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एक ऐसे मंदिर जहां होता है असहाय पक्षियों का इलाज, जाने इनका इतिहास

दिल्ली में वैसे तो कई जैन मंदिर हैं, लेकिन भगवान महावीर जो जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर थे, उनकी प्रतिमा सहित प्रथम तीर्थंकर भगवान आदिनाथ की प्रतिमा इस मंदिर में स्थापित है, जिसके चलते यह खास बना हुआ है. ये मंदिर लाल पत्थरों से निर्मित होने की वजह से श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर के नाम से जाना जाता है. 1931 में जैन भिक्षु आचार्य शांतिसागर द्वारा श्री दिगंबर जैन लाल मंदिर का दौरा किया गया था, जो 8वीं शताब्दियों के बाद दिल्ली आने वाले पहले दिगंबर जैन पुजारी के रूप में जाने जाते थे और इसलिए इस शुभ घटना को चिह्नित करने के लिए मंदिर परिसर के भीतर एक स्मारक भी स्थापित किया गया था.

जैन मंदिर का इतिहास

ऐसा कहा जाता है कि शांहजहां ने कई अग्रवाल और जैन व्यापारियों को शहर में आने और बसने के लिए आमंत्रित किया और उन्हें दरीबा गली के आसपास चांदनी चौक के दक्षिण में कुछ जमीन दी है. इतिहास के अनुसार मुगल सेना के एक जैन अधिकारी ने व्यक्तिगत पूजा के लिए अपने तंबू में एक तीर्थंकर की मूर्ति रखी थी. वंही इस तम्बू ने धीरे-धीरे अन्य जैन सैनिकों और अधिकारियों को आकर्षित करना शुरू कर दिया था. इसके बाद 1656 में यहां एक जैन मंदिर का निर्माण किया गया था. उस समय मंदिर को उर्दू मंदिर या लश्करी मंदिर के रूप में जाना जाता था.

मंदिर से कई रोचक कहानियां

ऐसी ही एक कहानी के अनुसार औरंगजेब ने एक बार मंदिर में सभी वाद्ययंत्रों पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था. बावजूद इसके मंदिर से ढोल की आवाज सुनाई देती थी, जिसके बाद औरंगजेब स्वयं चमत्कार देखने के लिए मंदिर आया था और अंत में प्रतिबंध हटा लिया गया था.

इस मंदिर के सामने एक मनस्तंभ खड़ा किया गया है, मंदिर का मुख्य भक्ति क्षेत्र पहली मंजिल पर है. यह मंदिर के छोटे से प्रांगण को पार करते हुए छत पर चढकर पहुंचा जाता है, जो एक कोलोनेड से घिरा हुआ है. इस क्षेत्र में कई मंदिर हैं, लेकिन मुख्य मंदिर भगवान महावीर का है, जो वर्तमान अवतारपाणि युग के 24वें और अंतिम तीर्थंकर हैं.

पक्षियों के लिए चैरिटेबल हॉस्पिटल

इस मंदिर की कई खास विशेषताएं होने के साथ-साथ यह एक खास विशेषता भी है कि यह मंदिर पक्षियों के लिए एक चैरिटेबल हॉस्पिटल भी चलाता है, जहां असहाय पक्षियों का इलाज किया जाता है.

दिवाली पर पटाखे जलाने की शुरुआत किसने और कब की थी और इसका इतिहास क्या है, आइए जानते हैं

भारत में पटाखे जलाने की शुरुआत इस्लामी साम्राज्यों के उदय के साथ-साथ हुई थी. समय रेखा को संक्षिप्त करने के लिए बारूद की उत्पत्ति 9वीं शताब्दी में चीन में हुई थी. पटाखे बनाने की विद्या में इसका उपयोग कुछ समय बाद शुरू हुआ. 

लेकिन मंगोल चीन पर अपने हमलों के दौरान बारूद के उपयोग से परिचित हो गए. इस तकनीक को मध्य एशिया, पश्चिम एशिया में वर्धमान भूमि और सुदूर पूर्व में कोरिया और जापान तक ले गए.

दिल्ली में पहली बार पटाखों का आगमन

जब मंगोलों ने भारत में प्रवेश करना शुरू किया था तो वह इस ज्वलंत तकनीक को अपने साथ लाए थे. फिर 13वीं शताब्दी के मध्य में उन्होंने इसे दिल्ली सल्तनत में पेश किया था. तो, दिल्ली में लोगों ने पहली बार पटाखे जलाते हुए कब देखे मध्ययुगीन इतिहासकार फरिश्ता ने अपनी पुस्तक तारिख-ए-फरिश्ता (जिसे गुलशन-ए-इब्राहिमी भी कहा जाता है) उसमें मार्च 1258 में घटी एक घटना का जिक्र करते हुए लिखा है. पहली बार पटाखों का इस्तेमाल मंगोल शासक हुलगु खान के दूत के स्वागत के लिए किया गया था. यह दिल्ली में सुल्तान नसीरुद्दीन महमूद के दरबार में हुआ था और इस अवसर के लिए 3,000 कार्ट लोड पटाखे (जिसे तब फारसी में सेह हजार अररादा-ए-आतिशबाजी भी कहा जाता था) लाए गए थे.

ईस्ट इंडिया कंपनी के लेफ्टिनेंट कर्नल जो बाद में जाकर जनरल भी बने जॉन ब्रिग्स, जिन्होंने इस पुस्तक का अंग्रेजी में अनुवाद किया था. यह समझाने में असमर्थ थे कि फरिश्ता का आतिशबाजी से क्या मतलब है और उन्होंने फिर यह अनुमान लगाया कि यह मुहम्मद बिन कासिम और महमूद गजनी द्वारा इस्तेमाल की गई ग्रीक आग होगी. लेकिन प्रोफेसर इक़्तिदार आलम खान ने भारत में बारूद के उपयोग पर अपने ऐतिहासिक काम में तर्क दिया है कि इस आतिशबाजी लिखने से फरिश्ता का मतलब असली पटाखे जलाने वाला बारूद था.

तुगलक के दौर से जलाए जा रहे पटाखे

सुल्तान फिरोज शाह तुगलक के शासनकाल के दौरान भी दिल्ली में पटाखे जलाने का प्रदर्शन किया जा रहा था. तारीख-ए-फिरोजशाही में विशेष रूप से शब-ए-बारात पर शाम को पटाखे जलाने के बारे में लिखा गया है. खान के अनुसार 15वीं सदी की शुरुआत तक बारूद की तकनीक बमबार्ड ले जाने वाले चीनी व्यापारी जहाजों के माध्यम से दक्षिण भारत तक पहुंच गई थी. जमोरिन और अन्य लोगों ने इसका उपयोग पटाखे बनाने की विद्या के लिए करना शुरू कर दिया. हालांकि, युद्ध के हथियार के रूप में अभी भी इसका इस्तेमाल नहीं किया गया था. फारसी राजदूत अब्द अल-रज्जाक के अनुसार, 1443-44 में विजयनगर के दरबार में बारूद मौजूद था, जो महानवमी या संभवतः नए साल पर पटाखे जलाने के लिए इस्तेमाल किया जाता था

मुगलों ने की दिवाली पर पटाखों की शुरुआत

मुगलों से पहले भारत आये पुर्तगाली भी पटाखों का इस्तेमाल किया करते थे. बीजापुर के अली आदिल शाह की 1570 की प्रमुख कृति नुजुम उल-उलूम में पटाखों पर एक पूरा अध्याय भी है. डॉ. कैथरीन बटलर स्कोफील्ड जो किंग्स कॉलेज, लंदन में पढ़ाती हैं. उनका कहना है कि मुगलों और उनके राजपूत समकालीनों ने बड़े पैमाने पर पटाखों का इस्तेमाल किया है. विशेष रूप से वर्ष के अंधेरे महीनों में देर से शरद ऋतु और सर्दियों में. शाहजहां और औरंगजेब के शासनकाल के इतिहास में शादियों, जन्मदिन के वजन (तुलादान), राज्याभिषेक (औरंगजेब सहित) और शब-ए-बारात जैसे धार्मिक त्योहारों के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले पटाखों का वर्णन भी हमें इतिहास में मिलता है.

महामहिम अकबर ने कही ये बात

दीवाली के प्रति मुगलों के रवैये का अंदाजा इतिहासकार और मुगल साम्राज्य के भव्य वजीर अबुल फजलद्वारा आईन-ए-अकबरी के पहले खंड में लिखे गए शब्दों से लगाया जा सकता है. (अकबर) का कहना है कि अग्नि और प्रकाश की पूजा करना एक धार्मिक कर्तव्य और दैवीय स्तुति है. मूर्खतापूर्ण, अज्ञानी लोग इसे मानते हैं सर्वशक्तिमान की विस्मृति और अग्नि पूजा. तारीख तय करना कठिन है, लेकिन इतिहासकार इस बात से सहमत हैं कि दिवाली को जिस रूप में हम आज पटाखों के साथ मनाते हैं. उसकी शुरुआत मुगल काल में हुई थी.

18वीं-19वीं शताब्दी में हुआ शानदार आयोजन

18वीं और 19वीं शताब्दी में, अवध के नवाब वज़ीर और बंगाल के नवाब निजाम ने दिवाली और दुर्गा पूजा दोनों को संरक्षण दिया और शानदार पटाखों के प्रदर्शन के साथ दिवाली का आयोजन किया था. स्कोफील्ड कहती हैं कि आतिशबाजी 18वीं सदी के अंत से दिवाली में अंतर्निहित हो गई थी. दिवाली पर आतिशबाजी की लखनऊ नवाबी पेंटिंग और मुर्शिदाबाद और कलकत्ता में दुर्गा पूजा में आतिशबाजी की यूरोपीय पेंटिंग आज भी मौजूद है.

कैसे हुई थी शाहजहां और मुमताज की पहली मुलाकात और क्या थी दोनों की निकाह की वजह,आइए जानते है

ये तो आप जानते हैं कि शाहजहां बेगम मुमताज महल से काफी ज्यादा प्रेम करते थे. जब मुमताज का निधन हुआ तो शाहजहां ने उनकी याद में ताजमहल बनवाया, जो विश्व धरोहर है और उसका नाम दुनिया के 7 अजूबों में गिना जाता है. कहा जाता है कि शाहजहां ने कई शादियां की थीं, लेकिन शाहजहां सबसे ज्यादा प्यार मुमताज से करते थे. मुमताज की मौत के बाद के काफी किस्से तो आप जानते होंगे, लेकिन क्या आप उनके निकाह के बारे में जानते हैं?

कहां हुई थी पहली मुलाकात?

बताया जाता है कि शाहजहां और मुमताज महल की पहली मुलाकात मीना बाजार में हुई थी, जब नवरोज के चलते इसे सजाया गया था. उस वक्त शाहजहां सिर्फ शहजादे थे और खुर्रम के नाम से जाने जाते थे. उस वक्त उन्होंने पहली बार मुमताज को देखा था, जब वो कुछ कीमती पत्थर और रेशम के कपड़े बेच रही थीं. उस वक्त शाहजहां ने मुमताज को पसंद कर लिया था और एक कीमती पत्थर को आसानी से खरीदते हुए अपनी दिल की बात मुमताज तक पहुंचाई और उनकी कहानी आगे बढ़ी. उस वक्त मुमताज का नाम अर्जुमंद था.

कई साल बाद हुई थी शादी

कहा जाता है कि उनकी मंगनी तो 1607 में हो गई थी, लेकिन शादी की सही तारीख ना निकल पाने की वजह से दोनों को 5 साल इंतजार करना पड़ा. इसके बाद 1612 में दोनों का निकाह हुआ. उस वक्त शाहजहां और मुमताज की काफी शाही शादी हुई थी. खास बात ये है कि जब मुमताज से शादी फिक्स हो गई और पांच साल का इंतजार करना पड़ा तो उस बीच भी शाहजहां ने शादी कर ली थी.

शाहजहां ने उस पांच साल के पीरियड में ही साल 1610 में अपनी पहली पत्नी शहज़ादी कंधारी बेगम से शादी कर ली थी. इसके बाद उन्होंने मुमताज से निकाह किया और इसके बाद भी शादियों का सिलसिला जारी रहा.

निकाह से जुड़ी कहानी…

जब शाहजहां और मुमताज का निकाह हुआ, उस वक्त शाहजहां की उम्र बीस साल एक महीने आठ दिन थी और बेगम की उम्र उन्नीस साल और एक दिन थी. शादी समारोह एतेमाद-उद-दौला मिर्जा गयास के घर पर हुआ था और उससे जुड़ी सारी रस्में वहीं निभाई गईं. जहांगीर ने खुद दूल्हे की पगड़ी पर मोतियों का हार बांधा. शादी में जहांगीर ने मेहर में 5 लाख रुपये दिए थे. शादी के बाद शहजादे को शाहजहां की उपाधि मिली और अर्जुमंद, मुमताज महल बनी. शाहजहां अपनी बेगम को हर साल 6 लाख रुपये दिया करते थे, जो उस वक्त के हिसाब से काफी ज्यादा रकम थी.

शाहजहां और मुमताज का वैवाहिक ज्यादा दिन तक नहीं चला. शादी के कुछ साल बाद ही मुमताज का निधन हो गया था. दोनों करीब 19 साल तक साथ रहे और 19 साल के इस वैवाहिक सफर में उनके 14 बच्चे हुए, जिनमें 7 की तो जन्म के वक्त या कम उम्र में मौत हो गई थी. वहीं, 14वें बच्चे के जन्म के दौरान ही मुमताज का इंतकाल हो गया था, जब उन्होंने बेटी गौहरा बेगम को जन्म दिया था.

आइए जानते है कैसे एक मजाक ने बिगाड़ दिया सब कुछ,खत्म हो गई मूमल-महेंद्र की लव स्टोरी

मूमल राजस्थान के जैसलमेर के लौद्रवा की रहने वाली थी, वहीं महेंद्र अमरकोट (पाकिस्तान) के रहने वाले थे. लौद्रवा जैसलमेर के पास बहने वाली काक नदी के पास बसा हुआ है और यहीं राजकुमारी मूमल का महल भी था, जिसे इकथंभीया-महल के नाम से जाना जाता है. मूमल महल के मेड़ी पर रहती थी. राजस्थान में छत पर बने कमरों को मेड़ी कहा जाता है. कहते है कि इस महल के ऊपर जाने के लिए कई खुफिए रास्ते थे और यह महल एक रहस्यमई जगह थी. इस महल में अजगर, शेर, सांप जैसे डरावने जानवर रहते थे, जिन्हें देख हर कोई डर जाता था और लोग इस महल में जाने से डरते थे. 

राजकुमारी ने ली प्रतीज्ञा

कहते है कि मूमल ने सभा में यह ऐलान किया था कि जो राजा इन सभी डरावने जानवरों से लड़कर मुझ तक पहुंचगे, मैं उसी के साथ शादी करूंगी. वहीं, राजकुमारी मूमल इतनी खूबसूरत थी कि उनकी खूबसूरते के चर्चें गुजरात, मारवाड़, ईरान, ईराक और सिंध तक फैले हुए थे. मिली जानकरी के अनुसार, कहा जाता है कई राजा यहां मूमल से मिलने आए, लेकिन कोई भी राजकुमारी तक पहुंच नहीं पाता, वहीं, अगर पहुंच जाता भी तो फिर वह राजकुमारी के सवालों के जवाब नहीं दे पाता था.

राजा को शिकार करने का बड़ा शौक था, महेंद्र अपने साले हमीर के साथ अमरकोट के पास शिकार करते थे. इसी के चलते एक दिन राजा महेंद्र शिकार करते- करते काक नदी के पास बसे लौद्रवा में पहुंच गए. वहीं, महेंद्र ने एक सुंदर बगीचा देखा और इस बाग में कई तरह के फूल, फलदार पेड़ आदि के बीच एक महल दिखाई दिया. महेंद्र को महल देखने में बड़ा सुंदर और अजीब लगा. इस महल के ऊपर कई खतरनाक पशुओं के चित्र बने हुए थे. 

वहीं, राजा महेंद्र महल को देखने के लिए बगीचे में अंदर आ गए, वहां उनको एक दासी दिखाई दी. दासी ने महेंद्र को रूकने के लिए कहा, वहीं महेंद्र ने कहा कि हम शिकार करते हुए यहां पहुंच गए हैं और थक चुके है इसलिए आराम करना चाहते हैं. वहीं, दासी के महेंद्र को राजकुमारी मूमल के बारे में बताया और कहा कि वह बहुत सुंदर हैं और उनकी खूबसूरती के चर्चे पूरे विश्व में प्रसिद्ध हैं. इसके बाद दासी ने महेंद्र से पूछा कि क्या आपने उनका नाम सुना है? इस पर राजा ने जबाव देते हुए कहा कि नहीं, मैंने नहीं सुना है. 

इस पर दासी ने कहा कि ये महल और बगीचा राजकुमारी मूमल का ही है और वह यहां अपनी सहेलियों के साथ रहती हैं. साथ हीं दासी ने राजा को बताया कि जो व्यक्ति राजकुमारी तक पहुंचेगा और उनके सवालों का जवाब देगा, राजकुमारी उससे शादी करेंगी. वहीं, ये सब सुनने के बाद राजा महेंद्र राजकुमारी मूमल के बारे में और जानने के लिए उत्सुक हो गए.  

फिर क्या था यही से मूमल-महेंद्र की लव स्टोरी शुरू हो जाती है. वहीं, इसके बाद दासी राजकुमारी मूमल को राजा महेंद्र के बारे में बताती है और राजकुमारी उसे कहती है कि वे हमारे मेहमान है और उनके रहने का इंतजाम किया जाए. राजा महेंद्र वहां रूक जाते हैं और एक सेवक जब उनके पास भोजन लेकर आता है तो उससे राजा ने राजकुमारी मुमल के बारे में जानना चाहा. तब सेवक कहता है कि अगर मैं आपको राजकुमारी मूमल के बारे में बताने लग गया तो सुबह से शाम हो जाएगी. राजकुमारी मूमल इतनी सुंदर हैं कि उनकी खूबसूरती को शब्दों में बयां नहीं किया जा सकता है. वह इतनी सुंदर हैं कि जब वह शीशे के सामने जाती हैं, तो शीशा टूट जाता है. वहीं, वह दूध से नहाती है और तन पर चंदन का लेप लगाती हैं. वह दुनिया में सबसे सुंदर और अलग हैं.

इसके बाद सेवक कहता है कि उन्हें देखने के लिए दूर-दूर से प्रसिद्ध राजा, महाराजा और कई राजकुमार आए, लेकिन राजकुमारी ने उनकी तरफ एक नजर भी नहीं देखा.  

सेवक ने कहा कि राजकुमारी उस राजकुमार से शादी करेगी जो उसका दिल जीत लेगा, वरना वह जीवन भर शादी नहीं करेगी. यह सब सुनने के बाद राजा महेंद्र राजकुमारी से मिलने के लिए उत्सुक हो गए और उन्होंने राजकुमारी से मिलने के लिए संदेश भिजवाया. वहीं, राजकुमारी ने महेंद्र को ऊपर बुलाया और राजा महेंद्र मूमल को देखते ही स्तब्ध रह गए. साथ ही, मूमल से नजरें हटा नहीं पाए. दूसरी ओर राजकुमारी भी महेंद्र के चेहरे के तेज और आंखों को देखती रह गई.

वहीं, मूमल ने राजा महेंद्र का स्वागत किया. दोनों साथ रात भर बैठे रहे और बातें करते रहे. इसी के चलते दोनों को पहली नजर में एक-दूसरे से प्यार हो गया था. वहीं, दोनों रातभर बाते करते रहे और न जाने कब सुबह हो गई, लेकिन न तो राजा वहां से जाना चाहते थे और न ही मूमल चाहती थी कि महेंद्र वहां से जाएं. आखिर राजा को न चाहते हुए भी वहां से जाना पड़ा, लेकिन महेंद्र ने मूमल से वादा किया कि वह जल्द ही वापस मिलने आएंगे. राजा महेंद्र राजकुमारी को देखने के बाद सब कुछ भूल गए और उनके दिमाग और दिल में केवल मूमल बस गई. इसी के चलते राजा ने मन में ठान लिया कि वह मूमल से शादी करके उसे अपने साथ अमरकोट लेकर आऊंगा. बता दें कि राजा महेंद्र पहले से शादीशुदा थे और उनकी पहले से ही 7 पत्नियां थी. 

इसी के चलते जब राजा अमरकोट पहुंचे तो उन्होंने राजकुमारी मूमल से मिलने के लिए एक प्लान बनाया. महेंद्र के यहां एक रामू रायका नामक एक व्यक्ति रहता था जो ऊंट चराने का काम करता था. राजा उसके पास गए और बोले कि मुझे एक ऐसा ऊंट चाहिए, जो रात को मुझे लौद्रवा ले जाकर सुबह अमरकोट वापस ले आए. इसे सुन रामू रायका ने कहा कि एक चीतल नाम का एक ऊंट है, जो बहुत तेज दौड़ता है, जो आपको वह आपको रात को लौद्रवा ले जाकर सुबह अमरकोट वापस लेकर आ जाएगा. 

शाम को रामू रायका ऊंट को सजाकर महेंद्र के पास ले गए और राजा उस पर सवार होकर राजकुमारी मूमल से मिलने पहुंच गए और सुबह अमरकोट लौट आए. धीरे- धीरे महेंद्र और मूमल की प्रेम कहानी परवान चढ़ने लगी और यह मिलने वाला सिलसिला बहुत दिन तक चला. वहीं, कुछ दिन बाद इस बारे में राजा की सातों पत्नियों को इस बारे में पता चला. उन्होंने राजा महेंद्र को रोकने के लिए एक षड्यंत्र रचा और ऊंट चीतल के पैर तुड़वा दिए, ताकि राजा मूमल से मिलने ना जा सकें, लेकिन कहते है न सच्चे प्यार कभी खत्म नहीं होता है, महेंद्र दूसरा ऊंट लेकर राजकुमारी मूमल से मिलने के लिए लौद्रवा पहुंचे, लेकिन उन्हें पहुंचने में बहुत देर हो गई थी और राजकुमारी मूमल उनका इंतजार करते करते सो गई.

लव स्टोरी में आया भयानक मोड़

इसी के चलते, अब महेंद्र मूमल की लव स्टोरी में एक मोड़ आता है. मूमल के साथ उनकी बहन सुमल भी थी, वह उस दिन खेलती- खेलती साथ सो गई. उस दिन मूमल की बहन ने पुरुषों के कपडे़ पहन रखे थे. वहीं, जब राजा वहां पहुंचा और उसने ये देखा तो महेंद्र ने सोचा कि मूमल के साथ यह पुरुष कौन है? ये देख राजा वापस लौट गया और महेंद्र का चाबुक टूट कर वही गिर गया. राजा ने सोचा कि मूमल किसी और से भी प्रेम करती है. सुबह मूमल उठी और उसने वह चाबुक देखा और समझ गई कि यहां राजा आए थे और उन्हें बिना मिले राजा महेंद्र के लौट जाने की वजह भी उन्हें पता चल गई. 

सेवक ने गाना गाकर पहुंचाया राजकुमारी का संदेश 

इसी के चलते राजकुमारी कई दिनों तक राजा का इंतजार करती रही लेकिन महेंद्र नहीं आए. राजकुमारी ने खाना छोड़ दिया, श्रृंगार करना छोड़ दिया लेकिन राजा नहीं लौटे. दूसरी ओर महेंद्र को यकीन नहीं हो रहा था कि आखिर मूमल ऐसा कैसे कर सकती है? राजकुमारी के राजा को कई खत लिखे, लेकिन महेंद्र तक चिट्ठी पहुंचने से पहले उसकी सातों पत्नियां उन्हें फाड़ देती, जिसके बारे में राजा को भनक तक नहीं लगती. फिर राजकुमारी मूमल ने महेंद्र से मिलने के लिए अपने के सेवक को भेजा, लेकिन अमरकोट में उसे राजा से मिलने दिया गया . वहीं सेवक ने हार नहीं मानी और छुपकर बैठ गया और रात को वह महेंद्र के पास पहुंच गया. उस समय राजा सो रहे थे तभी वह सेवक गाना गुनगुनाने लगा.

तुम्हारे बिना सोढ राण, यह धरती धुंधली, तेरी मूमल राजकुमारी है उदास,मूमल के बुलावे पर असल प्रियतम महेंद्र अब तो घर आव

(इस पंक्ति का मतलब यह है कि राजा महेंद्र तुम्हारे बिना वह धरती धुंधली है और तुम्हारी मूमल उदास है. तुम्हें तुम्हारी मूमल बुला रही है, कि मेरी प्रियतम (लवर) अब तो घर आ जाओ.)

जब राजा ने ये सुना तो वह बाहर आए. वहीं, महेंद्र ने सेवक को सारी बाते बताई और सेवक राजकुमारी मूमल के पास राजा को संदेशा लेकर वापस पहुंचा. यह सुनकर मूमल के पैरों तले जमीन खिसक गई और उसके समझ में आ गया कि आखिर गलतफहमी की वजह क्या थी.

पलके बिछाए कर रही प्रेमिका अपने प्रेम का इंतजार

इसके बाद राजकुमारी ने दुबारा राजा के पास संदेश भिजवाया कि वह राजा से मिलने अमरकोट आ रही हैं. वहीं, जब ये सब महेंद्र को पता लगा तो उन्होंने सोचा कि राजकुमारी मूमल निर्दोष है तभी वह मुझसे मिलना चाहती हैं. राजा ने फिर संदेश भेजा कि मूमल को यहां पर आने की जरूरत नहीं है, वह खुद उनसे मिलने आ रहे हैं. राजकुमारी मूमल ये सुनकर वह बहुत खुश हुई और राजा महेंद्र का इंतजार करती रही. 

प्रेम कहानी का दुखद अंत

वहीं, राजा ने सोचा क्यों न मूमल के प्रेम की परीक्षा ली जाए? तब राजा ने लौद्रवा पहुंचकर एक संदेश मुमल के पास भेजा कि महेंद्र को सांप ने डस लिया है और उनकी मृत्यु हो गई. यह संदेश राजकुमारी तक पहुंचा और यह सब सुनने के बाद मूमल वही गिर पड़ी. साथ हीं, कई बार महेंद्र-महेंद्र का नाम पुकारने के बाद उन्होंने प्राण त्याग दिए. 

दूसरी ओर यह खबर राजा तक पहुंची कि महेंद्र के वियोग में राजकुमारी मूमल ने प्राण त्याग दिए, तो राजा भी रेत के टीलों में रोते-रोते मूमल मूमल करते रहे और उन्होंने भी प्राण त्याग दिए. इस तरह इस अनोखी प्रेम कहानी का बेहद दुखद अंत हुआ, लेकिन किसी ने सोचा नहीं था कि मूमल-महेंद्र के मिले बिना इस लव स्टोरी का अंत हो जाएगा.

बिहार के मोकामा में स्थित परशुराम मंदिर से जुड़े कई रोचक कहानी, आइए जानते है

भगवान परशुराम के भारत में बहुत कम ही मंदिर है। इनमें से एक बिहार के मोकामा में स्थित है। यह मंदिर सैकड़ों साल पुराना माना जाता है। स्थानिय लोगों का मानना है कि मोकामा में परशुराम मंदिर तपस्या करने आए थे और अनादिकाल से वो यहीं हैं। इस मंदिर से जुड़े कई रोचक कहानी जानते है 

मुगल राजा ने ली थी परशुराम जी की परीक्षा

मोकामा में स्थित परशुराम मंदिर के बारे में एक कहानी वहां के स्थानीय लोगों में काफी प्रचलित है। इस कहानी के अनुसार एक बार एक मुगल राजा ने मंदिर के पास से गुजरते हुए ढोल की आवाज सुनी, उस समय मोकामा के परशुराम मंदिर में भक्त बाबा की पूजा में लीन थे। 

आवाज सुनते ही वह राजा मंदिर में गया और पूजा को आडंबर बताया।

 मंदिर के पुजारी ने राजा को समझाया कि, आप हमें पूजा करने दें और जो काम आप करने आए हैं वो करें। पुजारी की बात से क्रोधित हुए राजा ने एक गाय को मंदिर के प्रांगण में ही मार दिया और कहा कि, अगर सच में ही तुम्हारा भगवान है तो वो इस गाय को जिंदा करके दिखाए।

इसके बाद मंत्रों का उच्चारण करते हुए, पुजारी ने गाय पर पानी छिड़का और गाय जिंदा हो गई। पास ही खड़ा गाय का बछड़ा गाय का दूध पीने लगा। ये देख वो मुगल राजा चकित हो गया और वहां से जाने लगा।

उसे रोककर पुजारी ने कहा कि तुमने भगवान परशुराम की परीक्षा ली है इसलिए अब इसका फल भी सुनते जाओ। पुजारी ने राजा से कहा कि, जहां से तुम आये हो वह जगह नष्ट हो जाएगी। स्थानीय लोगों की मान्यता है कि, ऐसा हुआ भी। तब से लोगों की आस्था भगवान परशुराम में और भी बढ़ गई। 

रात में नहीं है मंदिर में रुकने की आज्ञा

ऐसा माना जाता है कि, मोकामा के इस परशुराम मंदिर में किसी को भी रात के समय रुकने की इजाजत नहीं है। मान्यताओं के अनुसार रात के समय परशुराम जी मंदिर के आसपास विचरण करते हैं।

रात के समय अगर इस मंदिर में कोई जाता है तो वो मानसिक रूप से विक्षिप्त हो जाता है या पूरी तरह से पागल हो जाता है, क्योंकि उसे ऐसे अनुभव होते हैं जिनकी वो कल्पना भी नहीं कर सकता। यही वजह है कि किसी को भी यहां रात के समय नहीं जाने दिया जाता। 

पेड़ से जुड़ी मान्यता

परशुराम जी के इस मंदिर में एक पीपल का पेड़ स्थित है। इस पेड़ को लेकर कहा जाता है कि, परशुराम जी तब तक मोकामा के इस मंदिर में हैं जब तक पीपल का ये पेड़ हरा है। स्थानीय लोग मानते हैं कि इस पेड़ के सूखने के बाद बाबा परशुराम भी यहां से चले जाएंगे। 

अक्षय तृतीया के दिन होता है भव्य महोत्सव

सच्चे मन से जो भी भक्त परशुराम जी के इस मंदिर में जाता है उसकी सारी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। भारत ही नहीं विदेशों से भी यहां भक्त परशुराम जी के दर्शन करने आते हैं। अक्षय तृतीया के दिन भगवान परशुराम का जन्मोत्सव यहां धूमधाम से मनाया जाता है। परशुराम महोत्सव को बिहार सरकार के द्वारा राजकीय महोत्सव का दर्जा भी प्राप्त है। परशुराम जन्मोत्सव की शुरुआत अक्षय तृतीया के दिन से होती है और 7 दिनों तक यह चलता है।

आइए जानते हैं बाजीराव-मस्तानी की प्रेम कहानी और इनका इतिहास

बाजीराव मस्तानी की प्रेम कथा पुरे जगत में फेमस है. 1700 के दशक में बाजीराव नाम के मराठा में पेशवा हुआ करते थे, जिन्होंने अपने राज में कभी भी कोई लड़ाई नहीं हारी. 

वे एक कुशल तलवारवाज, घुड़सवार थे, जो अपने धर्म की रक्षा के लिए मरमिटने को भी तैयार थे. बाजीराव मस्तानी की प्रेम कथा को संजयलीला भंसाली की द्वारा हमने करीब से जाना, इसके बाद ही ज्यादातर लोग इनके बारे में जान पाए है. बाजीराव कुशल शासक तो थे, लेकिन उन्होंने अपने जीवन के सिर्फ 20 साल ही पेशवा के रूप में कार्य किया. ये अपनी प्रेमकथा के लिए ज्यादा प्रचलित रहे. तो चलिए आज बाजीराव मस्तानी के बारे में करीब से जानते है, वो कौन थे? कैसे इनकी प्रेम कहानी शुरू हुई व उसका अंत हुआ.

कौन थे बाजीराव

बाजीराव चौथे मराठा सम्राट छत्रपति शाहू राजे भोसले के पेशवा (प्रधानमंत्री) थे. 1720 से अपनी मृत्यु तक उन्होंने ये कार्यभार संभाला हुआ था. ये बाजीराव बल्लाल नाम से भी जाने जाते है. बाजीराव ने मराठा साम्राज्य को पुरे देश में फैलाना चाहा, उत्तर में ये बहुत हद तक सफल भी रहे. अपने 20 साल के कार्यकाल में बाजीराव ने 44 युद्ध किये, जिसमें से एक भी ये नहीं हारे. ये अपने आप में किसी रिकॉर्ड से कम नहीं है. बाजीराव की तारीफ ब्रिटिश अफसर भी किया करते थे, उनके अनुसार बाजीराव एक कुशल सेनापति व महान घुड़सवार था.

बाजीराव का जन्म व परिवार

बाजीराव का जन्म ब्राह्मण भात परिवार में हुआ था. इनके पिता बालाजी विश्वनाथ छत्रपति शाहू के पहले पेशवा थे. बाजीराव के एक छोटे भाई चिमाजी अप्पा थे. ब्राह्मण परिवार से होने के कारण बाजीराव हमेशा से हिन्दू धर्म को बहुत तवच्चो देते थे. बाजीराव अपने पिता के बहुत करीब थे, उन्हीं से इन्होने सारी शिक्षा ग्रहण की थी. 1720 में बाजीराव के पिता की मौत के बाद शाहू जी ने 20 साल के बाजीराव को मराठा का पेशवा बना दिया था.

एक पेशवा के रूप में जीवन

जब बाजीराव पेशवा बने तब छत्रपति शाहू नाममात्र के शासक थे, वे ज्यादातर अपने महल सतारा में ही रहा करते थे. मराठा साम्राज्य चलता छत्रपति शाहू जी के नाम पर था, लेकिन इसे चलाने वाले ताकतवर हाथ पेशवा के ही होते थे. बाजीराव एक बहुत अच्छे योद्धा होने के साथ साथ, अच्छे सेनापति भी थे. मराठों के पास एक विशाल सेना थी, जिसे अपनी सूझबूझ से बाजीराव चलाते थे. यही वजह है, थोड़े ही समय में उनका नाम पुरे देश में फ़ैल गया. भारत के उत्तर में उन्होंने जल्द ही मराठा का झंडा लहरा दिया. उनका सपना पुरे भारतवर्ष को हिन्दू राष्ट्र बनाने का था. बाजीराव ने बहुत कम समय में लगभग आधे भारत को जीत लिया था. उनका सपना था दिल्ली में भी मराठा का ध्वज लहराए. उत्तर से दक्षिण व पूर्व से पश्चिम हर तरफ उनके बहादुरी के चर्चे थे. दिल्ली में उस समय अकबर का राज था लेकिन अकबर भी बाजीराव की बहादुरी, साहस व युध्य निपुर्न्ता को मानता था

कौन थी मस्तानी

मस्तानी हिन्दू महराजा छत्रसाल बुंदेला की बेटी थी. व इनकी माँ एक मुस्लिम नाचने वाली थी, जिनका नाम रूहानी बाई था. इनका जन्म मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले के एक गाँव में हुआ था. मस्तानी बेहद खूबसूरत थी, जो तलवारवाजी, घुड़सवारी, मार्शल आर्ट व घर के सभी कामकाज में निपुड थी. कला, साहित्य व युद्ध में इन्हें महारत हासिल थी. मस्तानी बहुत अच्छा नाचती व गाती भी थी. मस्तानी राजपूत घराने में जन्मी थी, लेकिन अपनी माँ की तरह उन्होंने मुस्लिम धर्म को ही अपनाया था.

बाजीराव-मस्तानी की प्रेम कहानी

मस्तानी के पिता छत्रसाल पन्ना राज के बुंदेलखंड में शासन करते थे. 1728 के समय मुगलों ने उन पर आक्रमण कर दिया. तब राजा ने अपनी बेटी के द्वारा बाजीराव के पास मदद के लिए सन्देश भेजा. यहाँ बाजीराव मस्तानी की पहली मुलाकात होती है. उस समय बाजीराव मध्यप्रदेश के बुंदेलखंड प्रान्त में ही थे. बाजीराव की मदद से छत्रसाल मुगलों को हरा देते है. मस्तानी बाजीराव की युद्ध कुशल को देख बहुत प्रभावित होती है. छत्रसाल बाजीराव को इनाम के तौर पर अपनी बेटी मस्तानी व अपने राज्य के कुछ हिस्से देते है. बाजीराव मस्तानी की सुन्दरता व निडरता को देख प्रभावित होते है, और उसे अपना दिल दे बैठते है. जिसके बाद बाजीराव उनसे शादी कर अपनी दूसरी पत्नी बना लेते है.

बाजीराव की पहली पत्नी काशीबाई थी, जिनसे उनकी शादी 11 साल की उम्र में हुई थी, तब काशी बाई 8 साल की थी. काशीबाई व बाजीराव बचपन से साथ रहे, तो वे अच्छे मित्र भी थे. तब उनका एक बेटा नानासाहेब था.

मस्तानी से मिलने के बाद बाजीराव को मस्तानी से एक बेटा शमशेर बहादुर हुए, जिन्हें पहले कृष्णा नाम दिया गया था. लेकिन मुस्लिम माँ होने की वजह से उन्हें मुस्लिम धर्म ही अपनाने के लिए मजबूर किया गया.

बाजीराव मस्तानी को अपनी पत्नी बना लिए थे, इससे उनकी पत्नी के साथ साथ उनकी माँ व भाई को भी धक्का पहुंचा था. मुस्लिम लड़की को उनकी पत्नी के रूप में कोई भी स्वीकार नहीं कर रहा था. बाजीराव मस्तानी के साथ शानिवाडा में स्थित महल में रहा करते थे. काशीबाई ये सब देख मन ही मन बहुत दुखी थी, लेकिन पति की ख़ुशी के लिए वे शांत थी. वे अपने पति से बेहद प्रेम करती थी, और उनकी ख़ुशी में ही खुश होती है. उन्हें मस्तानी से कोई परेशानी नहीं थी, लेकिन अपनी सास और देवर के आगे वे कुछ नहीं बोल पा रही थी. काशीबाई को उनकी सास ने बहुत भड़काने की भी कोशिश की. कई बार मस्तानी को मारने की कोशिश भी की गई.

1740 में मस्तानी ने बेटे शमशेर को जन्म दिया, इसी समय काशीबाई ने भी बेटे को जन्म दिया लेकिन कुछ ही समय में उनका बेटा मर गया. मस्तानी ने अपने बेटे को अकेले रहकर मुश्किलों के साथ बड़ा किया. जब बाजीराव युद्ध पर गए हुए थे, तब बाजीराव की माँ और भाई चिमाजी ने मस्तानी को उनके महल में ही कैद कर दिया था. इसमें उनके साथ बाजीराव के बेटे नानासाहेब भी थे. जब बाजीराव युद्ध से लौटे तो ये देख उन्होंने तुरंत मस्तानी के लिए अलग से महल बनाने की घोषणा की, और पुणे में मस्तानी महल बनवाया.

बाजीराव का परिवार अभी भी शांत नहीं बैठा था, वे मस्तानी को परेशान करने के लिए कुछ न कुछ करते ही रहते थे. बाजीराव का मस्तानी के प्रति प्रेम अद्भूत था, उनका मकसद कभी बुरा नहीं था, वो मस्तानी व अपनी पत्नी काशी बाई दोनों से ही प्रेम रखते थे. मस्तानी भी बाजीराव से प्रेम करती थी और पुरे समाज के सामने अपने प्यार के लिए खड़ी हो जाती है. काशी बाई अपने पति के लिए अपना सुहाग त्यागने तक को तैयार हो जाती है

बाजीराव मस्तानी की मृत्यु

1740 में बाजीराव किसी राजनैतिक काम से खरगोन, इंदौर के पास गए थे. वहां उन्हें अचानक तेज बुखार आया, वे उस समय मस्तानी को अत्याधिक याद कर रहे थे और पुकार रहे थे. उस समय उनके साथ काशीबाई, उनकी माँ व नानासाहेब भी थे. लेकिन तापघात के चलते उनकी मौत हो जाती है. बाजीराव का अंतिम संस्कार रावड़खेड़ के पास नर्मदा नदी के पास में ही हुआ.

मस्तानी की मौत को लेकर अभी भी रहस्य बना हुआ है. कुछ लोगों का मानना है कि बाजीराव की मौत की खबर सुनते ही झटके से उनकी मौत हो गई, जबकि कुछ लोग मानते है कि उन्होंने ये खबर सुनने के बाद आत्महत्या की थी.

दोनों की मौत के बाद काशी बाई मस्तानी के 6 साल के बेटे शमशेर को अपने साथ रखती है, और उसे अपना बेटा समझकर बड़ा करती है.

आइए जानते हैं रजिया सुल्तान कौन थीं और उनकी प्रेम कहानी क्या थी।

इतिहास के पन्नों में दर्ज है और वह कहानी है रजिया सुल्तान और उनके गुलाम जलालुद्दीन याकूत की प्रेम कहानी। जी हां, कहा जाता है कि रजिया सुल्तान ने प्यार तो जलालुद्दीन याकूत से किया था लेकिन इनकी शादी किसी दूसरे इंसान से करा दी गई थी। आइए जानते हैं कि रजिया सुल्तान कौन थीं 

कौन थीं रजिया सुल्तान?

रजिया सुल्तान भारत के इतिहास की सबसे ताकतवर महिलाओं में से एक थीं, जिनका पूरा नाम जलालात उद-दिन-रजिया था। इनका जन्म बदायूं में 1205 में हुआ था। (मुगल साम्राज्य की शक्तिशाली महिलाएं) वह दिल्ली सल्तनत के मशहूर शासक एवं इतिहास के प्रसिद्ध सुल्तान शमसुद्दीन इल्तुतमिश की इकलौती बेटी थीं।रजिया के तीन भाई थे, जो उन्हें रजिया कहकर पुकारा करते थे।

दिल्ली की सुल्तान और बनीं पहली मुस्लिम महिला शासक

रजिया सुल्तान बचपन से ही बहादुर थीं, जिन्हें शासन करने और समाज में सुधार लाने की बचपन से ही लगन थी। इसलिए रजिया ने अपने पिता के जाने के बाद दिल्ली के राजसिंहासन पर राज किया था।

हालांकि, रजिया सुल्तान को कई समस्याओं का सामना करना पड़ा था जैसे- उसके पिता के जाने के बाद रुखुद्दीन फिरोज को दिल्ली की गद्दी सौंप थी लेकिन वह इसे ईमानदारी से नहीं निभा पाए थे। साथ ही, लोगों ने एक महिला को सुल्तान के रूप में स्वीकार करने से मना कर दिया था।

रजिया सुल्तान जलालुद्दीन याकूत की प्रेम कहानी

इसमें कोई दो राय नहीं हैं कि रजिया ने दिल्ली के विकास में अपनी एक अहम भूमिका निभाई थी। 

लेकिन इस दौरान इन्हें जलालुद्दीन याकूत से प्यार हो गया था। बता दें कि जलालुद्दीन याकूत रजिया का गुलाम था, जो उन्हें घोड़े की सवारी करवाया करता था।

 इस दौरान दोनों को एक दूसरे से काफी प्यार करते थे लेकिन दुनिया को इन दोनों की मोहब्बत रास नहीं आई और लोग इनकी प्रेम कहानी के खिलाफ हो गए थे।

 ;(मुगल बादशाह अकबर की पहली बेगम के बारे में कितना जानते हैं आप) हालांकि, कुछ इतिहासकारों का मानना है कि याकूत रजिया का प्रेमी नहीं बल्कि विश्वासपात्र था।

रजिया का जबरन मलिक अल्तुनिया से हुआ था निकाह

इतिहास के अनुसार कहा जाता है कि दोनों की मोहब्बत को लेकर काफी विद्रोह हुआ था और इस दौरान याकूत की मौत हो गई थी।

 इसके बाद, रजिया का निकाह अल्तुनिया से करवा दिया गया था लेकिन कहा जाता है कि यह निकाह काफी टाइम तक नहीं चल पाया था क्योंकि एक जंग में दोनों की मौत हो गई थी।

 लेकिन कई इतिहासकारों का मानना है कि रजिया निकाह के बाद भी अपने प्रेमी जलालुद्दीन याकूत से मोहब्बत करती थीं।

आख़िर क्या है भगवान जगन्नाथ पुरी की अधूरी प्रतिमाओं’ का राज,जानें

देश के पूर्वी छोर पर बंगाल की खाड़ी के किनारे बसा पुरी आस्था और पर्यटन का संगम है, जो ओडिशा की राजधानी भुवनेश्वर से 60 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। पुरी को देश के चार धामों में से एक माना जाता है। स्थानीय मान्यता है कि कई वर्ष पूर्व नीलांचल पर्वत पर स्वयं भगवान नीलमाधव (जगन्नाथ) निवास करते थे। एक दिन राजा इंद्रद्युम्न को रात में भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन देकर कहा कि नीलांचल पर्वत की एक गुफा के अंदर मेरी एक प्रतिमा है, जिसे नीलमाधव कहते हैं।

प्रभु बोले, ‘‘तुम एक मंदिर बनवाओ और उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो।’’

नीलांचल पर्वत पर सबर कबीला था, जिसका मुखिया विश्ववसु भगवान नीलमाधव का उपासक था और उसने मूर्ति को गुफा में छुपा कर रखा था। वह गुफा में उसकी पूजा करता था। राजा इंद्रद्युम्न ने अपने सेवक ब्राह्मण विद्यापति को मूर्ति लाने का कार्य सौंपा।

विद्यापति ने मुखिया विश्ववसु की पुत्री से विवाह कर लिया। कुछ दिनों के बाद विद्यापति ने अपने ससुर विश्ववसु से भगवान नील माधव के दर्शन करने की इच्छा व्यक्त की। पहले तो विश्ववसु ने मना कर दिया परंतु बाद में बेटी की जिद के कारण हां कर दी। विश्ववसु, विद्यापति की आंख पर पट्टी बांध कर भगवान नील माधव के दर्शन कराने ले गया।

विद्यापति चतुराई करके जाते समय रास्ते में सरसों के दाने गिराता गया और बाद में सरसों के दानों के जरिए गुफा से मूर्ति चुराकर राजा को दे दी। विश्ववसु भगवान नीलमाधव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख को देखकर भगवान भी दुखी हो गए और उसी गुफा में वापस लौट गए।

जाते समय उन्होंने राजा इंद्रद्युम्न से वादा किया कि वह उनका एक विशाल मंदिर बनवा देगा तो वे उनके पास जरूर लौट आएंगे। 

राजा इंद्रद्युम्न ने एक विशाल मंदिर का निर्माण करवाया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए प्रार्थना की। भगवान ने कहा कि द्वारका से बड़ा टुकड़ा समुद्र में तैरकर पुरी तक आ गया है, उससे तुम मेरी मूर्ति बनवाओ।

राजा के सेवकों ने टुकड़े को तो ढूंढ लिया पर वे सब मिल कर उसे उठा नहीं पाए। तब राजा ने सबर कबीले के मुखिया नीलमाधव के अनन्य भक्त विश्ववसु को उस भारी टुकड़े को लाने के लिए प्रार्थना की। सबको बहुत आश्चर्य हुआ जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।

राजा इंद्रद्युम्न में उस लकड़ी के टुकड़े की प्रतिमा बनाने के लिए कई कुशल कारीगर लगाए, पर उन कारीगरों में से कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब सृजन के देवता भगवान विश्वकर्मा एक बुजुर्ग व्यक्ति का रूप धरकर आए।

उन्होंने राजा से भगवान नीलमाधव की मूर्ति बनाने की इच्छा व्यक्त की और अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति को एकांत में बनाएंगे, उन्हें कोई मूर्ति बनाते हुए नहीं देख सकता। राजा ने उनकी शर्त सहर्ष स्वीकार कर ली।

अब लोगों को कमरे के अंदर से आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें सुनाई दे रही थीं। इसी बीच रानी गुंडिचा, जो राजा इंद्रद्युम्न की रानी थी, दरवाजे के पास गई पर उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। उसे लगा कि वह बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने घबरा कर राजा को इसकी सूचना भिजवाई कि अंदर से किसी प्रकार की कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही।

राजा इंद्रद्युम्न भी चिंतित हो गए। उन्होंने शर्त की अनदेखी करते हुए कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति कहीं दिखाई नहीं दिया और कमरे में 3 अधूरी मूर्तियां प्राप्त हुईं। भगवान नीलमाधव (जगन्नाथ) और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं बनी थी और सुभद्रा जी के तो हाथ-पांव ही नहीं बने थे।

भगवान जगन्नाथ ने उन्हें स्वप्न में दर्शन देकर कहा कि वे अब से काष्ठ की मूर्ति में ही प्रकट होकर भक्तों को दर्शन दिया करेंगे।

राजा इंद्रद्युम्न ने इसे भगवान जगन्नाथ की इच्छा मानकर इन अपूर्व प्रतिमाओं को मंदिर में स्थापित कर दिया। इस प्रकार तब से भगवान जगन्नाथ और उनके भाई-बहन इसी रूप में भक्तों को दर्शन दे रहे हैं।   

क्या थी वजह की अधूरी रह गई रानी रूपमती और राजा बाज बहादुर की प्रेम कहानी, जानें

भारत देश अपनी अमर प्रेम कहानियों के लिए जाना जाता है। जहां लोग एक-दूसरे के प्यार में जान देने को भी तैयार रहते हैं। मध्य प्रदेश का मांडू नगर भी ऐसी ही प्रसिद्ध प्रेम कहानी का साक्षी है। 

यह कहानी है मांडू नगर के राजा बाज बहादुर और रानी रूपमती की। इस प्रेमी जोड़े का नाम मांडू के इतिहास में बड़े ही गर्व के साथ लिया जाता है। राजा और राजा की यह प्रेम कहानी किसी फिल्म से कम नहीं है, जहां युद्ध, प्रेम, संगीत और विरह जैसी सभी भाव मौजूद हैं।

कौन थीं रानी रूपमती?

इतिहास के अनुसार रानी रूपमती राज्य के किसान की बेटी थीं, जो कि गाना गाया करती थीं। रानी बिल्कुल अपने नाम की तरह ही खूबसूरत और गुणी थीं। एक बार राजा उन्हें अपने दरबार में बतौर गायिका बुलाया, 

वहीं दोनों के बीच प्यार की शुरुआत हुई। जिसके साथ ही दोनों का अंतर्धार्मिक विवाह हुआ। राजा और रानी दोनों खुशी-खुशी साथ रहने लगे।

रानी पर मोहित हुए बादशाह अकबर-

रानी और राजा की यह कहानी अधूरी ही रही। इतिहास में इसका कारण बादशाह अकबर को माना गया। माना जाता है कि जब रानी की खूबियों के बारे में बादशाह अकबर को पता लगा, तो वो रानी रूपमती पर मोहित हो गए और उन्होंने रानी को पाने की इच्छा जाहिर की।

अकबर और राजा बाज बहादुर के बीच हुआ युद्ध-

रानी रूपमती को पाने के लिए बादशाह अकबर ने बाज बहादुर को एक पत्र लिखा। 

जिसमें उन्होंने रानी को दिल्ली के दरबार भेजने का आदेश दिया। यह सुनकर राजा बाज बहादुर गुस्से में आगबबूला हो गए।

 साथ ही जवाब में राजा ने बादशाह अकबर की रानी को मांडू भिजवाने की बात कह दी। पत्र का ऐसा जवाब सुनकर अकबर ने गुस्से में सिपहसालार आदम खां को मालवा पर हमला करने का आदेश दे दिया।

राजा बाज बहादुर हार गए युद्ध-

राजा बाज बहादुर ने अपनी छोटी सी सेना के साथ अकबर की सेना से युद्ध किया। लेकिन युद्ध में राजा को हार मिली और आदम खां ने बाज बहादुर को बंदी बना लिया। 

राजा के युद्ध हारते ही अकबर की सेना रानी रूपमती को लेने के लिए निकल पड़ी, लेकिन रानी को जैसे ही इस बात की भनक लगी उन्होंने हीरा निगल कर अपने प्राण त्याग दिए।

पछतावे की आग में जले बादशाह अकबर-

जब बादशाह अकबर तक रानी के मृत्यु की खबर पहुंची, तो उन्हें इस बात का बहुत पछतावा हुआ। जिस कारण उन्होंने राजा बाज बहादुर को आजाद कर दिया। 

रिहा होने के बाद राजा बाज बहादुर ने मांडू की राजधानी सारंगपुर जाने की इच्छा जाहिर की, वहां पर रानी की कब्र मौजूद थी।

राजा ने रानी की कब्र पर सिर पटक-पटक कर अपनी जान दे दी।

 इस घटना ने बादशाह अकबर पर गहरा प्रभाव डाला, उसका पश्चाताप करने के लिए बादशाह ने 1568 में एक मकबरे का निर्माण करवाया। जहां राजा बाज बहादुर के मकबरे पर आशिक-ए-सादिक और रूपमती की समाधि पर शहीद-ए-वफा लिखवाया। कुछ इस तरह से इस प्रेम कहानी के खत्म होने का कारण बादशाह अकबर रहे।

आइए जानते हैं कुतुब मीनार का इतिहास, महत्व और विशेषताएं

सैकड़ों साल से दिल्ली की पहचान का हिस्सा रही कुतुब मीनार पर रार छिड़ी हुई है. कुतुब मीनार ने अपने वजूद में आने के बाद जाने कितने ही दौर देखे हैं. लेकिन इस मीनार की ज़िंदगी में ये दावेदारियों का दौर है. वो दौर जब कुतुब मीनार को लेकर दो पक्ष अपनी-अपनी दावेदारियां पेश कर रहे हैं. कुतुब मीनार से जुड़ा सैकड़ों साल पुराना इतिहास खंगाला जा रहा है. कुतुब मीनार के दरो-दीवार को बारीकी से जांचा-परखा जा रहा है. लेकिन कुतुब मीनार तो अपनी पहचान की कहानी खुद बयान करती है. दक्षिणी दिल्ली के महरौली इलाके में मौजूद ये मीनार शुरुआत से भारत की प्रमुख ऐतिहासिक इमारतों में से एक है.

कुतुब मीनार को जानिए-

करीब 238 फीट की ऊंचाई वाला कुतुब मीनार भारत का सबसे ऊंचा पत्थरों का स्तंभ है. इसके शीर्ष का डायमीटर लगभग 9 फीट है. तो इसकी नींव का डायमीटर 46.9 फीट है. कुतुब मीनार में कुल 379 सीढ़ियां हैं. इसकी चौथी और पांचवीं मंज़िल पर बालकनी मौजूद है. पूरी मीनार को लाल बलुआ पत्थर और संगमरमर से तैयार किया गया है. कुतुब मीनार इसके आसपास मौजूद कई दूसरे स्मारकों से घिरा हुआ है और इस पूरे परिसर को कुतुब मीनार परिसर कहते हैं.

कुतुब मीनार का निर्माण-

इतिहास कहता है कि कुतुब मीनार 12वीं सदी के अंत और तेरहवीं सदी की शुरुआत में वजूद में आया था. माना जाता है कि कुतुब मीनार का निर्माण 1199 से 1220 के दौरान कराया गया था. कुतुब मीनार को बनाने की शुरुआत कुतुबुद्दीन-ऐबक ने की थी और उसके उत्तराधिकारी इल्तुतमिश ने इसका निर्मण पूरा करवाया था. कुतुबुद्दीन ऐबक, मोहम्मद गोरी का पसंदीदा गुलाम और सेनापति था. गोरी ऐबक को दिल्ली और अजमेर का शासन सौंपकर वापस लौट गया था. 1206 में गोरी की मौत के बाद ऐबक आज़ाद शासक बन गया और उसने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की और साथ ही कुतुब मीनार का निर्माण भी करवाया.

कुतुब मीनार को नुकसान-

बताया जाता है कि 14वीं और 15वीं सदी में बिजली गिरने और भूकंप से कुतुब मीनार को नुकसान पहुंचा था. जिसके बाद फिरोज शाह तुगलक ने मीनार की शीर्ष दो मंजिलों की मरम्मत करवाई थी. जबकि 1505 में सिकंदर लोदी ने बड़े पैमाने पर कुतुब मीनार की मरम्मत कराई थी और इसकी ऊपरी दो मंजिलों का विस्तार करवाया था. 1803 में आए एक भूकंप से कुतुब मीनार को फिर से नुकसान पहुंचा. तब साल 1814 में इसके प्रभावित हिस्सों को ब्रिटिश-इंडियन आर्मी के मेजर रॉबर्ट स्मिथ ने रिपेयर कराया था.

विष्णु स्तंभ होने का दावा-

लेकिन हाल ही में हिंदू संगठनों ने इस इतिहास को नकार दिया और विवाद उठा तो कुतुब मीनार की पहचान की एक नई कहानी निकलकर सामने आई. हिंदू संगठन युनाइटेड हिंदू फ्रंट ने ये दावा कर दिया कि कुतुब मीनार विष्णु मंदिर के ऊपर बनी है और इसलिए इसका नाम बदल कर विष्णु स्तंभ रखा जाना चाहिए. साथ ही ये दावा किया गया कि कुतुब मीनार को 27 जैन और हिंदू मंदिरों को तोड़कर बनाया गया था, परिसर में मौजूद हिंदू देवी-देवताओं की मूर्तियों का जीर्णोद्वार होना चाहिए और हिंदुओं को परिसर में पूजा करने की इजाज़त मिलनी चाहिए. मामले ने तूल तब पकड़ा, जब 10 मई को बिना किसी इजाज़त के महाकाल मानव सेना के कार्यकर्ताओं ने कुतुब मीनार परिसर में हनुमान चालीसा का पाठ शुरू कर दिया.

मीनार परिसर में मस्जिद-

कुतुब मीनार परिसर में मौजूद कुव्वत-उल-इस्लाम मस्जिद का निर्माण भी कुतुबुद्दीन ऐबक ने कराया था. बताया जाता है कि इस मस्जिद में सदियों पुराने मंदिरों का भी एक बड़ा हिस्सा शामिल है. 

देवी-देवताओं की मूर्तियां और मंदिर की वास्तुकला अभी भी आंगन के चारों ओर के खंभों और दीवारों पर स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं.

कुतुब मीनार के नाम पर भी दावे-

वैसे आपको बता दें कि सिर्फ़ कुतुब मीनार के वजूद को लेकर ही नहीं बल्कि उसके नाम को लेकर भी इतिहास में अलग-अलग दावे हैं. यह धारणा प्रचलित रही है कि कि कुतुब मीनार का नाम उस कुतुबद्दीन ऐबक के नाम पर रखा गया है, जिसने इसका निर्माण शुरू किया था. लेकिन वास्तव में इतिहास में पुख्ता तौर पर कहीं इसका ज़िक्र नहीं है. एक दावा ये भी है कि इसका नाम मशहूर मुस्लिम सूफी संत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी के नाम पर पड़ा है. तो वहीं कुछ इतिहासकारों का कहना है कि कुतुब या कुटुब मीनार नाम ब्रिटिश पीरियड में प्रचलित हुआ था. यानि नाम और निर्माण से लेकर कुतुब मीनार से जुड़े तमाम पहलुओं पर आज सवाल उठ रहे हैं.

विक्रमादित्य ने बनवाया था मीनार- दावा

जैसे-जैसे मामला आगे बढ़ता गया कुतुब मीनार को लेकर तमाम तरह के दावे सामने आते चले गए. और हर दावा इतिहास की किताबों में अब तक बताई गई कुतुब मीनार की कहानी को नकार रहा था. विष्णु स्तंभ और मंदिरों के अवशेष पर मस्जिद होने के दावे के बाद एक और थ्योरी सामने आई. जिसमें कहा गया कि कुतुब मीनार एक सन टावर है, जिसे 5वीं शताब्दी में गुप्त साम्राज्य के विक्रमादित्य ने बनवाया था. दावे में कहा गया कि मीनार में 25 इंच का झुकाव है. ऐसा इसलिए है क्योंकि इसे सूर्य का अध्ययन करने के लिए बनाया गया था. 21 जून को जब सूर्य आकाश में जगह बदलता है तो भी कुतुब मीनार की उस जगह पर आधे घंटे तक छाया नहीं पड़ती. मीनार के दरवाजे नॉर्थ फेसिंग हैं, ताकि इससे रात में ध्रुव तारा देखा जा सके.

लौह स्तंभ पर दावा-

कुतुब मीनार परिसर में मौजूद लौह स्तंभ को लेकर दूसरा दावा किया गया है. दरअसल इस लोहे के खंभे का इतिहास भी बहुत रोचक है. इस लौह स्तंभ की लंबाई 23.8 फीट है, जिनमें से 3.8 फीट जमीन के अंदर है. जबकि इसका वजन 600 किलो से ज्यादा है. बाताया जाता है कि इस स्तंभ का निर्माण चंद्रगुप्त द्वितीय ने 375 से 415 ईस्वी के दौरान करवाया था. करीब 1600 सालों बाद भी इस लौह स्तंभ में जंग नहीं लगी है. इतिहास में ज़िक्र मिलता है कि इस स्तंभ को मध्य प्रदेश के विदिशा में उदयगिरी गुफाओं के बाहर लगाया गया था, जहां से 11वीं शताब्दी में तोमर राजा अनंगपाल इसे महरौली ले आए थे. हालांकि कुछ इतिहासकार दावा करते हैं कि इस स्तंभ को मुस्लिम शासकों ने लगवाया था. उनका मानना है कि मुस्लिम शासकों ने इस स्तंभ को अपनी विजय के प्रतीक के तौर पर कुतुब मीनार परिसर में लगवाया था.

परिसर से गणेश मूर्ति हटाने पर रोक-

वैसे आपको बता दें कि इस वर्ल्ड हेरिटेज साइट को लेकर विवादों का सिलसिला अब लंबा हो चुका है. इस साल अप्रैल में नेशनल म्यूजियम अथॉरिटी यानी NMA ने ASI को कुतुब कॉम्प्लेक्स से गणेश जी की दो मूर्तियों को हटाने और नेशनल म्यूजियम में उनके लिए सम्मानजनक जगह खोजने के लिए कहा था. इसके बाद यह विवाद अदालत तक भी पहुंच गया. अदालत ने मामले में आदेश दिया कि फिलहाल कोई कार्रवाई न करते हुए मामले की सुनवाई तक कॉम्प्लेक्स से मूर्तियां नहीं हटाई जाएं.

इसके अलावा विश्व हिंदू परिषद भी 73 मीटर ऊंची मीनार के विष्णु स्तंभ होने का दावा कर चुका है.

इसके अलावा मामले को लेकर इसी साल फरवरी एक और याचिक दायर की गई. जिसमें कहा गया कि इस बात में कोई विवाद नहीं है कि यहां मंदिरों को नष्ट किया गया है. इसलिए उन्हें यहां पूजा करने का अधिकार दिया जाए. याचिका में ये भी कहा गया है कि इस मस्जिद में पिछले 800 सालों से नमाज नहीं अदा की गई है.