पारंपरिक हुनर संग नवाचार बन रहा रोजगार सृजन का आधार, पुरानी प्रतिभाओं को मिले नए तेवर-कलेवर
नयी दिल्ली : भारत हाल ही में विश्व का सबसे अधिक जनसंख्या वाला देश बन गया है। अभी तक जनसंख्या के मामले में चीन पहले स्थान पर था। बढ़ती जनसंख्या को लेकर प्राय: चिंता के स्वर उठते हैं, लेकिन नवाचारों व योजनाओं से देश में सशक्त श्रम बल को कुशल बनाकर रोजगार सृजन के साथ आर्थिकी भी समृद्ध की जा सकती है।
विश्व जनसंख्या दिवस पर पढ़िए ऐसी ही जो प्रेरक कहानियां:
पुराने हुनर को मिले नए तेवर-कलेवर
जमुई: दशकों पुराने हुनर को नया तेवर और कलेवर देकर बिहार-झारखंड के कालीन कारीगरों ने पिछले डेढ़ वर्ष में अपनी स्थिति सशक्त करने के साथ व्यापार को भी गति दी है। बिहार में जमुई व इसके पड़ोस में झारखंड के गिरीडीह जिले में कारीगर बेहतरीन कालीन निर्माण में जुटे हैं।
इसके कद्रदान 40 देशों में हैं। कारीगरों ने यह मुकाम यूं ही नहीं पाया है। हाल ही में इन्हें राजस्थान की एक कंपनी का सहयोग मिला। जिसके बाद नई डिजाइनों पर काम किया गया। काम छोड़कर दूसरे प्रदेशों में मजदूरी कर रहे हथकरघा के हुनरमंद को खोजकर घर में ही काम का भसोसा दिया गया। पारंपरिक ऊनी मैटेरियल में सिल्क और काटन का मिश्रण किया गया।
इतनी मेहनत की तो फल मिलना लाजिमी था। विदेशी बाजार में विदेशी कंपनियों के मुकाबले अब बिहार-झारखंड की ये कालीनें भारी पड़ रही हैं।
सुरेश पंडित बताते हैं कि पहले इस क्षेत्र में बुनकर खुशहाल थे। बड़ी मशीनों पर काम होने लगा तो छोटे बुनकर दूसरे राज्यों में मजदूरी करने लगे। कई कोरोना में लाकडाउन में काम छोड़ने को मजबूर हो गए। ऐसे में राजस्थान की एक कंपनी ने सहयोग किया। ऊन, रेशम, काटन आदि के धागे उपलब्ध कराने के साथ ही कारीगरों को प्रशिक्षण दिया। कालीनों की बिक्री का भरोसा भी दिया। काम शुरू हुआ।
कंप्यूटर पर बनी डिजाइनों को कारीगर हू-ब-हू ताने-बाने पर कसने लगे। गुणवत्ता व डिजाइनिंग का साथ मिला। कंपनी कालीनों को फिनिशंग के लिए भदोही भेजने लगी। वहां से जयपुर व मुंबई के रास्ते कालीन विदेश जाने लगीं। रूस, अमेरिका, ब्रिटेन, इटली, जर्मनी जैसे ठंडे देशों में लोग फर्श-दीवारों पर इन कालीनों को लगाकर घर गर्म रखते हैं।
घर में ही हो रही कमाई
अभी लगभग 300 कारीगर यह काम कर रहे हैं। दूसरे राज्य में चार-पांच हजार रुपये प्रतिमाह में काम करने वाले लोगों को घर में ही 12 से 20 हजार रुपये महीने की कमाई होने लगी।
सुक्खू मरांडी कारीगरी छोड़कर दिल्ली में लेमन टी बेच रहे थे। अब घर लौट आए हैं। सुरेश पंडित बताते हैं कि कालीन बुनाई से अमूमन 500 से 700 रुपये प्रतिदिन की कमाई हो जाती है। जयपुर स्थित कंपनी के प्रबंधक राम सिंह सैनी कहते हैं कि कारीगरों की मेहनत और कालीनों की गुणवत्ता विदेशी बाजार में छा रही है।
बारूद की दुर्गंध नहीं, अब यहां बांस की सुगंध
धनबाद : झारखंड में धनबाद का टुंडी क्षेत्र। एक समय यहां नक्सलियों के खौफ से लोग थर्राते थे। बम और गोलियों की आवाज गूंजती थी। वक्त बदला, लोग जागरूक हुए तो विकास की बयार बहने लगी है। यहीं है पूरनडीह गांव।
तकनीकी नवोन्मेष करने वाले आइआइटी आइएसएम धनबाद ने यहां गुरु की भूमिका निभानी आरंभ की है। इससे ग्रामीणों को रोजगार मिल रहा है। यहां के परिवार बांस की कृतियां बनाते हैं। उत्पाद आनलाइन बेचते हैं। इससे इनकी आमदनी बढ़ी है। पहले ये डलिया आदि बनाते थे। बदलाव की बयार के साथ इन्होंने बांस से लैंपशेड, पेन स्टैंड आदि वस्तुएं बनानी शुरू कीं।
पहले हर माह बमुश्किल दो-तीन हजार आय होती थी, अब दस हजार रुपये से अधिक हो जाती है।
आइआइटी आइएसएम के अटल कम्युनिटी इनोवेशन सेंटर से गांववालों ने तकनीकी प्रशिक्षण लिया। सेंटर का मकसद यही था कि गांव के लोग बांस शिल्प में आगे बढ़ें, नवाचार करें। अपनी आमदनी बढ़ाएं। सजावटी सामान बनाने से आय बढ़ेगी, सो इन ग्रामीणों को बांस शिल्प के पेशेवरों से प्रशिक्षण दिलाया। बांस से बने उत्पादन राज्य के बाहर भी भेजे जा रहे हैं। अमेजन और फ्लिपकार्ट जैसे आनलाइन प्लेटफार्म पर प्रशिक्षण के बाद इनके उत्पादों को लिस्टिंग करा दी गई है।
दुनिया बदल गई
बांस से टोकरी बनाने वाली ग्रामीण सुगिया देवी, झानो देवी, अनीता, मंजू, गोविंद और अर्जुन कहते हैं कि पहले बांस से टोकरी बनाकर रोज 50 से 100 रुपये तक कमाई हो पाती थी। इसी बीच अटल कम्युनिटी इनोवेशन सेंटर की सीईओ आकांक्षा दीदी ने हमें निश्शुल्क प्रशिक्षण दिलाया। अब अच्छी आमदनी हो रही।
Jul 12 2023, 14:35