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कश्मीर कभी मीठे पानी की झील थी, ये वो दौर था जब यहां एक भी शख्स नहीं रहता था।NASA ने दिए सबूत

डेस्क :– हिमालय के तराई क्षेत्र की सबसे खूबसूरत घाटी कश्मीर कभी मीठे पानी की झील थी। ये वो दौर था जब यहां एक भी शख्स नहीं रहता था। पहाड़ों से घिरी ये झील धीरे-धीरे खत्म हो गई। ये सब हुआ इंसानों के बढ़ते हस्तक्षेप से। अब घाटी में कुछ झीलें हैं, लेकिन उन पर भी संकट मंडरा रहा है। यह हैरान करने वाला दावा NASA ने किया है।

नासा की अर्थ ऑब्ज़र्वेटरी ने दावा किया है 4.5 मिलियन साल पहले कश्मीर घाटी कभी 84 मील लंबी और 20 मील चौड़ी झील थी। पहाड़ों से घिरी ये झील दुनिया की सबसे ऊंची और बड़ी झीलों में शुमार थी, जो समुद्र तल से औसतन 6000 फीट की ऊंचाई पर मीठे पानी का सबसे बड़ा स्रोत थी। नासा के मुताबिक घाटी का कटोरे जैसा आकार और उसके तल पर रेतीले, मिट्टी जैसे तलछट इस बात का सबूत हैं।

*धरती से ऐसी दिखती है कश्मीर घाटी*

नासा की अर्थ ऑब्ज़र्वेटरी ने कश्मीर घाटी की जो तस्वीर ली है, उसमें आसमान से यह पूरी तरह झील की तरह दिखती है, जिसके ऊपर धुंध के बादल छाए नजर आते हैं।इसमें आसपास बर्फ पर जमी दिख रही है, नासा के मुताबिक ऐसा तब होता है जब जमीन ठंडी होती है। ऊपर धरती से यह बर्फ पाउडर की तरह नजर आती है। अर्थ ऑब्जर्वेटरी के अनुसार, तस्वीर जिस दिन ली गई उस दिन वायु प्रदूषण का उच्च स्तर था।

*अब कई छोटी झीलों का घर है कश्मीर*

कश्मीर घाटी पर लाइव साइंस में प्रकाशित एक रिपोर्ट में दावा किया गया है कि अब कश्मीर घाटी झील नहीं रही, अब यह कई छोटी झीलों का घर है। हालांकि अब ये झीलें मानव संबंधित तनावों को महसूस कर रही हैं। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि पिछले कुछ वर्षों में उपग्रह से ली गई तस्वीरों से पता चला है कि कश्मीर घाटी की ज्यादातर झीलें यूट्रोफिकेशन से प्रभावित हैं, यानी जलीय जीवों के लिए जहर बन चुकी हैं।

*क्या होता है यूट्रोफिकेशन*

यूट्रोफिकेशन वह अवस्था है, जिसमें शहरीकरण की वजह से कई तरह के तत्व झीलों में जातें हैं। ये कई तरह के शैवाल बनाते हैं, इससे झीलों की सतह पर पौधे बढ़ जाते हैं, जिससे पानी में ऑक्सीजन की मात्रा कम हो जाती है और पानी जलीय जीवों के लिए जहर बन जाता है। रिपोर्ट में दावा किया गया है कि घाटी की सबसे बड़ी झील वुलर पिछले एक दशक से काफी हद तक यूट्रोफिकेशन से पीड़ित थी। अन्य झीलों का भी यही हाल हो रहा है।
रतन टाटा के निधन से देश में शोक की लहर है. बुधवार देर रात मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली।पीएम मोदी ने जताया दुख
डेस्क :–देश के मशहूर उद्योगपति रतन टाटा के निधन से देश में शोक की लहर है। बुधवार देर रात मुंबई के ब्रीच कैंडी अस्पताल में उन्होंने अंतिम सांस ली। वह लंबे समय से बीमार चल रहे थे। उनके निधन पर पीएम नरेंद्र मोदी ने दुख जताया है। पीएम मोदी ने सोशल मीडिया पर लिखा है कि रतन टाटा एक दूरदर्शी कारोबारी नेता थे, एक दयालु आत्मा और असाधारण इंसान थे। पीएम मोदी ने लिखा है कि उन्होंने अपनी विनम्रता, दयालुता और हमारे समाज को बेहतर बनाने के लिए एक अटूट प्रतिबद्धता के कारण कई लोगों के बीच अपनी जगह बनाई।

वहीं रतन टाटा के निधन पर राजनाथ सिंह ने शोक जताया है। उन्होंने कहा है कि रतन टाटा भारतीय उद्योग जगत के दिग्गज थे। उनके निधन से दुखी हूं. वहीं उद्योगपति आनंद महिंद्रा ने रतन टाटा के निधन पर लिखा है- ‘मैं रतन टाटा की अनुपस्थिति को स्वीकार नहीं कर पा रहा हूं। भारत की अर्थव्यवस्था एक ऐतिहासिक छलांग के शिखर पर खड़ी है। और हमारे इस पद पर बने रहने में रतन के जीवन और काम का बहुत योगदान है. होम मिनिस्टर अमित शाह ने भी रतन टाटा के निधन पर दुख जताया है।

*रतन टाटा रतन टाटा दूरदृष्टि वाले व्यक्ति थे : राहुल गांधी*

लोकसभा के नेता प्रतिपक्ष और कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने रतन टाटा के निधन पर शोक जताया है. उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा है कि रतन टाटा दूरदृष्टि वाले व्यक्ति थे। उन्होंने व्यापार र परोपकार दोनों पर अमिट छाप छोड़ी है।उनके परिवार और टाटा समुदाय के प्रति मेरी संवेदनाएं।

*रतन टाटा के निधन से दुखी हूं: ममता बनर्जी*

उद्योगपति रतन टाटा के निधन पर ममता बनर्जी ने लिखा है- टाटा संस के मानद चेयरमैन रतन टाटा के निधन से दुखी हूं। टाटा समूह के पूर्व अध्यक्ष भारतीय उद्योगों के अग्रणी नेता और सार्वजनिक-उत्साही परोपकारी व्यक्ति थे। उनका निधन भारतीय व्यापार जगत और समाज के लिए एक अपूरणीय क्षति होगी। उनके परिवार के सभी सदस्यों और सहकर्मियों के प्रति मेरी संवेदनाएं।

*चंद्रबाबू नायडू ने जताया दुख कहा- हमने व्यापारिक दिग्गज खो दिया*

आंध्रप्रदेश के सीएम चंद्रबाबू नायडू ने रतन टाटा के निधन पर लिखा कि- ‘ कुछ ही लोगों ने अपनी दूरदर्शिता और निष्ठा से इस दुनिया पर रतन टाटा जैसी स्थायी छाप छोड़ी है। आज, हमने न केवल एक व्यापारिक दिग्गज को खो दिया है, बल्कि एक सच्चे मानवतावादी को भी खो दिया है, जिनकी विरासत औद्योगिक परिदृश्य से परे हर उस दिल में बसती है, जिसे उन्होंने छुआ. मैं उनके निधन से दुखी हूं।

*राष्ट्रपति ने जताई शोक संवेदना*

राष्ट्रपति द्रोपदी मुर्मू ने रतन टाटा निधन पर दुख जताया है। उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखा है कि- भारत ने एक ऐसे आइकन को खो दिया है, जिन्होंने कॉर्पोरेट विकास को राष्ट्र निर्माण और उत्कृष्टता को नैतिकता के साथ जोड़ा। पद्म विभूषण और पद्म भूषण से सम्मानित, उन्होंने टाटा की महान विरासत को आगे बढ़ाया और इसे और अधिक प्रभावशाली वैश्विक उपस्थिति दी। मैं उनके परिवार, टाटा समूह की पूरी टीम और दुनिया भर में उनके प्रशंसकों के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त करती हूं।

*कांग्रेस पार्टी ने जताई शोक संवेदना*

रतन टाटा के निधन पर कांग्रेस पार्टी ने शोक संवेदना जाहिर की है। भारतीय उद्योग जगत के दिग्गज और भारत के कॉर्पोरेट परिदृश्य को आकार देने वाले परोपकारी व्यक्ति, पद्म विभूषण श्री रतन टाटा के निधन से कांग्रेस पार्टी को गहरा दुख हुआ है।

*गूगल सीईओ ने रतन टाटा को दी श्रद्धांजलि*

गूगल के CEO सुंदर पिचाई ने ट्वीट किया, उन्होंने लिखा- ‘रतन टाटा के साथ गूगल में मेरी आखिरी मुलाकात में हमने वेमो की प्रगति के बारे में बात की और उनका विजन सुनना प्रेरणादायक था । वे एक असाधारण व्यवसाय और परोपकारी विरासत छोड़ गए हैं।

*रतन टाटा के निधन पर सीएम आतिशी ने जताया दुख*

दिल्ली की सीएम आतिशी ने रतन टाटा के निधन पर दुख जताया है। उन्होंने लिखा कि- रतन टाटा ने नैतिक नेतृत्व का उदाहरण पेश किया, हमेशा देश और लोगों के कल्याण को सबसे ऊपर रखा। उनकी दयालुता, विनम्रता और बदलाव लाने के जुनून को हमेशा याद रखा जाएगा. उनके परिवार और प्रियजनों के प्रति मेरी हार्दिक संवेदनाएं।

*योगी आदित्यनाथ ने जताया दुख*

भारत के प्रख्यात उद्योगपति, ‘पद्म विभूषण’ श्री रतन टाटा जी का निधन अत्यंत दुःखद है। वह भारतीय उद्योग जगत के महानायक थे  उनका जाना उद्योग जगत के लिए अपूरणीय क्षति है। उनका सम्पूर्ण जीवन देश के औद्योगिक और सामाजिक विकास को समर्पित था। वे सच्चे अर्थों में देश के रत्न थे।
अखिलेश यादव ने करहल विधानसभा के उपचुनाव के लिए पूर्व सांसद तेज प्रताप यादव को प्रत्याशी घोषित किया

डेस्क:– मैनपुरी की करहल विधानसभा सीट से अखिलेश यादव ने तेज प्रताप सिंह यादव को प्रत्याशी घोषित किया है। बता दें तेज प्रताप सिंह यादव ने अपना राजनीतिक करियर वर्ष 2004 में शुरू किया था। खास बात ये भी है कि तेज प्रताप का लालू प्रसाद यादव से खास रिश्ता भी है।

दरअसल, 2015 में लालू प्रसाद यादव की छोटी बेटी राजलक्ष्मी से उनका विवाह हुआ था। यह शादी खूब चर्चा में रही थी। इसमें पीएम नरेंद्र मोदी भी वर-वधू को आशीष देने पहुंचे थे। तेज प्रताप यादव मुलायम की परंपरागत सीट मैनपुरी से सांसद रहे हैं। वो मुलायम यादव के बड़े भाई रतन के पोते हैं।

*मैनपुरी से रहे सांसद*

36 वर्षीय तेज प्रताप यादव मैनपुरी सीट से 2014 में सांसद रह चुके हैं, उन्होंने 3.12 लाख वोटों से जीत हासिल की थी। जबकि इससे पहले वो 2011 में निर्विरोध ब्लॉक प्रमुख चुने जा चुके हैं।

तेज प्रताप सिंह यादव की प्रारंभिक शिक्षा दिल्ली पब्लिक स्कूल नोएडा में हुई है, जबकि एमिटी विवि से बीकॉम किया है। इसके अलावा यूनाइटेड किंगडम के लीड्स विवि से एमएससी (प्रबंधन) की उपाधि ली है। जबकि स्थानीय राजनीति में वो सक्रिय भूमिका निभा रहे हैं।

आइए जानते हैं कैसे उमर की किस्मत का सितारा चमका और अब कितनी बड़ी चुनौती उनके सामने है?

डेस्क:–  नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला जम्मू-कश्मीर के नए मुख्यमंत्री होंगे। लोकसभा चुनाव में हार के बाद उन्होंने राज्य की दो विधानसभा सीटों से चुनाव लड़ा और जीता भी। न तो उमर की जीत आसान रही है और न ही अब राज्य में मिलने वाली नई चुनौतियों से निपटना आसान होगा।

‘शांति बनाए रखिए, मैं फिर लौटूंगा’, यह वो लाइन है जो उमर अब्दुल्ला ने 10 साल पहले सोशल मीडिया X पर पोस्ट की थी। पोस्ट वायरल भी हो रही है और उनकी दमदार वापसी को बता रही है। वही उमर अब्दुल्ला जो अब जम्मू-कश्मीर में रिकॉर्ड बनाने जा रहे हैं। राज्य में अनुच्छेद 370 हटने के बाद वह पहले मुख्यमंत्री होंगे।विधानसभा चुनाव के नतीजे आ चुके हैं। जम्मू-कश्मीर में कांग्रेस और नेशनल कॉन्फ्रेंस गठबंधन की सरकार बनने जा रही है। नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला ने भी साफ कर दिया है कि उमर अब्दुल्ला ही जम्मू कश्मीर के अगले मुख्यमंत्री होंगे।

लोकसभा चुनाव में हार के बाद नेशनल कॉन्फ्रेंस के उपाध्यक्ष उमर अब्दुल्ला ने गांदरबल और बडगाम सीट पर चुनाव लड़ा और जीता भी। गांदरबल विधानसभा सीट पर पीडीपी के बशीर अहमद मीर को 10574 वोटों को मात दी। गंदेरबल अब्दुल्ला परिवार का गढ़ है.जीत के बाद उमर अब्दुल्ला ने कहा है, पिछले 5 सालों में नेशनल कॉन्फ्रेंस को खत्म करने की कोशिश की गई, लेकिन जो हमें खत्म करने आए थे मैदान में उनका कोई नामोनिशान नहीं रहा।

*अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी*

उमर के बयान से साफ है कि अब्दुल्ला परिवार की तीसरी पीढ़ी इतिहास रचने जा रही है. परिवार के राजनीतिक इतिहास की शुरुआत 70 के दशक में हुई । साल 1977 में पार्टी ने 47 सीटें हासिल करके दादा शेख अब्दुल्ला ने राज्य की कमान संभाली। 1982 में उनके निधन के बाद उनके बेटे और उमर के पिता फारूक अब्दुल्ला मुख्यमंत्री बने और लम्बी राजनीतिक पारी खेली। अब उमर अब्दुल्ला के हाथों में राज्य की कमान होगी। चुनावी हलफनामे के मुताबिक उमर के पास कुल 54.45 लाख रुपए की संपत्ति है. उनके पास मात्र 95,000 रुपए की नकद धनराशि है।

*प्रचंड बहुमत के साथ राजनीति में आगाज*

उमर की शुरुआती पढ़ाई श्रीनगर के बर्न हॉल स्कूल से हुई। इसके बाद हिमाचल प्रदेश के लॉरेंस स्कूल पहुंचे। हायर एजुकेशन के लिए मुंबई के सिडेनहैम कॉलेज गए और कॉमर्स में ग्रेजुएशन किया। उमर के राजनीतिक करियर का आगाज साल 1996 में हुआ, जब नेशनल कॉन्फ्रेंस राज्य में प्रचंड बहुमत के साथ लौटी। उन्होंने कहा था, पार्टी की जीत के बाद मैंने राजनीति को गंभीरता से लेना शुरू कर दिया. राजनीति में कदम रखने के 2 साल बाद ही दिल्ली का रास्ता का तय किया।

1998 में उन्हें पिता फारूक अब्दुल्ला ने लोकसभा का चुनाव लड़वाया। उमर ने चुनाव लड़ा भी और जीता भी. इस जीत के साथ 2001 में सबसे कम उम्र के विदेश मंत्री होने का रिकॉर्ड भी बनाया। हालांकि, उन्होंने मात्र 17 महीने बाद दिसम्बर 2002 में पद से इस्तीफा दे दिया।

इसी के साथ उन्हें बड़ी जिम्मेदारी मिली. साल 2002 में उन्हें नेशनल कॉन्फ्रेंस का अध्यक्ष बनाया गया। इसी साल विधानसभा चुनाव हुए और वो गांदरबल विधानसभा सीट से मैदान में उतरे। परिणाम निराशानजक रहे. उमर करीब 2 हजार वोटों से हार गए। बेटे की हार के बाद पिता फारूक ने हार की जिम्मेदारी ली। इस हार की कई वजह बताई गईं। आलोचकों ने यह भी कहा कि उमर अब्दुल्ला विदेश से पढ़ाई करके आए हैं और राज्य के लोग उन्हें बाहरी मानते हैं।

*राजनीति से दूरी बनाते-बनाते आखिर आ ही गए चुनावी अखाड़े में*

उमर राजनीति में नहीं आना चाहते थे. यह बात वो अपने इंटरव्यू में पहले ही कह चुके थे। पिता फारूक अब्दुल्ला ने भी इस पर मुहर लगाते हुए एक इंटरव्यू में कहा था कि वो बेटे को कभी भी राजनीति के अखाड़े में नहीं लाना चाहते थे। उन्होंने कहा, जब मैं राजनीति में आना चाहता था तो मेरे पिता ने भी इससे दूर रहने की सलाह दी थी। उनका कहना था कि अगर तुम इस नदी में कूदे तो कभी बाहर नहीं निकल पाओगे। मेरी पत्नी भी उमर के राजनीति में आने का विरोध करती रही है। एक बार जब मैंने उनसे उमर के राजनीति में आने की बात कही तो उनका कहना था ऐसा मेरी मौत के बाद भी संभव हो पाएगा।

2008 के जम्मू-कश्मीर विधान सभा चुनावों में नेशनल कॉन्फ्रेंस सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी. 2009 में उमर अब्दुल्ला को जम्मू-कश्मीर का मुख्यमंत्री नियुक्त किया गया। मुख्यमंत्री के रूप में उनका कार्यकाल बुनियादी ढांचे, शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा में सुधार के लिए जाना गया।

2015 में मुख्यमंत्री के रूप में अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद अब्दुल्ला ने जम्मू-कश्मीर की राजनीति में राज्य की आवाज बुलंद करते रहे। उन्होंने लगातार जम्मू-कश्मीर की अनुच्छेद 370 की बहाली की वकालत की, जिसे अगस्त 2019 में रद्द कर दिया गया था।

*कैसे चमका सितारा?*

राज्य में पीडीपी के कमजोर होने का फायदा उमर अब्दुला की पार्टी और गठबंधन को मिला. वहीं, इंजीनियर रशीद बड़ा फैक्टर नहीं साबित हुए. विश्लेषकों का कहना है कि लोकसभा में उनकी जीत की वजह तात्कालिक माहौल था । रशीद की अगुआई वाली पार्टी अवामी इत्तेहाद पार्टी और जमात-ए-इस्लामी के उम्मीदवार चुनाव में कोई खास असर नहीं दिखा सके. अवामी इत्तेहाद पार्टी (एआईपी) ने चुनाव 44 उम्मीदवार मैदान उतारे. उनके भाई और प्रवक्ता फिरदौस बाबा समेत कई प्रमुख कैंडिडेट असफल रहे। कई की तो जमानत भी जब्त हो गई. अफजल गुरु के भाई एजाज अहमद गुरु को सोपोर विधानसभा सीट पर हार का सामना करना पड़ा। वहीं, भाजपा की गुज्जर वोटर साधने के लिए बनाई गई रणनीति काम नहीं आई. इसका फायदा उमर की पार्टी और गठबंधन को मिला।

*अब सबसे बड़ी चुनौती*

मुख्यमंत्री बनने के बाद उमर अब्दुल्ला की राह आसान कतई नहीं होगी. जब तक जम्मू-कश्मीर केंद्र शासित प्रदेश बना रहेगा, उमर को केंद्रीय गृह मंत्रालय और उपराज्यपाल (LG ) से निपटना होगा. विधानसभा चुनावों से पहले उमर ने कहा था, जब तक जम्मू-कश्मीर का राज्य का दर्जा बहाल नहीं हो जाता, वह चुनाव नहीं लड़ेंगे.

उमर ने इंडियन एक्सप्रेस को दिए साक्षात्कार में कहा था, “मैं LG के प्रतीक्षा कक्ष के बाहर बैठकर उनसे यह नहीं कहने वाला हूं कि, ‘सर, कृपया फाइल पर दस्तखत कर दीजिए’

लव स्टोरी… होटल में मुलाकात से पत्नी से अलगाव तक
उमर अब्दुल्ला और उनकी पत्नी पायल नाथ से तलाक की खबरें कई बार सुर्खियां बन चुकी हैं. दोनों की लव स्टोरी की शुरुआत तब हुई जब दोनों दिल्ली के ओबेराय होटल में काम किया करते थे। पायल नाथ सिख फैमिली से थीं और उनके पिता मेजर रामनाथ सेना से रिटायर्ड रहे हैं. दोनों ने 1994 में लव मैरिज की. जोड़ी चर्चा में रहती थी क्योंकि ऐसा बहुत कम ही होता था कि उमर किसी कार्यक्रम में बिना पत्नी के पहुंचें।

दोनों ही शादी हुई और कश्मीर की राजनीति में व्यस्तता बढ़ने के कारण उमर का दिल्ली आना बहुत कम हो पाता था। शादी के बाद पायल बहुत कम समय तक कश्मीर में रहीं। धीरे-धीरे दोनों के बीच तल्खियां बढ़ने लगीं और 2011 में दोनों अलग हो गए. दोनों के दो बेटे हैं जाहिर और जमीर। दोनों पायल के साथ दिल्ली में रहते हैं।


आइए जानते है कि जलेबी कैसे भारत पहुंची और कैसे मिला यह नाम?हरियाणा में राहुल गांधी के बयान से चर्चा में आ गई

डेस्क : हरियाणा की राजनीति में जलेबी की चर्चा है. चुनाव प्रचार के दौरान कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने गोहाना की प्रसिद्ध जलेबियां खाईं। मंच से राहुल गांधी ने जलेबी के कारखाने लगाने, रोजगार देने और इसे देश-विदेश में निर्यात करने की बात कही। भाजपा ने इसे मुद्दा बनाया और राहुल गांधी की चुटकी ली। सोशल मीडिया पर जलेबी के मीम्स वायरल होने लगे. इसे खेतों में फसल की तरह उगते हुए दिखाया गया। सोशल मीडिया यूजर्स का कहना है कि जलेबियों के बीज तैयार हो गए हैं. अब खेतों में जलेबियों की खेती होगी।

भारत में जलेबी का सालों पुराना इतिहास है. इतिहास कहता है, जलेबी की उत्पत्ति पर्शिया (अब ईरान) में हुई। इसका कनेक्शन अरब से भी रहा है जहां यीस्ट से चीजें बनाए जाने का चलन रहा है। यहीं से यह यूरोप, जर्मनी और नॉर्थ अमेरिका तक फैलते हुए दुनियाभर के लोगों तक पहुंची. पर बड़ा सवाल है कि आखिर ये भारत कैसे पहुंची ।

*भारत कैसे पहुंची जलेबी?*

इतिहास भले ही इस बात पर मुहर लगाता है जलेबी पर्शिया (अब ईरान) से आई, लेकिन भारत में इसे राष्ट्रीय मिठाई का दर्जा दिया गया है. उत्तर भारत में इसे जलेबी, दक्षिण में जेलेबी और नॉर्थ ईस्ट में जिलापी कहा जाता है. ईरान में इसे जुलबिया के नाम से जाना जाता है, जिसे खासतौर पर रमजान के महीने में खाए जाने की परंपरा रही है. मिडिल ईस्ट के कई देशों में इसे बनाते समय शहद और गुलाब जल का इस्तेमाल किया जाता है।

यह भारत कैसे आई, अब आइए इसे समझ लेते हैं. पर्शिया की जुलबिया का उल्लेख 10वीं शताब्दी की शुरुआत में मिलता है. मुहम्मद बिन हसन अल-बगदादी की एक प्राचीन फ़ारसी रसोई की किताब ‘अल-तबीख’ में इस व्यंजन की विधि का जिक्र किया गया है। किताब कहती है, जलेबी रमज़ान और अन्य उत्सवों के दौरान पारंपरिक रूप से जनता के बीच बांटी जाने वाली मिठाई रही है। इस जलेबी का जिक्र इब्न सय्यर अल-वराक की 10वीं शताब्दी की अरबी पाक कला की किताब में भी मिलता है।

ज़ुल्बिया आज ईरान में लोकप्रिय है, लेकिन भारतीय जलेबी से अलग है, क्योंकि दोनों की बनावट में थोड़ा फर्क होता है। मिडिल ईस्ट के देशों में इसे बनाते समय शहद और गुलाब जल की चाशनी का इस्तेमाल किया जाता है, लेकिन भारत में साधारण चीनी की चाशनी में इसे डुबोया जाता है।

इतिहासकार बताते हैं कि मध्ययुगीन काल में फ़ारसी व्यापारियों, कारीगरों और मध्य-पूर्वी आक्रमणकारियों के जरिए जलेबी भारत पहुंची। इसकी बनाने की प्रक्रिया भारत तक इस तरह आई और यहां इसे तैयार करने का चलन शुरू हुआ । 15सदी के अंत भारत में मनाए जाने वाले उत्सवों, शादी समारोह और दूसरे कार्यक्रमों में जलेबी ने अपनी पैठ बना ली. इतना ही नहीं, मंदिरों में प्रसाद के रूप में भी यह वितरित की जाने लगी।

*कैसे नाम मिला जलेबी?*

अपनी किताब इंडियन फ़ूड: ए हिस्टोरिकल कम्पेनियन में, फूड हिस्टोरियन केटी आचार्या लिखते हैं – “हॉब्सन-जॉब्सन के अनुसार, जिलेबी शब्द ‘स्पष्ट रूप से अरबी ज़लाबिया या फ़ारसी ज़लिबिया का अपभ्रंश है’

भारत में जलेबी कई चीजों के साथ खाई जाती है. उत्तर भारत में इसे दही से खाया जाता है। मध्य भारत में इसे पोहे के साथ खाने की परंपरा रही है। गुजरात में इसे फाफड़ा और देश के कई हिस्सों में इसे दूध में भिगोकर खाने की परंपरा रही है। इसे रबड़ी के साथ भी खाया जाता है।
आईए जानते हैं सबसे ज्यादा नोबेल पुरस्कार पाने वाले अमेरिका ने दुनिया को क्या-क्या दिया?

डेस्क :–इस साल भी नोबेल पुरस्कारों के आगाज में अमेरिका का दबदबा कायम रहा। फिजियोलॉजी (मेडिसिन) का नोबेल पुरस्कार दो अमेरिकी वैज्ञानिकों को दिया गया है।मंगलवार को भौतिकी के नोबेल विनर्स में अमेरिका के जॉन जे. हॉपफील्ड और ब्रिटेन जेफ्री ई. हिंटन शामिल रहे। दुनियाभर में सबसे ज्यादा 413 नोबेल पुरस्कार जीतने का नाम अमेरिका के नाम है. जानिए यह रिकॉर्ड बनाने वाले अमेरिका ने दुनिया को क्या-क्या दिया।

साल 2024 के लिए फिजियोलॉजी (मेडिसिन) का नोबेल पुरस्कार दो अमेरिकी वैज्ञानिकों को दिया गया है।इनको माइक्रो आरएन (microRNA) की खोज के लिए यह सम्मान मिला है, जिससे चिकित्सा विज्ञान में काफी मदद मिलेगी। वहीं, भौतिकी का नोबेल पुरस्कार अमेरिका के जॉन जे. हॉपफील्ड और ब्रिटेन जेफ्री ई. हिंटन को दिया गया है।साल 1901 से अब तक 1002 लोगों और संगठनों को 622 बार नोबेल पुरस्कार दिए जा चुके हैं। चूंकि कुछ लोगों को एक से अधिक बार यह पुरस्कार मिला है। ऐसे में अब तक कुल 967 लोगों और 27 संगठनों को यह पुरस्कार मिल चुका है। इनमें अमेरिका के लोगों की संख्या सबसे ज्यादा करीब 40 फीसद है ।

आइए जान लेते हैं कि नोबेल पुरस्कार अमेरिकियों ने क्या ऐसी खोज और आविष्कार किए, जिनका इस्तेमाल दुनिया भर में किया जाने लगा और वह जिंदगी का अहम हिस्सा बन गया।

*सबसे पहले शांति के लिए अमेरिका को मिला था नोबेल*

सबसे पहले अमेरिकी थे राष्ट्रपति थियोडोर रूजवेल्ट जिनको साल 1906 में शांति का नोबेल पुरस्कार दिया गया था। रूस और जापान के बीच युद्ध खत्म करवाने में अहम भूमिका निभाने के लिए उनको इससे नवाजा गया था । विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार पाने वाले पहले अमेरिकी वैज्ञानिक थे अल्बर्ट अब्राहम माइकलसन, जिन्हें प्रकाश की गति (स्पीड ऑफ लाइट) मापने के उनके कार्यों के लिए साल 1907 में सम्मानित किया गया था। खासकर उनका माइकलसन मोर्ले एक्सपेरिमेंट विज्ञान को बड़ी देन है। फिजिक्स के छात्रों और शोधकर्ताओं के लिए यह काफी अहम साबित हुआ।अमेरिकी वैज्ञानिकों की खोज ने अपनी खास जगह बनाई और उसका सीधा असर आम लोगों की समस्या के समाधान के रूप में देखा गया। यही वजह है कि नोबेल पुरस्कारों की दौड़ में अमेरिका सबसे आगे रहा।

*नोबेल विजेताओं के शोध से खोजा जा सकता कैंसर का इलाज*

इस साल मेडिसिन का नोबेल पाने वाले चिकित्सा विज्ञानी विक्टर एंब्रोस और गैरी रुवकुन की खोज भी काफी अहम है  इनकी खोज में बताया गया है कि जेनेटिक मैटेरियल आरएनए का छोटा टुकड़ा माइक्रो आरएनए कोशिका (सेल) के स्तर पर जीन की कार्यप्रणाली को बदलने में मदद करता है। इसकी जीन की गतिविधि को कंट्रोल करने और जीवों के डेवलपमेंट में महत्वपूर्ण भूमिका होती है। अब उनके शोध से चिकित्सा जगत को यह समझने में मदद मिली कि आखिर शरीर में कोशिकाएं कैसे काम करती हैं. इस शोध के साथ ही कैंसर जैसी असाध्य बीमारी का इलाज खोजने में मदद की उम्मीद भी जगी है।

*दर्द से राहत दिलाने का उपाय खोजा*

साल 2021 में भी चिकित्सा विज्ञान का नोबेल पुरस्कार अमेरिकी चिकित्सा विज्ञानी डेविड जूलियस को संयुक्त रूप से दिया गया था। उन्होंने जीवों को दर्द से राहत दिलाने के उपाय खोज कर नई राह दिखाई है। जूलियस ने अपने प्रयोगों से बताया कि शरीर किस तरह से गर्मी, सर्दी और केमिकल के प्रभावों को महसूस करता है। इससे दर्द का मूलभूत सिद्धांत पता चला और दर्द निवारण की दिशा में आगे अहम काम हो रहा है।

*हेपेटाइटिस-सी वायरस की खोज*

चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में अमेरिका ने साल 1989 में एक अहम खोज दी. यह खोज थी हेपेटाइटिस सी वायरस की. अमेरिकी चिकित्सा विज्ञानी हार्वे जेम्स अल्टर ने इस वायरस की खोज की जो हेपेटाइटिस बी से भी खतरनाक हो सकता है। हेपेटाइटिस सी वायरस ज्यादातर क्रोनिक बीमारी का कारण होता है और करीब 20 फीसद क्रोनिक वाहक लिवर सिरोसिस अथवा लिवर कैंसर का कारण बन जाते हैं। ऐसे में लिवर प्रत्यारोपण के अलावा कोई और उपाय नहीं बचता है। हार्वे जेम्स अल्टर को इस खोज के लिए साल 2020 के नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था. इसी खोज के लिए चार्ल्स एम राइस को संयुक्त रूप से अल्टर के साथ नोबेल पुरस्कार से नवाजा गया था।

*अल्बर्ट आइंस्टीन के सिद्धांत पर दुनिया पढ़ रही फिजिक्स*

जर्मनी में जन्मे यहूदी अमेरिकी भौतिक विज्ञानी अल्बर्ट आइंस्टीन के बारे में हर कोई जानता है, जिन्होंने भौतिक विज्ञान (फिजिक्स) को एक से बढ़कर एक सिद्धांत दिए. इनके बल पर दुनिया लगातार आगे बढ़ रही है। इनमें एवोगैड्रो नंबर ( एक मोल में इकाइयों की संख्या 6.022140857×10 23 के बराबर), प्रकाश का क्वांटम सिद्धांत (Quantum Theory of Light), सापेक्षता का सामान्य सिद्धांत (Theory of Relativity), सापेक्षता का विशेष सिद्धांत (Special Theory of Relativity), प्रकाश-विद्युत प्रभाव, तरंग-कण द्वैत, द्रव्यमान और ऊर्जा के बीच संबंध ( E = mc²), ब्राउनियन गति, बोस-आइंस्टीन कंडेनसेट आदि शामिल हैं. साल 1921 में उनको भौतिकी का नोबेल पुरस्कार दिया गया था।

*एडिशन ने रोशनी के लिए बल्ब दिया*

जब दुनिया को अमेरिकी वैज्ञानिकों की देन की बात करते हैं तो थॉमस अल्वा एडिशन को भला कैसे भूल सकते हैं. दुनिया को अंधेरे से निकालकर बिजली के बल्ब की रोशनी में लाने वाले थॉमस अल्वा एडिशन आज के समय से कहीं आगे थे। उन्होंने न केवल बल्ब का आविष्कार किया, बल्कि फोनोग्राफ भी उन्हीं की देन है. मोशन पिक्चर कैमरा का आविष्कार कर उन्होंने दुनिया को अपने समय का एक अजूबा दिया था. हालांकि ये सारे आविष्कार नोबेल पुरस्कारों की शुरुआत से काफी पहले के हैं. एडिशन के नाम 1093 पेटेंट का वर्ल्ड रिकॉर्ड भी है।

*राइट ब्रदर्स ने दिखाई उड़ान की राह*

भले ही राइट ब्रदर्स को कभी नोबेल पुरस्कार नहीं मिला पर दुनिया को उड़ान भरने की राह दिखाने में इनका बड़ा योगदान है. 17 दिसंबर 1903 को इन दोनों भाइयों विल्बर और ऑरविल राइट ने पहली बार किसी प्लेन को उड़ाया था. ये जमीन से 120 फुट ऊपर 12 सेकंड तक उड़ान भरने में कामयाब हुए तो पूरी मानवता को जैसे पंख मिल गए. इनके प्लेन का नाम भी दोनों भाइयों के नाम पर राइट फ्लायर रखा गया था।

*हाइड्रोजन बम की दिखाई राह*

अमेरिका ने अगर दुनिया को चिकित्सा की राह दिखाई, ऊंची उड़ान का सपना दिया और बिजली की रोशनी दी तो कुछ विनाशक हथियार भी दिए हैं। इसे यूं भी कह सकते हैं कि अपनी रक्षा के लिए बनाए हैं. मानवता की सहायता के लिए की गईं खोजों के लिए नोबेल मिला तो हाइड्रोजन बम ने दुनिया के सामने उसे शक्तिशाली बनाया।

आइंस्टीन की ही तरह हिटलर से तंग एक और यहूदी वैज्ञानिक साल 1035 में हंगरी से भागकर अमेरिका पहुंचा और वहां का नागरिक बना. नाम था एडवर्ड टेलर. दूसरे विश्वयुद्ध के दौरान जब अमेरिका ने परमाणु बनाने की कोशिश शुरू की तो टीम में टेलर भी थी। दूसरे वैज्ञानिक जहां परमाणु विखंडन (न्यूक्लियर फ्यूजन) के जरिए हथियार बनाने की कोशिश कर रहे थे, वहीं टेलर ने इसके संलयन पर ध्यान दिया। द्वितीय विश्व युद्ध से पहले तो हाइड्रोजन बम नहीं बन पाया, लेकिन परमाणु बम के सिद्धांत में टेलर का योगदान काफी अहम था. दूसरे वैज्ञानिकों के साथ उनके काम ने परमाणु बम ही नहीं, बाद में और भी विनाशकारी हाइड्रोजन बम के लिए भी आधार तैयार किया. इसीलिए उनको हाइड्रोजन बम का जनक कहा जाता है।
आज 92वां भारतीय वायु सेना दिवस मना रहा देश, जानिए कब हुई थी इसकी स्थापना …

डेस्क :– 8 अक्टूबर 2024 यानी आज भारत अपना 92वां भारतीय वायु सेना दिवस (Air Force Day) मना रहा है। राष्ट्र अपने वायु योद्धाओं के असाधारण समर्पण और बलिदान का सम्मान करने के लिए एकजुट है। यह महत्वपूर्ण दिन भारतीय वायु सेना (IAF) की अपनी साधारण शुरुआत से लेकर दुनिया की सबसे दुर्जेय हवाई सेनाओं में से एक बनने तक की उल्लेखनीय यात्रा की याद दिलाता है।

*स्थापना*

भारतीय वायु सेना दिवस  की स्थापना 8 अक्टूबर, 1932 को हुई थी, जो शुरुआत में ब्रिटिश प्रशासन के तहत एक सहायक वायु सेना के रूप में कार्यरत थी। बल ने 1 अप्रैल, 1933 को अपनी पहली आधिकारिक उड़ान के साथ परिचालन की शुरुआत की थी। सीमित संसाधनों और कर्मियों के साथ शुरुआत करने के बावजूद, भारतीय वायुसेना नौ दशकों में महत्वपूर्ण रूप से विकसित हुई है।

*विकास और वृद्धि*

अपनी मामूली शुरुआत से, भारतीय वायुसेना एक विश्व स्तरीय वायु सेना में तब्दील हो गई है, जो अत्याधुनिक तकनीक और उच्च प्रशिक्षित कर्मियों से सुसज्जित है। इसकी यात्रा में शामिल हैं:

द्वितीय विश्व युद्ध में महत्वपूर्ण भागीदारी

1955 और 1971 के बीच जेट विमान के अधिग्रहण के साथ महत्वपूर्ण प्रगति

अपने बेड़े और क्षमताओं का निरंतर आधुनिकीकरण

नवरात्रि व्रत में बनाएं स्वादिष्ट फलाहारी अप्पे, इस तरीके से बनेंगे एकदम परफेक्ट

डेस्क :– फलाहारी अप्पे बेहद स्वादिष्ट फूड डिश है जिसे व्रत के दौरान खाया जा सकता है। पारंपरिक अप्पों को भी फलाहारी तरीके से बनाया जा सकता है। अप्पे पेट के लिए हल्के लेकिन एनर्जी बढ़ाने वाला स्नैक्स है जिसे बहुत आसानी से बनाया जा सकता है। रूटीन फलाहार की जगह अप्पे मुंह में अलग तरह का ज़ायका घोल देते हैं।

फलाहारी अप्पे बनाने के लिए साबूदाना, सिंघाड़ा आटा, आलू समेत अन्य सामग्रियों का उपयोग किया जाता है। ये अप्पे बेहद स्वादिष्ट लगते हैं। जानते हैं फलाहारी अप्पे बनाने की विधि।

फलाहारी अप्पे के लिए सामग्री
साबूदाना - 1 कप
आलू - 2 मध्यम आकार के (उबले हुए और मसले हुए)
सिंघाड़ा का आटा - 1/2 कप
हरी मिर्च - 2 (बारीक कटी हुई)
जीरा - 1/2 चम्मच
धनिया पाउडर - 1/4 चम्मच
लाल मिर्च पाउडर - 1/4 चम्मच
नमक - स्वादानुसार
तेल - तलने के लिए

*फलाहारी अप्पे बनाने की विधि*

फलाहारी अप्पे एक स्वादिष्ट फलाहार रेसिपी है जिसे सरलता से तैयार किया जा सकता है। इन्हें बनाने के लिए सबसे पहले साबूदाना को साबूदाना को 4-5 घंटे के लिए पानी में भिगो दें। इसके बाद बैटर तैयार करने की प्रक्रिया शुरू करें।

इसके लिए एक बड़े बर्तन में भिगोया हुआ साबूदाना, मसला हुआ आलू, सिंघाड़ा का आटा, हरी मिर्च, जीरा, धनिया पाउडर, लाल मिर्च पाउडर और नमक डालकर अच्छी तरह मिला लें।

बैटर को थोड़ा गाढ़ा बनाएं। अगर बैटर बहुत पतला है तो थोड़ा सा और सिंघाड़ा का आटा डालें। बैटर तैयार हो जाने के बाद अप्पे के पैन को गरम करें और प्रत्येक छेद में थोड़ा सा तेल डालें। अब बैटर को चम्मच से छेदों में डालें।

अब अप्पे को पकने के लिए रख दें। अप्पे तब तक पकाना हैं जब तक कि दोनों ओर से उनका रंग सुनहरा भूरा न हो जाए। इसके बाद पॉट से अप्पे निकाल लें। टेस्टी फलाहारी अप्पे बनकर तैयार हैं। इन्हें नारियल की चटनी या हरी चटनी के साथ सर्व करें।

आप अगर ऐसा नाश्ता खाकर बोरियत महसूस करने लगे हैं तो अब पालक ढोकला को ट्राई करें,ये एक ईज़ी रेसिपी है जो आसानी से बन जाती है।

डेस्क :– पालक ढोकला पोषण से भरपूर स्नैक्स है जिसे ब्रेकफास्ट में भी खूब पसंद किया जाता है। बच्चों को ढोकला खूब पसंद आता है। ये एक गुजराती डिश है जिसे कई तरीकों से बनाया जाता है। पालक ढोकला भी काफी लोकप्रिय है और इसकी वजह इसका टेस्टी होने के साथ हेल्दी होना भी है।

आप अगर ऐसा नाश्ता खाकर बोरियत महसूस करने लगे हैं तो अब पालक ढोकला को ट्राई करें। इसका स्वाद सभी को जरूर पसंद आएगा। ये एक ईज़ी रेसिपी है जो आसानी से बन जाती है।

*पालक ढोकला के लिए सामग्री*

पालक - 1/2 किलो (धुला हुआ और बारीक कटा हुआ)
बेसन - 1 कप
दही - 1/2 कप
फ्रूट सॉल्ट - 1/2 चम्मच
हरी मिर्च - 2 (बारीक कटी हुई)
जीरा - 1/2 चम्मच
हींग - एक चुटकी
धनिया पाउडर - 1/4 चम्मच
हल्दी पाउडर - 1/4 चम्मच
लाल मिर्च पाउडर - 1/4 चम्मच
नमक - स्वादानुसार
तेल - तलने के लिए
पानी - आवश्यकतानुसार

*बनाने की विधि*

पालक ढोकला आप घर में आसानी से तैयार कर सकते हैं। इसका स्वाद घर वालों को इसकी बार-बार डिमांड करने पर मजबूर करेगा। पालक ढोकला बनाने के लिए सबसे पहले पालक की प्यूरी तैयार करें।

सबसे पहले पालक को अच्छी तरह से धोकर साफ करें। फिर पालक के डंठल तोड़कर पत्ते अलग करें। अब पत्तों को ब्लेंडर में डालें। इसमें हरी मिर्च, जीरा, हींग, धनिया पाउडर, हल्दी पाउडर, लाल मिर्च पाउडर और थोड़ा सा पानी डालकर पीस लें।

तैयार प्यूरी को एक बर्तन में निकाल लें। इसके बाद एक पालक प्यूरी में बेसन, दही डालकर अच्छी तरह मिला लें। बैटर को थोड़ा गाढ़ा बनाएं। अगर बैटर बहुत पतला है तो थोड़ा सा और बेसन डालें। बैटर में फ्रूट सॉल्ट डालकर अच्छी तरह मिला लें।

अब ढोकला बनाना शुरू करें। इसके लिए एक ढोकले के पैन को गरम करें और तेल लगाएं। अब बैटर को पैन में डालें। ढोकले को ढक्कन लगाकर 15-20 मिनट तक धीमी आंच पर पकाएं। ढोकले को ठंडा होने के बाद छोटे-छोटे टुकड़ों में काट लें और गरमागरम नारियल की चटनी या हरी चटनी के साथ सर्व करें।

घूस लेते रंगे हाथों पकड़ा गया जिला मलेरिया अधिकारी (डीएमओ) रमेश चंद्र यादव

डेस्क :– उन्नाव जिले में चिकित्सा अवकाश स्वीकृत करने के बदले विभागीय कर्मचारी से 10 हजार रुपये की रिश्वत लेने में विजिलेंस टीम ने जिला मलेरिया अधिकारी को पकड़ लिया। टीम उन्हें अपने साथ लखनऊ लेकर चली गई है। जिले में तैनात मलेरिया अधिकारी रमेश चंद्र यादव ने विभाग में फाइलेरिया, नियंत्रण इकाई में तैनात तैनात बायोलोजिस्ट केके गुप्ता से उनका चिकित्सा अवकाश स्वीकृत करने के बदले 10 हजार रुपये रिश्वत की मांगी थी।

परेशान होकर बायोलोजिस्ट ने सर्तकता अधिष्ठान के वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक अभिसूचना से लिखित शिकायत की थी। शिकायत पर पहुंची 12 सदस्यीय विजिलेंस टीम ने सोमवार दोपहर उन्हें घूस लेते रंगे हाथ गिरफ्तार कर लिया। जब तक लोग कुछ समझ पाते दो वाहनों से आई टीम उन्हें कार में डालकर सीधे लखनऊ लेकर चली गई। सीएमओ डॉ. सत्यप्रकाश ने बताया कि विजिलेंस टीम ने जिला मलेरिया अधिकारी को घूस लेने के आरोप में गिरफ्तार किया है। अभी उनके पास कोई लिखित सूचना नहीं आई है।

शिकायतकर्ता बायोलोजिस्ट केके गुप्ता ने बताया कि उन्हें चोट लग गई थी। इस पर 24 जून से 23 जुलाई तक चिकित्सा अवकाश लिया था। इसके बाद भी तबीयत में सुधार न होने पर 11 अगस्त तक कार्यालय नहीं पहुंच सका। फिर 12 अगस्त को ज्वाइन किया, लेकिन जिला मलेरिया अधिकारी ने न तो पूर्व में सीएमओ की ओर से स्वीकृत 30 दिन के अवकाश का वेतन जारी करने का स्वीकृति पत्र अग्रसारित किया और न ही बाद के 20 दिन का। पीड़ित के मुताबिक अगस्त माह में बाकी बचे दिन का वेतन जारी करने की संस्तुति के भी अलग से 10 हजार रुपये की मांग कर रहा था।

पीड़ित ने दिल्ली के अधिकारियों से भी जिला मलेरिया अधिकारी की शिकायत की थी। इसके बाद सक्रिय हुई विजिलेंस टीम ने शिकायत मिलते ही छुट्टी के दिन रविवार को जिला मलेरिया अधिकारी का कार्यालय देखा और आने-जाने का रास्ता भी। इसके बाद सोमवार दोपहर 12:30 बजे जिला मलेरिया अधिकारी अपने कार्यालय पहुंचे और अभी रुपये हाथ में लिए ही थे कि तभी टीम वहां हुंची और उसे पकड़ लिया।मुक्ति दिला सका।

घूस लेते रंगे हाथों पकड़ा गया जिला मलेरिया अधिकारी (डीएमओ) रमेश चंद्र यादव काफी चर्चित रहा है। कर्मचारियों के अनुसार अधिकारी ने हर चीज का रेट तय कर रखा था। बिना बताए अनुपस्थित रहने पर एक दिन का एक हजार रुपये तय था और दफ्तर पहुंचने में देर होने पर पांच सौ रुपये रेट तय था। कर्मचारी बताते हैं कि विरोध करने पर रिपोर्ट लगाने की धमकी देते थे। बायोलॉजिस्ट केके गुप्ता ने बताया कि उन्हें अपने ही अधिकारी की शिकायत करने और उन पर हुई कार्रवाई का कोई मलाल नहीं है।

बताया कि कार्यालय का हर कर्मचारी अपने जिला स्तरीय अधिकारी की कार्यशैली और उनकी तानाशाही से परेशान था, लेकिन कोई मुंह खोलने की हिम्मत नहीं जुटा पाया। केके ने बताया कि वह नहीं चाहते थे कि किसी से शिकायत करें, लेकिन जब उनका चिकित्सा अवकाश और वेतन नही जारी किया तो यह फैसला लिया। वह कहते हैं कि न्याय की लड़ाई में किसी न किसी को तो आगे आना ही था, उन्हें संतोष है कि साथी कर्मचारियों को तानाशाही से मुक्ति दिला सका।