गणेश के दरबार में माथा टेककर भगवान का आशीर्वाद लेते हैं, ताकि भविष्य में कोई परेशानी न हो और सभी काम शुभ हों.

सबसे धनी हैं इंदौर के खजराना गणेश:

देश के सबसे धनी गणेश मंदिरों में खजराना गणेश मंदिर का नाम भी सबसे पहले आता है. यहां भक्तों की ओर से चढ़ाए हुए चढ़ावे के कारण मंदिर की कुल चल और अचल संपत्ति बेहिसाब है. इसके साथ ही शिर्डी स्थित साईं बाबा, तिरुपति स्थित भगवान वेंकटेश्वर मंदिर की तरह यहां भी श्रद्धालुजन ऑनलाइन भेंट चढ़ावा चढ़ाते हैं. हर साल मंदिर की दानपेटियों में से विदेशी मुद्राएं भी अच्छी खासी संख्या में निकलती हैं.

नि:शुल्क भोजन:

गणेश मंदिर में भक्तों के लिए निशुल्क भोजन की भी व्यवस्था की गई है. हजारो की संख्या में लोग यहां हर रोज भोजन करते हैं. इसके अलावा, जिन भक्तों की मन्नत पूरी होती है वो स्वयं के बराबर लड्डुओं से तुला दान करते है.

मुख्य त्योहार विनायक चतुर्थी:

इंदौर शहर और आसपास के अन्य शहरों के नागरिकों को खजराना गणेश मंदिर में बहुत विश्वास है. ये मंदिर बहादुर मराठा रानी अहिल्या बाई होल्कर द्वारा बनाया गया था. ये मंदिर भारत के प्रसिद्ध हिंदू मंदिरों में से एक है. बुधवार एवं रविवार को बड़ी संख्या में लोग यहां दर्शन करने आते हैं. एक स्थानीय मान्यता के अनुसार, इस मंदिर में पूजा करने पर भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूरी होती हैं. इस मंदिर का मुख्य त्योहार विनायक चतुर्थी है. इसे अगस्त और सितंबर के महीने में भव्य तरीके से आयोजित किया जाता है.

मंदिर को सरकार ने अपने कब्जे में ले लिया है. मंदिर का प्रबंधन भट्ट परिवार द्वारा किया जाता है. ऐसा माना जाता है कि औरंगजेब से गणेश मूर्ति की रक्षा करने के लिए मूर्ति को एक कुएं में छिपा दिया गया था. इसके बाद 1735 में कुएं से मूर्ति निकालकर मंदिर का निर्माण किया गया था. इस मंदिर की स्थापना अहिल्या बाई होल्कर द्वारा की गई थी, जो मराठा के होली वंश से थीं. पिछले कुछ वर्षों में मंदिर का काफी विकास हुआ है. मंदिर में सोने, हीरे और अन्य बहुमूल्य रत्नों का नियमित दान किया जाता है. गर्भगृह की बाहरी और ऊपरी दीवार चांदी की बनी हुई है. इस पर विभिन्न मनोदशाओं और उत्सवों की चित्रकारी भी कई गई है. मंदिर के भगवान गणेश की आंखें हीरे की बनी हुई हैं, जो इंदौर के एक व्यवसायी ने दान में दी थीं.

गोविंद देव जी मंदिर का इतिहास: आखिर क्यों नहीं दिखते है राधा रानी के पांव,जानिए वजह

गोविंद देव जी एक विश्व विख्यात मंदिर है और यहां ठाकुर जी की कोई साधारण प्रतिमा नहीं है. इस प्रतिमा को स्वयं भगवान श्रीकृष्ण के पपौत्र वज्रनाभ जी ने बनवाई थी. वज्रनाभ जी अनिरुद्ध के पुत्र थे. पूरे देशभर से लोग इस मंदिर में गोविंद जी के दर्शन करने आते हैं. कृष्ण जन्माष्टमी पर इस मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है. जयपुर स्थित इस प्रसिद्ध मंदिर की खासियत है कि इस मंदिर में कोई शिखर नहीं है. बिना शिखर वाला इस मंदिर को माना जाता है.वज्रनाभ जी ने अपनी दादी से पूछा कि श्रीकृष्ण कैसे लगते थे और फिर दादी के कहे अनुसार उस शीला से जिस शीला से कंस ने उनके 7 भाइयों का वध किया था उस शीला से निर्माण किया

श्रीकृष्ण के पपौत्र वज्रनाभ को दादी जैसे-जैसे बताती गई वैसे-वैसे वो प्रतिमा को आकार देते गए. जब पहली प्रतिमा बनाई तो उसके पैर तो वैसे ही बन गए बाकी स्वरूप वैसा नहीं था जिसके बाद उन्होंने दूसरी प्रतिमा बनाई. जब दूसरी प्रतिमा बनाई तो पैर और शरीर दोनों एक जैसे बन गए लेकिन वह श्रीकृष्ण जैसे नहीं थे. जो पहले प्रतिमा बनाई गई थी, तो उसको मदन मोहन जी का नाम दिया गया जो करौली में विराजित है और दूसरी प्रतिमा बनाई वो गोपिनाथ जी कहलाए जो कि पुरानी बस्ती जयपुर में विराज रहे हैं. इसके बाद उन्होंने तीसरी प्रतिमा बनाई और जैसे ही तीसरी प्रतिमा पूर्ण हुई, तो उनकी दादी ने सिर हिलाते हुए हां कहा क्योंकि श्रीकृष्ण का पूर्ण रूप था वो यही स्वरूप था जो कि इस मंदिर में स्थित गोविंद की प्रतिमा में है.

कालांतर में जब औरंगजेब का आतंक बढ़ा तो बहुत से हिंदू मंदिर तोड़े गए, तब यह 7 मंजिला मंदिर वृंदावन में था. फिर आमेर के राजा मानसिंह जी इस प्रतिमा को लेकर पहले गोवर्धन में विराजे, इसके बाद कामा में विराजे और उसके बाद फिर गोविंदपुर रोपाड़ा से आमेर होते हुए यहां विराजित की गई. अब यह प्रतिमा सूर्य महल में विराजमान है. यह एक मंदिर नहीं सूर्य महल है

पहली छवि का नाम मदन मोहन जी है जो राजस्थान के करौली में स्थापित है.

दूसरी छवि गोपीनाथ जी के नाम से जानी जाती है जो जयपुर की पुरानी बस्ती में स्थापित है.

तीसरी दिव्य छवि हैं गोविंद देवजी की.

इस प्रकार गोविंद देवजी की पवित्र छवि को ‘बज्रकृत’ कहा जाता है, जिसका अर्थ है वज्रनाभ द्वारा निर्मित.

श्रीकृष्ण के प्रपौत्र ने बनवाई थी मूर्तियां

ऐसी धार्मिक मान्यता है कि एक बार भगवान कृष्ण के प्रपौत्र ने अपनी दादी से भगवान कृष्ण के स्वरूप के बारे में पूछा और कहा कि आपने तो भगवान कृष्ण के दर्शन किए थे तो बताइए कि उनका स्वरूप कैसा था. भगवान कृष्ण के स्वरूप को जानने के लिए उन्होंने जिस काले पत्थर पर कृष्ण स्नान करते थे उस पत्थर से 3 मूर्तियों का निर्माण किया. पहली मूर्ति में भगवान कृष्ण के मुखारविंद की छवि आई जो आज भी जयपुर के गोविंद देव जी मंदिर में विराजमान है.

क्यों नहीं दिखते राधा रानी के पैर?

ऐसी मान्यता है कि राधा रानी के चरण कमल बहुत दुर्लभ हैं और श्री कृष्ण हमेशा उनके चरणों को अपने हृदय के पास रखते हैं, श्री कृष्ण जिनकी पूजा पूरी सृष्टि करती है, वे भी उनके चरणों की स्पर्श करते थे. राधा देवी के चरण बहुत दुर्लभ हैं और कोई भी व्यक्ति उनके चरणों को इतनी आसानी से प्राप्त नहीं कर सकता है, इसलिए उनके पैर हमेशा ढके रहते हैं. कुछ मंदिरों में जन्माष्टमी पर या राधाष्टमी पर उनके चरणों को कुछ समय के लिए खुला रखा जाता है.

मान्यता के अनुसार माता राधा के चरण बेहद पवित्र हैं और उनके दर्शन मात्र से जीवन सफल हो जाता है. भगवान कृष्ण ने स्वयं कहा है कि उन्हें स्वयं राधा रानी के चरण कमलों के दर्शन करने का सौभाग्य नहीं मिलता था. इसलिए, उनके चरण हमेशा ढके रहते हैं.

गोविंद देव जी मंदिर का इतिहास

श्री शिव राम गोस्वामी 15वीं शताब्दी में भगवान गोविंद देवजी के सेवाधिकारी थे. मुगल बादशाह औरंगजेब के शासनकाल में कई हिंदू मंदिरों को तोड़ दिया गया था. श्री शिव राम गोस्वामी ने पवित्र प्रतिमाओं को पहले कामा (भरतपुर), राधाकुंड और फिर गोविंदपुरा गांव (सांगानेर) में स्थानांतरित किया. तब आमेर शासकों ने पवित्र प्रतिमाओं को स्थानांतरित कर 1714 में दिव्य प्रतिमाएं आमेर घाटी के कनक वृंदावन पहुंचाई. आखिर में 1715 में उन्हें आमेर के जय निवास ले जाया गया.

मान्यता के अनुसार, सवाई जयसिंह पहले सूरज महल में रहते थे. एक दिन उन्हें स्वप्न आया कि उन्हें महल खाली कर देना चाहिए क्योंकि यह महल स्वयं श्री गोविंद देवजी के लिए है. इसके बाद वह स्थान छोड़कर चंद्रमहल चले गए. इस प्रकार, जयपुर की नींव रखे जाने से पहले ही भगवान गोविंद देव जी को सूरज महल में प्रतिष्ठित कर दिया गया था.

मध्य प्रदेश का वो मंदिर जहां अश्वत्थामा करते हैं शिव पूजा, जाने एक अद्भुत रहस्य

असीरगढ़ किले में स्थित शिव मंदिर की प्राचीन महिमा कई धार्मिक ग्रंथों में भी मिलती है। इतना ही नहीं इस प्राचीन शिव मंदिर में विराजमान भगवान भोलेनाथ के दर्शन करने दूर-दूर से श्रद्धालु असीरगढ़ के किले में पहुंचते हैं।

मंदिर से जुड़ी है कई धार्मिक मान्यताएं

मंदिर के आसपास रहने वाले लोग और निरंतर मंदिर में भगवान भोलेनाथ के दर्शन और पूजन करने के लिए आने वाले श्रद्धालुओं की मानें तो मंदिर से कई धार्मिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं, जहां कुछ लोगों की माने तो इस मंदिर का एक बड़ा रहस्य भी है, जहां इस मंदिर के रोजाना शाम को बंद होने के बावजूद जब सुबह मंदिर के द्वार खुलते हैं, तो शिवलिंग पर फूल और रोली चढ़ी हुई होती है। इतना ही नहीं शिव मंदिर में किसी के पूजन करने के प्रमाण भी मिलते हैं। बहरहाल, यह खोज का विषय है कि, आखिर मंदिर के कपाट बंद होने के बावजूद सुबह द्वार खुलते ही शिवलिंग पर फूल और रोली आखिर कहां से आकर चढ़ते हैं।

लगभग 5 हजार साल पुराना है शिव मंदिर

बुरहानपुर जिला मुख्यालय से लगभग 20 किलोमीटर की दूरी पर स्थित असीरगढ़ का किला बेहद ही प्राचीन है, लगभग 5 हजार साल पुराने इस किले में भगवान शिव का मंदिर भी स्थित है, जो इतिहासकारों की मानें तो लगभग 5 हजार साल पुराना ही है। इतना ही नहीं यह मंदिर महाभारत काल के पहले का बताया जाता है। यही कारण है कि, मान्यता अनुसार यहां सालों तक भटकने का श्राप पा चुके अश्वत्थामा रोजाना शिव आराधना के लिए मंदिर आते हैं, और वे ही फूल और रोली भगवान शिव को अर्पित करते हैं।

जिसने भी देखा वो हो गया पागल

किले के आसपास रहने वाले और निरंतर मंदिर आने वाले लोग अश्वत्थामा से जुड़ी कई कहानियां सुनाते हैं। ग्रामीणों की माने तो आज तक जिसने भी अश्वत्थामा देखा है, उसकी मानसिक स्थिति हमेशा के लिए खराब हो गई। इतना ही नहीं कुछ लोगों की माने ऐसी भी मान्यता है कि,भगवान शिव की पूजा करने से पहले अश्वत्थामा किले में स्थित तालाब में नहाते भी हैं। गांव के बुजुर्गों की माने तो कभी-कभी वे अपने मस्तक के घाव से बहते खून को रोकने के लिए हल्दी और तेल की मांग भी करते हैं। हालांकि, अभी तक इन मान्यताओं को लेकर किसी तरह की कोई पुष्टि नहीं हो सकी है।

कौन हैं महाभारत के अश्वत्थामा?

महाभारत युद्ध के बाद अश्वत्थामा ने पिता की मृत्यु का बदला लेने के लिए पांडव पुत्रों का वध कर दिया था। तब भगवान श्री कृष्ण ने परीक्षित की रक्षा कर दंड स्वरुप अश्वत्थामा के माथे पर लगी मणि निकालकर उन्हें तेजहीन कर दिया, और युगों-युगों तक भटकते रहने का श्राप दिया था। यही कारण है कि धार्मिक मान्यताओं के चलते आज भी अश्वत्थामा भटक रहे हैं, जहां असीरगढ़ स्थित किले में लोगों को उनकी मौजूदगी का अहसास होता है।

कुछ ऐसा ही किले का इतिहास

उत्तर दिशा में सतपुड़ा पहाड़ियों के शिखर पर समुद्र तल से लगभग 750 फीट की ऊंचाई पर असीरगढ़ का किला स्थित है। विशाल पहाड़ी पर स्थित इस किले की सुंदरता हर किसी को अपनी ओर आकर्षित करती है। पगडंडी और संकरे रास्तों से पर्यटक इस किले तक पहुंचते हैं, जहां इस किले पर पहुंचने के बाद आसपास का नजारा अत्यंत ही सुंदर नजर आता है। यही कारण है कि, दूर-दूर से लोग पर्यटन की दृष्टि से असीरगढ़ किले पर पहुंचते हैं। साथ ही यहां स्थित शिव मंदिर में दर्शन और पूजन के लिए भी लोग दूर-दूर से यहां आते हैं।

भगवान गणेश का चमत्कारी मंदिर, जहां पत्र लिखकर बताई जाती हैं समस्याएं,जाने

भगवान गणेश मंदिर में अपने पूरे परिवार के साथ विराजमान है,

मंदिर के बारे में सबसे खास बात है, यहां देश-दुनिया से आने वाले पत्र। कई जगहों से भक्त भगवान को पत्र लिखकर समस्याएं बताते हैं और उनका हल भगवान चुटकियों में कर देते हैं।

वहीं भगवान को भक्त निमंत्रण-आमंत्रण पत्र भी भेजते हैं। भक्तों के घर परिवार में शुभ-मांगलिक कार्य होने पर भगवान त्रिनेत्र गणेश जी को सबसे पहले याद किया जाता है। त्रिनेत्र गणेश मंदिर में सच्चे मन से मांगी गई मुराद जरुर पुरी होती है।

मंदिर के नाम और पते त्रिनेत्र गणेश मंदिर, रणथम्भौर दुर्ग, सवाई माधोपुर, राजस्थान के साथ पिन कोड नंबर 322021 लिखने पर यहां पत्र पहुंच जाता है।

रामायण में भी है मंदिर का उल्लेख

इस मंदिर के बारे में रामायण में भी उल्लेख मिलता है। रामायण काल और द्वापर युग में भी यह मंदिर था। कहा जाता है कि भगवान राम ने लंका की और कूच करते समय भगवान त्रिनेत्र गणेश जी का अभिषेक इसी रुप में किया था।

इसी तरह की और भी सच्ची कहानियां इस मंदिर के बारे में आज भी कही सुनी जाती है। कहा जाता है कि मंदिर का भव्य निर्माण महाराजा हमीर देव चौहान ने करवाया था। हमीरदेव और अलाउद्दीन खिलजी के बीच सन् 1299-1302 के बीच रणथम्भौर में युद्ध हुआ था।

उस समय दिल्ली के शासक अलाउद्दीन खिलजी के सैनिकों ने दुर्ग को चारों और से घेर लिया था। हालात ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे, इसी बीच महाराजा को भगवान गणेश ने स्वप्न में कहा कि मेरी पूजा करो सभी समस्याएं खत्म हो जाएंगी। इसके दूसरे दिन किले की दीवार पर त्रिनेत्र गणेश की प्रतिमा अंकित हो गई।

उसके बाद हमीरदेव ने भगवान गणेश द्वारा बताई जगह पर ही मंदिर बनवाया। इसके बाद कई सालों तक चला युद्ध समाप्त हो गया

कैसे जाएं त्रिनेत्र गणेश मंदिर

त्रिनेत्र गणेश मंदिर, रणथम्भौर दुर्ग, सवाई माधोपुर, राजस्थान जाने के लिए सड़क मार्ग आसान राह है। सवाई माधोपुर से 13 किलोमीटर दूरी पर ही त्रिनेत्र गणेश मंदिर का मंदिर है। मंदिर विश्व धरोहर में शामिल रणथम्भौर दुर्ग के अंदर बना हुआ है। यहां जाने के लिए रेल सेवा भी उपलब्ध होती है।

साथ ही यहां सड़क मार्ग से बस या निजी वाहन से जाया जा सकता है। हवाई सेवा का उपयोग करने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट जयपुर है। यहां से बस या निजी वाहन से जा सकते हैं।

रातों-रात बना मंदिर, ककनमठ मंदिर की अनोखी कहानी जो आपको कर देगी हैरान,जाने

जिस मंदिर के बारे हम आपके जिक्र कर रहे हैं उस मंदिर का नाम ककनमठ मंदिर है। यह मंदिर भारत के किसी और राज्य में नहीं बल्कि देश का दिल बोले जाने वाले राज्य यानी मध्य प्रदेश के मुरैना जिले के सिहोनियां कस्बे में मौजूद है।

जमीन से लगभग 115 फुट की ऊंचाई पर मौजूद यह मंदिर आसपास के लोगों के लिए किसी चमत्कार से कम नहीं है। एक पवित्र मंदिर होने के साथ-साथ एक रहस्यमयी मंदिर के रूप में भी विख्यात है।

इस रहस्यमयी का इतिहास बेहद ही दिलचस्प है। कई लोगों का मानना है कि ककनमठ मंदिर का निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ था और उस समय इसे कछवाहा वंश के राजा कीर्ति ने अपनी पत्नी के लिए बनवाया था।

कई लोगों का मानना है कि राजा कीर्ति की पत्नी ककनावती भगवान शिव की बड़ी भक्त थी और आसपास एक भी शिव मंदिर नहीं था इसलिए इसका निर्माण करवाया था।

ककनमठ मंदिर की रहस्यमयी कहानी के बारे में सुनकर कई लोग कुछ समय के लिए सोच में पड़ जाते हैं। हज़ार साल से भी प्राचीन इस मंदिर के बारे में कई लोगों का मानना है कि रातों-रात इस मंदिर का निर्माण भूतों ने कर दिया था!

वहीं कुछ लोगों का मानना है कि सुबह होते ही भूतों ने मंदिर का कुछ निर्माण करना छोड़ दिया जिसे बाद में रानी ने करवाया था। इसलिए मंदिर का कुछ हिस्सा बाद में बिना चूने और गारे से बना हुआ है

इस मंदिर को देखकर ऐसा लगता है कि यह कभी भी गिर सकता है, लेकिन हजारों वर्ष से लेकर आज भी यह मंदिर वैसे ही खड़ा है। आंधी-तूफान में भी मंदिर का कोई भी हिस्सा हिलता-डुलता नहीं है।

कई लोगों का मानना है कि वैज्ञानिकों ने भी इस मंदिर का निरीक्षण कर चुके हैं और उन्हें यह मालूम नहीं चल सका कि इसका निर्माण कैसे किया गया है। कहा जाता है कि यहां कई मूर्तियां टूटी हुई अवस्था में हैं। आपको बता दें कि इस मंदिर को मध्य प्रदेश का अजूबा मंदिर माना जाता है।

ककनमठ मंदिर कैसे पहुंचें

आपको बता दें कि इस अद्भुत मंदिर पहुंचना बेहद आसान है। इसके लिए आप मध्य प्रदेश के किसी भी शहर से आसानी से पहुंच सकते हैं। वैसे आपको बता दें कि यह मंदिर झांसी से लगभग 154 किमी की दूरी पर है। ग्वालियर से इस मंदिर की दूरी लगभग 40 किमी है। ऐसे में इन दोनों ही शहरों से आप आसानी से यहां पहुंच सकते हैं।