अब कुम्हारों की चाक से नहीं चल पा रही रोजी, दूसरे रोजगार की तलाश, मिट्टी के खिलौने और बर्तन का घटा व्यापार
रायबरेली- मिट्टी के खिलौने-बर्तन लगभग गायब होते जा रहे है। अब चाक से रोजी-रोटी नही चल पा रही है।कुम्हार कहते हैं कि चाक के सहारे परिवार का गुजारा करना मुश्किल है। अब तो दीये और कुल्हड़ ही बिक रहे हैं। बाकी बर्तन और खिलौनों की अब मांग नहीं रही तो जीवन यापन करना कठिन हो गया है।
मिट्टी के बर्तनों का चलन खत्म
कभी मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता था। लेकिन आज इनका प्रचलन बहुत कम हो गया है। एक वक्त था जब हाट मेला में बच्चों को मिट्टी के खिलौने ही मिलते थे। उन मिट्टी के खिलौनों से ही बच्चों को बहलाया जाता था। घरों में मटकों समेत तमाम बर्तन भी मिट्टी के ही प्रयोग किए जाते रहे हैं। मगर मार्डन होते जमाने में अब मिट्टी के बर्तन और खिलौने गायब होते जा रहे हैं। आधुनिकता ने मिट्टी के खिलौने तो एकदम से गायब ही कर दिए हैं और बर्तन भी अब नहीं प्रयोग हो रहे हैं। दीपावली पर मिट्टी के दीए और कुछ खास पर्व पर एक-दो मिट्टी की वस्तुएं बिकती दिखती हैं बस। ऐसे में कुम्हार लाचार और निराश हैं।
कुम्हार परिवार के युवा जुड़े दूसरी रोजगार से
ज्यादा नहीं, करीब एक दशक पहले तक भी धार्मिक व अन्य कार्यक्रमों में भी मिट्टी के बर्तनों का प्रयोग प्रमुखता से किया जाता था, लेकिन आज इनका प्रचलन बहुत कम हो गया है। इससे बहुतायत कुम्हारों का रोजगार समाप्त हो गया। कुम्हारी कला के माहिर कुम्हारों की मिट्टी के बर्तन बनाने की कला धीरे धीरे फीकी पड़ती गई और आज बहुत कम लोग इस कला को जीवित रखे हैं। अब अधिक उम्र वाले ही चाक और आवां से जुड़े हैं। इनके परिवार के युवक इस पुश्तैनी व्यवसाय से खुद को अलग रख रहे हैं। वह रोजी रोटी के लिए अन्य व्यवसाय में लगे हैं।
चाक के सहारे जीवन यापन नहीं रहा संभव
कुम्हारी से जुड़े लोग कहते हैं कि चाक के सहारे परिवार का गुजारा करना अब बहुत मुश्किल हो गया है। अब तो दीये और कुल्हड़ ही बिक रहे हैं। बाकी बर्तन और खिलौनों की अब मांग नहीं रही तो जीवन यापन करना कठिन हो गया है। आधुनिकता के दौर में मिट्टी के बर्तन की मांग कम हो ही गई है। सरकार ने कहा था कि कुम्हारों को मिट्टी के लिए पट्टे पर जमीन दी जाएगी, लेकिन आज तक किसी को भी जमीन नहीं मिली। हम लोगों को मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए बाहर से मिट्टी लानी पड़ती है, जो 2500 रुपये प्रति ट्राली होती है। ऊपर से पुलिस भी अवैध खनन के नाम पर सुविधा शुल्क चाहती है। आज मिट्टी के सामान महज कुछ कार्यक्रम तक ही सीमित हो गए हैं।
पहले से घटी है मिट्टी के दीपकों की बिक्री
फैशन की दौड़ में मोमबत्तियां व झालरों से घरों को सजाया जा रहा है। मिट्टी के दीप की बिक्री कम होने से कामगारों को परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है। शास्त्रों में मिट्टी के दीप जलाकर दीपावली के दिन घरों को सजाने के लिए लिखा गया है। इस फैशन के दौर में झालर और मोमबत्तियां का प्रचलन बढ़ गया है। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कामगारों की बड़ी मुश्किलें फैशन के दौर में ग्रामीण मिट्टी के दीप को छोड़कर बिजली की झालर व मोमबत्तियां के सहारे घरों को सजा रहे हैं। मिट्टी के बर्तन बनाने वाले कामगारों के जीविका पर ग्रहण लगता नजर आ रहा है। प्रजापति समाज के लोग मिट्टी के बर्तन बनाकर पूरे वर्ष परिवार की जीविका चलाते थे। आज के परवेश में लोग शहरों में पलायन करके परिवार चलाने को मजबूर है। दौलतपुर,भटपुरवा,उडवा,कूड, बरगदहा,ककोरन आदि गांवो में सैकड़ो की संख्या में इस समाज के लोग दीपावली के 15 दिन पहले से दीपक बनाते थे। गांव के ग्रामीण खरीद कर दीपावली में मिट्टी के दीप जलाकर घरों को जगमग करते थे। इन परिवारों को मिट्टी के दीप बनाकर घर-घर बेेचते थे। जिससे अच्छी आमदनी हो जाती थी। उसी से उनका परिवार चलता था। दौलतपुर निवासी छिटई, शिव भजन,विजय शंकर, अमरचंद,दिनेश कुमार, जमुना,देशराज ने बताया कि मोमबत्तियां के जमाने में मिट्टी के दीपों की संख्या कम हो गई है। जिससे परिवार चलाना मुश्किल हो रहा है।
अब भी मिट्टी के दीपो से ही होता है शगुन
दीपावली पर्व जैसे जैसे नजदीक आ रही है कुम्हारी-कला का व्यवसाय भी बढ़ रहा है। वर्तमान समय में दीपों को लेकर लोगों में बदलाव देखने को मिल रहा है। बदलते माहौल में दीपावली त्योहार पर मिट्टी के दीपों की मांग बढ़ गई है। कुम्हारों के चाक भी रफ्तार पकड़ चुके हैं। रात-दिन मिट्टी के दीप और कलश बनाए जा रहे हैं। लालगंज क्षेत्र के पहाड़ी पुर गांव निवासी भोला प्रजापति बताते हैं कि पिछले वर्ष कुम्हारी कला योजना के तहत इलेक्ट्रॉनिक चाक मिलना था, लेकिन अभी तक नहीं मिला है। उन्होंने बताया कि अगर इलेक्ट्रॉनिक चाक मिल जाए तो कार्य भी करना आसान हो जाएगा। पिछले वर्ष भोला को उम्मीद था कि चाक इलेक्ट्रॉनिक मिल जायेगा तो उनके लिए राहत की सांस लेने वाला कार्य साबित हो जायेगा। भोला कुम्हार कहते हैं कि हाथ वाले चाक का महत्व अभी कम नहीं हुआ है। कुम्हारी कला से जुड़े छह परिवारों के सदस्य इस वक्त रात-दिन मिट्टी के दीप बनाने में लगे हैं। उन्होंने बताया कि लगभग 10 वर्ष पूर्व कुम्हारी कला के लिए जमीन मिट्टी के लिए आवंटित हुआ था लेकिन अभी तक राजस्व विभाग ने जमीन की पैमाइश कर उन्हें नहीं दिया है जिसके कारण मिट्टी मिलना भारी कठिनाई झेलने को पड़ रहा है। निराला नगर निवासी मनोज कुमार प्रजापति का कहना है कि दीप बनाने की मिट्टी ट्रैक्टर ट्रालियों से मंगाई जाती है। प्रति ट्रॉली 1000 से 1500 रुपए का खर्च आता है। सुबह से शाम तक में एक हजार दीप बना लेते हैं। इसके अलावा मिट्टी के कलश भी दीपावली के दिन पूजा-पाठ में काम आता है। इसकी भी डिमांड ज्यादा है। इसे भी बनाने में लगे हैं। धांधू प्रजापति का कहना है कि साल में यही मौका है जब काम बढ़ जाता है। दीपावली के बाद उनकी कला सिर्फ चाय और लस्सी के कुल्हड़ बनाने के काम आती है। दीपों, कलशों की इतनी मांग नहीं होती है। इलेक्ट्रॉनिक झालर और दूसरे सजावटी सामान के बाजार में आने के बावत पूछे जाने पर कहते हैं कि दीपावली का त्योहार बगैर मिट्टी के दीपों के हो ही नहीं सकता। इसका अपना महत्व है। इसलिए इसकी डिमांड कभी कम नहीं होती।
Nov 11 2023, 20:07