केसरीवाड़ा, पुणे: जहां बाल गंगाधर तिलक ने पहला सार्वजनिक गणेशोत्सव आयोजित किया, जाने
1857 की क्रांति की विफलता के बाद अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए संघर्ष का यह दूसरा चरण था. लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक इस संघर्ष के जनक थे. राष्ट्रीयता की भावना विकसित करने और समाज को संगठित करने के लिए उन्होंने अनूठे तरीके अपनाए. विघ्ननाशक आराध्य श्री गणेश के पूजन को उन्होंने घरों की चहारदीवारी से बाहर निकालकर सार्वजनिक उत्सव के रूप में प्रस्तुत किया. शौर्य-साहस के नायक छत्रपति शिवाजी के उत्सव आयोजित करके उन्होंने युवाओं को संगठित किया और उन्हें स्वतंत्रता के संघर्ष के लिए प्रेरित किया. तिलक ने यह तब किया जब अंग्रेजी हुकूमत ने सार्वजनिक तौर पर ऐसे कार्यक्रमों के आयोजन पर रोक लगा रखी थी.
जाहिर तौर पर ये धार्मिक-सांस्कृतिक कार्यक्रम थे. लेकिन इनका असली उद्देश्य जनता को ब्रिटिश दासता के विरुद्ध संघर्ष के लिए जागृत और संगठित करना था. अंग्रेजों ने जल्दी ही इस खतरे को पहचाना. दमन चक्र चलाया. तिलक को बार-बार जेल यात्राएं करनी पड़ी. लेकिन स्वराज हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, के प्रणेता तिलक का जीवन देश के लिए समर्पित था और इसके लिए कोई भी कीमत चुकाने को वे हमेशा तैयार रहे.
गजानन राष्ट्रीय एकता के प्रतीक
तिलक ने 20 अक्तूबर, 1893 को पुणे के अपने निवास स्थल केसरीबाड़ा में पहला सार्वजनिक गणेशोत्सव आयोजित किया. इसके कार्यक्रम दस दिन तक चले. इतिहासकारों के अनुसार, शिवाजी महाराज के बाल्यकाल में उनकी मां जीजाबाई ने ग्रामदेवता कसबा गणपति की स्थापना की थी. बाद में पेशवाओं ने इसका विस्तार किया. लेकिन तिलक के गणेशोत्सव के आयोजन धार्मिक कर्मकांडों तक सीमित नहीं रहे. उन्होंने गजानन को राष्ट्रीय एकता के प्रतीक के तौर पर स्थापित किया. इस उत्सव के दौरान विभिन्न कार्यक्रमों के जरिए सामाजिक कुरीतियों और छुआछूत दूर करने के प्रभावी संदेश दिए गए. सामाजिक एकता और राष्ट्रीय भावना का विकास इन आयोजनों के मूल में था.
पूजन के बहाने अंग्रेजी राज के विरुद्ध संदेश
गणेशोत्सव के आयोजनों की लोकप्रियता को जल्दी ही विस्तार मिला. स्थान-स्थान पर इस उत्सव से सक्रिय रूप से जुड़ने वालों की भीड़ बढ़ती ही गई. प्रत्यक्ष तौर पर उत्सव का उद्देश्य आराध्य श्री गणेश का पूजन था. लेकिन आयोजन के दौरान युवकों की टोलियां देशभक्ति के गीत गाती भ्रमण करतीं. पर्चे वितरित करतीं. अंग्रेजी राज के विरुद्ध लोगों को खड़े होने के लिए संगठित होने और इसके लिए आपसी मतभेद भुलाने और क्षुद्र स्वार्थों के परित्याग का संदेश दिया जाता था.सार्वजनिक तौर ऐसे आयोजनों के लिए प्रशासन की अनुमति नहीं थी. धार्मिक पूजन – अर्चन के उत्सव के नाम पर सरकार के विरुद्ध निर्मित हो रहे वातावरण से अंग्रेज चिंतित थे. खुफिया रिपोर्टों में इस पर चिंता भी जाहिर की गई. इसके चलते इस आयोजन के सूत्रधार तिलक किसी न किसी बहाने अंग्रेजो के निशाने पर बने रहे.
मुगलों से शिवाजी लड़े, अंग्रेजों से आप लड़ो
तिलक को अंग्रेजी राज की नाराजगी या उत्पीड़न की चिंता नहीं थी. 15 अप्रैल 1895 को उन्होंने शिवाजी उत्सव की शुरुआत रायगढ़ किले में की. शौर्य – साहस के पर्याय छत्रपति शिवाजी महाराज भारत वर्ष के प्रेरक अग्रणी नायकों की सूची में काफी ऊंचे स्थान पर रहे हैं. उन्होंने मुगलों के विरुद्ध निरंतर संघर्ष करके मराठा साम्राज्य को अक्षुण्ण रखा था.
असलियत में शिवाजी के अदम्य साहस, शौर्य और संघर्ष के जरिए तिलक विशेषकर युवाओं में उनकी ही भांति जोश और जागृति उत्पन्न करना चाहते थे. इस उत्सव के दौरान शिवाजी के जीवन के प्रेरक प्रसंगों और मुगलों के विरुद्ध उनके साहसपूर्ण संघर्ष की याद दिलाकर संदेश दिया जाता कि देश के सामने आज भी ऐसी ही परिस्थिति है. तब विदेशी मुगलों से संघर्ष था. अब अंग्रेजों को उखाड़ फेंकने की जरूरत है.
ईश्वर ने भारत का पट्टा विदेशियों को नहीं दिया
12 जून 1897 को शिवाजी उत्सव में तिलक का भाषण संघर्ष प्रारम्भ करने का खुला आह्वान था. उन्होंने कहा, “क्या शिवाजी ने अफजल खान को मार कर कोई पाप किया था? इस प्रश्न का उत्तर महाभारत में मिल सकता है. गीता में श्रीमन कृष्ण ने अपने गुरूओं और बांधवों तक को मारने का उपदेश दिया है. उनके अनुसार अगर कोई व्यक्ति निष्काम भाव से कर्म करता है तो वह किसी पाप का भागी नही बनता है.
शिवाजी ने अपनी उदर पूर्ति के लिए कुछ नही किया था. बहुत नेक इरादे के साथ, दूसरों की भलाई के लिए उन्होंने अफजल खान का वध किया था. अगर चोर हमारे घर में घुस आए और हमारे अन्दर उनको बाहर निकालने की ताकत न हो तो हमे बेहिचक दरवाजा बन्द करके उसे जिन्दा जला देना चाहिए. ईश्वर ने हिन्दुस्तान के राज्य का पट्टा ताम्रपत्र पर लिखकर विदेशियों को तो नहीं दिया है.
शिवाजी महाराज ने उनको अपनी जन्मभूमि से खदेड़ने की कोशिश की. ऐसा करके उन्होंने दूसरे की वस्तु हड़पने का पाप नही किया. कुएं के मेढ़क की तरह अपनी दृष्टि संकुचित मत करो. ताजीराते – हिन्द की कैद से बाहर निकलो. गीता के अत्यन्त उच्च वातावरण में पहुंचो और महान व्यक्तियों के कार्यों पर विचार करो.”
विलक्षण प्रतिभा के धनी
23 जुलाई 1856 को जन्मे बाल गंगाधर तिलक ने 1880 में वकालत पास की. नौ वर्षों तक कानून की कक्षाएं लीं. अपने अखबार ‘केसरी’ में कानून पर तमाम विद्वतापूर्ण लेख लिखे. 40 साल के अपने सार्वजनिक जीवन मे लगातार मुकदमों और अदालतों में उलझे रहे. इसमें लंदन की अदालतें भी शामिल थीं. तीन बार राजद्रोह के मुकदमों का सामना किया. कानूनी कौशल ऐसा विलक्षण कि जब 1897 में पहली बार राजद्रोह के मामले में सजा के बाद उन्हें जेल भेजा गया तो अगले ही दिन जेल से उन्होंने प्रिवी काउंसिल में की जाने वाली अपील का ड्राफ्ट तैयार कर अपने वकीलों को सिपुर्द कर दिया.
यह अपील अदालत में फैसला सुनकर तैयार की गई थी. दिग्गज वकील आश्चर्य में पड़ गए थे. न्यायिक प्रक्रिया का राजनीतिक इस्तेमाल उन जैसा शायद ही कोई नेता कर सका हो.
Sep 08 2024, 16:14