औरंगाबाद का जम्होर क्यों है प्रथम पिण्डदान का सबसे बड़ा केंद्र, जानिए स्ट्रीट बज्ज के इस रिपोर्ट में
औरंगाबाद : जिले के नवीनगर में टंडवा के पास से निकली आदि गंगा के रूप में वर्णित पुनपुन नदी को गया श्राद्ध तर्पण की प्रथम वेदी और प्रवेश द्वार माना गया है। यहां भारी संख्या में नेपाली पिंडदानी पितरों को खरमास में पिंडदान करने के लिए आते हैं। जम्होर के पुनपुन घाट पर प्रथम पिंडदान देना श्रेष्ठ माना गया है, जहां देश-विदेश के श्रद्धालु आकर पूजा एवं तर्पण करते हैं।
वैदिक परंपरा और मान्यता के मुताबिक पितरों के लिए श्राद्ध करना एक महान और उत्कृष्ट कार्य है। कहा जाता है कि पुत्र का पुत्रत्व तभी सार्थक माना जाता है जब वह अपने जीवन काल में जीवित माता-पिता का सेवा करे और उनकी मृत्यु तिथि तथा महालय पितृपक्ष में उसका विधिवत श्राद्ध करे। कहा जाता है कि पिंडदान मोक्ष प्राप्ति का एक सहज और सरल मार्ग है।
खरमास का शुभांरभ होते ही पिंडदानियों का पुनपुन नदी घाट पर आने का सिलसिला निरंतर जारी हो जाता है। लोग दूर-दराज एवं देश-विदेश से अपने पितरों की आत्मा की शांति हेतु पुनपुन नदी में तर्पण करने आते हैं, ताकि उनके पूर्वजों को मोक्ष की प्राप्ति हो सके।
पुनपुन का नामकरण के बारे में बहुत सी कथाएं वर्णित हैं। 'गुरूड़ पुराण पूर्व खंड, अध्याय 84 में पुनः पुना महानद्यां श्राद्वों स्वर्ग निर्यत पितृन जो मगध के संबंध में यह भी कहा जाता है, 'कीकटेषु गया पुण्या, पुण्यं राजगृहं वनम् । च्यवनस्याज्ञश्रम पुण्यं नदी पुण्या पुनः पुना ।।'
मगध में गया, राजगृह का जंगल, च्यवन ऋषि का आश्रम तथा पुनपुन नदी पुण्य है
जनश्रुति है कि प्राचीन काल में झारखंड राज्य के पलामू के जंगल में सनक, सुनन्दन, सनातन कपिल और पंचषिख घोर तपस्या कर रहे थे. जिससे प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट हूए। ऋषियों ने ब्रह्माजी का चरण धोने के लिए पानी खोजा। नहीं मिलने पर ऋषियों ने अपने स्वेद् (यानि अपने शरीर का निकले पसीने जमा किये)। जब पसीना कमंडल में रखा जाता था तब कमंडल उलट जाता था।
इस तरह बार-बार कमंडल उलटने से ब्रह्मा जी के मुंह से अनायास ही निकल गया पुनः पुना। उसके बाद वहां से जल अजस्र धारा निकली। उसी से ऋषियों ने नाम रख दिया पुनः पुना, जो अब पुनपुन के नाम से मशहूर है। उस समय ब्रह्माजी ने कहा था कि जो इस नदी के तट पर पिंडदान करेगा, वह अपने पूवजों को स्वर्ग पहुंचायेगा। ब्रह्माजी ने पुनपुन नदी के बारे में कहा ''पुनःपुना सर्व नदीषु पुण्या, सदावह स्वच्छ जला शुभ प्रदा.' उसी के बाद से ही पितृपक्ष में पहला पिंड पुनपुन नदी के ही तट पर का विधान है। तब से पुनपुन में पहला पिंड देते हैं।
कहा तो यहां तक जाता है कि जब प्रभु श्री रामचन्द्र जी का अपने पिता के आदेश पर चौदह साल का वनवास मिला था, उसी क्रम में कुछ दिनों बाद उनके पिता राजा दशरथ की मृत्यु हो गयी, जिसकी सूचना प्रभु श्रीरामचन्द्र जी को आकाशवाणी के माध्यम से ज्ञात हुआ।
ज्ञात होते ही प्रभु श्रीराम ने अपने भाई लक्ष्मण और पत्नी सीता से इच्छा जाहिर की कि इन्हें अपने पिता राजा दशरथ की आत्मा की शांति एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिए ब्रह्माजी के अशीर्वाद से उत्पन्न हुई पुनपुन नदी में पिंडदान करना है. तब प्रभु श्रीराम पुनपुन नदी के इसी तट पर आकर अपने पिता राजा दशरथ का सर्वप्रथम पिंडदान किया था और दूसरा पिंडदान माता सीता ने गया में जाकर किया था।
बताते चलें कि पुनपुन नदी के तट पर सन् 1909 में राजस्थान के खेतड़ी के सेठ राय सुर्यमलजी शिव प्रसाद झुनझुन वाला बहादुर ने भव्य धर्मशाला का निर्माण कराया था, ताकि दुर-दराज से आए राहगीर और पिंडदानी यहां विश्राम कर सकें। लेकिन आज यह धर्मशाला खुद उपेक्षित है।
आज जम्होर का यह स्थान प्रथम पिण्डदानिओं के लिए श्रेष्ठ है। पर , प्रशासनिक उपेक्षा का दंश यहां आज भी देखा जा सकता है। पिंडदानियों के लिए प्राप्त सुविधा की कमी रहती है। प्रचार-प्रसार की कमी के कारण अधिकांश लोग यहां पहली पिंड दान किए हुए बिना गया चले जाते हैं जिसका उन्हें पूरा फल नहीं मिल पाता। स्थानीय नेता भी यहां कुछ करने की जगह चुप रहते हैं।
सरकार को चाहिए कि इसे गया की तरह पिंडदानियों के लिए सुविधा उपलब्ध कराए और जम्होर को पर्यटन के मानचित्र पर लाये। वैसे, यहां कार्तिक पूर्णिमा पर भारी मेला लगता है और लोग पुनपुन में स्न्नान कर भगवान विष्णु मंदिर में दर्शन कर पुण्य की भागी बनते हैं।
औरंगाबाद से धीरेन्द्र पाण्डेय
Oct 05 2023, 09:41